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*ओ३म् वि मे॒ कर्णा॑ पतयतो॒ वि चक्षु॒र्वी॒३॒॑दं ज्योति॒र्हृद॑य॒ आहि॑तं॒ यत् ।*
*वि मे॒ मन॑श्चरति दू॒रआ॑धी॒: किं स्वि॑द्व॒क्ष्यामि॒ किमु॒ नू म॑निष्ये ॥*
ऋग्वेद 6/9/6
प्रभु ज्योत हृदय की जगा दे
चित्त एकाग्र करें
मन में ध्यान करे
प्रभु ज्योत हृदय की जगा दे
शब्द सुने कर्ण इत-उत भागे
रूप ध्यान भी आँखें भटका दे
शब्द रूप यदि संयम करे
मन भटका दे - दु:ख भी बढ़ा दे
प्रभु ज्योत हृदय की जगा दे
चित्त एकाग्र करें
मन में ध्यान करे
प्रभु ज्योत हृदय की जगा दे
ज्ञान वात-रहित प्रगटा दे
मन को स्थिरता का ध्यान करा दे
तन्मय ज्योति का दीपक जले
स्थिरता पा के संयम ला के
प्रभु ज्योत हृदय की जगा दे
चित्त एकाग्र करें
मन में ध्यान करे
प्रभु ज्योत हृदय की जगा दे
हे प्रभु! ध्यान तेरा हो कैसे?
नाम एकाग्रता से ही लेके
ज्ञान-कर्मेंद्रियां हैं साधन
साधना साधे, ज्योति रस पा के
प्रभु ज्योत हृदय की जगा दे
चित्त एकाग्र करें
मन में ध्यान करे
प्रभु ज्योत हृदय की जगा दे
संध्योपासना का मन ले के
ज्योतियाँ सुव्यवस्था को देखे
मुँह दिखाने के लायक रहूँ
सत्कर्मों के - मार्ग सुझा दे
प्रभु ज्योत हृदय की जगा दे
चित्त एकाग्र करें
मन में ध्यान करे
प्रभु ज्योत हृदय की जगा दे
ज्ञान-कर्मेंद्रियाँ बनें ज्योति
ईश-साधना हो सर्वोपरि
वरना क्या दूँगा प्रभु को जवाब
आँख से आँख प्रभु से मिला के
प्रभु ज्योत हृदय की जगा दे
चित्त एकाग्र करें
मन में ध्यान करे
प्रभु ज्योत हृदय की जगा दे
*रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई*
*रचना दिनाँक :--* २३.१.२०२२ ८.१५ रात्रि
*राग :- पहाड़ी*
गायन समय रात्रि का प्रथम प्रहर, ताल गरबा ६ मात्रा
*शीर्षक :- तेरा नाम जपूं* वैदिक भजन ८२५ वां
*तर्ज :- * मेरी आंखों में बस गया
कर्ण = कान
वात = हवा, वायु
तन्मय = एकाग्र
सर्वोपरि = सबसे उत्तम
आंख से आंख मिलाना = सामने आना
*प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का स्वाध्याय- सन्देश :-- 👇👇*
तेरा नाम जपूं
हे प्रभु! मैं चाहता हूं कि बिल्कुल एकाग्र होकर अपनी मानसिक वाणी द्वारा तेरा नाम जपूं या तेरा मनन करूं, तेरा ध्यान करूं, परन्तु जब मैं ऐसा करने के लिए बैठता हूं तो कुछ भी शब्द सुनाई पड़ते ही मेरे कान यहां-वहां दौड़े जाते हैं। आंखों के सामने कुछ भी आते ही मैं यहां-वहां देखने लगता हूं कभी कान कुछ सुनने लगते हैं, कभी आंखें कुछ देखने लगती हैं और यदि मैं किसी ऐसे स्थान पर जाकर बैठता हूं जहां शब्द और रूप आ ही ना सकें तो भी मैं देखता हूं कि मेरा मन अंदर ही अन्दर सब कुछ देखता सुनता रहता है। दिन-रात की किसी बात का स्मरण आते ही मन यहां वहां भाग जाता है और इधर- उधर की बातें सोचने लगता है। तब पता लगता है कि मेरा मन कितनी दूर पहुंचा हुआ है और यदि किसी दिन कोई मन पर चोट लगने वाली बात हो चुकी होती है तब तो मन बार-बार वही पहुंचता है--रोकने का बड़ा यत्न करने पर भी क्षण-क्षण में वही जा पहुंचता है। मेरे हृदय में जागने वाली यह ज्योति भी--जो बात रहित स्थान में रखे हुए दीपक की शिखा की तरह बिल्कुल अनिङ्गित, बिल्कुल ही ना कीर्ति हुई, यह करस जलती हुई रहनी चाहिए--वह ज्योति, वह ज्ञान-ज्योति भी सदा इधर- उधर ही थी रहती है, मनोवृतियों की हवा लगते रहने से मिलती रहती है। तो फिर मैं तेरा ध्यान कैसे कर सकता हूं? एकाग्रता से तेरा नाम कैसे जपूं? तेरा मनन कैसे करूं? और यदि प्रतिदिन तेरा इतना भी भजन ना कर सकूंगा तो उस दिन, जबकि मेरी यह जीवन साधना समाप्त होगी, उस दिन तुम्हें क्या उत्तर दूंगा? तुम्हारे सामने किस बात का अभिमान कर सकूंगा? यह जीवन, यह सब ज्ञानेंद्रियां और कर्मेंद्रियां, तुमने मुझे तुम्हारे समीप पहुंचने की साधना ही के लिए दी हैं। तो उस दिन, जबकि तुम यह शरीर वापस मांगोगे, तब मैं तुम्हें क्या उत्तर दूंगा? क्या मुंह दिखलाऊंगा?
हे प्रभु! शक्ति दो कि मेरे मन की आज्ञा के बिना मेरे यह कान आंख आदि कहीं ना जा सके और यह मन भी ह्रदय की ज्योति के साथ मिल जाया करे--ज्योति एक-रस जगती रहे। ऐसी अवस्था दिन में दो बार सन्ध्योपासना के समय ही जाया करे, नहीं तो मैं क्या मुंह दिखाने लायक रहूंगा?
🎧825वां वैदिक भजन🌹👏🏽
🕉👏 ईश भक्ति भजन
भगवान ग्रुप द्वारा🙏🌹
🙏सभी वैदिक श्रोताओं को हार्दिक शुभकामनाएं🙏🌹
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