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दुःखानुशयी द्वेषः (दुःख की अनुभूति ही द्वेष है)

दुःखानुशयी द्वेषः

दुःख की अनुभूति ही द्वेष है

      क्लेशों के पाँच विभागों में से तीन विभागों (अविद्या, अस्मिता, राग) की परिभाषाएँ बताकर महर्षि पतञ्जलि चौथे विभाग की चर्चा प्रस्तुत सूत्र में कर रहे हैं। महर्षि कहते हैं- दुःख के पीछे-पीछे चलने वाले क्लेश को द्वेष कहते हैं। अभिप्राय यह है कि मनुष्य जिस दुःख का अनुभव करता है, उस दुःख के अनुभव के पीछे मन में दुःख के प्रति प्रतिशोध बना रहता है, विरोध- आवेश बना रहता है। उस प्रतिशोध को, उस विरोध-आवेश को यहाँ द्वेष शब्द से कहा जा रहा है। मनुष्य को जहाँ कहीं भी दुःख का अनुभव होता है, वहाँ उसे द्वेष हो जाता है। मिथ्याज्ञान से युक्त मनुष्य को जहाँ-जहाँ दुःख की अनुभूति होती है, वहाँ-वहाँ द्वेष अवश्य होता है। ऐसा कभी नहीं हो सकता कि मिथ्याज्ञान से युक्त होकर दुःख तो भोगे, पर द्वेष न हो, इसलिए महर्षि पतञ्जलि कहते हैं- दुःख अनुभव के पीछे-पीछे चलने वाला प्रतिशोध रूपी, विरोध-आवेशरूपी क्लेश ही द्वेष है।
महर्षि वेदव्यास प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या करते हुए लिखते हैं-
दुःखाभिज्ञस्य दुःखानुस्मृतिपूर्वो दुःखे तत्साधने
वा यः प्रतिघो मन्युर्जिघांसा क्रोधः स द्वेष इति।
अर्थात् दुःख का अनुभव करने वाले मनुष्य को दुःख के साधनों को दूर करने की भावना होती है, उसे दुबारा न प्राप्त करने की मनसा होती है या यूँ कहें, उसे बार-बार न अपनाने का विरोध होता है। उस प्रतिघ रूपी प्रतिकार को, उस मन्यु रूपी विरोध को, उस जिघांसा रूपी मार-काट करने की भावना को या क्रोध रूपी आवेश को द्वेष नाम से कहा जाता है। यहाँ महर्षि वेदव्यास ने द्वेष को समझाने के लिए चार श  दों का प्रयोग (प्रतिघः, मन्युः, जिघांसा, क्रोधः) किया है। ये चारों शब्द  द्वेष को ही स्पष्ट कहते हैं। संसार में द्वेष के लिए क्रोध, गुस्सा, वैर, प्रतिशोध, आवेश आदि श       शब्दों  का प्रयोग होता रहता है।
मनुष्य को रूप, रस, गन्ध, स्पर्श एवं शब्द वाली वस्तुओं से जो दुःख प्राप्त होता है, उसकी छाप मन में पड़ती है। दुःख की उस छाप को संस्कार कहते हैं। इस प्रकार दुःख अनुभव के जितने भी संस्कार मन में एकत्रित होते हैं, उनकी स्मृतियाँ मनुष्य को आती रहती हैं। उन स्मृतियों के अनुरूप मनुष्य उस-उस दुःख के प्रति या उस-उस दुःख के साधन के प्रति प्रतिशोध करता रहता है और उसे दूर करने का पुरुषार्थ करता रहता है। जब तक दुःख या दुःख के साधन दूर नहीं होते हैं, तब तक मनुष्य उद्यम करता ही रहता है। उस दुःख और दुःख के साधनों के पुरुषार्थ के पीछे द्वेष कारण बना हुआ होता है।
यहाँ व्यासभाष्य में महर्षि वेदव्यास ने मन्युः और क्रोधः इन दोनों शब्दों  को ग्रहण करके यह स्पष्ट किया है कि मन्यु और क्रोध दोनों द्वेष के पर्यायवाची शब्द हैं। केवल अन्तर इतना है कि मन्यु आन्तरिक द्वेष होता है और क्रोध बाह्य द्वेष होता है। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने यजुर्वेद के ३०वें अध्याय के १४वें मन्त्र में आये मन्यु शब्द का अर्थ आन्तरिक क्रोध किया है- मन्यवे= आन्तर्यक्रोधाय और क्रोध शब्द का अर्थ बाह्य कोप किया है- क्रोधाय= बाह्यकोपाय। इस प्रकार मन्यु और क्रोध एक अर्थ को कहने वाले होते हुए भी कुछ अन्तर रखते हैं और वह अन्तर बाह्य और आन्तरिक है। मनुष्य कभी-कभी अन्दर ही अन्दर द्वेष कर रहा होता है, उसे मन्यु कह सकते हैं। ऐसी स्थिति में वह अपने द्वेष को बाहर प्रकट होने नहीं देता है। उस आन्तरिक मन्यु के कारण अन्दर-ही-अन्दर दुःखी होता रहता है। जब मनुष्य बाह्य रूप से वाणी या शरीर द्वारा द्वेष कर रहा होता है, तब अन्य मनुष्यों को स्पष्ट पता चलता है कि यह व्यक्ति द्वेष कर रहा है। चाहे द्वेष अन्दर से करे या बाहर से करे, दोनों ही स्थितियों में हानिकारक है, क्योंकि द्वेष मनुष्य के प्रयोजन में बाधक है।
यद्यपि द्वेष की परिभाषा एक ही है, परन्तु मनुष्य अलग-अलग हैं, पशु-पक्षी आदि अलग-अलग हैं, इसलिए द्वेष भी अलग-अलग प्रकार से होता है। चेतन प्राणि-मनुष्य, पशु, पक्षी आदि का द्वेष अलग प्रकार का है और जड़ पदार्थ- विष, गहरा पानी, अग्नि आदि का द्वेष अलग प्रकार का है। व्यक्ति-व्यक्ति का द्वेष भी अलग-अलग होता है। रूप का द्वेष भी अलग-अलग होता है, कोई काले रूप से, कोई हरे रूप से तो कोई किसी रूप से द्वेष करता है। इसी प्रकार रसों का द्वेष अलग-अलग है, गन्धों का द्वेष अलग-अलग है, ऐसे ही स्पर्शों का और शब्दों  का द्वेष भी अलग-अलग है। इस प्रकार समस्त रूपों, रसों, गन्धों, स्पर्शों और शब्दों  के विभिन्न प्रकार के भेद हैं। असंख्य प्रकार की वस्तुएँ और असंख्य प्रकार के द्वेष और ऐसे ही असंख्य प्रकार के प्राणि तथा असंख्य प्रकार के द्वेष। इस प्रकार व्यक्ति भेद से द्वेष भेद असंख्य हो जाते हैं। व्यक्ति भेद से द्वेष भले ही असंख्य हो जाते हों, परन्तु द्वेषत्व सब में व्यापक होने से जाति के रूप में द्वेष को एक ही कहा जाता है।
मनुष्य जिन पर द्वेष करता है, वे दो प्रकार के पदार्थ हैं- एक जड़ और दूसरे चेतन। इन दोनों में द्वेष होता है। जड़ पदार्थ अनेक प्रकार के हैं। अलग-अलग जड़ पदार्थों के द्वेष एक-दूसरे से अलग-अलग होते हुए भी द्वेषत्व की दृष्टि से वे एक ही होते हैं। जब उन अलग-अलग जड़ पदार्थों से दुःख प्राप्त करता है, तब उन अलग-अलग दुःखों की छाप मन में पड़ती है। उस छाप रूपी संस्कारों से प्रेरित होकर उस व्यक्ति के मन में जो प्रतिकार की भावना, आवेश की भावना उत्पन्न होती है, उसे ही यहाँ द्वेष कहा जा रहा है। उसी प्रकार चेतन प्राणि भी अनेक प्रकार के हैं, अलग-अलग प्राणियों के द्वेष अलग-अलग होते हुए भी द्वेषत्व सब में एक ही है। इस प्रकार अनेक जड़ पदार्थों के अनेक द्वेष और अनेक चेतन पदार्थों के अनेक द्वेष मनुष्य को संतप्त करते हैं। इतने प्रकार के द्वेष मन में विद्यमान हों, तो मनुष्य कैसे परमेश्वर के प्रति आकर्षित होकर एकाग्र हो पायेगा?
मनुष्य ने जड़ और चेतन से सम्बन्धित जितने दुःख भोगे हैं, उन सबके प्रति पुनः दूर करने के लिए जो प्रतिकार की भावना होती है, वह तो द्वेष है ही, उसके साथ-साथ जिन जड़ और चेतनों से अब तक मनुष्य ने दुःख भोगा ही नहीं है, परन्तु उनके विषय में सुना है, पढ़ा है और उन पर प्रमाणों द्वारा विचार किया है, वह भी द्वेष है। सुनने से, पढ़ने से, विचार करने मात्र से भी मन में उनकी छाप पड़ती है। उस छाप रूपी संस्कार से स्मृति उत्पन्न होती है और उस स्मृति के अनुरूप प्रतिकार, आवेश उत्पन्न होता है, उसे भी द्वेष कहते हैं।
यह आवश्यक नहीं है कि जिस दुःख के या दुःख के साधनों के अनुभव से जो संस्कार मन में पड़ता है, उसकी स्मृति से पुनः उस दुःख को दूर करने की प्रतिशोध रूपी भावना को ही द्वेष कहा जाये, बल्कि दुःख प्राप्त नहीं हुआ या दुःख के साधनों को प्राप्त भी नहीं किया, फिर भी उस दुःख और दुःख के साधनों के प्रति द्वेष उत्पन्न होता है। यदि बिना दुःख और दुःख के साधनों को प्राप्त किये भी द्वेष होता हो, तो क्या यह महर्षि पतञ्जलि और महर्षि वेदव्यास के विपरीत तो नहीं माना जायेगा? इसका समाधन यह है कि वह ऋषियों के विपरीत नहीं जायेगा, क्योंकि दुःखों व दुःख के साधनों को चाहे प्राप्त नहीं किया हो, परन्तु उनके विषय में सुनते, पढ़ते और विचार करते समय दुःख अनुभव होता है- भले ही वह दुःख अनुभव श्रवण से होने वाला दुःख हो, पढ़ने से होने वाला दुःख हो या विचार से होने वाला दुःख हो। दुःख अनुभव तो हुआ है, उसी दुःख अनुभव के पीछे-पीछे चलने वाला प्रतिशोध ही द्वेष कहलाता है, चाहे वह दुःख जड़ वस्तु या चेतन वस्तु से प्राप्त होने वाला हो अथवा श्रवण, पठित और विचारित दुःख हो। दुःख तो दुःख ही है, चाहे किसी से सम्बन्धित हो। इस प्रकार द्वेष मात्र, ऋषियों की परिभाषाओं के अनुरूप होना चाहिए।
असंख्य प्रकार के जड़ पदार्थों और असंख्य प्रकार के चेतन पदार्थों का द्वेष मनुष्य के जीवन में कार्य करता रहता है। वह द्वेष कभी वर्तमान (उदार अवस्था) में रहता है, कभी विच्छिन्न (दबा) रहता है, तो कभी-कभी तनू (कमजोर) होकर बहुत सूक्ष्मता से रहता है। यदि इन तीनों स्थितियों में नहीं है, तो प्रसुप्त (सोया हुआ) रहता है। इसलिए मनुष्य को यह नहीं समझना चाहिए कि मुझमें अमुक-अमुक जड़ व चेतन वस्तु के प्रति द्वेष नहीं है। हाँ, द्वेष तो है, परन्तु वर्तमान अवस्था में नहीं है, पर दबा हुआ है या बहुत सूक्ष्म होकर रह रहा है अथवा सोया हुआ है, इसलिए ऐसा लगता है कि द्वेष नहीं है, परन्तु द्वेष तो है। जो योगाभ्यासी ऐसी स्थिति को अनुभव कर लेता है, वही योगाभ्यासी द्वेष को दूर करने का उद्यम कर सकता है और जो व्यक्ति अविद्या के कारण यह समझ बैठता है कि मुझ में द्वेष नहीं है, वह व्यक्ति द्वेष को दूर करने का उद्यम कभी नहीं कर पाता है। मनुष्य को चाहिए कि वह प्रमाणों से युक्त होकर पूर्वापर का विचार करते हुए अपने जीवन के उद्देश्य को आत्म समक्ष रखते हुए देखे, तो निश्चित रूप में द्वेष समझ में आयेगा। जब मनुष्य ऋषियों के अुनरूप अपनी बुद्धि को बनाते हैं, तो निश्चित रूप से ऋषियों के समान अपने को भी कृतकृत्य कर सकते हैं और तभी ऋषियों का पुरुषार्थ सार्थक हो सकता है।
द्वेष का विवेक द्वेष को समाप्त करने वाला होता है,
द्वेष का अविवेक द्वेष को बढ़ाने वाला होता है।

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