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जीवन का अंतिम सत्य मृत्यु है

        जीवन का अंतिम सत्य मृत्यु है

 


             ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान वैदिक विश्वविद्यालय  का प्रारम्भ संपूर्ण मानव जाती के कल्याण के लिए किया  जा रहा  है । जिससे सभी को सत्य ज्ञान आसानी से हो सके क्योंकि वेदों में सब कुछ सूत्र के रूप में है, और इनकी तुलना या इनके सामान दूसरा कोई सत्य को व्यक्त करने वाला माध्यम नहीं हैंऋग्वेद के प्रथम मण्डल के  प्रथम सूक्त प्यार के संबन्ध में प्रकाश डालते हुए बताया गया है, कि प्रभु प्रेम स्वरूप  है। वह हम सब से अत्यधिक प्रेम करते हैं, जिस लिए उसने वेदों को हमारे लिए व्यक्त ऋषियों के चेतना के द्वारा इस संसार में प्रकट किया है। इस प्रभु की प्रार्थना करते हुए उपदेश किया गया है। कि हम सदा प्रेम पूर्ण योग को करने वाले बनें, जीवन भर सोम अर्थात जो जीवन का परम साधन है, ज्ञान यह एक रसायन है इस की रक्षा करते रहे, हम ज्ञान का दान देने में आनन्द का अनुभव करें, सदा ज्ञनियों से ज्ञानप्राप्त करते रहें, किसी की निन्दा कदापि न करें, व्यर्थ के कामों में कभी अपना समय नष्ट न करें, सदा प्रभु की चर्चा में ही अपना समय लगावें। क्योंकि वह प्रभु महान, सत्य स्वरूप सुपात्र  तथा यज्ञशीलों के  मित्र होते हैं । इन सब बातों का इस सूक्त के विभिन्न मन्त्रों के द्वारा चर्चा करते हुए बड़े विस्तार से इस प्रकार वर्णन किया गया  है । आओ इस सूक्त के माध्यम से हम यह सब ज्ञान प्रप्त करने का यत्न करें ।

    सत्य के संदर्भ में मृत्य से अधिक कोई और दूसरा सत्य नहीं हो सकता है, जीवन मृत्यु  की गोद में एक छोटा सा फूल की तरह और यह संसार ऐसा स्थान है जहां पर हर समय काँटों वारिष होती है। इससे बचने के लिए केवल परमात्मा का दामन है, और दूसरा रास्ता या मार्ग नहीं है, और यह सम्पूर्ण विश्व के लिए है, इसका केवल एक मजहब है। वह है मानव चेतना और उसका कल्याण जिस प्रकार से सम्भव है, हमारी शरीर का कल्याण अग्नि के माध्यम से ही सम्भव है। अग्नि ज्वलन शील मृत्यु के सामान है, वह विद्युत के सामान उसके साथ रहने के लिए हम सब को बहुत अधिक जागरूक और सचेत होश पूर्ण ध्यान के साथ एक -एक कदम चलना होगा। यहां दुबारा सुधारने का समय नहीं दिया जायेगा, हर कदम पर हमारे स्वागत के लिए मृत्यु खड़ी है । जो गिरा देगी इस पंचतत्व के शरीर को यह शरीर विद्युत से ही बना है। इस लिए यह विद्युत् ज्ञान है, और यह एक विज्ञान है, जब यह उपलब्ध हो जायेगा। तो उसे ही ब्रह्मज्ञान कहते हैं, इस लिए यह विश्वविद्यालय जिसका नाम ही ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान है, और यह वैदिक विश्वविद्यालय अर्थात विद्युत ज्ञान को प्राप्त करने के लिए संपूर्ण विश्व में पहला विश्वविद्यालय होगा।

   मैकाइबर और कूल आदि समाजशास्त्रियों ने अपने अध्ययन के आधर पर बताया है कि सामाजिक वर्ग विश्व के सभी समाज में किसी न किसी रूप में अवश्य पाये जाते हैं। कहीं पर सामाजिक वर्गों का निर्माण जन्म के आधार पर तो कहीं पर धन के आधर पर। इतना निश्चत है कि सामाजिक वर्ग प्रत्येक समाज में अवश्यमेव पाया जाता है। मनुष्य की प्रवृत्तियों तथा व्यवसायों के आधार पर समाज का विभाजन संसार के सभी देशों में पाया जाता है। इग्लैण्ड के प्रसिद्ध् विद्वान् एच० जी० वैल्स के अनुसार-‘‘मनोवैज्ञानिक प्रवृतियों के आधार पर समाज-विभाजन से समाज का श्रेष्ठ विकास होता है तथा उसकी शक्ति बढ़ती है।’’ किग्सले डविस और मूर के अनुसार-‘‘ समाज अपनी स्थिरता एवं उन्नति के लिए अपने व्यक्तित्व को उनकी योग्यता एवं प्रशिक्षण को ध्यान में रखते हुए विभिन्न वर्गों में बॉट देता है।’’

प्राचीन भारतीय सामाजिक विचारकों ने भी मनुष्य की मनोवैज्ञानिक प्रवृतियों को ध्यान में रखते हुए सामाजिक स्तरीकरण को एक सुनियोजित नीति को अपनाया तथा कार्यात्मक दृष्टि से समाज को चार वर्गों में विभाजित किया। जिन्हें-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र के नाम से जाना जाता है। वर्ण-व्यवस्था भारतीय सामाजिक संगठन के मौलिक तत्व के रूप में पायी जाती है। भारतीय संस्कृति में समाज में प्रत्येक व्यक्ति का स्थान तथा उससे सम्बंधित कार्य उसकी मूलभूत प्रवृत्तियों यानी गुणों के आधार पर निश्चित होता था।

 

१. वैविध्य के आधार पर वर्ण व्यवस्थाः

सब मनुष्यों में सब बातें एक समान नहीं हैं। फिर भी जो बातें सभी में समान भाव से पाई जाती हैं उनकी मात्रा समान नहीं है। हितोपदेश कार का कथन है-‘‘आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्’’ अर्थात् भोजन, निद्रा, भय, और नर-मादा का सहवास-ये पशु और मनुष्यों में समान हैं। प्राणी-मात्र में जो सामान्य बातें पाई जाती है, उनका यह अच्छा परिगणन है। किन्तु आहार तथा निद्रा आदि भी सब समान मात्रा में नहीं पाये जाते। जहाँ प्रकार भेद नहीं होता वहाँ मात्रा-भेद अवश्य है। इस प्रकार भारतीय मनीषियों ने मानव समाज के संगठन के लिए जो संविधान तैयार किया था उसमें इस बात का विशेषध्यान दिया था। गणित शास्त्र में यह बात स्वयंसिद्ध् मानी गई है, कि विषम में सम जोड़ने से विषम उत्पन्न होता है। यथा- ७, ,११ आदि विषम संख्याएं हैं। इस में २,२ जोड़ने से ७+२:९, ९+२:११, ११+२:१३ होते हैं। इसी तरह यदि विषम को सम बनाना हो तो उसमें विषम अंक तोड़ना पडेगा। जैसे- ७+३: १०, ७+९: १६, ११+५: १६;। आश्चर्य है कि समाजशास्त्रा के आधुनिक पंडित सामाजिक संगठन के समय पर इस स्वयं सिद्ध को भूल जाते हैं।

 

२. पॅूजीवाद, साम्यवाद और वर्णव्यवस्थाः

 

बस, अब हम पूँजीवाद, साम्यवाद और वर्णव्यवस्था का भेद भली प्रकार समझ सकेंगे। (१) भूखों का हक छीनकर भूखरहितों के पास जमा कर देना पॅूजीवाद कहलाता है।(२) सबको समान भाग देना साम्यवाद कहलाता है। (३)सबको भूख के अनुसार भोजन देना वर्णव्यवस्था है।

 

साम्यवाद अन्याय का विरोध करते हुए ईर्ष्या को बीच में मिला देता है। और कहता है कि बड़ा-छोटा कोई नहीं। सब समान हैं। वर्ण व्यवस्था इस बात को स्पष्टतया स्वीकार करती है, कि योग्यता और भूख में भेद होने के कारण अधिकारों में भेद का होना आवश्यक है, परन्तु इसका आधार योग्यता ही होना चाहिए, जन्म नहीं।

 

३. वर्ण का अर्थः वर्ण शब्द वृजवरणे से निष्पन्न होता है, जिसका अर्थ है वरण अथवा चुनाव करना। आप्टे संस्कृत-हिन्दी कोश के अनुसार-‘‘-रंग, रोगन, -रंग,रूप, सौन्दर्य, -मनुष्यश्रेणी, जनजातिया कबीला, जाति (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, तथा शूद्र वर्ण के लोग )’’ इस प्रकार, व्यक्ति अपने कर्म तथा स्वभाव के आधार पर जिस व्यवस्था का चुनाव करता है, वही वर्ण कहलाता है। कुछ लोगों की मान्यता है कि वर्ण शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग ऋगवेद में रंग अर्थात् काले और गौरे रंग की जनता के लिए किया गया है और प्रारम्भ में आर्य तथा दास इन वर्णों का ही उल्लेख है। डॉ० घुरिये ने ऐसा ही लिखा है कि-‘‘ आर्य लोगों ने यहाँ के आदिवासियों को पराजित करके उन्हें दास या दस्यु नाम दिया और अपने तथा उनके बीच अन्तर प्रकट करने के लिए वर्ण शब्द का प्रयोग किया जिसका अर्थ रंग-भेद से है।’’ वर्ण के इससे ऐसा आभास होता है कि इस शब्द का प्रयोग आर्यो तथा दस्युओं के बीच पाये जाने वाले प्रजातीय अन्तर को स्पष्ट करने के लिए ही किया गया है। लेकिन यथार्थ में डॉ० घुरिये आदि की यह मान्यता अमान्य एवं दोषपूर्ण है।

 

इसी तरह पाण्डुरंग वामन काणे की मान्यता है कि-‘‘प्रारम्भ में गौर वर्ण का प्रयोग आर्यों के लिए तथा कृष्ण वर्ण का दासों या दस्युओं के लिए किया गया जाता था। धीरे धीरे वर्ण शब्द का प्रयोग गुण तथा कर्मों के आधार पर बने हुए चार बड़े वर्गों के लिए किया जाने लगा। वास्तव में वर्ण शब्द का अर्थ शाब्दिक दृष्टि से नहीं समझा जा सकता। वर्ण का सम्बन्ध व्यक्ति के गुण तथा कर्म से पाया जाता है। जिन व्यक्तियों के गुण तथा कर्म एक से थे यानी जिनमें स्वभाव की दृष्टि से समानता थी, वे एक वर्ण के माने जाते थे। इस बात का पुष्ट प्रमाण श्रीमद्गीता में समुपलब्ध् होता है- ‘‘चातुवर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः’’ अर्थात् मैने ही गुण और कर्म के आधर पर चारों वर्णों की रचना की है। इससे स्पष्ट होता है कि वर्ण-व्यवस्था सामाजिक स्तरीकरण की एक ऐसी व्यवस्था है जो व्यक्ति के गुण तथा कर्म पर आधरित है, जिसके अन्तर्गत समाज का चार वर्णों के रूप में कार्यात्मक विभाजन हुआ है।

 

४-वर्ण-व्यवस्था की उत्पत्तिः वर्ण-व्यवस्था की उत्पत्ति के सम्बन्ध् में भिन्न-भिन्न विचार व्यक्त किये गये हैं। वेद, उपनिषद्, महाभारत, गीता, मनुस्मृति तथा अन्य धर्म-ग्रन्थों में इस व्यवस्था पर विस्तृत चर्चा की गई है। यहां इन्हीं ग्रन्थों में विद्वानों द्वारा प्रकट किए गए विचारों के आधर पर हम वर्णों की उत्पत्ति को प्रस्तुत कर रहे हैं।

यजुर्वेद के ३१ वें अध्याय में वर्णों की उत्पत्ति के संबन्ध् में कहा गया है कि-‘‘ब्राह्मण वर्ण विराट पुरुष अर्थात् परमात्मा के मुख के समान हैं, क्षत्रिय उसकी भुजाये हैं, वैश्य उसकी जंघाएं अथवा उदर हैं और शूद्र उसके पांव हैं।’’ इसी तरह ऋगवेद मंडल-१०, सूक्त-९०, मंत्र-१२ लिखा है कि-‘‘ब्राह्मणोस्य मुखमासीद् बाहूराजन्यः कृतः। ‘‘ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।।’’ यहाँ ब्राह्मण की उत्पत्ति विराट् पुरुष के मुख से हुई है ऐसा कहने का अभिप्राय ब्राह्मण शरीर में मुखवत् सर्वश्रेष्ठ है। अतएव ब्राह्मणों का कार्य समाज में बोलना तथा अध्यापकों और गुरुओं की तरह अन्य वर्णस्थ स्त्री-पुरुषों को शिक्षित करना है। इसी प्रकार भुजाएं शक्ति की प्रतीक हैं, इसलिए क्षत्रियों का कार्य शासन-संचालन एवं शस्त्र धारण करके समाज से अन्याय को मिटाकर लोगों की रक्षा करना है। इसीलिए श्रीराम ने वनवासी तपस्वियों के सम्मुख प्रतिज्ञा की थी कि-निशिरहीन करूं मही भुज उठाय प्रण कीन्हवाल्मीकि ने लिखा है-क्षत्रियाः धनुर्संध् त्ते क्वचित् आर्त्तनादो न भवेदिति’’ अर्थात् क्षत्रिय लोग अपने हाथ में इसीलिए धनुष धारण करते हैं कि कहीं पर किसी का भी दुःखी स्वर न सुनाई दे। जघांएं बलिष्ठता एवं पुष्टता की प्रतीक मानी जाती हैं, अतएव समाज में वैश्यों का कार्य कृषि तथा

व्यापार आदि के द्वारा धन संग्रह करके लोगों की उदर पूर्ति करना और समाज से पूरी तरह अभाव को मिटा देना है। शूद्र की उत्पत्ति उस विराट् पुरुष के पैरों से मानी गयी है अर्थात् पैरों की तरह तीनों वर्णों के सेवा का भार अपने कंधे पर वहन करना है। विराट् पुरुष के शरीर के विभिन्न अंगों से चारों वर्णों की उत्पत्ति का भाव यह है कि चारों वर्णों में यद्यपि स्वभावगत भिन्न-भिन्न विशेषताएं पायी जाती हैं, तथापि एक ही शरीर के अलग-अलग भाग होने के कारण उनमें पारस्परिक अन्तर्निर्भरता पायी जाती है। स्पष्ट है कि पुरुष सूक्त के इन मंत्रों के आधार पर विभिन्न वर्गों के गुण, कर्म एवं स्वभाव कितनी सहजता तथा उत्तमता से समझाये गये हैं।

उत्तर वैदिक काल में रचित उपनिषदों में विशेषकर बृहदारण्यक तथा छान्दोग्य उपनिषद् में चारों वर्णों की उत्पत्ति पर विशेष प्रकाश डाला गया है। वहां ब्रह्मा के द्वारा सबसे पहले ब्राह्मण वर्ण पुनः क्षत्रिय, वैश्य तथा सबसे अन्त में शूद्र वर्ण की उत्पत्ति का वर्णन मिलता है।

इसी तरह महाभारत के शान्ति-पर्व में चारों वर्णों की उत्पत्ति के विषय में अपने शिष्य भारद्वाज को सम्बोधित करते हुए महर्षि भृगु कहते हैं कि-‘‘प्रारम्भ में केवल एक ही वर्ण ब्राह्मण था।यही वर्णवाद में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र के रूप में विभक्त हो गया। ब्राह्मणों का वर्ण श्वेत था जो पवित्रता-सतोगुण का परिचायक था। क्षत्रियों का रंग लाल जो क्रोध् तथा राजस गुण का सूचक था, वैश्यों का पीला रंग था जो रजो गुण एवं तमो गुण के मिश्रण का सूचक था और शूद्रों का रंग काला था जो अपवित्रता एवं तमो गुण की प्रधानता का प्रतीक था। ’’इससे सुविदित होता है कि महाभारत काल तक वर्ण-व्यवस्था गुण, कर्म एवं स्वभाव के ही आधार पर थी। अन्यथा ब्राह्मण कुलोत्पन्न परशुराम क्षत्रिय,क्षत्रिय कुलोत्पन्न विश्वामित्र ब्रह्मर्षि, शूद्र कुलोत्पन्न पराशर एवं व्यास आदि को आज संसार ब्राह्मण न मानता।

५. वर्ण-व्यवस्था का आधार जन्म या कर्मः वर्तमान समय में वर्ण-व्यवस्था के विषय में मूलभूत प्रश्न यह हे कि यह जन्म पर आधरित हो या गुण, कर्म एवं स्वभाव के आधर पर? साधरणत वर्ण सदस्यता का आधार जन्म के न मानकर गुण एवं कर्म का माना जाने लगा है, लेकिन इस विषय में विद्वानों में भी एकरूपता नहीं है। आधुनिक युग में वोटों की राजनीति ने इसे और अधिक बढावा दिया है। इस विषय में डॉ० राधकृष्णन् शब्द के हैं-‘‘ इस व्यवस्था में वंशानुक्रमणीय क्षमताओं का महत्व अवश्य था, परन्तु मुख्यतया यह व्यवस्था गुण तथा कर्म पर आधारित थी।’’

इन्होंने महाभारत कालीन एवं उससे प्राचीन के विश्वामित्र, राजा जनक, महामुनि व्यास, वाल्मीकि, अजमीड और पुरामीड आदि के अनेकों उदाहरणों से अपनी बात को प्रामाणित किया है।

डॉ० जी एस घुरिय ने भी वर्ण-व्यवस्था को गुण एवं कर्म के आधार को स्वीकार करते हुए लिखा है कि-‘‘प्रारम्भ में भारत में दो ही वर्ण थे-आर्य और दास अथवा दस्यु। आर्य भारत में विजेता के रूप में आया था उन्होंने अपने को श्रेष्ठ और यहां के मूल निवासियों द्रविडों को निम्न समझा, स्वयं को द्विज और द्रविडों को दास या दस्यु कहा। समय के साथ-साथ जैसे-आर्यों की संख्या में वृदि्ध् हुई- उनके कर्मों में विभिन्नता आती गई और द्विज वर्णों के आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य वर्णों में विभक्त हो गया।’’

के.एम. पणिक्कर की मान्यतानुसार- ‘‘यदि जन्म ही वर्ण सदस्यता का आधार होता तो विभिन्न वर्णो के पेशों में किसी प्रकार का कोई परिवर्तन सम्भव नहीं था। परन्तु प्राचीन साहित्य से उपलब्ध् प्रमाण यह प्रकट करते हें कि ब्राह्मण न केवल धर्म कार्य का सम्पादन एवं अघ्ययन ही करते थे बल्कि वे साथ ही औषध्,शस्त्र निर्माण एवं प्रशासन सम्बन्धी कार्य में भी लगे हुए थे।……….वैदिक साहित्य में कहीं ऐसा वर्णन नहीं मिलता जिससे प्रकट हो कि लोगों के लिए जन्म के आधार पर व्यवसाय का चुनना अनिवार्य था। पवित्र ग्रन्थऐतरय ब्राह्मणकी रचना एक ब्राह्मण ऋषि एवं उसकी दस्यु पत्नी से उत्पन्न और सपुत्र ने की थी। इस कथन से स्पष्ट है कि वर्ण की सदस्यता कर्म के आधर पर प्राप्त होती थी न कि जन्म के आधर पर’’ इस उपर्युक्त विवेचना से सुस्पष्ट हो जाता है कि प्राचीनकालीन वर्ण-व्यवस्था गुण, कर्म एवं स्वभाव के ही अनुसार थी। परन्तु महाभारत युद्ध के बाद योग्य राजा एवं योग्य विद्वानों के अभाव में सारी सामाजिक व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गई। यदि भारत को वह पुराना विश्वगुरु वाला गौरव पुनः प्राप्त करना है तो वही प्राचीन वर्ण-व्यवस्था दुबारा से लागू करनी होगी।

 

 

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