हर एक विज्ञान, (1) सिद्धान्त (थ्योरी) और (2) प्रयोग (प्रेक्टिस) दो भागों में विभक्त होता है। इन दोनों अंगों को मिल कर ही एक पूर्ण विज्ञान बनता है। जितने भी विज्ञान हैं उनके सिद्धान्तों को पुस्तकों और वाणी द्वारा जाना जाता है और क्रिया को व्यावहारिक प्रयोग द्वारा सीखते हैं। योग के भी दो अंक हैं। सिद्धान्तों पर विश्वास करने और क्रिया को अभ्यास में लाने में योग का प्रयोजन पूरा होता है।
सिद्धान्तों को बिना समझे और विश्वास में लाये बिना जो लोग केवल अभ्यास में प्रवृत्त रहते हैं वे ऐसा मकान बनाते हैं जिसकी जड़ नीचे जमीन में नहीं है। प्रतीति के बिना प्रीति नहीं हो सकती। शंकाओं को निर्मूल करके, विस्तृत विवेचना के आधार पर जब तक किसी ठोस निष्कर्ष पर नहीं पहुँचा गया है तब तक साधना में पूरा विश्वास होना, भली प्रकार चित्त लगना कठिन है। यदि श्रद्धा के आधार पर किसी प्रकार मन लग भी जाय तो कोई सन्देहास्पद प्रसंग आते ही वह श्रद्धा ढिलमिला जाती है। इसलिए ‘विचार के बाद काम’ वाली नीति के अनुसार पहले उन तथ्यों, मान्यताओं और विश्वासों को भली प्रकार परखना और समझना चाहिए जिनके द्वारा हमें अपनी मनोभूमि का निर्माण करना है। जब तर्क और प्रमाण के वैज्ञानिक आधार पर हम किन्हीं सिद्धान्तों की परीक्षा कर लेते हैं तब उन पर दृढ़ विश्वास हो जाता है और उनके अनुसार आत्मनिर्माण करने के लिए साधन करने में सुगमता पड़ती है। योग की सात भूमिका बताई गई हैं जिनका विवेचन नीचे किया जाता है।
(1) आस्तिक्य—एक उच्च सत्ता पर विश्वास करना आस्तिक्य है। हम जिस स्थिति में से हैं उससे ऊँची एक स्थिति है जिसमें अनेक गुना अधिक आनन्द है। पाप नामों से भ्रम जंजालों से छूट कर एक अधिक ऊँची स्थिति पर पहुँच सकते हैं। आत्मा स्वयं उच्च है, जिन दोषों से वह उच्चता दब गई है उन्हें हटा देने पर वह उन्नत अवस्था पुनः प्राप्त हो सकती है। उस स्थिति का प्राप्त होना सहज एवं स्वाभाविक है। यह आस्तिक विचार है। उच्च अन्तःकरण पर श्रद्धा करना, उसकी महत्ता स्वीकार करना, उसे प्राप्त करना जीवन लक्ष्य स्थिर करना आस्तिकता है।
योग की यह प्रथम भूमिका है। इस भूमिका के योग्य मनोवृत्ति की रचना करने के लिए ईश्वर परायणता प्रयोग में लाई जाती है। नियम रूप दृष्टि गोचर होने वाली सूक्ष्म चेतना सत्ता ईश्वर है। जिस प्रकार बिजली अपने नियमों से आप बंधी हुई है, वह अपने नियमों के अनुसार ही अपना काम करती है। इसी प्रकार परमात्मा भी सृष्टिक्रम को अपने नियमानुसार चलाता है। उसके बनाये हुए ‘कर्मफल’ नियम द्वारा सब प्राणी स्वयं ही सुख दुख प्राप्त करते रहते हैं। वह निन्दा स्तुति से प्रसन्न अप्रसन्न नहीं होता और न किसी के साथ में कोई रियायत, पक्षपात या प्रतिशोध करता है तो भी हमें एक काल्पनिक ईश्वर के बनाने की इसलिए आवश्यकता पड़ती है कि आस्तिकता की प्रथम भूमिका को प्राप्त कर सकें।
मकान बनाने से पूर्व मस्तिष्क में, कागज पर या खिलौने के रूप में एक नक्शा बनाना पड़ता है। हम उच्च स्थिति प्राप्त करने के लिए उसका एक आदर्श ढाँचा मन में तैयार करते और उसका ध्यान, पूजन एवं आराधना करते हैं। राम कृष्ण आदि की ध्यान मूर्तियाँ यद्यपि कल्पित होती हैं तो भी वे एक उच्च आदर्श की ध्येय मूर्ति के समान हमारे सामने उपस्थित रहती हैं। उनका ध्यान करते समय हम उनमें अपरिमित सौंदर्य, अटूट बल, अनन्त शक्तियों और सात्विक सद्गुणों का महान भंडार अनुभव करते हैं और साथ ही ऐसी भावना करते हैं कि हम इन्हीं में लीन हो जावें इन भगवान को प्राप्त कर लें। जैसे भृंग का ध्यान करने से झींगुर भी भृंग बन जाता है वैसे ही ध्यान की अद्भुत शक्ति के अनुसार हमारी अन्तःचेतना भी गीली मिट्टी की भाँति उन ध्यान के भगवान के साँचे में ढल कर वैसी ही बनने लगती है।
“जो कुछ है सांसारिक उन्नति में ही है, आध्यात्मिक उन्नति से कोई लाभ नहीं “ ऐसी मान्यता रखने वाले व्यक्ति नास्तिक हैं। जिनके सामने कोई ध्येय या आदर्श नहीं, जो अपने आत्मिक गुणों को बढ़ाना नहीं चाहते, उन्हें बढ़ाने की आवश्यकता अनुभव नहीं करते वे नास्तिक हैं। इसके विपरीत जो आदर्श जीवन बनाने और बिताने के लिए जितना, इच्छुक, आतुर एवं प्रयत्नशील है वह उतने ही अंशों में आस्तिक है। सादा जीवन होते हुए भी जो आदर्श बातें सोचता, आदर्श विचारों को ग्रहण करता है, भीतर और बाहर से आदर्श बनना चाहता है उसका वह आदर्श वाद ही आस्तिकता है। यही ईश्वर परायणता का मन्तव्य है। इस स्थिति को प्राप्त करने का ही दूसरा नाम ईश्वर प्राप्ति है।
आत्मा ईश्वर का अंश है वह अन्तरात्मा में स्थित है। उसकी स्फुरणाएं सदा आध्यात्मिकता की ओर संकेत करती हैं। इस स्फुरणाओं का अभ्यास करना और उन पर श्रद्धा पूर्वक चलना ही ईश्वर सान्निध्य है। हमारा अन्तःकरण हमारे हर विचार और कार्य की वास्तविकता को हर समय देखता रहता है, यह ईश्वर अन्तःकरण से हर घड़ी हमें देखना है। जो अपने अंतःकरण के सामने सच्चा है वह ईश्वर के सामने भी सच्चा ठहरेगा। जिसकी अपनी आत्मा संतुष्ट है, प्रसन्न है, उसका ईश्वर भी प्रसन्न है। आत्मा के सन्तोष का ही दूसरा नाम स्वर्ग है।
इस स्वर्गीय स्थिति को प्राप्त करना अत्यन्त ही, आवश्यक उपयोगी, आनंददायक, तथा सहज, स्वाभाविक और स्वल्प श्रमसाध्य है। इस मार्ग पर चलना आध्यात्मिकता का प्रथम चिन्ह है। उच्च, आदर्शवादी, पवित्र, महान बनने की अभिलाषा आस्तिकता है। इसे अपनाना हर अध्यात्मवादी का प्रथम कर्तव्य है।
(2) तत्व दर्शन— आमतौर से सुनकर पढ़कर या देखकर मनुष्य अपने विचारों का निर्माण करता है। स्वतंत्र तर्क करने की, सत्य असत्य के परीक्षण की शक्ति का लोग बहुत कम प्रयोग करते हैं और समीपवर्ती लोगों में फैले हुए वातावरण के आधार पर अपने विश्वास बना लेते हैं। इस रीति से बनाये हुए विश्वास बहुधा भ्रान्त होते हैं क्योंकि देश काल के अनुसार तथ्यों और उपयोगिताओं में अन्तर पढ़ता जाता है। जो नीति, प्रथा एवं विचारधारा आज के लिए उपयोगी है हो सकता है कि कुछ काल बाद वह हानिकारक सिद्ध हो और उसे बदलने की आवश्यकता पड़े। आज विज्ञान का युग है। भौतिक विज्ञान ने अनेकों पुरानी मान्यताओं को अनुपयोगी तथा भ्रान्त ठहरा कर नवीन मान्यताओं को प्रमाणित और प्रतिष्ठित किया है। इसी प्रकार विज्ञान भी प्राचीन एवं अप्रातेष्ठित विचारधाराओं का संशोधन कर रहा है ऐसे अवसरों पर अध्यात्मवाद की यही शिक्षा कि कसौटी अन्धविश्वास, दुराग्रह रूढ़िवाद, या क्रूरता से न चिपक कर सत्य ग्रहण करने के लिए निडर की भाँति तैयार रहना चाहिए। जो प्रमाणित सत्य हो, जो कसौटी पर खरा उतरे उसी विचार धारा को अपनाना-यह तत्वदर्शी ज्ञान है।
अपने से दूसरे की संपदा दस गुनी अधिक और अपनी गलती और भूल से दूसरों की भूल से कम देखने की अपनी आदत होती है। अपने को निर्दोष और अच्छा देखने की आदत प्रायः मनुष्य को होती है। कई ऐसे भी दीन हीन होते हैं जो हर बात में डरते हैं और अपने को अपराधी सा समझते रहते हैं। दूसरों की मनोदशा के बारे में प्रायः लोग अपने दृष्टिकोण से देखने की भूल करते हैं। उनकी मनोभूमि इतनी लचीली नहीं होती कि दूसरों की मनोभूमि का ठीक अनुमान लगा सकें, इस कमजोरी के कारण अनैक्य, कलह, द्वेष एवं घृणा की वृद्धि होती है। दार्शनिक दृष्टि रखकर हमें अपनी और दूसरों की मनःस्थिति समझने परखने और विश्लेषण करने का निरपेक्ष भाव से प्रयत्न करना चाहिए ताकि तत्व दर्शन प्राप्त हो सके।
संसार नाशवान है, इसकी हर एक वस्तु हर घड़ी बदलती रहती है और परिस्थितियों के प्रभाव से एक स्थान से दूसरे स्थान को चली जाती है। इसलिए किन्हीं वस्तुओं के प्रति हमें ममता और मालिकी का भाव न रखना चाहिए वरन् उन वस्तुओं का सर्वोत्तम सदुपयोग करने का, कर्तव्य धर्म के पालन में उनका सहारा लेने का प्रयत्न करना चाहिए। वस्तुएं परमात्मा की हैं, उसी के विधान से वे नष्ट होती और बदलती हैं। इसलिए किसी वस्तु के नष्ट होने, किसी स्वजन के चले जाने के लिए दुखी एवं चिन्तित न होना चाहिए। इसी प्रकार सर्वोत्तम कार्य प्रणाली अपनाने पर भी सफलता का कोई निश्चय नहीं। अतएव सफलता असफलता पर अपना हर्ष शोक निर्भर करने की अपेक्षा कर्तव्य पालन पर ही सन्तोष को केन्द्रित करना चाहिए। यही कर्मयोग है। कर्मयोग का, अनासक्ति का भाव धारण करना तत्व दर्शन है।
मन में सदा शान्ति बनाये रखना, साँसारिक आपत्तियों को स्वप्नवत् समझना, कठिन प्रसंगों में धैर्य और साहस के साथ अविचल रहना, अरुचिकर प्रसंगों में भी हँसते रहना, भयजनक अवस्थाओं में भी निर्भय रहना, मानसिक शान्ति को किसी भी स्थिति में न खोना तत्वदर्शन है। तत्वदर्शी जानता है मैं अविनाशी, अशोष्य, अछेद्य, आत्मा हूँ, प्रिय अप्रिय परिस्थितियों के झोंके मेरा कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते। इस महासत्य को समझ कर वह आत्म शान्ति को किसी भी कारण से नष्ट नहीं होने देता सदा प्रसन्न रहता है।
विचारों को संशोधन के लिए तैयार रहना, सत्य की जिज्ञासा रखना, आत्म निरीक्षण, दूसरों की मनोभूमि का ठीक अन्दाज, नाशवान चीजों में ममता न रखना, कर्तव्य परायणता, अनासक्ति, सदा प्रसन्न रहना, संक्षेप में यही तत्व दर्शी के लक्षण हैं।
(3) आत्म निष्ठा— अपने को दैवाधीन, परवश, क्षुद्र, तुच्छ, दीन हीन, मायाबद्ध जीवन मान कर, शुद्ध, पवित्र, सनातन, परमात्मा का अंश मानना, एवं कर्ता भोक्ता होने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेना आत्म निष्ठा है।
माना कि हमसे नित्य प्रति भूलें होती हैं। यह हमारे शरीर और मन की भूलें है, नित्य दंड पाकर वे इन भूलों की क्षतिपूर्ति भी करते रहते हैं। आत्मा जो कि हमारी मूल सत्ता है यह इन नित्य की भूलों से ऊपर है। वह कभी भूल या पाप में प्रवृत्त नहीं होती। हर बुरा काम करते समय विरोध करना और हर अच्छा काम करते समय संतोष अनुभव करना यह उसका निश्चित कार्यक्रम है। अपने इस सनातन स्वभाव को वह कभी नहीं छोड़ सकती, उसकी आवाज को चाहे हम कितनी ही मंद कर दें कितनी ही कुचल दें कितनी ही अनसुनी करें तो भी वह कुतुबनुमा की सुई की तरह अपना रुख पवित्रता की ओर ही रखेगी। उसकी स्फुरणा सतोगुणी ही रहेगी इसलिए आत्मा कभी अपवित्र या पापी नहीं हो सकती। चूँकि हम शरीर और मन नहीं वरन् आत्मा हैं, इसलिए हमें अपने को सदैव उच्च महान, पवित्र, निष्पाप परमात्मा का पुत्र ही मानना चाहिए। अपने प्रति पवित्रता का भाव रखने से हमारा शरीर और मन भी पवित्रता एवं महानता की ओर द्रुतगति से अग्रसर होता है।
हम स्वयं ही कर्ता भोक्ता हैं। कर्म करने की पूरी पूरी स्वतंत्रता हमें प्राप्त है। जैसे कर्म हम करते हैं ईश्वरीय विधान के अनुसार वैसा फल भी तुरन्त या देर में मिल जाता है। इस प्रकार अपने भाग्य के निर्माण करने वाले भी हम स्वयं ही हैं। परिस्थितियों के जन्म दाता हम स्वयं हैं। जैसे गुण, स्वभाव, विचार एवं कार्य हम अपनाते हैं उसी के अनुसार परिस्थितियाँ भी हमारे सामने आती रहती हैं। ईश्वर अपनी ओर से दंड पुरस्कार नहीं देता वरन् हमारे कर्मों के अनुसार फल की व्यवस्था मात्र कर देता है। कभी कभी कोई बुरे व्यक्ति अकारण हमारे ऊपर आक्रमण करते हैं एवं कोई सामूहिक दैवी विपत्ति तूफान, बाढ़ आदि आकर हमें दुख देते हैं। यह सामूहिक वातावरण के पाप पूर्ण होने का पल है। समाज के हम भी एक अंग हैं, समाज को शुद्ध बनाना हमारा भी कर्तव्य है उस कर्तव्य की उपेक्षा करने के कारण हम भी अप्रत्यक्ष रूप से दोषी हैं और फल भोगते हैं। धर्म के लिए कष्ट सहना एक प्रकार का तप या बीज बोना है। जिसका उत्तम फल भविष्य में मिलेगा। इस प्रकार ग्रह नक्षत्र, देव दानव भाग्य या किसी दूसरे को अपनी परिस्थितियों का निर्माता अपने आपको ही मानना चाहिए और उत्तम स्थिति प्राप्त करने के लिए आत्म-निर्माण करना चाहिए।
स्वर्ग नरक बन्ध मोक्ष चाहे जिसे हम स्वेच्छा पूर्वक ग्रहण कर सकते हैं। भले बुरे शरीरों में पुनर्जन्म लेना यह भी हमारे अपने आत्म निर्माण के ऊपर अवलंबित है। आत्मा की, आत्मा के औजार, मन की, मन के औजार शरीर की शक्तियाँ अत्यंत विचित्र, आश्चर्य जनक एवं महान हैं। उन से हम अपने लिए और दूसरों के लिए बहुत सुख पूर्ण एवं आनन्ददायक अवसर उपस्थित कर सकते हैं। हमारी निर्माण शक्ति और उत्पादन शक्ति का कोई अन्त नहीं।
आत्मस्वरूप का बोध होने पर मनुष्य जन्म मरण से मुक्त हो जाता है। उपनिषदों के अनुसार हम में दो चेतना हैं एक क्षय दूसरी अक्षय जीवन वान है यह मन बुद्धि चित्त अहंकार सूक्ष्म शरीर है यह भी स्थूल शरीर क्षयकारी भौतिक पदार्थ है। आमतौर से हम अपने लिए जब “मैं” या “हम” शब्द का प्रयोग करते हैं तो उसका तात्पर्य स्थूल शरीर या सूक्ष्म शरीर से होता है। शरीर और मन के सुख, लाभ और आनन्द की दृष्टि से ही लोग सोचते और काम करते हैं। पर जब अक्षर का आत्मा का अवलम्बन हम ग्रहण कर लेते हैं आत्मा की भूमिका में जाग्रत होकर आत्म भाव से सोचते हैं तो अन्तराल में ‘सोऽहम्’ की ध्वनि निकलती है। तब वह आत्मा की दृष्टि से सोचता है। आत्मा के स्वभावानुरूप कार्य करता है। यही आत्मबोध की, आत्मा दर्शन की, आत्म प्राप्ति की, आत्मा निष्ठा की, स्थिति है। क्षर को नष्ट करके अक्षर को प्राप्त कर लेना ही जीवन मुक्ति है।
अपने को शुद्ध मुक्त अविनाशी आत्मा मानना, कर्म फलों का एवं आत्म निर्माण का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेना, अपनी महानता से परिचित होना, क्षर भाव को भूल कर अक्षर भाव में जागृत होना, यह आत्मनिष्ठा के लक्षण हैं।
(4) शक्ति साधना—जो कुछ भी मिलता है शक्ति के द्वारा मिलता है। अशक्तों को अपने लिए कुछ प्राप्त करना तो दूर आत्म रक्षा भी कठिन है। शारीरिक निर्बलों को रोगों तथा बलवानों के आक्रमण का शिकार होना पड़ता है। आर्थिक निर्बलों को गरीबी, अभाव, भूख आदि घेरे रहती हैं, मानसिक निर्बलों को चालाकों द्वारा ठगा जाता है। उन्हें भोंदू बुद्धू मूर्ख बनाया अपमानित किया जाता है। आध्यात्मिक निर्बलों को काम क्रोध, लोभ, मोह, शोक, चिन्ता भय आदि भीतरी शत्रु डराते रहते हैं। सामाजिक, बौद्धिक, व्यावहारिक निर्बलताओं के भी ऐसे ही दुखदायी दुष्परिणाम देखने पड़ते हैं।
इसके विपरीत जो जिस दृष्टि से बलवान है। जीवन में साधन, वैभव और आनन्द है। अशक्ति एक पाप है। जिसके कारण अन्याय, शोषण एवं आक्रमण करने की दुष्प्रवृत्ति है। दुर्बल को जालिम का पिता कहा गया है। जिस प्रकार गंदगी से मक्खियाँ, एवं दुर्गन्ध पैदा होती है उसी प्रकार दुर्बलता से पाप पैदा होते हैं। दुर्बल व्यक्ति की नैतिकता भी गिर जाती है। कहते हैं खाली बोरा सीधा खड़ा नहीं रह सकता वह गिर ही जाता है। अभावग्रस्त और दुखी मनुष्य अपनी आवश्यकताओं से प्रेरित होकर दुष्कर्मों पर आसानी से उतारू हो जाते हैं। इस प्रकार वह स्वयं भी पाप के गर्त में गिरता है और अन्याय करने वालों की संख्या में वृद्धि करके दूसरों को भी पाप कुण्ड में गिराता है। मानसिक और सामाजिक अशान्ति की जननी दुर्बलता ही है। कमजोर मनुष्य न तो स्वयं शान्त रहता है और न दूसरों की शान्ति रहने देता है।
शक्ति का शिव के साथ अनन्य संबंध है। लक्ष्मी, नारायण, राधाकृष्ण सीताराम, प्रकृति पुरुष, की भाँति शक्ति का प्राण से प्रगाढ़ संबंध है। उसकी साधना से ही हम अभीष्ट बलों को प्राप्त करते हैं और लक्ष स्थान तक पहुँचते हैं। स्वर्ग, मुक्ति और ब्रह्म प्राप्ति यह सब भिक्षा रूप में किसी की कृपा से नहीं मिलते वरन् पुरुषार्थियों द्वारा अपनी अटूट शक्ति से प्राप्त किये जाते हैं। आन्तरिक और बाह्य, लौकिक और पारलौकिक उन्नति के लिए, सुख−शांति के लिए, शक्ति साधना आवश्यकीय है। हर दृष्टि से बलवान बनना अध्यात्मवादियों का आवश्यक कर्तव्य है।
(5) संयम— मनुष्य जो थोड़ी बहुत शक्ति प्राप्त करता है प्रायः उसका दुरुपयोग कर देता है। शारीरिक बल को, इन्द्रियों की शक्ति को, धन को, बुद्धि को, मनोबल को, सामाजिक आस्था को कितने ही लोग फिजूल बेकार, निकम्मी और निरुद्देश्य बातों में खर्च कर डालते हैं और कितने ही चटोरे पन, तृष्णा, लोलुपता एवं अहंकार में डूब कर हानिकर, पापपूर्ण, अनुचित बातों में खर्च करने लगते हैं। इस मार्ग के अपनाने पर हमें प्रायः बहुत घाटे में रहना पड़ता है। धन कमाने के लिए जितनी बुद्धिमानी की जरूरत है उससे अधिक बुद्धिमानी धन खर्च करने के लिए और सुरक्षित रखने के लिए चाहिए। अन्यथा वह पसीने से कमाया हुआ धन यों ही निरर्थक मार्गों द्वारा बह जाता है और उसे उस लाभ एवं आनन्द से वंचित रहना पड़ता है जो कि धन कमाने से मिलना चाहिए था।
इन्द्रिय शक्ति को ही लीजिए उसका सदुपयोग किया जाय तो जीवन बड़ा सुखी और समृद्ध हो सकता है पर ऐसा न करके लोग उसका दुरुपयोग करते हैं और दुख उठाते हैं। वीर्य शरीर का सार है, उसकी कुछ बूँदों से एक मनुष्य की उत्पत्ति होती है। उसके संचय से हर एक अंग पुष्ट होता है, स्फूर्ति ताजगी, चैतन्यता, प्रफुल्लता, उत्साह एवं तन्दुरुस्ती स्थिर रहती है, दीर्घ जीवन प्राप्त होता है। पर इसी शक्ति को विषय वासना में दुरुपयोग करने से शरीर अशक्त एवं रुग्ण बन जाता है और असमय मृत्यु के मुख में जाना पड़ता है। जिह्वा एक कुशल डॉक्टर की भाँति मुख पर पहरेदार की भाँति इसलिए नियुक्त है कि पेट में जाने से पहले परीक्षा करे कि यह वस्तु ग्रहण योग्य है या नहीं। पर इस प्रयोजन की अपेक्षा जब उसे चटोरा बनाकर षट्रस व्यंजन पेट में अन्धाधुन्ध ठूँसे जाते हैं तो आमाशय आँतें, जिगर आदि पेट के अवयव खराब हो जाते हैं और अस्वस्थता आ घेरती है। इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों की शक्ति का लाभदायक कार्य के लिए संचय न करके, अपव्यय किया जाता है तो वे नष्ट या विकृत हो जाती हैं और हमें आनन्द के स्थान पर पीड़ा का उपहार देती हैं।
धन द्वारा जहाँ, स्वास्थ्य, धर्म, शिक्षा, प्रतिष्ठा आदि की प्राप्ति होती है वहाँ दुरुपयोग से बीमारी, कुसंस्कार पाप, बदनामी, घमंड बेचैनी आदि भी खरीदी जा सकती हैं। बुद्धि से हम महापुरुष एवं महात्मा भी बन सकते हैं और असुर, पिशाच तथा शैतान भी। इसलिए जहाँ शक्ति का उपार्जन आवश्यक है वहाँ उसको अपव्यय से बचाकर आवश्यकता के लिए संचय तथा उपयोगी कार्यों में व्यय करने की सावधानी भी आवश्यक है। यह सावधानी ही संयम है।
संयम का अर्थ स्वाभाविक एवं आवश्यक इच्छाओं, क्षुधाओं, आवश्यकताओं को अकारण कुचल डालना नहीं है। ऐसा करने से तो कुचली हुई मनोवृत्तियों का मनोविज्ञान शास्त्र के अनुसार बड़ा भयंकर रूप बन सकता है और उससे शारीरिक एवं मानसिक भयानक रोग उठ खड़े हो सकते हैं। विवेक पूर्वक हमें यह विचारना चाहिए कि किस शक्ति को किस कार्य के लिए किस मात्रा में व्यय करना चाहिए। विवेक जैसा निर्णय करे उसके अनुसार शक्तियों का नियंत्रण भी करना चाहिए। और व्यय भी। रोक हमें अपने चटोरे पन पर लगानी है, निग्रह लोलुपता का करना है, जिस तृष्णा और अविवेक के कारण मन हानि लाभ न सोच कर क्षणिक आनन्द के लिए सत्यानाशी मार्ग पर दौड़ पड़ता है उस कमजोरी पर विजय पानी है। हमें अपनी लोलुपता पर नियंत्रण करना चाहिए उसे परास्त करना चाहिए और विवेक के आधार पर इन्द्रिय भोगों का तथा जीवन के अन्य आनन्दों का उपभोग करना चाहिए।
समय का एक एक क्षण अमूल्य सम्पत्ति है, स्वास्थ्य सम्पत्ति है, जीवन सम्पत्ति है, मस्तिष्क सम्पत्ति है, इसके अतिरिक्त धन दौलत, योग्यता शिक्षा आदि भी सम्पत्ति हैं। इन सभी शक्तियों को बढ़ाने के लिए प्रयत्न शील रहना चाहिए। इनके एक एक कण को फिजूल खर्ची से बचाना चाहिए और सर्वश्रेष्ठ लाभदायक उपयोग में उनका खर्च करना चाहिए। यही संयम का तत्व है।
(6) आत्म विस्तार— जिसका ‘अहम्’ जितना छोटा संकीर्ण है वह उतना ही छोटा और जिसका ‘अहम्’ जितना विस्तृत और विशाल, जितना, व्यापक है वह उतना ही विशाल है। आत्मोन्नति का अर्थ अपनी लघुता को मनुष्यता को महान क्षेत्र में विस्तार करना है। आत्मा को परमआत्मा (परमात्मा) बना देने के लिए ही समस्त अध्यात्मिक साधन हैं। व्यष्टि को विशाल समष्टि से घुला देना यह परमात्मा की प्राप्ति है। यह समस्त विश्व परमात्मा का ही साकार रूप है जैसा कि गीता में विराट् रूप दिखा कर अर्जुन को बताया है। शास्त्र वचनों में भी ऐसा ही कहा गया है। पुरुष एवेंद सर्वं (ऋग्वेद 10।90।2) आत्मा वा इदं सर्वं (छा. 3. 7।25।2) नारायण इदं सर्वं (कारा. 303) ब्रह्म खल्विदं सर्वं (मैत्री. उप. 4।6) वासुदेवः सर्वं (गीता 7।19)। इस सर्वं में अपने को घुला देना अध्यात्म का चरम उद्देश्य है।
समाज के लाभ के लिए सार्वजनिक हित के लिए, अपने तुच्छ स्वार्थ को निछावर कर देना, आत्मविस्तार है। अपने को समाज का एक अंग मान कर समाज सेवा की दृष्टि से ही अपनी सेवा भी करना ठीक है, पर समाज को तनिक भी क्षति पहुँचा कर अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए आध्यात्मवादी कोई इच्छा नहीं करता। उसकी विचारने और काम करने की हर एक क्रिया के पीछे सार्वजनिक हित का ही ध्यान रहता है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के दृष्टिकोण से वह सबको अपना समझता है और ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ के अनुसार दूसरों के दुख को अपना दुख और दूसरों के सुख को अपना सुख समझता है। समाज की सुख शान्ति और सुसंचालन यही उसकी कार्य प्रणाली का मेरुदंड होता है। इसी आधार पर वह अपनी जीवन नीति निर्धारित करता है।
छोटे लड़के केवल अपने खाने पहनने और खेलने की चिन्ता रखते है। कुछ बड़े हो जाने पर विवाह होता है तब वह अपने साथ अपनी पत्नी की चिन्ता करता है उसे अच्छे भोजन, वस्त्र देकर उतना ही प्रसन्न होता है जितना बचपन में अपने लिए पाकर प्रसन्न होता। उसके बाद बच्चे होते हैं उनकी संख्या बढ़ती है उसका आत्मभाव स्त्री से बढ़कर बच्चों तक फैलता जिसकी चिन्ता उसी प्रकार करनी पड़ती है जैसे सुख दुख में अपने के प्रति भी कभी अनुभव होता है। इसके बाद कुटुम्ब कबीला। सारे कुटुम्ब में अपनापन फैल जाता है। तब खुद खाने की अपेक्षा दूसरों को खिलाने में अधिक आनन्द आता है। एक गृहिणी अपने पति, भ्राता और पुत्र को स्वादिष्ट भोजन कराते समय स्वयं खाने की अपेक्षा अधिक आनन्द अनुभव करती है। जब यह मनोदशा अधिक परिपक्व और पुष्ट हो जाती है, मनुष्य सब में अपने को और अपने को सब में देखने लगता है तो वह सफल आध्यात्मवादी बन जाता है, आत्मोन्नति का यही क्रम है। ध्यष्टि को समष्टि पर, खुदी को खुदा पर, बलिदान करना, आत्म समर्पण करना, शरणागति होना यही है। स्वार्थ और परमार्थ को एक कर देना, आत्मविस्तार का व्यावहारिक रूप है।
(7) ब्रह्मपरायणता— अध्यात्मवाद के अनेक रहस्यों, कर्मों, भेद उपभेदों को जान लेने के बाद भी कितने ही मनुष्य बहुत निम्न श्रेणी के और गिरे दर्जे के रहते हैं। बौद्धिक प्रौढ़ता के कारण वे इस संबंध में बातें तो बहुत बढ़ी चढ़ी कर सकते हैं। पर जब तक अन्तःकरण तरंगित न हो, उसमें लचक, कोमलता, श्रद्धा, आस्था, निष्ठा, विश्वास न हो तब तक आचरण में वे चीजें नहीं आतीं। कितने ही मनुष्यों की मनोभूमि बड़ी कठोर, ऊजड़, नीरस, शुष्क एवं हठीली होती है। ऐसे व्यक्ति निष्ठुर, नास्तिक, क्रूर, घमंडी, अहंमन्य खुदगर्ज, तोताचश्म, मतलबी, निर्दयी होते हैं। दूसरों के दुःख−दर्द से न तो उनकी छाती पसीजती है और न दूसरों की सुख शान्ति देखकर उन्हें सन्तोष होता है। ऐसे पाषाण हृदय को एक प्रकार का नास्तिक ही कहना चाहिए।
ईशोपनिषद् में ईश्वर को “कवि” कहा गया है। कवियों की मनोभूमि बड़ी लचीली होती है। वे विश्व की अनुभूतियों को समझते, ग्रहण करते और उनसे प्रभावित होते हैं । संगीत, साहित्य, कला से रहित मनुष्यों को नीतिकारों ने बिना सींग पूछ का पशु कहा है। कारण मानवीय अन्तःकरण की सरसता के द्वारा ही मनुष्य सच्चे अर्थों में मनुष्य बनता है। संगीत, साहित्य एवं कला द्वारा मनुष्य का हृदय लहराता है, तरंगित होता है, लचीला बनता है, सौंदर्य की अनुभूति करता है। ‘कवित्व’ ईश्वरीय भाव है। अन्तस्तल की सरसता द्वारा ही भक्ति योग की साधना होती है। पाषाण से कठोर, शुष्क हृदय वाले व्यक्ति, भक्तिरस के दैवी स्वाद का आस्वादन नहीं कर सकते।
अन्तःकरण को सरस बनाने के लिए आध्यात्मिक कवित्व का आचरण करना होता है। दया, करुणा, सहानुभूति, उदारता, क्षमा, विनय, मधुर भाषण शिष्टाचार, दान, सेवा, त्याग पवित्रता निष्कपटता, सात्विक प्रेम, प्रसन्नता सरीखे सद्गुणों को विचार क्षेत्र में स्थान देने से सात्विकता की मंद मंद भीनी सुगंधि से मनोभूमि आनंदित हो उठती है। इस प्रकार की भावनाओं का चिन्तन करने से, इस प्रकार के व्यवहार की कल्पना करने से अन्तःलोक पुलकित एवं गदगद हो जाता है। आचरण में इस प्रकार के भावों को कार्यान्वित करने पर तो मनुष्य का रोम रोम आनन्द से परिपूर्ण हो जाता है। सात्विकता को विचारों और कार्यों में आश्रय देने से जो उच्चकोटि का आत्म सन्तोष प्राप्त होता है उसे ही ब्रह्मानन्द या परमानन्द कहते हैं। आत्मा का आशीर्वाद इसी स्थिति में पहुँचने वाले प्राप्त करते हैं।
पवित्रता में, पवित्र दृष्टिकोण में, सच्चे सौंदर्य की अजस्र धारा बहती है। शरीर की निर्मलता वस्त्रों की सफाई, घर की स्वच्छता, प्रयोग में आने वाले वस्तुओं की सुव्यवस्था यह सब आरंभिक पवित्रताएं हैं, इन्हें आचरण में लाने के साथ-साथ विचारों की पवित्रता, सात्विकता एवं महानता पर ध्यान देना चाहिए। हमारा हृदय प्रेम से सराबोर रहे। पापियों को रोगी समझ कर हम उनकी सेवा करें, भूले भटकों को बाल बुद्धि समझ कर उनके अज्ञान को दूर करने का प्रयत्न करें, दूसरों की कमजोरियों को उदारता पूर्वक निबाहें और अपनी महानता द्वारा सबको आगे बढ़ाने का उपाय करें।
सृष्टि का, प्रकृति का कण−कण सौंदर्य से परिपूर्ण है। एक कलाकार की भाँति, एक तत्वदर्शी दार्शनिक की भाँति सृष्टि में सर्वत्र बिखरे हुए ईश्वरीय सौंदर्य का निरीक्षण करें। नदी, पर्वत, बन उपवन, वृक्ष पौधे घास आकाश, नक्षत्र यह सब अपार सौंदर्य के केन्द्र हैं। कलापूर्ण चित्र जैसे प्रातः सायं का आकाश कला के जीवित उपहार हैं। पुष्प, चिड़ियाँ निराले निराले रंग और स्वभाव के जीव जन्तु पशु पक्षी, अपनी मनोहर की सानी नहीं रखते। बालकों का भोलापन किशोरों की चंचलता, तरुणों की उमंग, प्रौढ़ों की जिम्मेदारी तथा वृद्धों का अनुभव अपना अलग-2 सौंदर्य रखते हैं। माता, बहिन, पत्नी और पुत्री के नेत्रों में जो अपने अपने ढंग की सरसताएं हैं। उनकी सुन्दरता का कोई पारावार नहीं ऐसे प्रभु के सर्वांगीण सुन्दर उपवन में हमें आनंदित रहना चाहिए। इस नन्दन बन के काँटे बीनते और रोड़े हटाते हुए भी हमें आनंदित ही रहना चाहिए। अपने चारों ओर प्रभु की सौंदर्यमयी कला का रूप निरीक्षण करें और हर घड़ी आनंदित रहें।
अन्तःकरण को सरस बनाना, पवित्र रखना सतोगुणी तत्वों से विचार और कार्यों को सराबोर रखना, चारों ओर बिखरे हुए दैवी सौंदर्य को देखकर आनंदित एवं संतुष्ट रहना, यह ब्रह्म परायणता है। ब्रह्म परायणता का आनन्द ही ब्रह्मानन्द एवं परमानन्द है। इसका रस सर्वोपरि है। इस रस का आस्वादन करने की तृषा से जीव इधर उधर भटकता है। जब उसे यह रस मिल जाता है तो उसे आत्म तृप्ति मिल जाती है। उस रस से ही ईश्वर की झाँकी होती है। श्रुति कहती है “रसो वै सः”। जिस रस को श्रुतियों ने सरस बताया है वह यही ब्रह्म परायणता का रस है।
यह सात आध्यात्मिक भूमिकाएं हैं इन्हीं की प्राप्ति के लिए ही नाना प्रकार के योग जप, तप, यज्ञ आदि किये जाते हैं।
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