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ईशा वास्योपनिषद मंत्र -12 हिन्दी भाष्य सहित

 अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽसम्भूतिमुपासते । ततो भूय इव ते तमो य उ सम्भूत्यां रताः ॥ १२ ॥ 
स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
शब्दार्थ- (अन्धम्) घोर । (तमः) अंधकार में । (प्रविशान्ति) जाते हैं । (ये) जो । (असम्भूतिम्) अनादि प्रकृति की । (उपासते) उपासना करते हैं ।(ततः) उनसे । (भूयइव) अधिकतर । (ते) वे । (तमः) अन्धकार मे घुसे हुए हैं । (ये) जो । (उ) शंका में । (सम्भूत्याम्) प्रकृति-जन्य कार्यों में । (रताः) लगे हुए हैं । अर्थ- जो मनुष्य अज्ञानता से कारण (प्रकृति) को ईश्वर समझकर उसकी उपासना से सुख की इच्छा करते है, वह बहुत ही अज्ञान के अन्धकार में फँसे हुए अपने आपको दुखी देखते है । यद्यपि दुःख – सुख जीवात्मा का धर्म्म नहीं, किन्तु मन का धर्म्म हैं, परन्तु अज्ञानी मनुष्य, जिनकी बुद्धि प्रकृति की उपासना से बिगड जाती है, मन के धर्म्म अपने में अनुभव करने लगते है । प्रकृति के उपासक इतने अज्ञानी हो जाते हैं, कि उनको अपना ज्ञान भी नही रहता और वे मनुष्य जो प्रकृति को ईश्वर समझकर उसकी उपासना से सुख की इच्छा करते है, वह उनसे अधिक बुरी दशा में पहुँच जाते है । प्रश्न- कारण-प्रकृति के उपासक कौन मनुष्य है ? उत्तर- जितने नास्तिक मनुष्य, जो केवल प्रकृति से जगत् की उत्पत्ति मानते है, वह सब प्रकृति के उपासक हैं । उनको सांसारिक विषय-भोग के अतिरिक्त कोई काम अच्छा नहीं प्रतीत होता । वह आत्मा को प्रकृति के एक विशेष रचना का प्रभाव रूप समझते हैं, मानो उनको अपनी सत्ता का भी ज्ञान नही रहता । प्रश्न- कार्य-प्रकृति के उपासक कौन मनुष्य हैं ? उत्तर- मूर्त्ति-पूजक, धन-पूजक इत्यादि जितने मनुष्य हैं, वह सांसारिक वस्तुओं से सुख की इच्छा करते है, वह सब कार्य-प्रकृति के उपासक है । प्रश्न- न तो मूर्ति-पूजक ही मूर्ति को ईश्वर मानते है और न धन-पूजक ही धन को ईश्वर मानते है, इस कारण यह प्रकृति को ईश्वर मानने वाले नहीं है । उत्तर- जो मनुष्य ईश्वर की उपासना करते है, वह किस निमित्त करते है, केवल आनन्द अर्थात् सुख की इच्छा से । प्रकृति सत है, जीवात्मा सत् चित् है, परमात्मा सत् चित् और आनंद है । जीव में आनन्द का अभाव हैं और उसे आनन्द की इच्छा रहती है, इस कारण वह आनन्द-स्वरूप परमात्मा की उपासना प्रेम से करता है । अब जो मनुष्य प्रकृति से उत्पन्न हुए द्रव्यों को सुख का साधन समझते है, वह वास्तव में धन को परमेश्वर समझते है, क्योंकि बिना सुख की इच्छा के मनुष्य किसी वस्तु की उपासना नही कर सकता और जिसकी उपासना यथार्थ सुख के लिये की जाय, वही ध्येय परमेश्वर है ।
आचार्य राजवीर शास्त्री
पदार्थः—(अन्धम्) दृष्ट्यावरकम् (तमः) गाढमज्ञानम् (प्र) (विशन्ति) (ये) (अविद्याम्) अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचि-सुखात्मख्यातिरविद्येति=ज्ञानादिगुणरहितं वस्तु कार्यकारणात्मकं जडं परमेश्वराद्भिन्नम् (उपासते) अभ्यस्यन्ति (ततः) (भूय इव) अधिक- मिव (ते) (तमः) अज्ञानम् (ये) पण्डितं मन्यमानाः (उ) (विद्यायाम्) शब्दार्थसम्बन्धविज्ञानमात्रेऽवैदिके आचरणे (रताः) रममाणाः ॥१२॥ अन्वयः—ये मनुष्या अविद्यामुपासते तेऽन्धतमः प्रविशन्ति ये विद्यायां रतास्त उ ततो भूय इव तमः प्रविशन्ति ॥१२॥ सपदार्थान्वयः— ये मनुष्याः अविद्याम् अनित्याशुचि- दुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्म- ख्यातिरविद्येति=ज्ञानादिगुणरहितं वस्तु= कार्यकारणात्मकं जडं परमेश्वराद्भिन्नम् उपासते अभ्यस्यन्ति; तेऽन्धं दृष्ट्या- वरकं तमः गाढमज्ञानं प्रविशन्ति । ये पण्डितं मन्यमाना विद्यायां शब्दार्थसम्बन्धविज्ञानमात्रेऽवैदिके आचरणे रताः रममाणाः त उ ततः भूय इव अधिकमिव तमः अज्ञानं प्रविशन्ति ॥४०।१२॥ भावार्थः— अत्रोपमा- लङ्कारः । यद्यच्चेतनं ज्ञानादिगुणयुक्तं वस्तु तज्ज्ञातृ, यदविद्यारूपं तज्ज्ञेयम्; यच्च चेतनं ब्रह्म विद्वदात्मस्वरूपं वा तदुपासनीयं सेवनीयं च । यदतो भिन्नं तन्नोपासनीयं, किन्तूपकर्त्तव्यम्। भाषार्थ—(ये) जो मनुष्य (अविद्याम्) अनित्य को नित्य, अपवित्र को पवित्र, दुःख को सुख अनात्मा को आत्मा जानना रूप अविद्या है, अतः ज्ञानादि गुणों से रहित, कार्यकारण रूप परमेश्वर से भिन्न जड़ वस्तु की (उपासते) उपासना करते हैं (ते) वे (अन्धम्) ज्ञानदृष्टि को ढकने वाले (तमः) गाढ़ अज्ञान में (प्रविशन्ति) प्रविष्ट होते हैं । और— (ये) जो अपने आपको पण्डित मानने वाले (विद्यायाम्) शब्द, अर्थ और सम्बन्ध के जानने मात्र तथा अवैदिक आचरण में (रताः) रमण करते हैं (ते) वे (उ) निश्चय ही (ततः) उससे (भूयः इव) कहीं अधिक (तमः) अज्ञान में प्रविष्ट होते हैं ॥१२॥ भावार्थ—यहां उपमा- लङ्कार है । जो-जो ज्ञानादि गुणों से युक्त चेतन वस्तु है, वह ज्ञाता; और जो अविद्यारूप है वह ज्ञेय कहलाता है । और जो चेतन ब्रह्म अथवा विद्वान् आत्मा है, उसी की उपासना और सेवा करनी चाहिए, और जो इससे भिन्न हैं, उसकी उपासना नहीं करनी चाहिए, किन्तु उससे उपकार ग्रहण करना चाहिए । ये मनुष्या अविद्याऽस्मिताराग- द्वेषाऽभिनिवेशक्लेशैर्युक्तास्ते परमेश्वरंविहायाऽतोभिन्नं जडं वस्तूपास्य महति दुःख-साङ्गारे निमज्जन्ति । ये च शब्दार्थाऽन्वयमात्रं संस्कृतमधीत्य सत्यभाषण-पक्षपात- रहितन्यायाचरणाख्यं धर्मं नाऽऽ- चरन्त्यभिमानाऽरूढाः सन्तो विद्यां तिरस्कृत्याविद्यामेव मन्यन्ते, ते चाऽ- धिकतमसि दुःखार्णवे सततं पीडिता जायन्ते ॥४०।१२॥ जो मनुष्य अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश इन पांच क्लेशों से युक्त हैं; वे परमेश्वर को छोड़कर इससे भिन्न जड़ वस्तु की उपासना करके महान् दुःखसाङ्गार में डूबते हैं । और जो शब्द, अर्थ, सम्बन्ध मात्र संस्कृत भाषा पढ़कर सत्यभाषण, पक्षपात रहित न्यायाचरण रूप धर्म का आचरण नहीं करते, अपितु अभिमानी होकर विद्या का अपमान करके अविद्या का मान करते हैं, वे अत्यन्त अज्ञानरूप दुःखसाङ्गार में पड़े सदा दुःखी रहते हैं॥४०।१२॥ अविद्याम्=परमेश्वराद्भिन्नं जडं वस्तु । विद्यायाम्= शब्दार्थाऽन्वयमात्रं संस्कृतमधीत्य सत्यभाषणपक्षपातरहितन्यायाचरणाख्य- धर्मस्याऽनाचरणे रताः=अभिमानारूढाः सन्तो विद्यां तिरस्कृत्याऽविद्यामेव मन्यमानाः । अन्धन्तमः=महद्दुःखसाङ्गारम् । भूयः=अधिकम् ॥४०।१२॥ भाष्यसार—विद्या और अविद्या की उपासना का फल—जो अनित्य को नित्य, अपवित्र को पवित्र, दुःख को सुख, अनात्मा को आत्मा जानना रूप अविद्या है, अतः ज्ञानादि गुणों से रहित, कार्य कारणात्मक, परमेश्वर से भिन्न वस्तु की जो उपासना करते हैं वे घोर अज्ञान को प्राप्त होते हैं । अपने आपको पण्डित मानने वाले, विद्या अर्थात् शब्द-अर्थ-सम्बन्ध के विज्ञानमात्र में तथा अवैदिक आचरण में रमण करते हैं, वे उससे भी कहीं अधिक अज्ञान को प्राप्त होते हैं । तात्पर्य यह है कि चेतन आत्मा ज्ञानादि गुणों से युक्त ज्ञाता है । ज्ञानादि गुणों से रहित अविद्या रूप वस्तु ज्ञेय है । चेतन ब्रह्म उपासनीय है और विद्वानों का आत्मा सेवा करने योग्य है । विद्या अर्थात् चेतन ब्रह्म और आत्मा से भिन्न अर्थात् अविद्या (जड़) वस्तु उपासना के योग्य नहीं होती किन्तु उपकार लेने योग्य होती है । अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष अभिनिवेश पांच क्लेश हैं । इनसे युक्त मनुष्य परमेश्वर को छोड़कर उनसे भिन्न जड़ (अविद्या) वस्तु की उपासना करते हैं, वे महान् दुःखसाङ्गार में डूबते हैं । और जो शब्द, अर्थ, सम्बन्धमात्र संस्कृत पढ़कर सत्यभाषण, पक्षपात रहित न्यायाचरण रूप धर्म का आचरण नहीं करते, अभिमानी होकर विद्या (चेतन ब्रह्म) का तिरस्कार करके अविद्या (जड़ पदार्थ) को ही अधिक मानते हैं; वे अधि क अन्धकार रूप दुःखसाङ्गार में सदा पीड़ित रहते हैं ॥४०।१२॥ समीक्षा—(क) ईशावास्योपनिषद् में नवम मन्त्र यजुर्वेद में ४०।१२वां मन्त्र है । यहां स्थानभेद होते हुए भी पाठभेद नहीं है । इस मन्त्र का अर्थ करते हुए श्री शङ्कराचार्य जी लिखते हैं—(क) “उनमें वे तो अदर्शनात्मक अन्धकार में प्रवेश करते हैं । कौन ? जो अविद्या=विद्या से अन्य अविद्या अर्थात् कर्म (केवल अग्निहोत्रादिरूप अविद्या ही) की उपासना करते हैं अर्थात् तत्पर होकर कर्म का ही अनुष्ठान करते रहते हैं । क्योंकि कर्म विद्या के विरोधी हैं तथा उस अन्धकार से भी कहीं अधिक अन्धकार में वे प्रवेश करते हैं, कौन ? जो कर्म करना छोड़कर केवल विद्या अर्थात् देवता-ज्ञान में ही रत हैं ।” १ (ख) “सो कर्म के सम्बन्धीरूप से यहां देववित्त अर्थात् देवता सम्बन्धी ज्ञान का ही उल्लेख हुआ है, परमात्मज्ञान का नहीं । क्योंकि ‘विद्या से देवलोक प्राप्त होता है, ऐसा पृथक् फल सुना गया है ।” १. “तत्र अन्धन्तमः=अदर्शनात्मकं तमः प्रविशन्ति । के ? येऽविद्यां विद्याया अन्या अविद्या तां कर्म इत्यर्थः; कर्मणो विद्याविरोधित्वात् । तामविद्याम् अग्निहोत्रादिलक्षणामेव केवलामुपासते तत्पराः सन्तोऽनुतिष्ठन्तीत्य- भिप्रायः । ततस्तस्मादन्धात्मकात्तमसो भूय इव बहुतरमेव ते तमः प्रविशन्ति, के ? कर्म हित्वा ये उ=ये तु विद्यायामेव=देवताज्ञान एव रताः अभिरताः।” २. “तदिहोच्यते यद्दैवं वित्तं देवताविषयं ज्ञानं कर्मसम्बन्धित्वेनोपन्यस्तं न परमात्मज्ञानम् । ‘विद्यया देवलोकः’ (बृ० उ० १।५।१६) इति पृथक् फलश्रवणात् ।” (ईशावास्यो० मं० ९ । शा० भा०) २ समीक्षा—मन्त्र में ‘अन्धम्’ ‘तमः’ दो शब्द पठित हैं । दोनों ही अन्धकार के वाचक हैं । ‘अभ्यासे भूयांसमर्थं मन्यन्ते इति’ यास्काचार्य के मतानुसार महर्षि दयानन्द ने ‘ज्ञान दृष्टि को ढकने वाला अज्ञान’ अर्थ किया है । किन्तु शाङ्करभाष्य में ‘अदर्शनात्मक अन्धकार’ अर्थ किया है। इसमें अर्थगाम्भीर्य प्रकट नहीं होता है । क्योंकि ‘तमः’ तो होता ही अदर्शनात्मक है । और मन्त्र में ‘उपासते’ क्रिया पठित है, जिससे स्पष्ट है कि इस मन्त्र में जो निषेध किया है, वह उपासना विरोधी ही होना चाहिए । जैसे परमात्मा उपासनीय है, उससे भिन्न जड़ादि वस्तुओं के उपासक अज्ञानान्धकार में गिरते हैं, यह अर्थ तो उचित है । विद्या से जड़वस्तुएं शून्य होती हैं । उनकी उपासना अज्ञानान्धकार में ले जाती है। और जो विद्या में लगे हैं, वे उनसे भी अधिक अन्धकार को प्राप्त करते हैं । यहां ‘विद्या’ का अर्थ शाङ्कर-भाष्य में ‘देवता-ज्ञान’ किया है । और इसके लिए ‘विद्यया देवलोकः’ का प्रमाण भी उद्धृत किया है । प्रथम तो यह प्रमाण उनकी बात की पुष्टि नहीं करता । क्योंकि (बृ० उ० १।५।१६) में पूरा वाक्य इस प्रकार है— “त्रयो वाव लोका मनुष्यलोकः पितृलोको देवलोक इति सोऽयं मनुष्यलोकः पुत्रेणैव जय्यो नान्येन कर्मणा, कर्मणा पितृलोको विद्यया देवलोकः, देवलोको वै लोकानां श्रेष्ठस्तस्माद् विद्यां प्रशंसन्ति ।” इस प्रमाण में तीनों लोकों का वर्णन है और वे कहीं अन्यत्र नहीं हैं, इसी संसार में हैं । साधारणरूप से मनुष्यों को मनुष्यलोक, रक्षक (विद्या या बल से) होने से विशिष्ट मनुष्यों को पितृलोक और विद्वानों को देवलोक कहते हैं । और इन सबके साथ ‘जय्यः=जीतना चाहिए, क्रिया का संयोग है । जो पितर=रक्षक हैं, उनको कर्म से जीता जा सकता है । क्योंकि वे अनवरत कार्यरत होते हैं । विद्वानों को विद्या से जीता जा सकता है । इसमें कर्म और विद्या में क्या विरोध हुआ ? कर्म से अभिप्राय श्री शङ्कराचार्य का ‘अग्निहोत्रादि’ से है, क्या ये विना विद्या के ही सम्भव हैं ? और जो विद्या में रत हैं, क्या उन्हें कर्म नहीं करना पड़ता । विद्या और कर्म को परस्पर विरुद्ध बताना नितान्त असत्य धारणा है, और यह कथन उपनिषत् के मन्त्र के भी विरुद्ध है । इसी उपनिषद् में विद्या और अविद्या को साथ-साथ जानने का आगे फल भी लिखा है—“अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते ।” अर्थात् अविद्या से मृत्यु को पार करके विद्या से अमृत=परमात्मा को प्राप्त करता है । श्री शङ्कराचार्य जी ने भी इस का यही अर्थ लिखा है । इसमें कर्म और विद्या में कोई विरोध नहीं है, प्रत्युत परस्पर एक दूसरे के पूरक हैं । ‘विद्या से देवताज्ञान’ में शङ्कराचार्य जी का क्या आशय है, यह उन्होंने अस्पष्ट ही छोड़ दिया है । ‘देवता’ से यदि सर्वोत्तम महादेव परमात्मा का ग्रहण करते हैं अथवा परमात्मा से भिन्न देवों का ग्रहण करते हैं तो भी ज्ञानोन्मुख होने से महान्धकार में क्यों गिरेंगे ? जड़ व चेतन उभयविध देवों को जानने से अज्ञान कैसे होगा ? ‘देवो दानाद्वा दीपनाद्वा द्योतनाद्वा द्युस्थानो भवतीति वा’ इस निरुक्त के प्रमाण से देव दूसरों को विद्या या प्रकाशादि से प्रकाशित ही करते हैं, अतः ‘अज्ञान में गिरना’ यह अर्थ बुद्धिगम्य नहीं है । महर्षि दयानन्द की व्याख्या तर्कसंगत है कि जो विद्यार्जन में तो लगा है, किन्तु तदनुकूल आचरण नहीं करता, वह न जानने वाले की अपेक्षा अधिक दोषी है, अतः जानबूझकर कर्म न करने से वह अधिक अज्ञानी है । और विद्या पढ़कर मिथ्या अभिमानी होने से तदनुकूल आचरण न करना विद्या का स्पष्टरूप से तिरस्कार है । इसलिए मन्त्र में उन्हें महान्धकार अर्थात् दुःखसाङ्गार में गोते लगाने की बात कही है ।


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