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संस्कृत भाषा का स्वरूप

 संस्कृत भाषा का स्वरूप


संस्कृत भाषा संसार की समस्त परिष्कृत भाषाओं में प्राचीनतम है। निश्चय ही यह संसार भर का समस्त भाषाओं में वैदिक तथा अन्य महान साहित्य के कारण श्रेष्ठ है। इसको धार्मिक दृष्टि से ’देववाणी’ या ’सुर-भारती’ भी कहा जाता है। हिन्दु धर्म के सभी शास्त्र इसी भाषा में निबद्ध हैं और उनका उद्भव ऋषियों एवं देवताओं से माना जाता है। अत: उनसे सम्बद्ध होने के कारण यह देववाणी कहलाती है। देवताओं का आह्वान करने के लिये मन्त्र आदि का निर्माण इसी भाषा में हुआ है। उन मन्त्रों में अपार शक्ति है। दूसरे शब्दों में, देवता इसी भाषा को समझते एवं बोलते हैं, ऐसी हिन्दु धर्म की मान्यता है। दण्डी ने काव्यादर्श में लिखा है—-


             संस्कृत नाम दैवी वागन्वाख्याता महर्षिभि : ।


             भाषासु मघुरा मुख्य दिव्या गीर्वाण भारती ॥


संसार के सर्वप्रथम ग्रन्थ  ऋग्वेदादि इसी गौरवमयी वाणी में महर्षियों द्वारा भगवान का आन्तरिक  प्रेरणा से निर्मित हुए थे। इसी भाषा में अध्यात्म की गम्भीर गुत्थियों को सुलझाने वाले उपनिषदों का प्रणयन हुआ। सृष्टि के विकास-क्रम एवं प्रलय का वर्णन करने वाले इतिहास ग्रन्थ, पुराण आदि का निर्माण भी इसी भाषा में हुआ। हमारे पूर्वज आर्यों की उत्कृष्ट संस्कृति, रीति-रिवाज एवं परम्परा आदि का अवतरण भी इसी सुर भारती में हुआ है। इस प्रकार लौकिक अभ्युदय एवं पारलौकिक निःश्रेयस सिद्धि के साधन जितने ज्ञान-विज्ञान, कर्मकाण्ड, शास्त्र-पुराण आदि हैं, वे इसी देववाणी में अवतरित हुए हैं।


भाषा-विज्ञान की दृष्टि से संस्कृत आर्य-परिवार की भाषा है। इसे भारतीय-यूरोपीय अथवा भारत-जर्मनीय परिवार भी कहते हैं। आर्य-परिवार की दो विशिष्ट शाखाएँ हैं — पश्चिमी और पूर्वी। पूर्वी शाखा के अन्तर्गत भी दो प्रमुख वर्ग हैं — भारतीय वर्ग तथा ईरानी वर्ग। भारतीय वर्ग के अन्तर्गत वैदिक संस्कृत, लौकिक संस्कृत तथा इससे उद्भूत हिन्दी, बंगाली, गुजराती आदि भारतीय भाषाएँ आती हैं। ईरानी वर्ग में ईरानी भाषा तथा उससे उत्पन्न फ़ारसी, पश्तो आदि हैं। भारतीय वर्ग की प्राचीनतम रूप ऋग्वेद में मिलता है। अन्य नव्य आर्य भारतीय भाषाओं का मूल यही वैदिक संस्कृत है। ईरानी भाषा का प्राचीनतम रूप पारसियों के मूल धार्मिक ग्रन्थ ’जेन्द अवेस्ता’ में निहित है। पश्चिमी शाखा में नौ वर्ग हैं जिनमें यूरोप की सभी प्राचीन और नव्य भाषाएँ सम्मिलति हैं। ये वर्ग इस प्रकार का है :


भारोपीय परिवार


पश्चिमी शाखा:

तोखारी वर्ग, हित्ताइत वर्ग, बाल्तो स्लाविक वर्ग (प्राचीन रूसी, पोलिश आदि), आर्मेनियन वर्ग, अल्बेयिन वर्ग, ग्रीक वर्ग( प्राचीन तथा अर्वाचीन ग्रीक), इतेलियन वर्ग (लेटिन, फ़्रैंच, इतेलियन, स्पेनिश आदि), कैल्टिक वर्ग (ब्रेतन भाषा), जर्मनीय वर्ग (अंग्रेज़ी, डच, जर्मन, स्केण्डिनोवियन)


पूर्वी शाखा: 


भारतीय वर्ग


ईरानी वर्ग


 


 


 भारोपीय परिवार की उपर्युक्त्त दोनों शाखाओं और उनके वर्ग की भाषाओं में भाषा-विज्ञान की दृष्टि से कुछ ऐसी समानताएँ पाई जाती हैं जिनके कारण हम इन सबको एक ही परिवार की भाषाएँ मानते हैं। कालान्तर में ये समानताएँ अज्ञात हो गई एवं देशों की जलवायु-भिन्नता के कारण ये एक दूसरे से एकदम पृथक हो गईं। संस्कृत का पितृ (पितर) शब्द ग्रीक के पतेर (Pater), लैटिन पतेर (Pater), जर्मन वातेर (Vater) तथा अंग्रेज़ी के फ़ादर (Father) शब्द से मिलता है। इन सभी शब्दों में पदान्तता की समानता है। उपयुक्त्त शब्दों में जो परवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं, वे जलवायु तथा अन्य कारणों से ध्वनि में परिवर्तन हुए हैं तथा ध्वनि परिवर्तन के नियमों के अनुकूल हैं। ग्रिम नियम के अनुसार संस्कृत की अघोष अल्पप्राण ध्वनि, अंग्रेज़ी में महाप्राण तथा जर्मन में संघर्षि अल्पप्राण पाई जाती है। भारत-यूरोपीय परिवार की भाषाओं का तुलानात्मक अध्ययन करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहँचते हैं कि इन भाषाओं की अपनी निजी विशेषताओं के होते हुए भी इनमें कुछ ऐसी समान विशेषताएँ हैं जिनसे हम एक मूल भारोपीय भाषा की कलपना कर सकते हैं। यह काल्पनिक आदिम भाषा ही भारोपीय परिवार की मूल भाषा रही होगी, ऐसा अनुमान विज्ञान के नियमों के अनुकूल होते हुए भी इसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है।


डॉ० भोलाशंकर व्यास के शब्दों में “ऋग्वेद के मन्त्रों की भाषा प्राचीनतम भारतीय भाषा है। यह भाषा अवेस्ता की भाषा के अत्यधिक निकट है तथा प्रा० भा० यू० ’गुन्द्रस्प्राख’ (Grundsprache) का पूर्णतः प्रतिनिधत्व करती है। इसी का विकसित रूप लौकिक संस्कृत तथा प्राकृत हैं। अवेस्ता की प्राचीनतम भाषा अभिव्यक्ति की दृष्टि से वैदिक संस्कृत से भिन्न नहीं मानी जा सकती। देखा जाय तो वह कालिदास की संस्कृत से वैदिक भाषा के कहीं अधिक नज़दीक है।“


वैदिक और लौकिक संस्कृत भाषा: वैदिक भाषा और संस्कृत यद्यपि भाषा-विज्ञान की दृष्टि से समान एवं एक ही वर्ग की भाषाएँ हैं। यों कहना चाहिये कि संस्कृत वैदिक भाषा का भाषा-विज्ञान के नियमों के अनुरूप विकसित रूप है; किन्तु दोनों में व्याकरणगत बहुत सी असमानताएँ हैं। वैदिक भाषा और संस्कृत का व्याकरण बहुत भिन्न है। साहित्य की दृष्टि से भी दोनों में पर्याप्त भेद है। वैदिक भाषा से संस्कृत तक आते-आते शब्दों के अर्थों में भी अन्तर आ गया है। उदाहरणार्थ वैदिक भाषा में ’वध’ शब्द हा अर्थ ’भयंकर हथियार’ होता है; किन्तु संस्कृत में ’मार डालना’। इसी प्रकार ’श्रद्धा’ शब्द का व्यवहार वैदिक भाषा में गर्भवती स्त्री की ’भीतरी इच्छा’ के अर्थ में था, किन्तु लौकिक संस्कृत में इसका अर्थ परिवर्तित होकर ’पूज्य बुद्धि का संचार’ हो गया।


’संस्कृत’ शब्द का अर्थ है — संस्कार की हुई भाषा। यह शब्द ’सम’ पूर्वक ’कृ’ धातु से बना हुआ है। संस्कृत और वैदिक भाषा एक दूसरे से पर्याप्त भिन्नता रखती हैं। यह एक निश्चित सिद्धांत है कि बोलचाल की भाषा और साहित्य-रचना की भाषा एक दूसरे से बहुत भिन्नता रखती हैं। जिस युग में वेद साहित्य की रचना हुई, उस युग में साहित्यिक अनुष्ठान की भाषा वैदिक भाषा थी और बोलचाल की थोड़ी उससे कम परिष्कृत एवं व्याकरण के नियमों से कम जकड़ी हुई भाषा-लोकभाषा — बोलचाल की भाषा थी। वैदिक भाषा का ठीक उच्चारण भी एक बड़ी साधना की अपेक्षा करता है अत; केवल तप:पूत ऋषिगण ही उसका सस्वर उच्चारण कर सकते थे। इसी भाषा में उन्होंने अपने अन्तःकरण में प्रतिभासित होने वाले आध्यत्मिक तत्त्व एवं ईश्वरीय ज्योति का प्रभाव निबद्ध किया है। धीरे-धीरे समय की गति के साथ तत:पूत ऋषियों का अभाव हो ग्या और उन्हीं के साथ वैदिक भाषा का भी ’साहित्यिक मरण’ हो गया अर्थात वैदिक भाषा में साहित्य युग का सृजन युग की प्रमुख प्रवृत्ति न रहा। अब जनसाधारण के भली-भांति समझने वाली एवं उनके द्वारा बोलॊ जाने वाली लोकभाषा में साहित्य की रचना होने लगी। लोकभाषा को साहित्य-सर्जन के उपर्युक्त बनाने के लिये उसे व्याकरण के नियमों में बाँधकर तथा अन्य प्रकार से भी शिष्ट एवं सभी प्रकार की भावाभिव्यक्ति के योग्य बनाने के लिए संस्कृत किया गया। संस्कार की नई लोकभाषा अथवा बोलचाल की भाषा लौकिक संस्कृत कहलाने लगी। कालान्तर में लौकिक शब्द का लोप हो गया और इसका नाम ’संस्कृत’ पड़ा। यास्क ने बोलचाल की भाषा को केवल भाषा कहा है


       भाषायामन्वध्यायनञ्च ।——निरुक्त १।४


इसी प्रकार अष्टाध्यायी में पाणिनि ने लोक व्यवहार में आने वाली बोली का नाम केवल भाषा दिया है


       भाषायां सदवसस्नुवः ।——–अष्टाध्यायी ३।२।१०८


 इस प्रकार प्रारम्भ में संस्कृत बोलचाल की भाषा थी। वैदिक भाषा का ’साहित्यिक मरण’ होने के बाद इस लोक व्यवहार की लोकभाषा का संस्कार किया गया और इस संस्कृत की हुई भाषा का नाम संस्कृत पड़ा। जब संस्कृत साहित्य पद पर आसीन हुई तो बोलचाल एवं लोक व्यवहार में जिस भाषा का प्रयोग आरम्भ हुआ, वह प्राकृत या जनसाधारण की भाषा कहलायी। यह घटना वाल्मीकि युग की है।


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