हिटलर
और मुसोलिन
एडोल्फ
हिटलर (२० अप्रैल १८८९ - ३० अप्रैल १९४५) एक प्रसिद्ध जर्मन राजनेता एवं तानाशाह
थे। वे "राष्ट्रीय समाजवादी जर्मन कामगार पार्टी" (NSDAP)
के नेता थे। इस पार्टी को प्राय: "नाजी
पार्टी" के नाम से जाना जाता है। सन् १९३३ से सन् १९४५ तक वह जर्मनी का शासक
रहे। हिटलर को द्वितीय विश्वयुद्ध के लिये सर्वाधिक जिम्मेदार माना जाता है।
द्वितीय विश्व युद्ध तब हुआ, जब
उनके आदेश पर नात्सी सेना ने पोलैंड पर आक्रमण किया। फ्रांस और ब्रिटेन ने पोलैंड
को सुरक्षा देने का वादा किया था और वादे के अनुसार उन दोनो ने नाज़ी जर्मनी के
खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी।
जीवनीः-
अडोल्फ हिटलर का जन्म आस्ट्रिया के वॉन नामक स्थान पर 20
अप्रैल 1889 को
हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा लिंज नामक स्थान पर हुई। पिता की मृत्यु के पश्चात् 17
वर्ष की अवस्था में वे वियना चले गए। कला
विद्यालय में प्रविष्ट होने में असफल होकर वे पोस्टकार्डों पर चित्र बनाकर अपना निर्वाह
करने लगे। इसी समय से वे साम्यवादियों और यहूदियों से घृणा करने लगे। जब प्रथम
विश्वयुद्ध प्रारंभ हुआ तो वे सेना में भर्ती हो गए और फ्रांस में कई लड़ाइयों में
उन्होंने भाग लिया। 1918 ई.
में युद्ध में घायल होने के कारण वे अस्पताल में रहे। जर्मनी की पराजय का उनको
बहुत दु:ख हुआ।
1918
ई. में उन्होंने नाजी दल की स्थापना की। इसका उद्देश्य साम्यवादियों और यहूदियों
से सब अधिकार छीनना था। इसके सदस्यों में देशप्रेम कूट-कूटकर भरा था। इस दल ने
यहूदियों को प्रथम विश्वयुद्ध की हार के लिए दोषी ठहराया। आर्थिक स्थिति खराब होने
के कारण जब नाजी दल के नेता हिटलर ने अपने ओजस्वी भाषणों में उसे ठीक करने का
आश्वासन दिया तो अनेक जर्मन इस दल के सदस्य हो गए। हिटलर ने भूमिसुधार करने,
वर्साई संधि को समाप्त करने और एक विशाल जर्मन
साम्राज्य की स्थापना का लक्ष्य जनता के सामने रखा जिससे जर्मन लोग सुख से रह
सकें। इस प्रकार 1922 ई. में हिटलर
एक प्रभावशाली व्यक्ति हो गए। उन्होंने स्वस्तिक को अपने दल का चिह्र बनाया जो कि
हिन्दुओ का शुभ चिह्र है समाचारपत्रों के द्वारा हिटलर ने अपने दल के सिद्धांतों
का प्रचार जनता में किया। भूरे रंग की पोशाक पहने सैनिकों की टुकड़ी तैयार
की गई। 1923 ई. में हिटलर
ने जर्मन सरकार को उखाड़ फेंकने का प्रयत्न किया। इसमें वे असफल रहे और जेलखाने
में डाल दिए गए। वहीं उन्होंने मीन कैम्फ ("मेरा संघर्ष") नामक अपनी
आत्मकथा लिखी। इसमें नाजी दल के सिद्धांतों का विवेचन किया। उन्होंने लिखा कि आर्य
जाति सभी जातियों से श्रेष्ठ है और जर्मन आर्य हैं। उन्हें विश्व का नेतृत्व करना
चाहिए। यहूदी सदा से संस्कृति में रोड़ा अटकाते आए हैं। जर्मन लोगों को
साम्राज्यविस्तार का पूर्ण अधिकार है। फ्रांस और रूस से लड़कर उन्हें जीवित रहने
के लिए भूमि प्राप्ति करनी चाहिए।
1930-32
में जर्मनी में बेरोज़गारी बहुत बढ़ गई। संसद् में नाजी दल के सदस्यों की संख्या 230
हो गई। 1932 के चुनाव में
हिटलर को राष्ट्रपति के चुनाव में सफलता नहीं मिली। जर्मनी की आर्थिक दशा बिगड़ती
गई और विजयी देशों ने उसे सैनिक शक्ति बढ़ाने की अनुमति की। 1933
में चांसलर बनते ही हिटलर ने जर्मन संसद् को भंग कर दिया,
साम्यवादी दल को गैरकानूनी घोषित कर दिया और
राष्ट्र को स्वावलंबी बनने के लिए ललकारा। हिटलर ने डॉ॰ जोज़ेफ गोयबल्स को अपना
प्रचारमंत्री नियुक्त किया। नाज़ी दल के विरोधी व्यक्तियों को जेलखानों में डाल
दिया गया। कार्यकारिणी और कानून बनाने की सारी शक्तियाँ हिटलर ने अपने हाथों में
ले ली। 1934 में उन्होंने
अपने को सर्वोच्च न्यायाधीश घोषित कर दिया। उसी वर्ष हिंडनबर्ग की मृत्यु के
पश्चात् वे राष्ट्रपति भी बन बैठे। नाजी दल का आतंक जनजीवन के प्रत्येक क्षेत्र
में छा गया। 1933 से 1938
तक लाखों यहूदियों की हत्या कर दी गई। नवयुवकों
में राष्ट्रपति के आदेशों का पूर्ण रूप से पालन करने की भावना भर दी गई और जर्मन
जाति का भाग्य सुधारने के लिए सारी शक्ति हिटलर ने अपने हाथ में ले ली।
हिटलर
ने 1933 में राष्ट्रसंघ को
छोड़ दिया और भावी युद्ध को ध्यान में रखकर जर्मनी की सैन्य शक्ति बढ़ाना प्रारंभ
कर दिया। प्राय: सारी जर्मन जाति को सैनिक प्रशिक्षण दिया गया।
1934 में
जर्मनी और पोलैंड के बीच एक-दूसरे पर आक्रमण न करने की संधि हुई। उसी वर्ष
आस्ट्रिया के नाजी दल ने वहाँ के चांसलर डॉलफ़स का वध कर दिया। जर्मनीं की इस
आक्रामक नीति से डरकर रूस, फ्रांस,
चेकोस्लोवाकिया, इटली
आदि देशों ने अपनी सुरक्षा के लिए पारस्परिक संधियाँ कीं।
उधर
हिटलर ने ब्रिटेन के साथ संधि करके अपनी जलसेना ब्रिटेन की जलसेना का 35
प्रतिशत रखने का वचन दिया। इसका उद्देश्य भावी युद्ध में ब्रिटेन को तटस्थ रखना था
किंतु 1935 में ब्रिटेन,
फ्रांस और इटली ने हिटलर की शस्त्रीकरण नीति की
निंदा की। अगले वर्ष हिटलर ने बर्साई की संधि को भंग करके अपनी सेनाएँ फ्रांस के
पूर्व में राइन नदी के प्रदेश पर अधिकार करने के लिए भेज दीं। 1937
में जर्मनी ने इटली से संधि की और उसी वर्ष आस्ट्रिया पर अधिकार कर लिया। हिटलर ने
फिर चेकोस्लोवाकिया के उन प्रदेशों को लेने की इच्छा की जिनके अधिकतर निवासी जर्मन
थे। ब्रिटेन, फ्रांस और इटली ने
हिटलर को संतुष्ट करने के लिए म्यूनिक के समझौते से चेकोस्लोवाकिया को इन प्रदेशों
को हिटलर को देने के लिए विवश किया। 1939
में हिटलर ने चेकोस्लोवाकिया के शेष भाग पर भी अधिकार कर लिया। फिर हिटलर ने रूस
से संधि करके पोलैड का पूर्वी भाग उसे दे दिया और पोलैंड के पश्चिमी भाग पर उसकी
सेनाओं ने अधिकार कर लिया। ब्रिटेन ने पोलैंड की रक्षा के लिए अपनी सेनाएँ भेजीं।
इस प्रकार द्वितीय विश्वयुद्ध प्ररंभ हुआ। फ्रांस की पराजय के पश्चात् हिटलर ने
मुसोलिनी से संधि करके रूम सागर पर अपना आधिपत्य स्थापित करने का विचार किया। इसके
पश्चात् जर्मनी ने रूस पर आक्रमण किया। जब अमरीका द्वितीय विश्वयुद्ध में सम्मिलित
हो गया तो हिटलर की सामरिक स्थिति बिगड़ने लगी। हिटलर के सैनिक अधिकारी उनके
विरुद्ध षड्यंत्र रचने लगे। जब रूसियों ने बर्लिन पर आक्रमण किया तो हिटलर ने 30
अप्रैल 1945, को
आत्महत्या कर ली। प्रथम विश्वयुद्ध के विजेता राष्ट्रों की संकुचित नीति के कारण
ही स्वाभिमनी जर्मन राष्ट्र को हिटलर के नेतृत्व में आक्रमक नीति अपनानी पड़ी।
हिटलर
का उत्थानः- प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात जहाँ एक ओर तानाशी प्रवृति का उदय हुआ।
वहीं दूसरी और जर्मनी में हिटलर के नेतृत्व में नाजी दल की स्थापना हुई। जर्मनी के
इतिहास में हिटलर का वही स्थान है जो फ्रांस में नेपोलियन बोनाबार्ट का,
इटली में मुसोलनी का और तुर्की में मुस्तफा
कमालपाशा का। हिटलर के पदार्पण के फलस्वरुप जर्मनी का कार्यकलाप हो सका। उन्होने
असधारण योग्यता, विलक्षण प्रतिभा और
राजनीतिक कटुता के कारण जर्मनी गणतंत्र पर अपना अधिपत्य कायम कर लिया। जर्मनी में
हिटलर का अभ्युदय और शक्ति की प्राप्ति एकाएक नहीं हुई। उनकी शक्ति का विकास धिरे-
2 हुआ। उनका जन्म 1889
ई. मंत आस्ट्रिया के एक गाँव में हुआ था। आर्थिक कठिनाईयों के कारण उसकी शिक्षा
अधुरी रह गई। वे वियेना में भवन निर्माण कला की शिक्षा लेना चाहते थे। लेकिन उसके
भाग्य में तो जर्मनी का पुर्णनिर्माण लिखा था। प्रथम विश्व युद्ध से ही उनका
भाग्योदय होने लगा। वे जर्मन सेना में भर्ती हो गए। उन्हें बहादुरी के लिए Iron
Cross की उपाधि मिली। युद्ध समाप्ति के पश्चात्
उन्होंने सक्रिय राजनीति में अभिरुची लेना शुरु किया।
नाजीदल
की स्थापनाः-1919 में उन्होंने
राष्ट्रीय समाजवादी जर्मन श्रमिक दल की स्थापना की। इस दल को नाजी दल कहा जाने
लगा। इस पद का पद चिन्ह स्वास्तिक था। दल के सदस्यों को कठोर अनुशासन का पालन करना
पड़ता था। सदस्य भुरे रंग की वर्दी पहनते थे। और बाँह पर काले रंग की पट्टी पर दल
का चिन्ह लगाते थे। इस दल के निश्चित कार्यक्रम थे जैसे- वर्साय संधि की समाप्ति,
सैनिक शक्ति को मजबूत करना,
विशाल जर्मन साम्राज्य की स्थापना,
खोये हुए उपनिवेश को प्राप्त कर यहुदियों को जर्मन
नागरिकता से वंचित करना, विदेशियों
के लिए जर्मन का दरवाजा बन्द करना, राष्ट्रविरोधी
संस्था को समाप्त करना, संसदीय
शासन प्रणाली का विरोध करना इत्यादि। उनके जोशीले भाषण और संगठन के तरीके से
नाजीदल का तेजी से विकाश हुआ। हिटलर जर्मनी राष्ट्रयता का कट्टा समर्थक था वह एक
विशाल जर्मन साम्राज्य की स्थापना करना चाहता था। इसके लिए उन्होंने नाजी दल की
स्थापना की। देश के विभिन्न भागों में इसकी शाखाएँ खोली गई। 1925
में स्वंयसेवक सेना का गठन किया गया। इसकी सदस्य
संख्या निरंतर बढ़ती गई। इसने निर्वाचन में भी हिस्सा लेना शुरु किया। 1932
के निर्वाचन में इसे 230
स्थान प्राप्त हुए।
हिटलर
का चांसलर बननाः-बढ़ते हुए प्रभाव को देखकर उन्हे चांसलर बनने के लिए आमंत्रित
किया गया। 1933 में उन्होंने
इस पद को स्वीकार कर लिया। 1934 में
उन्होने राष्ट्रपति और चांसलर के पद को मिलाकर एक कर दिया। और उन्होंने राष्ट्र
नायक की उपाधि धारण की। इस प्रकार उनके हाथों में समस्त सत्ता केंद्रित हो गई। इस
तरह अपनी विशिष्ट योग्यता के बल पर निरंतर प्रगति करता गया। और विश्व में महान
व्यक्ति के रूप में उभर कर सामने आया। हिटलर तथा उनकी पार्टी के उत्थान के निम्नलिखित
कारण थे जो इस प्रकार है।
वर्साय
की संधिः-प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात यूरोप राष्ट्रों ने वर्साय की संधि की।
जिसका प्रमुख उद्देश्य जर्मनी को कुचलना था। इसके द्वारा जर्मनी को आर्थिक
राजनीतिक तथा अंतराष्ट्रीय राजनीति की दृष्टि से पुर्णत: पंगु बना दिया गया।
वस्तुत: वर्साय की संधि जर्मनी की सारी तकलीफों की जड़ थी। जर्मन निवासी अपने
प्राचीन गौरव को पुन: प्राप्त करना चाहते थे। और वह एक ऐसे नेता की तलाश में थे जो
उनके राष्ट्र कलंक को मिटाकर जर्मनी के गौरव का पुर्ण उत्थान कर सके। हिटलर के
व्यक्तित्व में उन्हें ऐसा नेता की तस्वीर दिखाई दी। उन्हें यह विश्वास हो गया की
हिटलर के नेतृत्व में ही जर्मनी का उत्थान संभव है। हिटलर ने वर्साय की संधि की
आलोचना करनी शुरु कर दी और लोगों के हृदय में इसके प्रति नफरत पैदा कर दी।
उन्होंने जर्मन जाति के एक राजनीतिक सुत्र में बाँध कर लोगों के समक्ष जर्मन
निर्माण का प्रस्ताव रखा। वे भाषण देने की कला में प्रवीण थे उनकी वाणी जादू का
काम करती थी। यह कहा जा सकता है कि हिटलर ने अपनी जुबान की ताकत से जर्मनी की
सत्ता हथिया ली।
जातीय
पहिइठअट हहियसजर्मन जाति का निजी परंपरा और प्रकृति ने भी हिटलर के उत्थान में
सहयोग प्रदान किया। जर्मनी स्वभावत: वीर और अनुशासन प्रिय होते हैं। अत: उन्होंने
हिटलर के अधिनायकवाद को स्वीकार कर लिया। हिटलर ने जनता के समक्ष कोई नवीन
कार्यक्रम नहीं रखा उन्होने वहीं किया जो व्हीगल, कॉन्ट
और किक्टे आदि कर चुके थे। उनकी विचारधारा संपूर्ण जर्मन विचारधारा का निचोड़ ली
इसलिए जनता ने उन्हें स्वीकार कर लिया।
आर्थिक
संकटः-जर्मनी में आर्थिक संकट के चलते भी हिटलर का उत्थान हुआ। वर्साय की संधि के
फलस्वरुप जर्मनी की आर्थीक स्थिति काफी खराब हो गई थी। हिटलर ने जनता को
पूँजीपतियों और यहुदियों के खिलाफ भड़काना शुरु किया। 1930
में जर्मनी ने 50 लाख
से अधिक व्यक्ति बेकार हो गए थे। वे सभी हिटलर के समर्थक बन गए। अत: यह कहा जा
सकता है कि आर्थीक संकट के चलते हिटलर तथा उसकी पार्टी को काफी सफलता मिली।
यहुदी
विरोधी भावना- इस समय संपूर्ण जर्मनी में यहुदियों के खिलाफ असंतोष फैला हुआ था।
जर्मनी की पराजय के लिए यहुदियों को ही उत्तरदायी ठहराया जा रहा था। हिटलर इसे
भली- भांती जानता था। जनता का कद्र करते हुए उन्होंने यहुदियों को देश से निकालने
की घोषणा की। हिटलर की इस घोषणा से जनता ने इसका साथ देना शुरु किया।
साम्यवाद
का विरोधः-हिटलर के उदय का एक महत्वपूर्ण कारण साम्यवाद का विरोध भी था। हिटलर ने
साम्यवादियों के खिलाफ नारा बुलंद किया और जनता का दिल जीत लिया। इस समय पूँजीपति,
जमींदार, पादरी
सभी साम्यवाद के बढ़ते हुए प्रभाव से आतंकित था। वे जर्मनी को साम्यवाद के चंगुल
से मुक्त कराना चाहते थे। इसलिए हिटलर ने साम्यवाद की तीखी आलोचना की और इसके
विकल्प में राष्ट्रीय समाजवाद का नारा बुलंद किया जो नाजी दल का दुसरा रूप था।
संसदीय
परंपरा का अभावः-वहाँ के संसदीय शासन में दुगुर्णों के चलते भी जनता में काफी असंतोष
था। वे इस व्यवस्था को समाप्त करना चाहते थे। जब राजनीतिक व्यवस्था में लोगों का
विश्वास घट जाता है तो तानाशाही के लिए रास्ता साफ हो जाता है जर्मन के साथ भी यही
बात हुई। संसदीय शासन प्रणाली में जब उनका विश्वास समाप्त हो गया तो उन्होंने
हिटलर का साथ देना शुरु किया।
जर्मनी
जनता की प्रवृतिः-जर्मनी जनता की अभिरुचि सैनिक जीवन में थी। वे स्वबाव से वीर और
सैनिक प्रवृत्ति के थे परन्तु वर्साय की संधि के द्वारा वहाँ की सैनिक संख्या घटा
दी गई थी। फलत: काफी संख्या में लोग बेरोजगार हो चुके थे। हिटलर तथा उनकी पार्टी
के सदस्य जनता की स्थिति से भली भांति परिचित थे। अत: जब उन्होंने स्वंयसेवक सेना
का गठन किया तो भारी संख्या में युवक उसमें भर्ती होने लगे। इससे बेकारी की समस्या
का भी समाधान हुआ और हिटलर को उत्थान करने का मौका मिला।
हिटलर
का व्यक्तित्वः-उपर्यूक्त सभी कारणों के अतिरिक्त हिटलर के अभ्यूदय का महत्वपूर्ण
कारण स्वय उनका प्रभावशाली एवं आकर्षक व्यक्तित्व था वे उच्च कोटी के वक्ता थे। वे
भाषण की कला में निपुण थे। उनकी वाणी जादू का काम करती थी और जनता का दिल जीत लेती
थी। आधुनिक युग में प्रचार का काफी महत्व है। प्रचार वह शक्ति है जो झुठ को सच और
सच को झुठ बना सकती है। संयोगवश हिटलर को क महान प्रचारक मिल गया था। जिसका नाम था
गोबुल्स उनक सिद्धांत था कि झुठ बातों को इतना दुहराओं कि वह सत्य बन जाए। इस तरह
उनकी सहायता से जनता का दिल जितना हिटलर के लिए आसान हो गया। इस तरह हम देखते हैं
कि हिटलर और उनकी पार्टी के अभ्युदय के अनेक कारण थे। जिनमें हिटलर का व्यक्तित्व
एक महत्वपूर्ण कारण था और अपने व्यक्तित्व का उपयोग कर उन्होंने वर्साय संधि की
त्रुटियों से जनता को अवगत कराया उन्हें अपना समर्थक बना लिया। यह ठीक है कि
युद्धोतर जर्मन आर्थिक दृष्टि से बिल्कुल पंगु हो गया था,
वहाँ बेकारी और भुखमरी आ गई थी परन्तु हिटलर एक
दूरदर्शी राजनितिज्ञ था। और उसने परिस्थिति से लाभ उठाकर राजसत्ता पर अधिपत्य कायम
कर लिया।
बेनिटो
मुसोलिनी (११४०)(२९जुलाई, १८८२
- २८ अप्रैल १९४५) इटली का एक राजनेता था जिसने राष्ट्रीय फासिस्ट पार्टी का
नेतृत्व किया। वह फासीवाद के दर्शन की नींव रखने वालों में से प्रमुख व्यक्ति था।
उसने दूसरे विश्वयुद्ध में एक्सिस समूह में मिलकर युद्ध कीया। वे हिटलर के निकटतम
राजनीतिज्ञ थे। इनका जीवन अवसरवाद, आवारापन
और प्रतिभा के मिश्रण से बना कहा गया है। उनकी गोली मारकर हत्या की गयी।फासीवाद का
नेतृत्व किया था। जनरल फ्रेंको की सहायता की थी।
प्रारंभिक
जीवनः- मुसोलिनी का जन्म 1883 की
29 जुलाई को इटली के
प्रिदाप्यो नामक गाँव में हुआ था। अठारह वर्ष की अवस्था में ये एक पाठशाला में
अध्यापक बने। 19 साल की उम्र में
बेनितो भागकर स्विटजरलैंड चले गए। वहाँ वे मजदूरी करते और साथ ही रात को
समाजवादियों से मिलते-जुलते और समाजवाद का अध्ययन करते। वहाँ से लौटकर कुछ समय तक
सेना में कार्य किया। तदुपरांत घर लौटकर उन्होंने समाजवादी आंदोलन में भाग लेना
जारी रखा और साथ ही वे पत्रकारिता में लग गए। 1912 तक
वे समाजवादी दल के मुखपत्र "आवांति" के संपादक बन गए।
स्विट्जरलैंड
और सैन्य सेवा के लिए उत्प्रवास
राजनीतिक
पत्रकार, बौद्धिक और समाजवादी
इतालवी
समाजवादी पार्टी से निष्कासन
प्रथम
विश्व युद्ध में फासीवाद और सेवा की शुरुआत
1914 में
प्रथम महायुद्ध छिड़ने के साथ मुसोलिनि ने समाजवादियों की तरह यह मानने से इनकार
किया कि इटली को निष्पक्ष रहना चाहिए। वे चाहते थे कि इटली ब्रिटेन और फ्रांस के
पक्ष में लड़ाई में उतरे। इस कारण उन्हें "आवांति" के संपादक पद से अलग
होना पड़ा और वे दल से निकाल दिए गए।
1919 के
23 मार्च को मुसोलिनि ने
अपने ढंग से राजनीति में एक नए संगठन को जन्म दिया। इस दल का नाम था
"फासी-दि-कंबात्तिमेंती"। इसमें उन्होंने उन्हीं लोगों को लिया जो 1914
में उनके विचार के थे। इसमें मुख्यत: भूतपूर्व
सैनिक आए। देश इस प्रकार के कार्यक्रम के लिए तैयार था क्योंकि समाजवादी कमजोर थे,
भूतपूर्व सैनिकों में बेकारी फैल गई थी,
भ्रष्टाचार बढ़ गया था,
राष्ट्रीयता का जोर हो रहा था और लोगों में
अंतरराष्ट्रीय समाजवाद के प्रति अनास्था उत्पन्न हो गई थी। मुसोलिनि धीरे-धीरे
शक्तिशाली होते गए और एक चतुर अवसरवादी होने के कारण सभी अवसरों से वे लाभ उठाते
रहे, यहाँ तक कि फासिस्टों ने रोम पर 30
अक्टूबर 1922 को
कब्जा कर लिया। सरकारी सेना के तटस्थ हो जाने से यह संभव हुआ।
द्वितीय
विश्व युद्धः- मुसोलिनि ने 1935 में
अबीसीनिया पर हमला किया और कहा जा सकता है कि यहीं से द्वितीय महायुद्ध का प्रारंभ
हुआ। अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में हिटलर और मुसोलिनि का गठबंधन हो चुका था और जब
द्वितीय महायुद्ध छिड़ा तो हिटलर और मुसोलिनि यूरोप में एक तरफ थे और दूसरी तरफ
ब्रिटेन तथा फ्रांस। क्रमश: इसमें और भी शक्तियाँ आती गईं। पहले हिटलर की विजय हुई,
फिर फासिस्टों की पराजय शुरू हुई।
पराजयों
के कारण 25 जुलाई 1943
तक ऐसी स्थिति हो गई कि मुसोलिनि को प्रधान
मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा और वे हिरासत में ले लिए गए। पर सितंबर में ही
हिटलर ने उन्हें छुड़ाया और वे उत्तर इटली में एक कठपुतली राज्य के प्रधान के रूप
में स्थापित किए गए।
इसके
बाद भी फासिस्ट हारते ही चले गए और 26 अप्रैल
1945 को मित्र सेनाएँ इटली
पहुँच गईं। देश के गुप्त प्रतिरोधकारियों ने इनका साथ दिया। उसी दिन मुसोलिनि
स्विट्जरलैंड भागने की चेष्टा करते हुए प्रतिरोधकारियों द्वारा पकड़ लिए गए और 28
अप्रैल 1945 को
उन्हें मृत्युदंड दिया गया।
पहला
विश्व युद्ध 1914 से 1918
तक मुख्य तौर पर यूरोप में व्याप्त महायुद्ध को
कहते हैं। यह महायुद्ध यूरोप, एशिया
व अफ़्रीका तीन महाद्वीपों और समुंदर, धरती
और आकाश में लड़ा गया। इसमें भाग लेने वाले देशों की संख्या,
इसका क्षेत्र (जिसमें यह लड़ा गया) तथा इससे हुई
क्षति के अभूतपूर्व आंकड़ों के कारण ही इसे विश्व युद्ध कहते हैं।
पहला
विश्व युद्ध लगभग 52 माह तक चला और उस समय
की पीढ़ी के लिए यह जीवन की दृष्टि बदल देने वाला अनुभव था। क़रीब आधी दुनिया
हिंसा की चपेट में चली गई और इस दौरान अंदाज़न एक करोड़ लोगों की जान गई और इससे
दोगुने घायल हो गए। इसके अलावा बीमारियों और कुपोषण जैसी घटनाओं से भी लाखों लोग
मरे।
विश्व
युद्ध ख़त्म होते-होते चार बड़े साम्राज्य रूस, जर्मनी,
ऑस्ट्रिया-हंगरी (हैप्सबर्ग) और उस्मानिया ढह गए।
यूरोप की सीमाएँ फिर से निर्धारित हुई और अमेरिका निश्चित तौर पर एक 'महाशक्ति
' बन कर उभरा।
घटनाएः-
औद्योगिक क्रांति के कारण सभी बड़े देश ऐसे उपनिवेश चाहते थे जहाँ से वे कच्चा माल
पा सकें और सभी उनके देश में बनाई तथा मशिनों से बनाई हुई चीज़ें बेच सकें। इस
उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हर देश दुसरे देश पर साम्राज्य करने कि चाहत रखने लगा
और इस के लिये सैनिक शक्ति बढ़ाई गई और गुप्त कूटनीतिक संधियाँ की गईं। इससे
राष्ट्रों में अविश्वास और वैमनस्य बढ़ा और युद्ध अनिवार्य हो गया। ऑस्ट्रिया के
सिंहासन के उत्तराधिकारी आर्चड्युक फर्डिनेंड और उनकी पत्नी का वध इस युद्ध का
तात्कालिक कारण था। यह घटना 28
जून 1914, को सेराजेवो में हुई
थी। एक माह के बाद ऑस्ट्रिया ने सर्बिया के विरुद्ध युद्ध घोषित किया। रूस,
फ़्रांस और ब्रिटेन ने सर्बिया की सहायता की और
जर्मनी ने आस्ट्रिया की। अगस्त में जापान, ब्रिटेन
आदि की ओर से और कुछ समय बाद उस्मानिया, जर्मनी
की ओर से, युद्ध में शामिल हुए।
जून
1914 में,
ऑस्ट्रिया के आर्कड्यूक फ़्रांज़ फ़र्डिनेंड की
बोस्निया राजधानी की साराजेवो में एक सर्बियाई राष्ट्रवादी द्वारा हत्या कर दी गई
जिसके फलस्वरूप ऑस्ट्रिया-हंगरी ने 28 जुलाई
को सर्बिया के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी गयी जिसमें रूस ऑस्ट्रिया-हंगरी के
साथ आ गया। जर्मनी ने फ़्रांस की ओर बढ़ने से पूर्व तटस्थ बेल्जियम और लक्ज़मबर्ग
पर आक्रमण कर दिया जसके कारण ब्रिटेन ने जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।
जर्मनी, ऑस्ट्रिया,
हंगरी और उस्मानिया (तथाकथित केन्द्रीय
शक्तियाँ) द्वारा ग्रेट ब्रिटेन , फ्रांस,
रूस, इटली
और जापान के ख़िलाफ़ (मित्र देशों की शक्तियों) अगस्त के मध्य तक लामबंद हो गए और
१९१७ के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका मित्र राष्ट्रों की ओर शामिल हो गया था।
यह
युद्ध यूरोप, एशिया व अफ़्रीका तीन
महाद्वीपों और जल, थल तथा आकाश में लड़ा
गया। प्रारंभ में जर्मनी की जीत हुई। 1917 में
जर्मनी ने अनेक व्यापारी जहाज़ों को डुबोया। एक बार जर्मनी ने इंगलैण्ड की
लुसिटिनिया जहाज़ अपने पनडुब्बी से डूबा दी। जिसमे कुछ अमेरिकी नागरिक संवार थे
इससे अमरीका ब्रिटेन की ओर से युद्ध में कूद पड़ा लेकिन रूसी क्रांति के कारण रूस
महायुद्ध से अलग हो गया। 1918 ई.
में ब्रिटेन , फ़्रांस और अमरीका ने
जर्मनी आदि राष्ट्रों को पराजित किया। जर्मनी और आस्ट्रिया की प्रार्थना पर 11
नवम्बर 1918 को
युद्ध की समाप्ति हुई।
लड़ाइयाः-
इस महायुद्ध के अंतर्गत अनेक लड़ाइयाँ हुई। इनमें से टेनेनबर्ग (26
से 31 अगस्त
1914), मार्नं (5
से 10 सितंबर
1914), सरी बइर (Sari
Bair) तथा सूवला खाड़ी (6
से 10 अगस्त
1915), वर्दूं (21
फ़रवरी 1916 से
20 अगस्त 1917),
आमिऐं (8 से
11 अगस्त 1918),
एव वित्तोरिओ बेनेतो (23
से 29 अक्टूबर
1918) इत्यादि की लड़ाइयों
को अपेक्षाकृत अधिक महत्व दिया गया है। यहाँ केवल दो का ही संक्षिप्त वृत्तांत
दिया गया है।
समय
के साथ प्रथम विश्वयुद्ध में पक्ष-विपक्ष में देश जुड़ते गये।
गहरा
हरा - मित्र राष्ट्र
हल्का
हरा - मित्र राष्ट्रों के उपनिवेश
गहरा
नारंगी - केन्द्रीय शक्तियाँ
हल्का
नारंगी - केन्द्रीय शक्तियों के उपनिवेश
भूरा
- निष्पक्ष देश
जर्मनी
द्वारा किए गए 1916 के आक्रमणों
का प्रधान लक्ष्य बर्दूं था। महाद्वीप स्थित मित्र राष्ट्रों की सेनाओं का विघटन
करने के लिए फ़्रांस पर आक्रमण करने की योजनानुसार जर्मनी की ओर स 21
फ़रवरी 1916 ई. को बर्दूं
युद्धमाला का श्रीगणेश हुआ। नौ जर्मन डिवीज़न ने एक साथ मॉज़ेलनदी के दाहिने
किनारे पर आक्रमण किया तथा प्रथम एवं द्वितीय युद्ध मोर्चों पर अधिकार किया।
फ्रेंच सेना का ओज जनरल पेतैंकी अध्यक्षता में इस चुनौती का सामना करने के लिए
बढ़ा। जर्मन सेना 26 फ़रवरी को बर्दूं की
सीमा से केवल पाँच मील दूर रह गई। कुछ दिनों तक घोर संग्राम हुआ। 15
मार्च तक जर्मन आक्रमण शिथिल पड़ने लगा तथा फ्रांस को अपनी व्यूहरचना तथा रसद आदि
की सुचारु व्यवस्था का अवसर मिल गया। म्यूज के पश्चिमी किनारे पर भी भीषण युद्ध
छिड़ा जो लगभग अप्रैल तक चलता रहा। मई के अंत में जर्मनी ने नदी के दोनों ओर
आक्रमण किया तथा भीषण युद्ध के उपरांत 7
जून को वाक्सका किला लेने में सफलता प्राप्त की। जर्मनी अब अपनी सफलता के शिखर पर
था। फ्रेंच सैनिक मार्ट होमे के दक्षिणी ढालू स्थलीय मोर्चों पर डटे हुए थे।
संघर्ष चलता रहा। ब्रिटिश सेना ने सॉमपर आक्रमण कर बर्दूं को छुटकारा दिलाया।
जर्मनी का अंतिम आक्रमण 3 सितंबर को
हुआ था। जनरल मैनगिनके नेतृत्व में फ्रांस ने प्रत्याक्रमण किया तथा अधिकांश खोए
हुए स्थल विजित कर लिए। 20
अगस्त 1917 के बर्दूं के
अंतिम युद्ध के उपरांत जर्मनी के हाथ्प में केवल ब्यूमांटरह गया। युद्धों ने
फ्रैंच सेना को शिथिल कर दिया था, जब
कि आहत जर्मनों की संख्या लगभग तीन लाख थी और उसका जोश फीका पड़ गया था।आमिऐं के
युद्धक्षेत्र में मुख्यत: मोर्चाबंदी अर्थात् खाइयों की लड़ाइयाँ हुईं। 21
मार्च से लगभग 20 अप्रैल तक जर्मन
अपने मोर्चें से बढ़कर अंग्रेजी सेना को लगभग 25 मील
ढकेल आमिऐं के निकट ले आए। उनका उद्देश्य वहाँ से निकलनेवाली उस रेलवे लाइन पर
अधिकार करना था, जो कैले बंदरगाह से
पेरिस जाती है और जिससे अंग्रेजी सेना और सामान फ्रांस की सहायता के लिए पहुँचाया
जाता था।
लगभग
20 अप्रैल से 18
जुलाई तक जर्मन आमिऐं के निकट रुके रहे। दूसरी
ओर मित्र देशों ने अपनी शक्ति बहुत बढ़ाकर संगठित कर ली,
तथा उनकी सेनाएँ जो इससे पूर्व अपने अपने
राष्ट्रीय सेनापतियों के निर्देशन में लड़ती थीं, एक
प्रधान सेनापति, मार्शल फॉश के अधीन
कर दी गईं।
जुलाई,
1918 के उपरांत जनरल फॉश के निर्देशन में मित्र देशों
की सेनाओं ने जर्मनों को कई स्थानों में परास्त किया।
जर्मन
प्रधान सेनापति लूडेनडार्फ ने उस स्थान पर अचानक आक्रमण किया जहाँ अंग्रेज़ी तथा
फ़्रांसीसी सेनाओं का संगम था। यह आक्रमण 21 मार्च
को प्रात: 4।। बजे,
जब कोहरे के कारण सेना की गतिविधि का पता नहीं
चल सकता था, 4000 तोपों की
गोलाबारी से आरंभ हुआ। 4 अप्रैल
को जर्मन सेना कैले-पेरिस रेलवे से केवल दो मील दूर थी। 11-12
अप्रैल को अंग्रेजी सेनापतियों ने सैनिकों से
लड़ मरने का अनुरोध किया।
तत्पश्चात्
एक सप्ताह से अधिक समय तक जर्मनों ने आमिऐं के निकट लड़ाई जारी रखी,
पर वे कैले-पैरिस रेल लाइन पर अधिकार न कर सके।
उनका अंग्रेजों को फ्रांसीसियों से पृथक् करने का प्रयास असफल रहा।
20 अप्रैल
से लगभग तीन महीने तक जर्मन मित्र देशों को अन्य क्षेत्रों में परास्त करने का
प्रयत्न करते रहे और सफल भी हुए। किंतु इस सफलता से लाभ उठाने का अवसर उन्हें नहीं
मिला। मित्र देशों ने इस भीषण स्थिति में अपनी शक्ति बढ़ाने के प्रबंध कर लिए थे।
25 मार्च
को जेनरल फॉश इस क्षेत्र में मित्र देशों की सेनाओं के सेनापति नियुक्त हुए।
ब्रिटेन की पार्लमेंट ने अप्रैल में सैनिक सेवा की उम्र बढ़ाकर 50
वर्ष कर दी और 3,55,000 सैनिक
अप्रैल मास के भीतर ही फ्रांस भेज दिए। अमरीका से भी सैनिक फ्रांस पहुंचने लगे थे
और धीरे धीरे उनकी संख्या 6,00,000 पहुंच
गई। नए अस्त्रों तथा अन्य आविष्कारों के कारण मित्र देशों की वायुसेना प्रबल हो
गई। विशेषकर उनके टैक बहुत कार्यक्षम हो गए।
15 जुलाई
को जर्मनों ने अपना अंतिम आक्रमण मार्न नदी पर पेरिस की ओर बढ़ने के प्रयास में
किया। फ्रांसीसी सेना ने इसे रोकर तीन दिन बाद जर्मनों पर उसी क्षेत्र में
शक्तिशाली आक्रमण कर 30,000 सैनिक
बंदी किए। फिर 8 अगस्त को आमिऐं के
निकट जनरल हेग की अध्यक्षता में ब्रिटिश तथा फ्रांसीसी सेना ने प्रात: साढे चार
बजे कोहरे की आड़ में जर्मनों पर अचानक आक्रमण किया। इस लड़ाई में चार मिनट तोपों
से गोले चलाने के बाद, सैकड़ों
टैंक सेना के आगे भेज दिए गए, जिनके
कारण जर्मन सेना में हलचल मच गई। आमिऐं के पूर्व आब्र एवं सॉम नदियों के बीच 14
मील के मोरचे पर आक्रमण हुआ और उस लड़ाई में
जर्मनों की इतनी क्षति हुई कि सूडेनडोर्फ ने इस दिन का नामकरण जर्मन सेना के लिए
काला दिन किया।
वर्साय
की सन्धि में जर्मनी पर कड़ी शर्तें लादी गईं। इसका बुरा परिणाम दूसरा विश्व युद्ध
के रूप में प्रकट हुआ और राष्ट्रसंघ की स्थापना के प्रमुख उद्देश्य की पूर्ति न हो
सकी।
पहला
विश्व युद्ध और भारतः- जब यह युद्ध आरम्भब
हुआ था उस समय भारत औपनिवेशिक शासन के अधीन था। यह भारतीय सिपाही सम्पूुर्ण विश्वू
में अलग-अलग लड़ाईयों में लड़े। भारत ने युद्ध के प्रयासों में जनशक्ति और सामग्री
दोनों रूप से भरपूर योगदान किया। भारत के सिपाही फ्रांस और बेल्जियम ,
एडीन , अरब
, पूर्वी अफ्रीका ,
गाली पोली , मिस्र
,मेसोपेाटामिया,
फिलिस्तीिन , पर्सिया
और सालोनिका में बल्कि पूरे विश्व में
विभिन्न लड़ाई के मैदानों में बड़े
सम्मापन के साथ लड़े। गढ़वाल राईफल्स रेजिमेन के दो सिपाहियो को संयुक्त राज्य का
उच्चतम पदक विक्टोरिया क्रॉस भी मिला था।
युद्ध
आरम्भ होने के पहले जर्मनों ने पूरी कोशिश की थी कि भारत में ब्रिटेन के विरुद्ध
आन्दोलन शुरू किया जा सके। बहुत से लोगों का विचार था कि यदि ब्रिटेन युद्ध में लग
गया तो भारत के क्रान्तिकारी इस अवसर का लाभ उठाकर देश से अंग्रेजों को उखाड़
फेंकने में सफल हो जाएंगे। किन्तु इसके उल्टा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेताओं
का मत था स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए इस समय ब्रिटेन की सहायता की जानी चाहिए।
और जब 4 अगस्त को युद्ध आरम्भ
हुआ तो ब्रिटेन भारत के नेताओं को अपने पक्ष में कर लिया। रियासतों के राजाओं ने
इस युद्ध में दिल खोलकर ब्रिटेन की आर्थिक और सैनिक सहायता की।
कुल
8 लाख [भारतीय सैनिक] इस युद्ध में लड़े
जिसमें कुल 47746 सैनिक मारे
गये और 65000 ज़ख़्मी हुए।
इस युद्ध के कारण भारत की अर्थव्यवस्था लगभग दिवालिया हो गयी थी। भारत के बड़े
नेताओं द्वारा इस युद्ध में ब्रिटेन को समर्थन ने ब्रिटिश चिन्तकों को भी चौंका
दिया था। भारत के नेताओं को आशा थी कि युद्ध में ब्रिटेन के समर्थन से ख़ुश होकर
अंग्रेज़ भारत को इनाम के रूप में स्वतंत्रता दे देंगे या कम से कम स्वशासन का
अधिकार देंगे किन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। उलटे अंग्रेज़ों ने जलियाँवाला बाग़
नरसंहार जैसे घिनौने कृत्य से भारत के मुँह पर तमाचा मारा।
द्वितीय
विश्वयुद्ध १९३९ से १९४५ तक चलने वाला विश्व-स्तरीय युद्ध था। लगभग ७० देशों की
थल-जल-वायु सेनाएँ इस युद्ध में सम्मलित थीं। इस युद्ध में विश्व दो भागों मे बँटा
हुआ था - मित्र राष्ट्र और धुरी राष्ट्र। इस युद्ध के दौरान पूर्ण युद्ध का मनोभाव
प्रचलन में आया क्योंकि इस युद्ध में लिप्त सारी महाशक्तियों ने अपनी आर्थिक,
औद्योगिक तथा वैज्ञानिक क्षमता इस युद्ध में
झोंक दी थी। इस युद्ध में विभिन्न राष्ट्रों के लगभग १० करोड़ सैनिकों ने हिस्सा
लिया, तथा यह मानव इतिहास का सबसे ज़्यादा घातक
युद्ध साबित हुआ। इस महायुद्ध में ५ से ७ करोड़ व्यक्तियों की जानें गईं क्योंकि
इसके महत्वपूर्ण घटनाक्रम में असैनिक नागरिकों का नरसंहार- जिसमें होलोकॉस्ट भी
शामिल है- तथा परमाणु हथियारों का एकमात्र इस्तेमाल शामिल है (जिसकी वजह से युद्ध
के अंत मे मित्र राष्ट्रों की जीत हुई)। इसी कारण यह मानव इतिहास का सबसे भयंकर
युद्ध था।
हालांकि
जापान चीन से सन् १९३७ ई. से युद्ध की अवस्था में था। किन्तु अमूमन दूसरे विश्व
युद्ध की शुरुआत ०१ सितम्बर १९३९ में जानी जाती है जब जर्मनी ने पोलैंड पर हमला
बोला और उसके बाद जब फ्रांस ने जर्मनी पर युद्ध की घोषणा कर दी तथा इंग्लैंड और
अन्य राष्ट्रमंडल देशों ने भी इसका अनुमोदन किया।
जर्मनी
ने १९३९ में यूरोप में एक बड़ा साम्राज्य बनाने के उद्देश्य से पोलैंड पर हमला बोल
दिया। १९३९ के अंत से १९४१ की शुरुआत तक, अभियान
तथा संधि की एक शृंखला में जर्मनी ने महाद्वीपीय यूरोप का बड़ा भाग या तो अपने
अधीन कर लिया था या उसे जीत लिया था। नाट्सी-सोवियत समझौते के तहत सोवियत रूस अपने
छः पड़ोसी मुल्कों, जिसमें पोलैंड भी शामिल
था, पर क़ाबिज़ हो गया। फ़्रांस की हार के
बाद युनाइटेड किंगडम और अन्य राष्ट्रमंडल देश ही धुरी राष्ट्रों से संघर्ष कर रहे
थे, जिसमें उत्तरी अफ़्रीका की लड़ाइयाँ तथा
लम्बी चली अटलांटिक की लड़ाई शामिल थे। जून १९४१ में युरोपीय धुरी राष्ट्रों ने
सोवियत संघ पर हमला बोल दिया और इसने मानव इतिहास में ज़मीनी युद्ध के सबसे बड़े
रणक्षेत्र को जन्म दिया। दिसंबर १९४१ को जापानी साम्राज्य भी धुरी राष्ट्रों की
तरफ़ से इस युद्ध में कूद गया। दरअसल जापान का उद्देश्य पूर्वी एशिया तथा
इंडोचायना में अपना प्रभुत्व स्थापित करने का था। उसने प्रशान्त महासागर में
युरोपीय देशों के आधिपत्य वाले क्षेत्रों तथा संयुक्त राज्य अमेरीका के पर्ल
हार्बर पर हमला बोल दिया और जल्द ही पश्चिमी प्रशान्त पर क़ब्ज़ा बना लिया।
सन्
१९४२ में आगे बढ़ती धुरी सेना पर लगाम तब लगी जब पहले तो जापान सिलसिलेवार कई
नौसैनिक झड़पें हारा, युरोपीय
धुरी ताकतें उत्तरी अफ़्रीका में हारीं और निर्णायक मोड़ तब आया जब उनको
स्तालिनग्राड में हार का मुँह देखना पड़ा। सन् १९४३ में जर्मनी पूर्वी युरोप में
कई झड़पें हारा, इटली में मित्र
राष्ट्रों ने आक्रमण बोल दिया तथा अमेरिका ने प्रशान्त महासागर में जीत दर्ज करनी
शुरु कर दी जिसके कारणवश धुरी राष्ट्रों को सारे मोर्चों पर सामरिक दृश्टि से पीछे
हटने की रणनीति अपनाने को मजबूर होना पड़ा। सन् १९४४ में जहाँ एक ओर पश्चिमी मित्र
देशों ने जर्मनी द्वारा क़ब्ज़ा किए हुए फ़्रांस पर आक्रमण किया वहीं दूसरी ओर से
सोवियत संघ ने अपनी खोई हुयी ज़मीन वापस छीनने के बाद जर्मनी तथा उसके सहयोगी
राष्ट्रों पर हमला बोल दिया। सन् १९४५ के अप्रैल-मई में सोवियत और पोलैंड की
सेनाओं ने बर्लिन पर क़ब्ज़ा कर लिया और युरोप में दूसरे विश्वयुद्ध का अन्त ८ मई
१९४५ को तब हुआ जब जर्मनी ने बिना शर्त आत्मसमर्पण कर दिया।
सन्
१९४४ और १९४५ के दौरान अमेरिका ने कई जगहों पर जापानी नौसेना को शिकस्त दी और
पश्चिमी प्रशान्त के कई द्वीपों में अपना क़ब्ज़ा बना लिया। जब जापानी द्वीपसमूह
पर आक्रमण करने का समय क़रीब आया तो अमेरिका ने जापान में दो परमाणु बम गिरा दिये।
१५ अगस्त १९४५ को एशिया में भी दूसरा विश्वयुद्ध समाप्त हो गया जब जापानी
साम्राज्य ने आत्मसमर्पण करना स्वीकार कर लिया।
पृष्ठभूमिः-
यूरोपप्रथम विश्व युद्ध में केन्द्रीय शक्तियों - ऑस्ट्रिया-हंगरी,
जर्मनी, बुल्गारिया
और ओटोमन साम्राज्य सहित की हार के साथ और रूस में 1917 में
बोल्शेविक द्वारा सत्ता की जब्ती (सोविएत संघ का जन्म) ने यूरोपीय राजनीतिक
मानचित्र को मौलिक रूप से बदल दिया था। इस बीच, फ्रांस,
बेल्जियम, इटली,
ग्रीस और रोमानिया जैसे विश्व युद्ध के विजयी
मित्र राष्ट्रों ने कई नये क्षेत्र प्राप्त कर लिये, और
ऑस्ट्रिया-हंगरी और ओटोमन और रूसी साम्राज्यों के पतन से कई नए राष्ट्र-राज्य बन
कर बाहर आये।
राष्ट्र
संघ की सभा, जिनेवा स्विट्जरलैंड,
में आयोजित, 1930भविष्य
के विश्व युद्ध को रोकने के लिए, 1919 पेरिस
शांति सम्मेलन के दौरान राष्ट्र संघ का निर्माण हुआ। संगठन का प्राथमिक लक्ष्य
सामूहिक सुरक्षा के माध्यम से सशस्त्र संघर्ष को रोकने,
सैन्य और नौसैनिक निरस्त्रीकरण,
और शांतिपूर्ण वार्ता और मध्यस्थता के माध्यम से
अंतर्राष्ट्रीय विवादों को निपटना था।
पहले
विश्व युद्ध के बाद एक शांतिवादी भावना के बावजूद, कई
यूरोपीय देशो में जातीयता और क्रांतिवादी राष्ट्रवाद पैदा हुआ। इन भावनाओं को
विशेष रूप से जर्मनी में ज्यादा प्रभाव पड़ा क्योंकि वर्साय की संधि के कारण इसे
कई महत्वपूर्ण क्षेत्र और औपनिवेशिक खोना और वित्तीय नुकसान झेलना पड़ा था। संधि
के तहत, जर्मनी को अपने घरेलु
क्षेत्र का 13 प्रतिशत सहित कब्ज़े
की हुई बहुत सारी ज़मीन छोडनी पड़ी। वही उसे किसी दूसरे देश पर आक्रमण नहीं करने
की शर्त माननी पड़ी, अपनी सेना को सीमित
करना पड़ा और उसको पहले विश्व युद्ध में हुए नुकसान की भरपाई के रूप में दूसरे
देशों को भुगतान करना पड़ा। 1918-1919
की जर्मन क्रांति में जर्मन साम्राज्य का पतन हो गया,
और एक लोकतांत्रिक सरकार,
जिसे बाद में वाइमर गणराज्य नाम दिया गया,
बनाया गया। इस बीच की अवधि में नए गणराज्य के
समर्थकों और दक्षिण और वामपंथियों के बीच संघर्ष होता रहा।
इटली
को, समझौते के तहत युद्ध के बाद कुछ
क्षेत्रीय लाभ प्राप्त तो हुआ, लेकिन
इतालवी राष्ट्रवादियों को लगता था कि ब्रिटेन और फ्रांस ने शांति समझौते में किये
गए वादों को पूरा नहीं किया, जिसके
कारण उनमे रोष था। 1922 से 1925
तक बेनिटो मुसोलिनी की अगुवाई वाली फासिस्ट
आंदोलन ने इस बात का फायदा उठाया और एक राष्ट्रवादी भावना के साथ इटली की सत्ता
में कब्जा जमा लिया। इसके बाद वहाँ अधिनायकवादी, और
वर्ग सहयोगात्मक कार्यावली अपनाई गई जिससे वहाँ की प्रतिनिधि लोकतंत्र खत्म हो गई।
इसके साथ ही समाजवादियों, वामपंथियों
और उदारवादी ताकतों के दमन, और
इटली को एक विश्व शक्ति बनाने के उद्देश्य से एक आक्रामक विस्तारवादी विदेशी नीति
का पालन के साथ, एक "नए रोमन
साम्राज्य" के निर्माण का वादा किया गया।
एडोल्फ़
हिटलर एक जर्मन राष्ट्रीय समाजवादी राजनीतिक रैली में,
वेमर, अक्टूबर
1930
जर्मन
सेना १९३५ में नुरेम्बेर्ग में
एडोल्फ़
हिटलर, 1923 में जर्मन सरकार को
उखाड़ने के असफल प्रयास के बाद, अंततः
1933 में जर्मनी का
कुलाधिपति बन गया। उसने लोकतंत्र को खत्म कर, और
वहाँ एक कट्टरपंथी, नस्लीय प्रेरित
आंदोलन का समर्थन किया, और
तुंरत ही उसने जर्मनी को वापस एक शक्तिशाली सैन्य ताकत के रूप में प्रर्दशित करना
शुरू कर दिया। यह वह समय था जब राजनीतिक वैज्ञानिकों ने यह अनुमान लगाया कि एक
दूसरा महान युद्ध हो सकता है। इस बीच, फ्रांस,
अपने गठबंधन को सुरक्षित करने के लिए,
इथियोपिया में इटली के औपनिवेशिक कब्जे पर कोई प्रतिक्रिया
नही की। जर्मनी ने इस आक्रमण को वैध माना जिसके कारण इटली ने जर्मनी को आस्ट्रिया
पर कब्जा करने के मंशा को हरी झंडी दे दी। उसी साल स्पेन में ग्रह युद्ध चालू हुआ
तो जर्मनी और इटली ने वहां की राष्ट्रवादी ताकत का समर्थन किया जो सोविएत संघ की
सहायता वाली स्पेनिश गणराज्य के खिलाफ थी। नए हथियारों के परिक्षण के बीच में
राष्ट्रवादी ताकतों ने 1939 में
युद्ध जीत लिया। स्थिति 1935 की
शुरुआत में बढ़ गई जब सार बेसिन के क्षेत्र को जर्मनी ने कानूनी रूप से अपने में
पुन: मिला लिया, इसके साथ ही हिटलर ने
वर्साइल की संधि को अस्वीकार कर, अपने
पुनः हथियारबंद होने के कार्यक्रम को चालू कर दिया, और
देश में अनिवार्य सैनिक सेवा आरम्भ कर दी।
जर्मनी
को सीमित करने के लिए, यूनाइटेड
किंगडम, फ्रांस और इटली ने
अप्रैल 1935 में स्ट्रेसा
फ्रंट का गठन किया; हालांकि,
उसी साल जून में, यूनाइटेड
किंगडम ने जर्मनी के साथ एक स्वतंत्र नौसैनिक समझौता किया,
जिसमे उस पर लगाए पूर्व प्रतिबंधों को ख़त्म कर
दिया। पूर्वी यूरोप के विशाल क्षेत्रों पर कब्जा करने के जर्मनी के लक्ष्यों को
भांप सोवियत संघ ने फ्रांस के साथ एक आपसी सहयोग संधि की। हालांकि प्रभावी होने से
पहले, फ्रांस-सोवियत समझौते को राष्ट्र संघ की
नौकरशाही से गुजरना आवश्यक था, जिससे
इसकी उपयोगिता ख़त्म हो जाती। संयुक्त राज्य अमेरिका,
यूरोप और एशिया में हो रहे घटनाओं से अपने दूर
करने हेतु, उसी साल अगस्त में एक
तटस्थता अधिनियम पारित किया।
१९३६
में जब हिटलर ने रयानलैंड को दोबारा अपनी सेना का गढ़ बनाने की कोशिश की तो उस पर
ज्यादा आपत्तियां नही उठाई गई।अक्टूबर 1936 में,
जर्मनी और इटली ने रोम-बर्लिन धुरी का गठन किया।
एक महीने बाद, जर्मनी और जापान ने
साम्यवाद विरोधी करार पर हस्ताक्षर किए, जो
चीन और सोविएत संघ के खिलाफ मिलकर काम करने के लिये था। जिसमे इटली अगले वर्ष में
शामिल हो गया।
एशियाः-चीन
में कुओमिन्तांग (केएमटी) पार्टी ने क्षेत्रीय जमींदारों के खिलाफ एकीकरण अभियान
शुरू किया और 1920 के दशक के
मध्य तक एक एकीकृत चीन का गठन किया, लेकिन
जल्द यह इसके पूर्व चीनी कम्युनिस्ट पार्टी सहयोगियों और नए क्षेत्रीय सरदारों बीच
गृह युद्ध में उलझ गया। 1931 में,
जापान अपनी सैन्यवादी साम्राज्य को तेजी से बढ़ा
रहा था, वहाँ की सरकार पूरे
एशिया में अधिकार जमाने के सपने देखने लगी, और
इसकी शुरुआत मुक्देन की घटना से हुई। जिसमे जापान ने मंचूरिया पर आक्रमण कर वहाँ
मांचुकुओ की कठपुतली सरकार स्थापित कर दी।
जापान
का विरोध करने के लिए अक्षम, चीन
ने राष्ट्र संघ से मदद के लिए अपील की। मांचुरिया में घुसपैठ के लिए निंदा किए
जाने के बाद जापान ने राष्ट्र संघ से अपना नाम वापस ले लिया। दोनों देशों ने फिर
से शंघाई, रेहे और हेबै में कई
लड़ाई लड़ी, जब तक की 1933
में एक समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किए गए। उसके
बाद, चीनी स्वयंसेवी दल ने मांचुरिया,
चहर और सुयुआन में जापानी आक्रमण का प्रतिरोध
जारी रखा। 1936 की शीआन घटना
के बाद, कुओमींटांग पार्टी और
कम्युनिस्ट बलों ने युद्धविराम पर सहमति जता कर जापान के विरोध के लिए एक संयुक्त
मोर्चा का निर्माण किया।
युद्ध
पूर्व की घटनाएः- इथियोपिया पर इतालवी आक्रमण (1935)
युद्ध
को जाते इतालवी सैनिक, 1935
दूसरा
इतालवी-एबिसिनियन युद्ध एक संक्षिप्त औपनिवेशिक युद्ध था जो अक्टूबर 1935
में शुरू हुआ और मई 1936
में समाप्त हुआ। यह युद्ध इथियोपिया साम्राज्य
(जिसे एबिसिनिया भी कहा जाता था) पर इतालवी राज्य के आक्रमण से शुरू हुआ,
जो इतालवी सोमालीलैंड और इरिट्रिया की ओर से
किया गया था। युद्ध के परिणामस्वरूप इथियोपिया पर इतालवी सैन्य कब्जा हो गया और यह
इटली के अफ्रीकी औपनिवेशिक राज्य के रूप में शामिल हो गया। इसके अलावा,
शांति के लिए बनी राष्ट्र संघ की कमजोरी खुल कर
सामने आ गई। इटली और इथियोपिया दोनों सदस्य थे, लेकिन
जब इटली ने लीग के अनुच्छेद १० का उल्लंघन किया फिर भी संघ ने कुछ नहीं किया।
जर्मनी ही एकमात्र प्रमुख यूरोपीय राष्ट्र था जिसने इस आक्रमण का समर्थन किया था।
ताकि वह जर्मनी के ऑस्ट्रिया पर कब्जे के मंसूबे का समर्थन करदे।
स्पेनी
गृहयुद्ध (1936-39)स्पेनी
गृहयुद्ध के दौरान, गुएर्निका मे हुई
बमबारी, 1937
जब
स्पेन में गृहयुद्ध शुरू हुआ, हिटलर
और मुसोलिनी ने जनरल फ्रांसिस्को फ्रेंको के नेतृत्व वाली राष्ट्रवादी विद्रोहियों
को सैन्य समर्थन दिया, वही
सोवियत संघ ने मौजूदा सरकार, स्पेनिश
गणराज्य का समर्थन किया। 30,000
से अधिक विदेशी स्वयंसेवकों, जिन्हे
अंतर्राष्ट्रीय ब्रिगेड नाम दिया गया, ने
भी राष्ट्रवादियों के खिलाफ लड़ाई लड़ी। जर्मनी और सोवियत संघ दोनों ने इस छद्म
युद्ध का इस्तेमाल अपने सबसे उन्नत हथियारों और रणनीतिओं के मुकाबले में परीक्षण
करने का अवसर के रूप में किया। 1939
में राष्ट्रवादियों ने गृहयुद्ध जीत लिया; फ्रैंको,
जो अब तानाशाह था, द्वितीय
विश्व युद्ध के दौरान दोनों पक्षों के साथ सौदेबाजी करने लगा,
लेकिन अंत तक निष्कर्ष नहीं निकला। उसने
स्वयंसेवकों को जर्मन सेना के तहत पूर्वी मोर्चे पर लड़ने के लिए भेजा था,
लेकिन स्पेन तटस्थ रहा और दोनों पक्षों को अपने
क्षेत्र का उपयोग करने की अनुमति नहीं दी।
चीन
पर जापानी आक्रमण (1937)जपानी सैनिक,
शंघाई की लड़ाई के दौरान,
1937
जुलाई
1937 में,
मार्को-पोलो ब्रिज हादसे का बहाना लेकर जापान ने
चीन पर हमला कर दिया और चीनी साम्राज्य की राजधानी बीजिंग पर कब्जा कर लिया,
सोवियत संघ ने चीन को यूद्ध सामग्री की सहायता
हेतु, उसके साथ एक अनाक्रमण समझौते पर
हस्ताक्षर किए, जिससे जर्मनी के साथ
चीन के पूर्व सहयोग प्रभावी रूप से समाप्त हो गया। जनरल इश्यिमो च्यांग काई शेक ने
शंघाई की रक्षा के लिए अपनी पूरी सेना तैनात की, लेकिन
लड़ाई के तीन महीने बाद ही शंघाई हार गए। जापानी सेना लगातार चीनी सैनिको को पीछे
धकेलते रहे, और दिसंबर 1937
में राजधानी नानकिंग पर भी कब्जा कर लिया।
नानचिंग पर जापानी कब्जे के बाद, लाखों
की संख्या में चीनी नागरिकों और निहत्थे सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया गया।
मार्च
1938 में,
राष्ट्रवादी चीनी बलों ने तैएरज़ुआंग में अपनी
पहली बड़ी जीत हासिल की, लेकिन
फिर ज़ुझाउ शहर को मई में जापानी द्वारा कब्ज़ा कर लिया गया। जून 1938
में, चीनी
सेना ने पीली नदी में बाढ़ लाकर, बढ़ते
जापानियों को रोक दिया; इस
पैंतरेबाज़ी से चीनियों को वूहान में अपनी सुरक्षा तैयार करने के लिए समय निकल गया,
हालांकि शहर को अक्टूबर तक जापानियों ने कब्जा
लिया।जापानी सैन्य जीत ने चीनी प्रतिरोध को उतना ढ़हाने में क़ामयाब नहीं रहे
जितना की जापान उम्मीद करता था; बजाय
इसके चीनी सरकार चोंग्किंग में स्थानांतरित हो गई और युद्ध जारी रखा।
सोवियत-जापानी
सीमा संघर्ष
यूरोपीय
व्यवसाय और समझौते
युद्ध
की शुरुआत
1937 में
चीन और जापान मार्को पोलों में आपस में लड़ रहे थे। उसी के बाद जापान ने चीन पर पर
पूरी तरह से धावा बोल दिया। सोविएत संघ ने चीन तो अपना पूरा समर्थन दिया। लेकिन
जापान सेना ने शंघाई से चीन की सेना को हराने शुरू किया और उनकी राजधानी बेजिंग पर
कब्जा कर लिया। 1938 ने चीन ने
अपनी पीली नदी तो बाड़ ग्रस्त कर दिया और चीन को थोड़ा समय मिल गया सँभालने ने का
लेकिन फिर भी वो जापान को रोक नही पाये। इसे बीच सोविएत संघ और जापान के बीच में
छोटा युद्ध हुआ पर वो लोग अपनी सीमा पर ज्यादा व्यस्त हो गए।
यूरोप
में जर्मनी और इटली और ताकतवर होते जा रहे थे और 1938 में
जर्मनी ने आस्ट्रिया पर हमला बोल दिया फिर भी दुसरे यूरोपीय देशों ने इसका ज़्यादा
विरोध नही किया। इस बात से उत्साहित होकर हिटलर ने सदेतेनलैंड जो की
चेकोस्लोवाकिया का पश्चिमी हिस्सा है और जहाँ जर्मन भाषा बोलने वालों की ज्यादा
तादात थी वहां पर हमला बोल दिया। फ्रांस और इंग्लैंड ने इस बात को हलके से लिया और
जर्मनी से कहाँ की जर्मनी उनसे वादा करे की वो अब कहीं और हमला नही करेगा। लेकिन
जर्मनी ने इस वादे को नही निभाया और उसने हंगरी से साथ मिलकर 1939
में पूरे चेकोस्लोवाकिया पर कब्जा कर लिया।
दंजिग
शहर जो की पहले विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी से अलग करके पोलैंड को दे दिया गया था और
इसका संचालन देशों का संघ (लीग ऑफ़ नेशन्स) नामक विश्वस्तरीय संस्था कर रही थी,
जो की प्रथम विश्व युद्ध के बाद स्थापित हुए थी।
इस देंजिंग शहर पर जब हिटलर ने कब्जा करने की सोची तो फ्रांस और जर्मनी पोलैंड को
अपनी आजादी के लिए समर्थन देने को तैयार हो गए। और जब इटली ने अल्बानिया पर हमला
बोला तो यही समर्थन रोमानिया और ग्रीस को भी दिया गया। सोविएत संघ ने भी फ्रांस और
इंग्लैंड के साथ हाथ मिलाने की कोशिश की लेकिन पश्चिमी देशों ने उसका साथ लेने से
इंकार कर दिया क्योंकि उनको सोविएत संघ की मंशा और उसकी क्षमता पर शक था। फ्रांस
और इंग्लैंड की पोलैंड को सहायता के बाद इटली और जर्मनी ने भी समझौता पैक्ट ऑफ़
स्टील किया की वो पूरी तरह एक दूसरे के साथ है।
सोविएत
संघ यह समझ गया था की फ्रांस और इंग्लैंड को उसका साथ पसंद नही और जर्मनी अगर उस
पर हमला करेगा तो भी फ्रांस और इंग्लैंड उस के साथ नही होंगे तो उसने जर्मनी के
साथ मिलकर उसपर आक्रमण न करने का समझौता (नॉन-अग्रेशन पैक्ट) पर हस्ताक्षर किए और
खुफिया तौर पर पोलैंड और बाकि पूर्वी यूरोप को आपस में बाटने का ही करार शामिल था।
सितम्बर
1939 में सोविएत संघ ने
जापान को अपनी सीमा से खदेड़ दिया और उसी समय जर्मनी ने पोलैंड पर हमला बोल दिया।
फ्रांस, इंग्लैंड और राष्ट्रमण्डल
देशों ने भी जर्मनी के खिलाफ हमला बोल दिया परन्तु यह हमला बहुत बड़े पैमाने पर
नही था सिर्फ़ फ्रांस ने एक छोटा हमला सारलैण्ड पर किया जो की जर्मनी का एक राज्य
था। सोविएत संघ के जापान के साथ युद्धविराम के घोषणा के बाद ख़ुद ही पोलैंड पर
हमला बोल दिया। अक्टूबर 1939 तक
पोलैंड जर्मनी और सोविएत संघ के बीच विभाजित हो चुका था। इसी दौरान जापान ने चीन
के एक महत्वपूर्ण शहर चंघसा पर आक्रमण कर दिया पर चीन ने उन्हें बहार खड़ेड दिया।
पोलैंड
पर हमले के बाद सोविएत संघ ने अपनी सेना को बाल्टिक देशों (लातविया,
एस्टोनिया, लिथुँनिया)
की तरफ मोड़ दी। नवम्बर 1939 में
फिनलैंड पर जब सोविएत संघ ने हमला बोला तो युद्ध जो विंटर वार के नाम से जाना जाता
है वो चार महीने चला और फिनलैंड को अपनी थोडी सी जमीन खोनी पड़ी और उसने सोविएत
संघ के साथ मॉस्को शान्ति करार पर हस्ताक्षर किए जिसके तहत उसकी आज़ादी को नही
छीना जाएगा पर उस सोविएत संघ के कब्जे वाली फिनलैंड की ज़मीन को छोड़ना पड़ेगा
जिसमे फिनलैंड की 12 प्रतिशत जन्शंख्या
रहती थी और उसका दूसरा बड़ा शहर य्वोर्ग शामिल था।
फ्रांस
और इंग्लैंड ने सोविएत संघ के फिनलैंड पर हमले को द्वितीय विश्व युद्ध में शामिल
होने का बहाना बनाया और जर्मनी के साथ मिल गए और सोविएत संघ को देशों के संघ (लीग
ऑफ़ नेशन्स) से बहार करने की कोशिश की। चीन के पास कोशिश को रोकने का मौक था
क्योंकि वो देशों के संघ (लीग ऑफ़ नेशन्स) का सदस्य था। लेकिन वो इस प्रस्ताव में
शामिल नही हुआ क्योंकि न तो वो सोविएत संघ से और न ही पश्चिमी ताकतों से अपने आप
को दूर रखना चाहता था। सोविएत संघ इस बात से नाराज़ हो गया और चीन को मिलने वाली
सारी सैनिक मदद को रोक दिया। जून 1940 में
सोविएत संघ ने तीनों बाल्टिक देशों पर कब्जा कर लिया।
दूसरा विश्वयुद्ध और भारतः- दूसरे विश्वयुद्ध के समय भारत पर अंग्रेजों का कब्जा था। इसलिए आधिकारिक रूप से भारत ने भी नाजी जर्मनी के विरुद्ध १९३९ में युद्ध की घोषणा कर दी। ब्रिटिश राज (गुलाम भारत) ने २० लाख से अधिक सैनिक युद्ध के लिए भेजा जिन्होने ब्रिटिश नियंत्रण के अधीन धुरी शक्तियों के विरुद्ध युद्ध लड़ा। इसके अलावा सभी देसी रियासतों ने युद्ध के लिए बड़ी मात्रा में अंग्रेजों को धनराशि प्रदान की।
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