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जातक कथाएं महात्मा बुद्ध

 परिचय जातक कथाएँ


जातक या जातक पालि या जातक कथाएं बौद्ध ग्रंथ त्रिपिटक का सुत्तपिटक अंतर्गत खुद्दकनिकाय का १०वां भाग है। इन कथाओं में भगवान बुद्ध के पूर्व जन्मों की कथायें हैं। जो मान्यता है कि खुद गौतमबुद्ध जी के द्वारा कहे गए है, हालांकि की कुछ विद्वानों का मानना है कि कुछ जातक कथाएँ, गौतमबुद्ध के निर्वाण के बाद उनके शिष्यों द्वारा कही गयी है। विश्व की प्राचीनतम लिखित कहानियाँ जातक कथाएँ हैं जिसमें लगभग 600 कहानियाँ संग्रह की गयी है। यह ईसवी संवत से 300 वर्ष पूर्व की घटना है। इन कथाओं में मनोरंजन के माध्यम से नीति और धर्म को समझाने का प्रयास किया गया है।


जातक खुद्दक निकाय का दसवाँ प्रसिद्ध ग्रन्थ है। जातक को वस्तुतः ग्रन्थ न कहकर ग्रन्थ समूह ही कहना अधिक उपयुक्त होगा। उसका कोई-कोई कथानक पूरे ग्रन्थ के रूप में है और कहीं-कहीं उसकी कहानियों का रूप संक्षिप्त महाकाव्य-सा है। जातक शब्द जन धातु से बना है। इसका अर्थ है भूत अथवा भाव। ‘जन्’ धातु में ‘क्त’ प्रत्यय जोड़कर यह शब्द निर्मित होता है। धातु को भूत अर्थ में प्रयुक्त करते हुए जब अर्थ किया जाता है तो जातभूत कथा एवं रूप बनता है। भाव अर्थ में प्रयुक्त करने पर जात-जनि-जनन-जन्म अर्थ बनता है। इस तरह ‘जातक’ शब्द का अ र्थ है, ‘जात’ अर्थात् जन्म-सम्बन्धीं। ‘जातक’ भगवान बुद्ध के पूर्व जन्म सम्बन्धी कथाएँ है। बुद्धत्व प्राप्त कर लेने की अवस्था से पूर्व भगवान् बुद्ध बोधिसत्व कहलाते हैं। वे उस समय बुद्धत्व के लिए उम्मीदवार होते हैं और दान, शील, मैत्री, सत्य आदि दस पारमिताओं अथवा परिपूर्णताओं का अभ्यास करते हैं। भूत-दया के लिए वे अपने प्राणों का अनेक बार बलिदान करते हैं। इस प्रकार वे बुद्धत्व की योग्यता का सम्पादन करते हैं। बोधिसत्व शब्द का अर्थ ही है बोधि के लिए उद्योगशील प्राणी। बोधि के लिए है सत्व (सार) जिसका ऐसा अर्थ भी कुछ विद्वानों ने किया है। पालि सुत्तों में हम अनेक बार पढ़ते हैं, "सम्बोधि प्राप्त होने से पहले, बुद्ध न होने के समय, जब मैं बोधिसत्व ही था" आदि। अतः बोधिसत्व से स्पष्ट तात्पर्य ज्ञान, सत्य दया आदि का अभ्यास करने वाले उस साधक से है जिसका आगे चलकर बुद्ध होना निश्चित है। भगवान बुद्ध भी न केवल अपने अन्तिम जन्म में बुद्धत्व-प्राप्ति की अवस्था से पूर्व बोधिसत्व रहे थे, बल्कि अपने अनेक पूर्व जन्मों में भी बोधिसत्व की चर्या का उन्होंने पालन किया था। जातक की कथाएँ भगवान् बुद्ध के इन विभिन्न पूर्वजन्मों से जबकि वे बोधिसत्व रहे थे , सम्बन्धित हैं। अधिकतर कहानियों में वे प्रधान पात्र के रूप में चित्रित है। कहानी के वे स्वयं नायक है। कहीं-कहीं उनका स्थान एक साधारण पात्र के रूप में गौण है और कहीं-कहीं वे एक दर्शक के रूप में भी चित्रित किये गये हैं। प्रायः प्रत्येक कहानी का आरम्भ इस प्रकार होता है-"एक समय राजा ब्रह्मदत्त के वाराणसी में राज्य करते समय (अतीते वाराणसिंय बह्मदत्ते रज्ज कारेन्ते) बोधिसत्व कुरंग मृग की योनि से उत्पन्न हुए अथवा ... सिन्धु पार के घोड़ों के कुल में उत्पन्न हुए अथवा ..... बोधिसत्व ब्रह्मदत्त के अमात्य थे अथवा ..बोधिसत्व गोह की योनि सें उत्पन्न हुए आदि, आदि।


जातक की कहानियों में से कुछ का नामकरण तो जातक में आई हुई गाथा के पहले शब्दों से हुआ है, यथा-अपष्णक जातक; किसी का प्रधान पात्र के अनुसार, यथा वण्णुपथ जातक; किसी का उन जन्मों के अनुसार जो बोधिसत्व ने ग्रहण किये यथा, निग्रेध मिग जातक, मच्छ जातक, आदि।


जातकों की संख्या एवं रचनाकाल

सभी जातक कथाएं गौतमबुद्ध के द्वारा कही गयी है, जातक बुद्ध समयकालीन है, जातकों की निश्चित संख्या कितनी है, इसका निर्णय करना बड़ा कठिन है। लंका, बर्मा और सिआम में प्रचलित परम्परा के अनुसार जातक 550 हैं। समन्तपासादिका की निदान कथा में भी जातकों की संख्या इतनी ही बताई गई है। "पण्णासा धकनि पंचसतानि जातकंति वेदितब्बं।" अट्ठसालिनी की निदान कथा में भी -पण्णासाधिकानि पंचजातकसतानि" है। संख्या मोटे तौर पर ही निश्चित की गई है। जातक के वर्तमान रूप में 547 जातक कहनियाँ पाई जाती हैं। पर यह संख्या भी केवल ऊपरी है। जातकट्ठवण्णनाकार ने विषयवस्तु की दृष्टि से इन्हें पाँच वर्गों में विभाजित किया है-


1. पच्चुपन्नवत्थु - बुद्ध की वर्तमान कथाओं का संग्रह है।

2. अतीतवत्थु - इसमें अतीत की कथाँए संगृहीत है।

3. गाथा

4. वैय्याकरण - गाथाएँ व्याख्यायित की गई है।

5. समोधन - इसमें अतीतवत्थु के पात्रों का बुद्ध के जीवनकाल के पात्रों से सम्बन्ध बताया गया है।


जातक की कई कहानियाँ अल्प रूपान्तर के साथ दो जगह भी पाई जाती है या एक दूसरे में समाविष्ट भी कर दी गई हैं, और इसी प्रकार कई जातक कथाएँ सुत्त-पिटक, विनय-पिटक, तथा अन्य पालि ग्रन्थों में तो पाई जाती है, किन्तु जातक के वर्तमान रूप में संगृहीत नहीं है। अतः जातकों की संख्या में काफी कमी की भी और बृद्धि की भी सम्भावना है। उदाहरणतः मुनिक जातक(30) और सालूक जातक(286) की कथावस्तु एक ही सी है, किन्तु केवल भिन्न-भिन्न नामों से वह दो जगह आई है। इसके विपरीत ‘मुनिक जातक’ नाम के दो जातक होते हुए उनकी भी कथा भिन्न-भिन्न है।


यही बात मच्छ जातक नाम से दो जातक की भी है। कही-कहीं दो स्वतन्त्र जातकों को मिलाकर एक तीसरे जातक का निर्माण कर दिया गया है। उदाहरण के लिए पंचपंडित जातक(508) और दकरक्खस जातक(517) ये दोनों जातक महाउमग्ग जातक(546) में अन्तर्भावित हैं। जो कथाएँ जातक-कथा के रूप में अन्यत्र पाई जाती हैं, किन्तु ‘जातक’ में संगृहीत नहीं है, उनका भी कुछ उल्लेख कर देना आवश्यक होगा। मज्झिम निकाय का घटिकार- सुत्त या घटीकार सुत्त (2/4/1) एक ऐसी ही जातक कहानी है, जो ‘जातक’ में नहीं मिलती। इसी प्रकार दीर्घनिकाय का महागोविन्द सुत्त(2/6) जो स्वयं जातक की निदान कथा में भी ‘महागोविन्द जातक’ के नाम से निर्दिष्ट हुआ है, जातक के अन्दर नहीं पाया जाता है। इसी प्रकार धम्मपदट्ठकथा और मिलिन्द पंह में भी कुछ ऐसी जातक-कथाएँ उद्धृत की गई हैं, जो जातक में संगृहीत नहीं है।


अतः कुछ जातक निश्चित रूप से कितने है इसका ठीक निर्णय नहीं हो सकता। जब जातकों की संख्या के सम्बन्ध में विचार करते हैं तो जातक से हमारा तात्पर्य एक विशेष शीर्षक वाली कहानी से होता है, जिसमें बोधिसत्व के जीवन-सम्बन्धी कि सी घटना का वर्णन हो, फिर चाहे उस एक जातक में कितनी ही अवान्तर कथाएँ क्यों न गूँथ दी गई हों। यदि कुल कहानियाँ गिनी जाय तो जातक में करीब तीन हजार कहानियाँ पाई जाती हैं। वास्तव में जातकों का संकलन सुत्त-पिटक और विनय-पिटक के आधार पर किया गया है। सुत्त -पिटक में अनेक ऐसी कथाएँ है जिनका उपयोग वहाँ उपदेश देने के लिए किया गया है। किन्तु बोधिसत्व का उल्लेख उसमें नहीं है। यह काम बाद में करके प्रत्येक कहानी को जातक का रूप दे दिया गया है। तित्तिर जातक(37) और दीघित कोसल जातक(371) का निमार्ण इसी प्रकार विनय-पिटक के क्रमशः चुल्लवग्ग और महावग्ग से किया गया है। मणिकंठ जातक(253) भी विनय-पिटक पर ही आधारित है। इसी प्रकार दीर्घ-निकाय के कूटदन्त सुत्त(1/5) और महासुदस्सन सुत्त(2/4) तथा मज्झिम निकाय के मखादेव सुत्त(2/4/3) भी पूरे अर्थों में जातक हैं। कम से कम 13 जातकां की खोज विद्वानों ने सुत्त पिटक और विनय-पिटक में की हैं। यद्यपि राजकथा चोर-कथा एवं इसी प्रकार की भय, युद्ध, ग्राम, निगम, नगर, जनपद, स्त्री, पनघट, भूत-प्रेत आदि सम्बन्धी कथाओं को तिरश्चीन (व्यर्थ की, अधम) कथाएँ कहकर भिक्षु संघ में हेयता की दृष्टि से देखा जाता था। फिर भी उपदेश के लिए कथाओं का उपयोग भिक्षु लोग कुछ-न-कुछ मात्रा मेंं करते ही थे। स्वयं भगवान ने भी उपमाओं और दृष्टान्तों के द्वारा धर्म का उपदेश दिया है। बौद्ध संस्कृत ग्रन्थ सद्धर्मपुण्डरीक सूत्र के द्वितीय परिवर्त (उपाय कौशल्य-परिवर्त) में भी कहा गया है कि बुद्ध अनेक दृष्टान्तों से (दृष्टान्तशतेहि) तथा जातक(पूर्वजन्म सम्बन्धी कथाओं) के द्वारा सब प्राणियों के कल्याणार्थ उपदेश करते हैं। बुद्ध के अलावा अन्य भारतीय सन्त भी उपनिषदों के काल से लेकर रामकृष्ण परमहंस के समय तक आख्यायिकाओं और दृष्टान्तों के सहारे धर्मोंपदेश करते रहे हैं। इसी प्रवृत्ति के आधार पर जातककथाओं का विकास हुआ है। जन समाज में प्रचलित कथाओं को भी कही-कहीं ले लिया गया है, किन्तु उन्हें एक नया नैतिक रूप दे दिया गया है, जो बौद्ध धर्म की एक विशेषता है। अतः सभी जातक कथाओं पर बौद्ध धर्म की पूरी छाप है। पूर्व परम्परा से चले आते हुए लोक-आख्यानों का आधार उनमें हो सकता है, पर उनका सम्पूर्ण ढाँचा बौद्ध धर्म के नैतिक आदर्श के अनुकूल है। बुद्ध वचनों का वर्गीकरण नौ अंगों के रूप में किया गया है, जिनके नाम हैं-


1. सुत्त 2. गेय 3. वेय्याकरण 4. गाथा 5. उदान 6. इतिक्तुक 7. जातक 8. अब्भुतधम्म और 9. वेदल्ल।


सुत्त (सूत्र) का अर्थ है सामान्यतः बुद्ध उपदेश। दीर्घ-निकाय सुत्त निपात आदि में गद्य में रखे हुए भगवान बुद्ध के उपदेश सुत्त हैं।

गेय्य (गेय)- पद्य मिश्रित अंश (सगाथकं) गे य्य कहलाते हैं। "सब्बं पि सगाथक सुत्तं गेय्यं वेदितब्बं।’’

वैय्याकरण (व्याकरण, विवरण, विवेचन) वह व्याख्यापरक साहित्य है, जो अभिधम्म-पिटक तथा अन्य ऐसे ही अंशों में सन्निहीत है।

पद्य में रचित अंग गाथा (पालि श्लोक) कहलाते हैं, यथा धम्मपद आदि की गाथाएँ।

उदान का अर्थ है बुद्ध मुख से निकले हुए भावमय प्रीति-उद्गार या ऊर्ध्व वचन। ये उद्गार सौमनस्य की अवस्था में बुद्ध मुख से निकली हुई ज्ञानमयिक गाथाओं के रूप में है। "सोमनस्संनाणमयिक गाथापटि संयुत्ता।"

इतिवुत्तक का अर्थ है- ‘ऐसा कहा गया या ऐसा तथागत ने कहा।' "वुत्त हेतं भगवता" से आरम्भ होने वाले बुद्ध वचन इतिवुत्तक है।

जातक का अर्थ है- (बुद्ध के पूर्व) जन्म सम्बन्धी कथाएँ। ये जातक में संगृहीत है और कुछ अन्यत्र भी त्रिपिटक में पाई जाती है।

अब्भुत-धम्म (अद्भुत धर्म) वे सुत्त हैं, जो अद्भुत वस्तुओं या योग सम्बन्धी विभूतियों का निरूपण करते हैं। अंगुत्तर निकाय के "चत्तारों में भिक्खवे अच्छ रिया अब्भुत धम्मा आनन्दे" जैसे अंश ‘अब्भुतधम्म’ है।

वेदल्ल वे उपदेश हैं जो प्रश्न और उत्तर के रूप में लिखे गये हैं, जिनमें आध्यात्मिक प्रसन्नता और सन्तोष प्राप्त कर के प्रश्न पूछे जायँ। "सब्बे पि वेदं च तुटिठं च लुद्धा पुचिछतसुत्तन्ता वेदल्लं ति वेदितब्बा।" चुल्ल वेदल्ल सुत्तन्त महा वेदल्ल सुत्तन्त, सम्मादिट्ठि सुत्तन्त, सक्कपंह सुत्तन्त आदि इसके उदाहरण है।


बुद्ध वचनों का यह नौ प्रकार का विभाजन उनके शैली स्वरूपों या नमूनों की दृष्टि से ही है, ग्रन्थों की दृष्टि से नहीं। इतने प्रकार के बुद्ध उपदेश होते थे, यही इस वर्गीकरण का अभिप्राय है। बुद्ध वचनों का नौ अंगों में विभाजन जिनमें जातक की संख्या सातवीं है, अत्यन्त प्राचीन है। अतः जातक कथाएँ सर्वांश में पालि-साहित्य के महत्वपूर्ण एवं आवश्यक अंग हैं। उनकी संख्या के विषय में अनिश्चितता विशेषतः उनके समय-समय पर सुत्त पिटक और विनय-पिटक तथा अन्य श्रोतों से संकलन के कारण और स्वयं पालि पिटक के नाना वर्गीकरणों और उनके परस्पर संमिश्रण के कारण उत्पन्न हुई है। चुल्ल निद्देस में हमें केवल 500 जातकों का (पंच जातक सतानि) का उल्लेख मिलता है। चीनी यात्री फाह्यान ने पाँचवी शताब्दी ईसवी में 500 जातकों के चित्र लंका में अंकित हुए देखे थे। द्वितीय तृतीय शताब्दी ईस्वी पूर्व के भरहुत और साँची के स्तूपों में जातकों के चित्र अंकित मिले हैं। जिनमें से कम से कम 27 या 29 जातकों के चित्रों की पहचान रायस डेविड्स ने की थी। तब से कुछ अन्य जातक कहानियों की पहचान भी इन स्तूपों की पाषाण-वेष्टनियों पर की जा चुकी हैं। ये सब तथ्य जातक की प्राचीनता और उसके विकास के सूचक हैं।


स्थविरवादी पालि साहित्य के समान संस्कृत बौद्ध धर्म के ग्रन्थों में भी जातक कथाएँ पाई जाती हैं। पालि के नवांग बुद्ध वचन की तरह यहाँ द्वादश अंग धर्मप्रवचन माने गये हैं। इन दोनों ही जगह जातक एक अंग या धर्म-प्रवचन के भाग के रूप में विद्यमान है। बौद्ध संस्कृत ग्रन्थ जातकमाला में जो आर्यशूर की रचना बताई जाती है 34 जातक कथाएँ मिलती है। आर्यशूर को लामा, तारनाथ ने अश्वघोष का ही दूसरा नाम बताया है परन्तु यह ठीक नहीं जान पड़ता है। सम्भवतः वे चतुर्थ शताब्दी ईसवी के कवि थे। लोकोत्तरवादियों के प्रसिद्ध ग्रन्थ महावस्तु में जो 200 ई0 पूर्व से 400 ई0 तक के बीच के काल में लिखी गई, करीब 80 जातक कथाएँ मिलती है। इसमें से कुछ पालि जातक के समान हैं और कुछ ऐसी भी हैं, जो पालि जातक में नहीं पाई जाती।


रायस डेविड्स का कथन है कि जातक का संकलन और प्रणयन मध्य देश में प्राचीन जनकथाओं के आधार पर हुआ। विण्टरनित्ज ने भी प्रायः इसी मत का प्रतिपादन किया है। अधिकांश जातक बुद्धकालिन है। साँची और भरहुत के स् तूपों की पाषाण-वेष्टनियों पर उनके दृश्यों का अंकित होना उनके पूर्व अशोककालीन होने का पर्याप्त साक्ष्य देता है। जातक के काल और कर्तृत्व के सम्बन्ध में अधिक प्रकाश उसके साहित्यिक रूप और विशेषताओं के विवेचन से पड़ेगा। प्रत्येक जातक कथा पाँच भागों में विभक्त है।


1 . पंचुप्पन्नवत्थु 2 . अतीतवत्थु 3 . गाथा 4 . वेय्याकरण या अत्यवण्णना और 5 . समोधन।


पंचुप्पन्नवत्थु का अर्थ है वर्तमान काल की घटना या कथा। बुद्ध के जीवन काल में जो घटना घटी वह पच्चुप्पन्नवत्थु है। उस घटना ने भगवान को किसी पूर्वजन्म के वृत् त को कहने का अवसर दिया। यह पूर्वजन्म का वृत्त ही अतीतवत्थु है। प्रत्येक जातक का कथा की दृष्टि सबसे अधिक महत्वपूर्ण भाग यह अतीतवत्थु ही है। इसी के अनुकूल पच्चप्पन्नवत्थु कहीं-कहीं गढ़ ली गई प्रतीत होती है। अतीतवत्थु के बाद एक या अनेक गाथाएँ आती हैं। इनका सम्बन्ध वैसे तो अतीतवत्थु से ही होता है, किन्तु कहीं-कहीं पच्चप्पन्नवत्थु से भी होता है। गाथाएँ जातक के प्राचीनतम अंश हैं। वास्तव में गाथाएँ ही जातक हैं। पच्चुप्पन्नवत्थु आदि पाँच भागों से समन्वित जातक तो वास्तव में जातकट्ठवण्णना या जातक में वेय्याकरण या अत्थव ण्णना आती है। इसमें गाथाओं की व्याख्या और उनका शब्दार्थ होता है। सबसे अन्त में समोधन(समवधान) आता है, जिसमें अतीतवत्थु के पात्रों का बुद्ध के जीवन काल के पात्रों के साथ सम्बन्ध मिलाया जाता है, यथा उस समय अटारी पर से शिकार खेलने वाला शिकारी अब का देव दत्त था और कुरूंग मृग तो मैं था ही, आदि आदि।


जातक में बुद्ध के पूर्व जन्मों की कथाएँ संगृहीत है जबकि उन्होंने बोधिसत्व के रूप में विभिन्न पारमिताएँ पूरी कीं और बुद्धत्व के लिए योग्यता सम्पादित की। सुत्त-पिटक के प्रथम चार निकायों में बुद्ध के ऐतिहासिक रूप की ही प्रतिष्ठा है। बाद में जातक में (तथा बुद्धवंस और चरिया-पिटक में) उनके ऐतिहासिक जीवन को पूर्व की कथाओं से सम्बद्ध कर दिया पाते हैं। जातकट्ठकथा की निदान कथा में बुद्ध जीवन के तीन निदान बताये गये हैं, दूरे निदान में अत्यन्त दूर अतीत की बुद्ध जीवन की कथा है, ऐसा माना जाता है कि अत्यन्त सुदूर अतीत में बुद्ध सुमेध तपस्वी बनकर उत्पन्न हुए थे। उस समय उन्होंने दीपंकर बुद्ध में बड़ी निष्ठा दिखाई जिसके परिणामस्वरूप उन्होंने उन्हें आगे चलकर बुद्ध होने का आशीर्वाद दिया। अनेक जन्मों तक विभिन्न शरीर धारण करते हुए सुमे ध तपस्वी की साधना चलती रही। अन्त में वेस्सन्तर राजा के रूप में शरीर त्याग कर वे तुषित लोक में गये। सुमेध तपस्वी के रूप से लेकर तुषित लोक में जाने तक की बुद्ध की यह साधना कथा दूर निदान के अन्तर्गत है। 547 जातक कथाएँ अपण्णक जातक से लेकर वेस्सन्तर जातक तक बुद्ध जीवनी के इस दूरे निदान से ही सम्बन्धित है। इन कथाओं से यहाँ तात्पर्य है इनमें वर्णित अतीतवत्थु। इनका सम्बन्ध बुद्ध की जीवन-कथा के दूरे निदान से है अर्थात् ये बहुत दूर अतीत की कथाएँ हैं। लुम्बिनी वन में जन्म लेने के समय से लेकर बोधि-प्राप्ति तक की कथा अविदूरे निदान से सम्बन्धित है। अर्थात वह इतने दूर अतीत की नहीं है। बोधि प्राप्ति से लेकर निर्वाण प्राप्ति तक की बुद्ध जीवनी सन्तिके निदान के अन्तर्गत है। अर्थात वह समीप की है। जातक की पच्चुप्पन्नवत्थु में इसके कुछ अंश प्रस्तावना रूप में आते हैं। जातक की कहानियों में अतीतवत्थ में बुद्ध जीवनी के दूरे निदान के अन्दर समाविष्ट उनके पूर्व जन्मों की कहानियाँ आती है। ऐतिहासिक बुद्ध के जीवन की किसी घटना का उल्लेख कर इन दूरे निदान की कथाओं के कहने के लिए अवकाश निकाल लिया गया है। जो हो वास्तव में जातक का निर्माण करती है।


प्रत्येक जातक के पाँच अंगों के उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जातक गद्य-पद्य मिश्रित रचनाएँ हैं। गाथा (पद्य) भाग जातक का प्राचीनतम भाग माना जाता है। त्रिपिटक के अन्तर्भूत इस गाथा भाग को ही मानना अधिक उपयुक्त होगा। शेष सब अट्ठकथा है। परन्तु जातक-कथाओं की प्रकृति ऐसी है कि मूल को व्याख्या से अलग कर देने पर कुछ भी समझ में नहीं आ सकता। केवल गाथाएँ कहानी का निर्माण नहीं करती। उनके ऊपर जब वर्तमान और अतीत की घटनाओं को ढाँचा चढ़ाया जाता है तभी कथावस्तु का निर्माण होता है। अतः पूरे जातक में उपर्युक्त पाँच अवयवों का हाना आवश्यक है जिसमें गाथा-भाग को छोड़कर शेष सब उसकी व्याख्या है बाद का जोड़ा हुआ है। फिर भी सुविधा के लिए और ऐतिहासिक दृष्टि से गलत ढंग पर हम उसकों जातक कह देते हैं। वास्तव में 547 जातक कथाओं के संग्रह को जो उपर्युक्त पाँच अंगों से समन्वित है, हमें जातक न कहकर जातकट्ठवण्णना (जातक के अर्थ की व्याख्या) या जातकटठकथा ही कहना चाहिए। फॉसबाल और कॉवल ने जिसका क्रमशः रोमन लिपि में और अंग्रेजी में सम्पादन और अनुवाद किया है या हिन्दी में भदन्त आनन्द कौसल्यायन ने ‘जातक’ शीर्षक से 6 भागों में अनुवा द किया है, वह वास्तव में जातक न होकर जातक की व्याख्या है। जातक कथाएँ तो मूल रूप में केवल गाथाएँ है, शेष भाग उसकी व्याख्या है।


गाथा और जातक के शेष भाग का कालक्रम आदि की दृष्टि से क्या पारस्परिक सम्बन्ध है यह प्रश्न सामने आता है। अटठ्कथा में गाथा-भाग को अभिसम्बुद्ध गाथा या भगवान् बुद्ध द्वारा भाषित गाथाएँ कहा गया है। वे बुद्धवचन हैं। अतः वे तिपिटक के अंगभूत थी और उनकों वहाँ से संकलित कर उनके ऊपर कथाओं का ढाँचा प्रस्तुत किया गया है। सम्पूर्ण जातक ग्रन्थ की विषयवस्तु का जिस आधार पर वर्गीकरण हुआ है, उससे भी यही स्पष्ट है कि गाथा-भाग, या जिसे पिण्टरनित्ज आदि विद्वानों ने गाथा-जातक कहा है, वहीं उसका मूलाधार है। जातक ग्रन्थ का वर्गीकरण विषय-वस्तु के आधार पर न होकर गाथाओं की संख्या के आधार पर हुआ है। थेर-थेरी गाथाओं के समान वह भी निपातों में विभक्त है। जातक में 22 निपात हैं। पहले निपात में 150 ऐसी कथाएँ है जिनमें एक की एक गाथा पाई जाती है। दूसरे निपात में भी 150 जातक कथाएँ है किन्तु यहाँ प्रत्येक कथा में दो-दो गाथाएँ पाई जाती हैं। इसी प्रकार तीसरे और चौथे निपात में पचास-पचास कथाएँ है और गाथाओं की संख्या क्रमशः तीन-तीन और चार-चार है। आगे भी तेरहवें निपात तक प्रायः यही क्रम चलता है। चौदहवें निपात का नाम पकिण्णक निपात है। इस निपात में गाथाओं की संख्या नियमानुसार 14 न होकर विविध है। इसलिए इसका नाम पकिण्णक (प्रकीर्णक) रख दिया गया है। इस निपात में कुछ कथाओं में 10 गाथाएँ भी पाई जाती है और कुछ में 47 तक भी पाई जाती है। आगे के निपातों में गाथाओं की संख्या निरन्तर बढ़ती गई है। पन्द्रहवें निपात का शीर्षक है वीस निपात, सोलहवें का तिंस निपात, सत्रहवें का चत्तालीस निपात, अट्ठारहवें का पण्णास निपात ,उन्नीसवें का सठ्ठि निपात, बीसवें का सत्ततिनिपात और इक्कीसवें का असीतिनिपात। बाइसें निपात में केवल दस जातक कथाएँ है किन्तु प्रत्येक में गाथाओं की संख्या सौ से भी ऊपर है। अन्तिक जातक (वेस्सन्तर जातक) में तो गाथाओं की संख्या सात सौ से भी ऊपर है।


इन सबसे यह निष्कर्ष निकलता है कि जातक कथाओं की आधार गाथाएँ ही है। स्वयं अनेक जातक कथाओं के वेय्याकरण भाग में पालि और अट्ठकथा के बीच भेद दिखाया गया है, जैसे कि पलि सुत्तों की अन्य अनेक अट्ठकथाओं तथा विसुद्धिमग्गों आदि ग्रन्थों में भी। जहाँ तक जातक के वेय्याकरण भाग से सम्बन्ध है, वहाँ पालि का अर्थ तिपिटक गत गाथा ही हो सकता है। भाषा के साक्ष्य से भी गाथा भाग अधिक प्राचीनता का द्योतक है अपेक्षाकृत गद्य भाग के। पिण्टरनित्ज ने कहा है जातक की सम्पूर्ण गाथाओं को तिपिटक का मूल अंश नहीं माना जा सकता है। उनमें भी पूर्वापर भेद है। स्वयं जातक के वर्गीकरण से ही यह स्पष्ट है। चौदहवें निपात (पकिण्णक निपात) में प्रत्येक जातक कथा की गाथाओं की संख्या नियमानुसार 14 न होकर कही-कहीं बहुत अधिक है। इसी प्रकार बीसवें निपात (सत्तति निपात) में उसकी दो जातक कथाओं की संख्या सत्तर-सत्तर न होकर क्रमशः 92 और 93 है। इस सबसे यह निष्कर्ष निकाला गया है कि जातक का गाथाओं अथवा गाथा जातक की मूल संख्या निपात के शीर्षक की संख्या के अनुकूल ही होगी। और बाद में उसका संवर्द्धन किया गया है। अतः कुछ गाथा एँ अधिक प्राचीन है और कुछ अपेक्षाकृत कम प्राचीन है। इसी प्रकार गद्य भाग भी कुछ अत्यन्त प्राचीनता के लक्षण लिए हुए है और कुछ अपेक्षाकृत अर्वाचीन है। किसी-किसी जातक में गद्य और गाथा भाग में साम्य भी नहीं दिखाई पड़ता और कही-कहीं शैली में भी बड़ी विभिन्नता है। इस सबसे जातक के संकलनात्मक रूप और उसके भाषारूप की विविधता पर प्रकाश पड़ता है जिसमें कई रचयिताओं या संकलनकर्ताओं और कई शताब्दियों का योग रहा है।


जातक की गाथाओं की प्राचीनता तो निर्विवाद है ही, उसका अधिकांश गद्य भाग भी अत्यन्त प्राचीन है। भरहुत और साँची के स्तूपों की पाषाण वेष्टनियों पर जो चित्र अंकित है वे जातक के गद्य भाग से ही सम्बन्धित हैं। अतः जातक का अधिकांश गद्य-भाग जो प्राचीन है, तृतीय, द्वितीय शताब्दी ईसवी पूर्व में इतना लोकप्रिय तो होना हीं चाहिए कि उसे शिल्प कला का आधार बनाया जा सके। अतः सामान्यतः हम जातक को बुद्धकालीन भारतीय समाज और संस्कृति का प्रतीक मान सकते हैं। उसमें कुछ लक्षण और अवस्थाओं के चित्रण प्राग-बुद्धकालीन भारत के भी हैं और कुछ बुद्ध के काल के बाद के भी है। जहाँ तक गाथाओं की व्याख्या और उनके शब्दार्थ का सम्ब न्ध है, वह सम्भवतः जातक का सब से अधिक अर्वाचीन अंश है। इस अंश के लेखक आचार्य बुद्ध घोष माने जाते है। ‘गन्धवंस’ के अनुसार आचार्य बुद्धघोष ने ही ‘जातकट्ठण्णना’ की रचना की, किन्तु यह सन्दिग्ध है। भाषाशैली की भिन्नता दिखाते हुए और कुछ अन्य निषेधात्मक कारण देते हुए डॉ॰ टी. डब्ल्यू रायस डेविड्स ने बुद्धघोष को जातकट्ठवण्णना का रचयिता या संकलनकर्ता नहीं माना है। स्वयं जातकट्ठकथा के उपोद्घात में लेखक ने अपना परिचय देते हुए कहा है " ....शान्तचित्त पण्डित बुद्धमित्त भिक्षु बुद्धदेव के कहने से ........ व्याख्या करूँगा। महिशासक सम्प्रदाय महाविहार की परम्परा से भिन्न एक बौद्ध सम्प्रदाय था। बुद्धघोष ने जितनी अट्ठकथाएँ लिखी है, शुद्ध महाविहारवासी भिक्षुओं की उपदेश विधि पर आधारित हैं। अतः जातकट्ठकथा के लेखक को आचार्य बुद्धघोष से मिलाना ठीक नहीं। सम्भवतः यह कोई अन्य सिंहली भिक्षु थे, जिनका काल पाँचवीं शताब्दी ईसवी माना जा सकता है।


कथावस्तु एवं शैली

जातक कथाओं का रूप लोक-साहित्य का है। उसमें पशु-पक्षियों आदि की कथाएँ भी है और मनुष्यों की भी है। जातकों के कथानक विविध प्रकार के हैं। विण्टरनित्ज ने मुख्यतः सात भागों में उनका वर्गीकरण किया है-


1. व्यावहारिक नीति-सम्बन्धी कथाएँ

2. पशुओं की कथाएँ

3. हास्य और विनोद से पूर्ण कथाएँ

4. रोमांचकारी लम्बी कथाएँ या उपन्यास

5. नैतिक वर्णन

6. कथन मात्र, और

7. धार्मिक कथाएँ


वर्णन की शैलियाँ भी भिन्न-भिन्न है। विण्टरनित्ज ने इनका वर्गीकरण पाँच भागों में इस प्रकार किया है।


1. गद्यात्मक वर्णन

2. आख्यान, जिसके दो रूप हैं-

(अ) संवादात्मक, और

(आ) वर्णन और संवादों का सम्मिश्रित रूप।

3. अपेक्षाकृत लम्बे विवरण-जिनका आदि गद्य से होता है, किन्तु बाद में जिनमें गाथाएँ भी पाई जाती है।

4. किसी विषय पर कथित वचनों का संग्रह

5. महाकाव्य या खण्डकाव्य के रूप में वर्णन।


वानरिन्द जातक(57) विलारवत जातक(128) , सीहचम्म जातक(189), सुंसुमार जातक(208), और सन्धिभेद जातक(349) आदि। जातक कथाएँ पशु-कथाएँ है। ये कथाएँ अत्यधिक महत्वपूर्ण है। विशेषतः इन्हीं कथाओं का गमन विदेशों में हुआ है। व्यंग्य का पुट भी यहाँ अपने काव्यात्मक रूप से दृष्टिगोचर होता है। प्रायः पशुओं की तुलना में मनुष्यों को हीन दिखाया गया है। एक विशेष बात यह है कि व्यंग्य किसी व्यक्ति पर न कर सम्पूर्ण जाति पर किया गया है।


एक बन्दर कुछ दिनों के लिए मनुष्यों के बीच आकर रहा। बाद में अपने साथियों के पास जाता है। साथी पूछते है-"मनुष्यों के समाज में रहे है। उनका बर्ताव जानते हैं। हमें भी कहें। हम उसे सुनना चाहते हैं।" मनुष्यों की करनी मुझसे मत पूछो। कहे, हम सुनना चाहते हैं। बन्दर ने कहना शुरू किया," हिरण्य मेरा! सोना मेरा! यही रात दिन वे चिल्लाते है। घर में दो लोग रहते हैं। एक को मूँछ नहीं होती। उसके लम्बे केश होते है, वेणी होती है और कानों में छेद होते हैं। उसे बहुत धन से खरीदा जाता है। वह सब जनों को कष्ट देता है।" बन्दर कह ही रहा था कि उसके साथियों ने कान बन्द कर लिए" मत कहें मत कहें"। इस प्रकार के मधुर और अनूठे व्यंग्य के अनेकों चित्र जातक में मिलेगें। विशेषतः मनुष्य के अहंकार के मिथ्यापन के सम्बन्ध में मर्मस्पर्शी व्यंग्य। महापिंगल जातक(240) में, ब्राह्मणों की लोभवृत्ति के सम्बन्ध में सिगाल जातक(113) में एक अति बुद्धिमान तपस्वी के सम्बन्ध में, अवारिय जातक (376)में है। सब्बदाठ नामक श्रृंगाल सम्बन्धी हास्य और विनोद भी बड़ा मधुर है (सब्बदाठ जातक 241) और इसी प्रकार मक्खी हटाने के प्रयत्न में दासी का मूसल से अपनी माता को मार देना (रोहिणी जातक 45) और बन्दरों का पौधों का उखाड़ कर पानी देना भी मधुर विनोद से भरे हुए हैं।


इसी प्रकार रोमांच के रूप में महाउम्मग्ग जातक (546) आदि नाटकीय आख्यान के रूप में छदन्त जातक (514) आदि, एक ही विषय पर कहे हुए कथनों के संकलन के रूप में कुणाल जातक (536) आदि, संक्षिप्त नाटक के रूप में उम्मदन्ती जातक (527) आदि, नीतिपरक कथाओं के रूप में गुण जातक (157) आदि, पूरे महाकाव्य के रूप में पेस्सन्तर जातक (547) आदि एवं ऐतिहासिक संवादों के रूप में संकिच्च जातक (530) और महानारदकस्सप जातक (544) आदि। अनेक प्रकार के वर्णनात्मक आख्यान जातक में भरे पड़े हैं, जिनकी साहित्यिक विशेषताओं का उल्लेख यहाँ अत्यन्त संक्षिप्त रूप में भी नहीं किया जा सकता।


साहित्य और सभ्यता के इतिहास में जातक का स्थान

बुद्धकालीन भारत के समाज, धर्म, राजनीति, भूगोल, लौकिक विश्वास, आर्थिक एवं व्यापारिक अवस्था एवं सर्वाधिक जीवन की पूरी सामग्री हमें जातक में मिलती है। जातक केवल लोक-कथाओं का प्राचीनतम संग्रह भर नहीं हैं। बौद्ध साहित्य में तो उसका स्थान सर्वमान्य है ही। स्थविरवाद के समान महायान में भी उसकी प्रभूत महत्ता है, यद्यपि उसके रूप के सम्बन्ध में कुछ थोड़ा बहुत परिवर्तन है। बौद्ध साहित्य के समान समग्र भारतीय-साहित्य में और इतना ही नहीं, समग्र विश्व-साहित्य में जातक का एक महत्वपूर्ण स्थान है। इसी प्रकार भारतीय सभ्यता के एक युग का ही वह निदर्शक नहीं है, बल्कि उसके प्रसार की एक अद्भूत गाथा भी जातक में समाये हुए हैं। विशेषतः भारतीय इतिहास में जातक के स्थान को कोई दूसरा ग्रन्थ नहीं ले सकता। बुद्धकालीन भारत के सामाजिक आर्थिक, राजनैतिक जीवन को जानने के लिए जातक एक उत्तम साधन हैं। चूँकि उसकी सूचना प्रासंगिक रूप से ही दी गई है इसलिए वह और भी अधिक प्रामाणिक हैं और महत्वपूर्ण भी। जातक के आधार पर यहाँ बुद्धकालीन भारत का संक्षिप्ततम विवरण भी नहीं दिया जा सकता। जातक की निदान-कथा में हम तत्कालीन भारतीय भूगोल सम्बन्धी महत्वपूर्ण सूचना पाते हैं। जातक में कहा गया है कि जम्बुदीप (भारत) का विस्तार दस हजार योजन है। मध्य प्रदेश की सीमाओं का उल्लेख वहाँ इस प्रकार किया गया है,"मध्य देश की पूर्व दिशा में कजंगला नामक कस्बा है, उसके बाद बड़े शाल के वन है औ र फिर आगे सीमान्त देश। पूर्व-दक्षिण में सललवती नामक नदी है उसके आगे सीमान्त देश। दक्षिण-दिशा में सेतकण्णिक नामक कस्बा है, उसके आगे सीमान्त देश। पश्चिम दिशा में थूण नामक ब्राह्मण ग्राम है, उसके बाद सीमान्त देश। उत्तर दिशा में उशीरध्वज नामक पर्वत है, उसके बाद सीमान्त देश।"


यह वर्णन यहाँ विनय-पिटक से लिया गया है और बुद्ध कालीन मध्य देश की सीमाओं का प्रामाणिक परिचायक माना जाता है। जातक के इसी भाग में नेरंजना अनोमा आदि नदियों, पाण्डव पर्वत, वैभार गिरि गयासीस आदि पर्वतों उरूवेला, कपिलवस्तु, वाराणसी, रा जगृह, लुम्बिनी, वैशाली, श्रावस्ती आदि नगरों और स्थानों एवं उत्कल देश (उड़ीसा) का तथा यष्टिवन (लटिठवन) आदि वनों का उल्लेख मिलता है। सम्पूर्ण कोसल और मगध का तो उसके ग्रामों, नगरों, नदियों, और पर्वतों के सहित वह पूरा वर्णन उपस्थित करता है। सोलह महाजनपदों- अंग, मगध, काशी, कोसल, वज्जि, मल्ल, चेदि, वत्स, कुरू, पांचाल, मच्छ (मत्स्य),सूरसेन (शूरसेन), अस्सक (अश्मक), अवन्ती, गन्धार और कम्बोज का विस्तृत वर्णन हमें असम्पादन जातक में मिलता है।


महासुतसोम जातक (537) में कुरू देश का विस्तार 300 योजन बताया गया है। इसी प्रकार धूमकारि जातक (413) तथा दस ब्राह्मण जातक (415) में कहा गया है कि युधिष्ठिर गोत्र के राजा का उस समय वहाँ राज्य था। कुरु देश की राजधानी इन्द्रप्रस्थ का विस्तार सात योजन महासुतसोम जातक (537) तथा विधुर पण्डित जातक (545) में दिया गया है। धनंजय कोरव्य और सुतसोम आदि कुरू-राजाओं के नाम कुरूधम्म जातक (276), धूमकारि जातक (413), सम्भव जातक (515) और विधुर पंडित जातक (545) में आते है। उत्तर पंचाल के लिए कुरू और पंचाल वंशों में झगड़ा चलता रहा, इसकी सूचना हम चम्पेय्य जातक (506) तथा अन्य अनेक जातकों मेंं पाते हैं। कभी वह कुरू राष्ट्र में सम्मिलित हो जाता था (सोमनस्स जातक 415) और कभी कम्पिल्ल राष्ट्र में भी, जिसका साक्ष्य ब्रह्मदत्त जातक (323), चयद्दिस जातक (513) और गण्डतिन्दु जातक (520) में विद्यमान है। पंचाल राज दुर्मख निमि का समकालिक था, इसकी सूचना हमें कुम्भकार जातक में मिलती है। अस्सक (अश्मक) राष्ट्र की राजधानी पोतन या पोतलि का उल्लेख हमें चुल्लकालिंग जातक (301)में मिलता है। मिथिला का विस्तार सुरूचि जातक (489) और गन्धार जातक (406) में सात योजन बताया गया है। महाजनक जातक (539) में मिथिला का बड़ा सुन्दर वर्णन उपलब्ध होता है जिसकी तुलना महाभारत 3.206.6-9 से की जाती है। सागल नगर का वर्णन कालिंगबोधि जातक (479) और कुस जातक (531) में है। काशी राज्य के विस्तार का वण र्न धजविदेह जातक (391) में है। उसकी राजधानी वाराणसी के केतुमती, सुरून्धन, सुदस्सन, ब्रह्मवड्ढन, पुप्फवती, रम्मनगर और मोलिनी आदि नाम थे। ऐसा साक्ष्य अनेक जातकों में मिलता है। तण्डुलनालि जातक (5) में वाराणसी के प्राकार का वर्णन है। तेलपत्त जातक (96) और सुसीम जातक (163) में वाराणसी से तक्षशिला की दूरी 2000 योजन बताई गई है। कुम्भकार जातक (408) में गन्धार के राजा नग्गजि या नग्नजित् का वर्णन है। कुस जातक (531) में मल्लराष्ट्र और उसकी राजधानी कुसावती या कुसिनारा का वर्णन है। चम्पेय्य जातक (506) में अंग और मगध के संघर्ष का वर्णन है। इसी प्रकार रूक्खधम्म जातक और फन्दन जातक में शाक्य और कोलियों के रोहिणी नदी के पानी को लेकर झगड़े का वर्णन है। वत्स राज्य और उसके अधीन भग्ग् राज्य की सूचना धोनसाख जातक (353) में मिलती है। इन्द्रिय जातक में सुरट्ठ अवन्ती, दक्षिणापथ, दंडकवन कुम्भवति नगर आदि का वर्णन है। संरभग जातक में सुरट्ठ देश का वर्णन है।


सालित्तक जातक और कुरूधम्म जातक से हमें पता चलता है कि अचिरवती नदी श्रावस्ती में होकर बहती थी। सरभंग जातक में गोदावरी नदी का भी उल्लेख है और उसे कविट्ठ वन के समीप बताया ग या है। गन्धार जातक में कश्मीर गन्धार का उल्लेख है। कण्ह जातक में संकस्स (संकाश्य) का उल्लेख है। चम्पेय्य जातक से हमें सूचना मिलती है कि चम्पा नदी अंग और मगध जनपदों की सीमा पर होकर बहती थी। गंगमाल जातक में गन्धमादन पर्वत का उल्लेख है। बिम्बिसार सम्बन्धी महत् वपूर्ण सूचना जातकों में भरी पड़ी है। महाकोसल की राजकुमारी कोसलादेवी के साथ उसके विवाह का वर्णन और काशी गाँव की प्राप्ति का उल्लेख हरितमात जातक (239) और बड्ढकि सूकर जातक(283) में है। मगध और कोसल के संघर्षों का और अन्त में उनकी एकता का उल्लेख बड्ढकिसूकर जातक, कुम्मासपिंड जातक, तच्छसूकर जातक और भद्दसाल जातक आदि अनेक जातकों में है। इस प्रकार बुद्धकालीन राजाओं राज्यों, प्रदेशों, जातियों, ग्रामों, नगरों, नदियों, पर्वतों आदि का पूरा विवरण हमें जातकों में मिलता है। तिलमुट्ठि जातक (252) में ह में तक्षशिला विश्वविद्यालय का एक उत्तम चित्र मिलता है। संखपाल जातक (524) और दरीमुख जातक (378) में मगध के राजकुमारों के तक्षशिला में शिक्षार्थ जाने का उल्लेख है। तक्षशिला में शिक्षा के विधान, पाठ्यक्रम, अध्ययन विषय, उनके व्यावहारिक और सैद्धान्तिक पक्ष, निवास भोजन, नियन्त्रण आदि के विषय में पूरी जानकारी हमें जातकों में मिलती है। वाराणसी राजगृह, मिथिला, उज्जयिनी श्रावस्ती, कौशाम्बी तक्षशिला आदि प्रसिद्ध नगरों को मिलाने वाले मार्गों का तथा स्थानीय व्यापार का पूरा विवरण हमें जातकों में मिलता है। काशी से चेदि जाने वाली सड़क का उल्लेख वेदब्भ जातक (48)में है। क्या-क्या पेशे उस समय लोगों में प्रचलित थे, कला और दस्तकारी की क्या अवस्था थी तथा व्यवसाय किस प्रकार होता था, इसके अनेक चित्र हमें जातकों में मिलते हैं। बावेरू जातक (339) और सुसन्धि जातक (360) से हमें पता लगता है कि भारतीय व्यापार विदेशों से भी होता था और भारतीय व्यापारी सुवर्णभूमि (बरमा से मलाया तक का प्रदेश) तक व्यापार के लिए जाते थे। भरूकच्छ उस समय एक प्रसिद्ध बन्दरगाह था। सुसन्धि जातक में हमें इसका उल्लेख मिलता है।


जल के मार्गों का भी जातकों में स्पष्ट उल्लेख है। लौकिक विश्वासों आदि के बारे में देवधम्म जातक (6) और नलपान जातक (20) आदि में समाज में स्त्रियों के स्थान के सम्बन्ध में अण्डभूत जातक (62) आदि में दासों आदि की अवस्था के सम्बन्ध में कटाहक जातक (125) आदि में, सुरापान आि द के सम्बन्ध में सुरापान जातक (81) आदि में, यज्ञ में जीव हिंसा के सम्बन्ध में दुम्मेध जातक (50) आदि में, व्यापारिक संघों और डाकुओं के भय आदि के सम्बन्ध में खुरप्प जातक (265) और तत्कालीन शिल्पकला आदि के विषय में महाउम्मग्ग जातक (546) आदि में प्रभूत सामग्री भरी पड़ी है, जिसका यहाँ विवरण देना अत्यन्त कठिन है। जिस समय का जातक में चित्रण है, उसमें वर्ण व्यवस्था प्र्रचलित थी। ब्राह्मणों का समाज में उच्च स्थान था। ब्राह्मण और क्षत्रिय ये दो वर्ण उच्च माने जाते थे। दासों की प्रथा प्रचलित थी, उनके साथ दुर्व्यवहार के भी उदाहरण मिलते हैं, दास क्रीत भी होते थे, और पितृक्रमागत भी होते थे। विशेष अवस्थाओं में दास मुक्त भी कर दिये जाते थे। बुद्ध काल में जाति पेशे की सूचक नहीं थी। जातक कहानियों से पता चलता है कि किसी भी समय एक पेशे को छोड़कर कोई व्यक्ति दूसरा पेशा कर सकता था और इसमें उसकी जाति बाधक नहीं होती थी। विवाह-सम्बन्ध प्रायः समान जातियों और कुलों (सामाजिक कुल) में अच्छे माने जाते थे। उत्सवों में पुरुषों के साथ स्त्रियाँ भी सम्मिलित होती थीं अनेक प्रकार के उत्सव बुद्ध काल में होते रहते थे और उ नमें मांस मछली के भोजन के साथ-साथ सुरापान भी चलता था। स्त्रियों के सदाचार को अक्सर जातक की कहानियों में संशय की दृष्टि से देखा गया है। कहा गया है कि सत्य का होना उनमें सुदुर्लभ ही है। "सच्च तेसं सुदुल्लभं" परन्तु भार्या के रूप में स्त्री की प्रशंसा की गइ र् है और उसे परम सखा बताया गया है, "भरिया नाम परमा सखा"।


शिल्पों का समाज में आदर था। वेश्याओं के प्रभूत वर्णन जातक में मिलते है, इस समय यह प्रथा विद्यमान थी। इसी प्रकार द्यूत का व्यसन भी प्रचलित था। विधुर पंडित जातक में हम धनंजय कोरव्य को जुआ खेलते देखते है। शासन में रिश्वत चलती थी। कणवेर जातक में हम एक कोतवाल को रिश्वत लेते देखते हैं। शकुनों में और फलित ज्योतिष में लोगों का विश्वास था। छींक आने को अपशकुन मानते थे और जब कोई छींकता था तो उससे लोग कहते थे ‘जियो’ या ‘चिंरजीव होओ’। सत्य क्रिया (सच्च किरिया) में लोगों का विश्वास था। मूगपक्ख जातक में हम देखते है कि काशिराज की रानी ने सत्य क्रिया के बल से सन्तान प्राप्त की। इसी प्रकार बट्टक जातक में कहा है कि एक बटेर के बच्चे ने अपने सत्य क्रिया बल से वृक्ष में लगी आग को बुझा दि या। वयः प्राप्त कुमारिकाओं को अपना वर खोजने की स्वतन्त्रता थी, ऐसा अम्ब जातक से पता चलता है। संकिच्च जातक में पत्नी को धनक्कीता कहा गया है। इससे पता चलता है कि कुछ विशेष अवस्थाओं में पति को कन्या के पिता को धन भी देना पड़ता था। उदय जातक से भी ऐसा ही मालूम पड़ता है।


जहाँ तक धार्मिक अवस्था का सम्बन्ध है, एक प्रकार का लोक-धर्म प्रचलित था। लोग यक्षों, वृक्षों, नागों, गरुड़ों और नदियों की पूजा करते थे। एक स्त्री को जो अपने पति से विछुड़ गई है, हम भागीरथी गंगा की स्तुति करते और उसकी शरण में जाते देखते हैं। परन्तु इससे यह निष्कर्ष निकालना ठीक नहीं कि एक प्रकार का भाग वत् धर्म लोगों में प्रचलित था। गोकुलदास दे ने इस बात को दिखाने का बड़ा प्रयास किया है, कि धर्म का जो स्वरूप जातककालीन समाज में हम देखते हैं उसमें भागवत धर्म के तत्व विद्यमान हैं। जातककालीन समाज में एक प्रकार का लोकधर्म प्रचलित था। जिसमें साधारण जन-समाज के विश्वास और उसकी विभिन्न लौकिक और आध्यात्मिक आवश्यकताएँ समतल पर प्रतिबिम्बित थी। अर्थात पूजा, वन्दना, दान, देवताओं की शरणागति आदि की भावनाएँ प्रधान थी। जातक वस्तुतः प्राचीन भारतीय सामाजिक जीवन सम्बन्धी सूचनाओं का अगाध भण्डार ही हैं और उनका समग्रतया अध्ययन पालि साहित्य के इतिहास लेखक के लिए सम्भव नहीं है। यह अनेक महाग्रन्थों का विषय है।


बौद्ध धर्म के सभी सम्प्रदायों में जातक का महत्व सुप्रतिष्ठित है। महायान और हीनयान को वह एक प्रकार से जोड़ने वाली कड़ी है, क्योंकि महायान का बोधिसत्व आदर्श यहाँ अपने बीज-रूप में विद्यमान है। दूसरी-तीसरी शताब्दी ईसवी पूर्व के साँची और भरहुत के स्तूपों में जातक के अनेक दृश्य अंकित है। मिलिन्दपंहां में अनेक जातक कथाओं को उद्धृत किया गया है। अमरावती स्तूप द्वितीय शताब्दी ईसवी में उसके चित्र अंकित है। पाँचवी शताब्दी में लंका में उसके 500 दृश्य अंकित किये जा चुके थे। अजन्ता की चित्रकारी में भी महिस जातक (278) अंकित है। बोध गया में भी उसके अनेक चित्र अंकित है। जावा के बोरोबदूर स्तूप 9वीं शताब्दी ईसवी में बरमा के पगान नगर में स्थित पेगोडाओं (13 वीं शताब्दी ईसवी) में और सिआम में सुखोदय नामक प्राचीन नगर में जातक के अनेक दृश्य चित्रित मिले हैं। अतः जातक का महत्व भारत में ही नहीं, भारत के बाहर भी स्थविरवाद बौद्ध धर्म में ही नहीं बौद्ध धर्म के अन्य अनेक रूपों में भी प्रतिष्ठित है।


कालक्रम की दृष्टि से वैदिक साहित्य की शुनःशेप की कथा यम-यमी संवाद, पुरूरवा उर्वशी संवाद आदि कथानक ही बुद्ध पूर्व काल के हो सकते है। छान्दोग्य और बृहदारण्यक आदि कुछ उपनिष्दों की आख्यायिकाएँ भी बुद्ध पूर्व काल की मानी जा सकती है, और इसी प्रकार ऐतरेय और शतपथ ब्राह्मण के कुछ आख्यान भी बुद्ध पूर्व काल की माने जा सकते हैं। इनका भी जातकों से और सामान्यतः पालि सहित्य से घनिष्ठ सम्बन्ध है। तेविज्ज सुत्त में अट्टक, वामक, वामदेव, विश्वामित्र, यमदग्नि, अिं र्घैंरा, भारद्वाज, वशिष्ठ, काश्यप और भृगु इन दस मन्त्रकर्ता ऋषियों के नामों के साथ-साथ ऐतरेय ब्राह्मण, तैति्तरीय ब्राह्मण, छान्दोग्य ब्राह्मण और छन्दावा ब्राह्मण का भी उल्लेख हुआ है। मज्झिम निकाय के अस्सलायन सुत्तन्त के आश्वालायन ब्राह्मण को प्रश्न उपनिषद के आश्वलायन से मिलाया गया है। मज्झिम निकाय के आश्वालायन श्रावस्ती निवासी है और वेद-वेदा र्घैं में पार र्घैं त है। इसी प्रकार प्रश्न उपनिषद के आश्वालयन भी वेद वेदा र्घैं के महापंडित है और कौसल्य (कोसल निवासी) है। जातकों में भी वैदिक साहित्य के साथ निकट सम्पर्क के अनेक लक्षण पाये जाते है। उद्दालक जातक (487)में उद्दालक के तक्षशिला जाने और वहाँ एक लोक विश्रुत आचार्य की सूचना पाने का उल्लेख है। इसी प्रकार सेतुकेतु जातक में उद्दालक के पुत्र श्वेतुकेतु का कलाओं की शिक्षा प्राप्त करने के लिए तक्षशिला जाने का उल्लेख है। शतपथ ब्राह्मण के उद्दालक को हम उत्तरापथ में भ्रमण करते हुए देखते है। अतः इससे यह निष्कर्ष निकालना असंगत नहीं है कि जातकों के उद्दालक और श्वेतुकेतु ब्राह्मण ग्रन्थों और उपनिषदों के इन नामों के व्यक्तियों से भिन्न नहीं है। जर्मन विद्वान लूडर्स ने सेतुकेतु जातक(377) में आने वाली गाथाओं को वैदिक आख्यान और महाकाव्य युगीन काव्य को मिलाने वाली कड़ी कहा है, जो समुचित ही है। इसी प्रकार सिंहली विद्वान मललसेकर का कहना है कि जातक का सम्बन्ध भारतीय साहित्य की उस आख्यान-विधा से है, जिससे उत्तरकालीन महाकाव्यों का विकास हुआ है। रामायण और महाभारत के साथ जातक की तुलना करते समय हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि इन दोनों ग्रन्थों के सभी अंश बुद्ध पूर्व युग के नहीं है। रामायण के वर्तमान रूप में 2400 श्लोक पाये जाते हैं। रामायण में कहा भी गया है ‘चतुर्विंश सहस्राणि श्लोकानाम उक्त वान् ऋषिः। किन्तु बौद्ध महाविभाषा-शास्त्र (कात्यायनी पुत्र के ज्ञान प्रस्थान शास्त्र की व्याख्या) से सिद्ध है कि द्वितीय शताब्दी ईसवी में भी रामायण में केवल 12,000 श्लोक थे। रामायण 2-109-34 में बुद्ध तथागत का उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार शक, यवन आदि के साथ संघर्ष का वर्णन है। किष्किन्धा काण्ड में सुग्रीव के द्वारा कुरू मद्र और हिमालय के बीच में यवनों औ र शकों के देश और नगरों को स्थित बताया गया है।


इससे सिद्ध है कि जिस समय में अंश लिखे गये थे, ग्रीक और सिथियन लोग पंजाब के कुछ प्रदेशों पर अपना आधिपत्य जमा चुके थे। अतः रामायण के काफी अंश महाराज बिम्बिसार या बुद्ध के काल के बाद लिखे गये। महा भारत में इसी प्रकार एडूकों (बौद्ध मन्दिरों) का स्पष्ट उल्लेख है। बौद्ध विशेषण चातुर्महाराजिक भी वहाँ आया है। रोमक (रोमन) लोगों का भी वर्णन है। इसी प्रकार सिथियन और ग्रीक आदि लोगों का भी वर्णन है। आदि पर्व में महाराज अशोक को महासुर कहा गया है और महावीर्योऽपराजितः के रूप में उसकी प्रशंसा की गई है। शान्ति पर्व में विष्णुगुप्त कौटिल्य (द्वितीय शताब्दी ईसवीं पूर्व) के शिष्य कामन्दक का भी अर्थविद्या के आचार्य के रूप में उल्लेख है। इस प्रकार अनेक प्रमाणों के आधार पर सिद्ध है कि महाभारत के वर्तमान रूप का काफी अंश बुद्ध अशोक और कौटिल्य विष्णुगुप्त के बाद के युग का है। जातक की अनेक गाथाओं और रामायण के श्लोकों में अद्भुत समानता है। दसरथ जातक (461) और देवधम्म जातक (6) में हमें प्रायः राम-कथा की पूरी रूपरेखा मिलती है। जयद्दिस जातक (513) में राम का दण्डकारण्य जाना दिखाया गया है। इसी प्रकार साम जातक(540) की सदृशता रामायण 2. 63-25 से है और विण्टरनित्ज के मत में जातक का वर्णन अधिक सरल और प्रारम्भिक है। वेस्सन्तर जातक के प्रकृति वर्णन का साम्य इसी प्रकार वाल्मीकि के प्रकृति वर्णन से है और इस जातक की कथा के साथ राम की कथा में भी काफी सदृशता है। महाभारत के साथ जातक की तुलना अनेक विद्वानों ने की है। उनके निष्कर्षों को यहाँ संक्षिप्ततम रूप में भी रखना वास्तव में बड़ा कठिन है। महाजनक जातक (539) के जनक उपनिषदों और महाभारत के ही ब्राह्मज्ञानी जनक है। मिथिला के प्रासादों को जलते देखकर जनक ने कहा था मिथिलायां प्रदीप्तायां न में दह्यति किंचन। ठीक उनका यही कथन हमें महाजनक जातक (539) में भी मिलता है तथा कुम्भकार जातक (408) और सोणक जातक(529) में भी मिलता है। अतः दोनों व्यक्ति एक है।


इसी प्रकार ऋष्यशृर्घैं की पूरी कथा नकिनिका जातक(526) में है। युधिष्ठिर (युधिट्ठिल) और विदुर (विधूर) का संवाद दस ब्राह्मण जातक (495) में है। कुणाल जातक (536) में कृष्ण और द्रौपदी की कथा है। इसी प्रकार घट जातक(355) में कृष्ण द्वारा कंस-वध और द्वारका बसाने का पूरा वर्णन है। महाकण्ह जातक(469) निमि जातक(541) और महानारदकस्सप जातक(544) में राजा उशीनर और उसके पुत्र शिवि का वर्णन है। सिवि जातक (449) में भी राजा शिवि की दान पारमिता का वर्णन है, अपनी आँखों को दे देने के रूप में। अतः कहानी मूलतः बौद्ध है, इसमें सन्देह नहीं है। महाभारत में 100 ब्राह्मदत्तों का उल्लेख है। सम्भवतः ब्रह्मदत्त किसी एक राजा का नाम न होकर राजाओं का सामान्य विशेषण था, जिसे 100 राजाओं ने धारण किया। दुम्मेध जातक(50) में भी राजा और उसके कुमार दोनों का नाम ब्रह्मदत्त बताया गया है। इसी प्रकार गंगमाल जातक(421) में कहा गया है कि ब्रह्मदत्त कुल का नाम है। सुसीम जातक(411), कुम्मासपिण्ड जातक(415), अट्ठान जातक(425), लोमासकस्सप जातक(433) आदि जातकों की भी, यही स्थिति है। अतः जातकों में आये हुए ब्रह्मदत्त केवल एक समय के पर्याय नहीं है। उनमें कुछ न कुछ ऐतिहासिकता भी अवश्य है।


रामायण और महाभारत के अतिरिक्त पतंजलि के महाभाष्य में भी जातक गाथाएँ उल्लिखित हैं। प्राचीन जन साहित्य में और बाद के कथा-साहित्य पर भी उसका प्रभाव उपलक्षित है। प्रथम शताब्दी ईसवी में गुणाढ्य ने पैशाची प्राकृत में अपनी वड्डकहा (बृहत्कथा) लिखी जो अाज अप्राप्त है। परन्तु सोमदेव ने जो स्वयं बौद्ध थे, ग्यारहवीं -बारहवीं शताब्दी में अपना कथासरित्सागर बृहत्कथा के आधार पर ही लिखा और उसमें अनेक कहानियों के मूल श्रोत भी जातक में दिखाई पड़ते है। इसी प्रकार हितोपदेश में भी अनेक कहानियाँ जातक कथाओं प र आधारित दिखाई जा सकती हैं। भारतीय लोक-साहित्य में भी अनेक जातक-कहानियों को अदृश्य रूप से खोजा जा सकता है। ऐसी कहानियाँ भारत के प्रत्येक प्रान्त में प्रचलित हैं। उदाहरणतः-"सीख वाकूँ दीजिए, जाकूँ सीख सुहाइ। सीख न दीजै बानरा, बया कौ घर जाई" के रूप में बन्दर और बया की कहानी भारत के सब प्रदेशों में विदित है। बन्दर और बया की यह कहानी कूटिदूसक जातक (321) की कहानी है। इसी प्रकार कई अनेक कहानियों को मनोरंजकपूर्ण ढंग से खोजा जा सकता है।


जिस प्रकार जातक कथाएँ समुद्र मार्ग से लंका, बर्मा, सिआम, जावा, सुमात्रा हिन्द-चीन आदि दक्षिण पूर्वी एशिया के देशों को गई और वहाँ स्थापत्य कला आदि में चित्रित की गई उसी प्रकार स्थल मार्ग से हिन्दुकुश और हिमालय को पार कर पश्चिमी देशों तक उनके पहुँचने की कथा बड़ी लम्बी और मनोहर है। पिछले पचास-साठ वर्षों की ऐतिहासिक गवेषणाओं से यह पर्याप्त रूप से सिद्ध हो चुका है कि बुद्ध पूर्व काल में भी विदेशों के साथ भारत के व्यापारिक सम्पर्क थे। बावेरू जातक और सुसन्धि जातक में विदेशों के साथ भारत के व्यापारिक सम्पर्क के सम्बन्धों की पर्याप्त झलक दिखायी देती है। द्वितीय शताब्दी ईसवीं से ही अलसन्द जिसे अलक्षेन्द्र (अलेक्जेण्डर) ने बसाया था, पूर्व और पश्चिम की संस्कृतियों का मिलन केन्द्र हो गया था। वस्तुतः पश्चिम में भारतीय साहित्य और विशेषतः जातक कहानियों की पहुँच अरब और उनके बाद ग्रीक लोगों के माध्यम से हुई। पंचतन्त्र में अनेक जातक-कहानियाँ विद्यमान है, यह तथ्य सर्वविदित है। छठीं शताब्दी ईसवीं में पंचतन्त्र का अनुवाद पहलवी भाषा में किया गया। आठवीं शताब्दी में कलेला दमना शीर्षक से उसका अनुवाद अरबी में किया गया। ‘ कलेला दमना’ शब्द ‘कर्कट’ और ‘दमनक’ के अरबी रूपान्तर हैं। पन्द्रहवीं शताब्दी में पंचतंत्र के अरबी अनुवाद का जर्मन भाषा में अनुवाद ,फिर धीरे-धीरे सभी यूरोपीय भाषाओं में उसका रूपान्तर हो गया। वास्तव में सीधे रूप से भी जातक ने विदेशी साहित्य को प्रभावित किया है और उसकी कथा भी अत्यन्त प्राचीन है।


ग्रीक साहित्य में ई्सप की कहानियाँ प्रसिद्ध है। फ्रैंच, जर्मन और अंग्रेज विद्वानों की खोज से सिद्ध है कि ईसप एक ग्रीक थे। ईसप की कहानियों का यूरोपीय साहित्य पर बड़ा प्रभाव पड़ा है और विद्वानों के द्वारा यह दिखा दिया गया है कि ईसप की अधिकांश कहानियों का आधार जातक है।


सीहचम्म जातक (189) की कथा अति प्रसिद्ध है जो ईसप की कहानियों में भी पाई जाती है। सिंह की खाल ओढ़े हुए गधा इन दोनों जगह ही दिखाई पड़ता है। डॉ0 टी0 डब्ल्यू0 रायस डेविड्स का मत है कि शेक्सपियर ने अपने नाटक किंग जोन्ह में इस कथा की ओर संकेत किया है- अंक-2, दृश्य-1 तथा अंक 3 दृश्य 1 में। इसी प्रकार अलिफ लैला की कहानियों से भी जातक की समानताएँ है। समुग्ग जातक (436) का सीधा सम्बन्ध अलिफ लैला की एक कहानी से दिखाया गया है। कृतज्ञ पशु और अकृतज्ञ मनुष्यों की कहानियाँ जो सच्चं किर जातक (73) तक्कारिय जातक (481) आैर महाकवि जातक (516) में मिलती है। यूरोप की अनेक भाषाओं के कथा-साहित्य में बिखरी पड़ी है। इसी प्रकार अकृतज्ञ पत्नी की कहानी भी है, जो चूलपदुम जातक (193) मेंं आई है, प्रायः सारे यूरोप के कथा साहित्य में व्याप्त है। कच्छप जातक (215) की कहानी ग्रीक, लैटिन, अरबी, फारसी और अनेक यूरोपीय भाषाओं के साहित्य में पाई जाती है ऐसा रायस डेविड्स का कथन है। इसी प्रकार जम्बुखादक जातक (294) की कहानी है। पनीर के टुकड़े को लेकर गीदड़ और कौए की कहानी के रूप में यह यूरोप भर के बालकों को विदित है। महोसध जातक, दधिवाहन जातक और राजोवाद जातक की कहानियाँ भी इसी प्रकार यूरोपीय साहित्य में थोड़े बहुत रूपान्तर से पाई जाती है। अन्य अनेक कहानियों की भी तुलना विद्वानों ने जातक से की हैं। आठवीं शताब्दी में अरबों ने यूरोप पर आक्रमण किया। स्पेन और इटली आदि को उन्होंने रौंद डाला। उन्हीं के साथ जातक कहानियाँ भी इन देशों में गईं और उन्होंने धीरे-धीरे सारे यूरोपीय साहित्य को प्रभावित किया। फ्रांस के मध्यकालीन साहित्य में पशु पक्षी सम्बन्धी कहानियों की अधिकता है। फ्रेंच विद्वानों ने उन पर जातक के प्रभाव को स्वीकार किया है।बायबिल और विशेषतः सन्त जोन्ह के सुसमाचार की अनेक कहानियों और उपमाओं की तुलना पालि, त्रिपिटक और विशेषतः जातक के इस सम्बन्धी विवरणों से विद्वानों ने की है। ईसाई धर्म पर बौद्ध धर्म का पर्याप्त प्रभाव पड़ा है। इस प्रभाव में अन्य अनेक तत्वों के अति रिक्त जातक का भी काफी सहयोग रहा है। इ्र्रसाई सन्त प्लेसीडस की तुलना निग्रोधमिग जातक (12) की कथा से की गई है। यद्यपि विण्टरनित्ज ने उसमें अधिक साम्य नहीं पाया है। पर सब से अधिक साम्य मध्ययुग की रचना बरलाम एण्ड जोसफत का जातक के बोधिसत्व से है। इस रचना में जो मू लतः छठीं या सातवीं शताब्दी ईसवी में पहलवी में लिखी गई थी। भगवान बुद्ध की जीवनी एक ईसाई सन्त के परिधान में वर्णित की गई है। बाद में इस रचना के अनुवाद अरब, सीरिया इटली और यूरोप की अन्य भाषाओं मेंं हुए। ग्रीक भाषा में इस रचना का अनुवाद आठवीं शताब्दी में अरब के खलीफा अलमंसूर के समकालिक एक ईसाई सन्त ने, जिसका नाम दमिश्क का सन्त जोन्ह (सेण्ट जोन्ह आव दमस्कस 676-749 ई0) था किया। ग्रीक से इस रचना का लैटिन में अनुवाद हुआ और फिर यूरोप की अन्य भाषाओं में अनुवाद हुआ। करीब 80 संस्करण इस रचना के यूरोप अफ्रीका और पश्चिमी एशिया की भाषाओं में हुए है। इस रचना में जोसफत बोधिसत्व के रूप में है और बरलाम उनके गुरु हैं। बुद्ध के जन्म की कथा बृद्ध, रोगी, मृत और प्रव्रजित को उनके द्वारा देखना और संन्यास लेना, ये सब तथ्य बुद्धचरित की शैली में यहाँ वर्णित है। बुद्ध के जन्म पर की गई भविष्यवाणी का भी वर्णन और पिता के द्वारा पुत्र को महल के अन्दर रखने का भी, ताकि यह संसार का दुःख न देख सके। जोसफत शब्द अरबी युदस्तफ का रूपान्तर है, जो स्वयं संस्कृत बोधिसत्व का अरबी अनुवाद है। बोधिसत्व शब्द पहले बोसत बना और फिर जोसफत या जोसफ। ईसाई धर्म में सन्त जोसफत को (जिनका न केवल नाम बल्कि पूरा जीवन बोधिसत्व बुद्ध का जीवन है) ईसाई सन्त के रूप में स्वीकार किया गया है। पोप सिक्सटस पंचम (1585-90) ने अपने 27 दिसम्बर सन् 1585 के आदेश में जोसफत और बरलाम को ईसाई सन्तों के रूप में स्वीकार किया है।


इस प्रकार ईसाई परिधान में मध्यकालीन यूरोप बोधिसत्व बुद्ध को पूजता रहा। मध्ययुगीन ईसाई यूरोप पर बौद्ध धर्म के प्रभाव का यह प्रतीक है। यह एक बड़ी अद्भुत किन्तु ऐतिहासिक रूप से सत्य बात है। डॉ0 टी0 डब्ल्यू0 रायस डेविड्स ने शेक्सपियर के मर्चेण्ट ऑव वेनिस में तीन डिबियों तथा आधसेर मांस के वर्णन में तथा एज यू लाइक इट में बहुमूल्य रत्नों के विवरण में जातक के प्रभाव को ढूँढ निकाला है एवं स्लेवोनिक जाति के साहित्य में तथा प्रायः सभी पूर्वी यूरोप के साहित्य में जातक के प्रभाव की विद्यमानता दिखाई है। भिक्षु शीलभद्र ने पर्याप्त उदाहरण देकर सिद्ध किया है कि निमि जातक (541) ही चौदहवीं शताब्दी के इटालियन कवि दाँते की प्रसिद्ध रचना का आधार है। जर्मन विद्वान बेनफे ने जातक को विश्व को कथा साहित्य का उद्गम कहा है जो तथ्यों के प्रकाश में अतिशयोक्ति नहीं कहा जा सकता है।


इस प्रकार भारतीय साहित्य और संस्कृति के साथ विश्व के साहित्य और सभ्यता के इतिहास में जातक का स्थान महत्वपूर्ण है।

सोने का हंस-जातक कथा


वाराणसी में कभी एक कर्त्तव्यनिष्ठ व शीलवान् गृहस्थ रहा करता था । तीन बेटियों और एक पत्नी के साथ उसका एक छोटा-सा घर संसार था । किन्तु अल्प-आयु में ही उसका निधन हो गया ।


मरणोपरान्त उस गृहस्थ का पुनर्जन्म एक स्वर्ण हंस के रुप में हुआ । पूर्व जन्म के उपादान और संस्कार उसमें इतने प्रबल थे कि वह अपने मनुष्य-योनि के घटना-क्रम और उनकी भाषा को विस्मृत नहीं कर पाया । पूर्व जन्म के परिवार का मोह और उनके प्रति उसका लगाव उसके वर्तमान को भी प्रभावित कर रहा था । एक दिन वह अपने मोह के आवेश में आकर वाराणसी को उड़ चला जहाँ उसकी पूर्व-जन्म की पत्नी और तीन बेटियाँ रहा करती थीं ।


घर के मुंडेर पर पहुँच कर जब उसने अपनी पत्नी और बेटियों को देखा तो उसका मन खिन्न हो उठा क्योंकि उसके मरणोपरान्त उसके परिवार की आर्थिक दशा दयनीय हो चुकी थी । उसकी पत्नी और बेटियाँ अब सुंदर वस्रों की जगह चिथड़ों में दिख रही थीं । वैभव के सारे सामान भी वहाँ से तिरोहित हो चुके थे । फिर भी पूरे उल्लास के साथ उसने अपनी पत्नी और बेटियों का आलिंगन कर उन्हें अपना परिचय दिया और वापिस लौटने से पूर्व उन्हें अपना एक सोने का पंख भी देता गया, जिसे बेचकर उसके परिवार वाले अपने दारिद्र्य को कम कर सकें ।


इस घटना के पश्चात् हँस समय-समय पर उनसे मिलने वाराणसी आता रहा और हर बार उन्हें सोने का एक पंख दे कर जाता था।


बेटियाँ तो हंस की दानशीलता से संतुष्ट थी मगर उसकी पत्नी बड़ी ही लोभी प्रवृत्ति की थी। उसने सोचा क्यों न वह उस हंस के सारे पंख निकाल कर एक ही पल में धनी बन जाये। बेटियों को भी उसने अपने मन की बात कही। मगर उसकी बेटियाँ ने उसका कड़ा विरोध किया।


अगली बार जब वह हंस वहाँ आया तो संयोगवश उसकी बेटियाँ वहाँ नहीं थी। उसकी पत्नी ने तब उसे बड़े प्यार से पुचकारते हुए अपने करीब बुलाया। नल-प्रपंच के खेल से अनभिज्ञ वह हंस खुशी-खुशी अपनी पत्नी के पास दौड़ता चला गया। मगर यह क्या। उसकी पत्नी ने बड़ी बेदर्दी से उसकी गर्दन पकड़ उसके सारे पंख एक ही झटके में नोच डाले और खून से लथपथ उसके शरीर को लकड़ी के एक पुराने में फेंक दिया। फिर जब वह उन सोने के पंखों को समेटना चाह रही थी तो उसके हाथों सिर्फ साधारण पंख ही लग सके क्योंकि उस हंस के पंख उसकी इच्छा के प्रतिकूल नोचे जाने पर साधारण हंस के समान हो जाते थे।


बेटियाँ जब लौट कर घर आयीं तो उन्होंने अपने पूर्व-जन्म के पिता को खून से सना देखा; उसके सोने के पंख भी लुप्त थे। उन्होंने सारी बात समझ ली और तत्काल ही हंस की भरपूर सेवा-शुश्रुषा कर कुछ ही दिनों में उसे स्वस्थ कर दिया।


स्वभावत: उसके पंख फिर से आने लगे। मगर अब वे सोने के नहीं थे। जब हंस के पंख इतने निकल गये कि वह उडने के लिए समर्थ हो गया। तब वह उस घर से उड़ गया। और कभी भी वाराणसी में दुबारा दिखाई नहीं पड़ा।


चाँद पर खरगोश-जातक कथा


गंगा के किनारे एक वन में एक खरगोश रहता था। उसके तीन मित्र थे - बंदर, सियार और ऊदबिलाव। चारों ही मित्र दानवीर बनना चाहते थे। एक दिन बातचीत के क्रम में उन्होंने उपोसथ के दिन परम-दान का निर्णय लिया क्योंकि उस दिन के दान का संपूर्ण फल प्राप्त होता है। ऐसी बौद्धों की अवधारणा रही है। (उपोसथ बौद्धों के धार्मिक महोत्सव का दिन होता है)


जब उपोसथ का दिन आया तो सुबह-सवेरे सारे ही मित्र भोजन की तलाश में अपने-अपने घरों से बाहर निकले। घूमते हुए ऊदबिलाव की नज़र जब गंगा तट पर रखी सात लोहित मछलियों पर पड़ी तो वह उन्हें अपने घर ले आया। उसी समय सियार भी कहीं से दही की एक हांडी और मांस का एक टुकड़ा चुरा, अपने घर को लौट आया। उछलता-कूदता बंदर भी किसी बाग से पके आम का गुच्छा तोड़, अपने घर ले आया। तीनों मित्रों ने उन्हीं वस्तुओं को दान में देने का संकल्प लिया। किन्तु उनका चौथा मित्र खरगोश तो कोई साधारण प्राणी नहीं था। उसने सोचा यदि वह अपने भोजन अर्थात् घास-पात का दान जो करे तो दान पाने वाले को शायद ही कुछ लाभ होगा। अत: उसने उपोसथ के अवसर पर याचक को परम संतुष्ट करने के उद्देश्य से स्वयं को ही दान में देने का निर्णय लिया।


उसके स्वयं के त्याग का निर्णय संपूर्ण ब्रह्माण्ड को दोलायमान करने लगा और सक्क के आसन को भी तप्त करने लगा। वैदिक परम्परा में सक्क को शक्र या इन्द्र कहते हैं। सक्क ने जब इस अति अलौकिक घटना का कारण जाना तो सन्यासी के रुप में वह उन चारों मित्रों की दान-परायणता की परीक्षा लेने स्वयं ही उनके घरों पर पहुँचे।


ऊदबिलाव, सियार और बंदर ने सक्क को अपने-अपने घरों से क्रमश: मछलियाँ; मांस और दही ; एवं पके आम के गुच्छे दान में देना चाहा। किन्तु सक्क ने उनके द्वारा दी गयी दान को वस्तुओं को ग्रहण नहीं किया। फिर वह खरगोश के पास पहुँचे और दान की याचना की। खरगोश ने दान के उपयुक्त अवसर को जान याचक को अपने संपूर्ण शरीर के मांस को अंगीठी में सेंक कर देने का प्रस्ताव रखा। जब अंगीठी जलायी गयी तो उसने तीन बार अपने रोमों को झटका ताकि उसके रोमों में बसे छोटे जीव आग में न जल जाएँ। फिर वह बड़ी शालीनता के साथ जलती आग में कूद पड़ा।


सक्क उसकी दानवीरता पर स्तब्ध हो उठे। चिरकाल तक उसने ऐसी दानवीरता न देखी थी और न ही सुनी थी।


हाँ, आश्चर्य ! आग ने खरगोश को नहीं जलाया क्योंकि वह आग जादुई थी; सक्क के द्वारा किये गये परीक्षण का एक माया-जाल था।


सम्मोहित सक्क ने तब खरगोश का प्रशस्ति गान किया और चांद के ही एक पर्वत को अपने हाथों से मसल, चांद पर खरगोश का निशान बना दिया और कहा,

"जब तक इस चांद पर खरगोश का निशान रहेगा तब तक हे खरगोश ! जगत् तुम्हारी दान-वीरता को याद रखेगा।"


बुद्धि का चमत्कार-जातक कथा


आज से कई सौ साल पूर्व की बात है। एक गांव में रामसिंह नामक एक किसान अपनी पत्नी व बच्चे के साथ रहता था। रामसिंह अनपढ़ व गरीब था। मगर अपने बेटे सुन्दर को वह पढ़ा-लिखाकर किसी योग्य बनाना चाहता था ताकि उसका बेटा भी उसकी भाँति उम्र भर मेहनत-मजदूरी न करता रहे। अपने पुत्र से उसे बड़ी आशाएं थीं। लाखों सपने उसने अपने पुत्र को लेकर संजो डाले थे। वही उसके बुढ़ापे की लाठी था।


उसका बेटा सुन्दर भी काफी बुद्धिमान था। वह गांव के पण्डित कस्तूरीलाल के पास जाकर शिक्षा ग्रहण कर रहा था। उसने भी अपने मन में यही सोचा हुआ था कि वह भी पढ़-लिखकर बड़ा आदमी बनेगा और अपने मां-बाप के कदमों में दुनिया भर की सारी खुशियां और सारे सुख लाकर डाल देगा। इंसान यदि किसी लक्ष्य को निर्धारित कर ले और सच्चे मन से उसे पाने का प्रयास करे तो वह उसमें सफलता प्राप्त कर ही लेता है। ऐसा ही सुन्दर के साथ भी हुआ। वह अपनी कक्षा में अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण हुआ। सारे गांव में उसकी खूब वाहवाही हुई। अपने बेटे की इस सफलता पर रामसिंह का मस्तक भी गर्व से ऊंचा हो उठा।

एक रात रामसिंह ने अपनी पत्नी से कहा-‘‘सुन्दर की मां ! मेरे मन में सुन्दर को लेकर काफी दिनों से एक विचार उठा रहा है।’’


‘‘कहो जी।’’ रामसिंह की पत्नी ने कहा-‘‘ऐसी क्या बात है ? क्या सुन्दर की शादी-ब्याह का विचार बनाया है ?’’

‘‘अरी भागवान ! शादी ब्याह तो समय आने पर हम उसका करेंगे ही, मगर अभी उसे अपने पैरों पर तो खड़ा होने दें। मेरा तो यह विचार है कि क्यों न हम उसे शहर भेज दें ताकि वहां जाकर कोई अच्छा-सा काम-धंधा सीखकर कुछ बनकर दिखाए। यहां गांव में तो बस मेहनत-मजदूरी का ही धंधा है। पढ़ने-लिखने के बाद भी यदि उसे यही धंधा करना है तो पढ़ाई-लिखाई का लाभ ही क्या है ? हमारा तो अपना कोई खेत भी नहीं है जिसमें मेहनत करके वह कोई तरक्की कर सके।’’

‘‘मगर सुन्दर के बापू ! सुन्दर ने तो आज तक शहर देखा ही नहीं है, हम किसके भरोसे उसे शहर भेज दें ?’’ सुन्दर की मां कमला ने कहा-‘‘माना कि हमारा सुन्दर समझदार और सूझबूझ वाला है और शहर में वह कोई अच्छा-सा काम-धंधा तलाश भी लेगा, मगर शहर में टिकने का कोई ठिकाना भी तो चाहिए।’’


‘‘सुनो सुन्दर की मां ! शहर में मेरा एक मित्र है, हालांकि हम दोनों वर्षों से एक-दूसरे से नहीं मिले, मगर फिर भी मुझे उम्मीद है कि यदि मैं सुन्दर को उसका पता-ठिकाना समझाकर भेजूं तो वह अवश्य ही उसे शरण देगा और रोजी-रोजगार ढूढ़ने में वह सुन्दर की सहायता भी करेगा।’’


‘‘बात तो आपकी ठीक है सुन्दर के बापू, लेकिन मेरा मन नहीं मान रहा कि मैं अपने लाल को अपनी आंखों से दूर करूं।’’

‘‘ऐसा तुम अपनी ममता के हाथों मजबूर होकर कह रही हो, मगर दिल से तो तुम भी यही चाहती हो कि हमारा बेटा तरक्की करे। इसलिए दिल को मजबूत बनाओ। सुन्दर शहर जाकर कुछ बन गया तो हमारा बुढ़ापा भी सुख से गुजरेगा।’

और इस प्रकार रामसिंह ने अपनी पत्नी को समझा-बुझाकर सुन्दर को शहर भेजने के लिए राजी कर लिया।

उसी शाम सुन्दर जब अपने यार-दोस्तों के साथ खेल-कूदकर घर वापस आया तो रामसिंह ने बड़े प्यार से अपने पास बैठाया और अपने मन की बात बता दी।

सुन्दर यह जानकर बहुत खुश हुआ कि उसका बापू उसे शहर भेजना चाहता है।

वास्तव में सुन्दर भी यही चाहता था कि वह किसी प्रकार शहर चला जाए और वहां कोई ऐसा काम-धंधा करे जिससे उसका परिवार सदा-सदा के लिए गरीबी से छुटकारा पाकर सुख भोगे।

अतः पिता का प्रस्ताव पाकर वह बड़ा खुश हुआ और बोला-‘‘पिताजी ! चाहता तो मैं भी यही था कि पढ़-लिखकर शहर जाऊँ और अच्छी-सी नौकरी करके घर की कमाई में आपका हाथ बटाऊं, मगर कहीं आप मुझे शहर भेजने से इनकार न कर दें, यही सोचकर मैंने आपसे अपने मन की बात नहीं कही। मगर अब जब आप स्वयं ही मुझे शहर भेजने के इच्छुक हैं तो इससे अधिक खुशी की बात मेरे लिए भला और क्या हो सकती है। मैं अवश्य ही शहर जाऊंगा।’’

और प्रकार दूसरे ही दिन रामसिंह ने उसे दीन-दुनिया की ऊंच-नीच समझाई और अपने मित्र का पता देकर शहर के लिए विदा कर दिया।


सुन्दर काफी सूझबूझ वाला समझदार युवक था।

अपने माता-पिता के दुख-दर्द को वह भली-भांति समझता था। वह यह भी जानता था कि गांव में रहकर तो उसका भविष्य अंधकार में ही डूबा रहेगा जबकि उसकी इच्छा बड़ा आदमी बनकर अपने माता-पिता को भरपूर सुख देना था।

अतः खुशी-खुशी वह शहर के लिए रवाना हो गया।

शहर आकर सुन्दर की आंखें चुंधिया गईं।

खूब भीड़-भड़क्का।

सजी-संवरी दुकानें।

तागें-इक्कों का आवागमन।

खैर, आश्चर्य से वह सब देखता सुन्दर अपने पिता के कथित दोस्त से मिलने चल दिया।

लेकिन जब वह पता के बताए स्थान पर पहुंचा तो पता चला कि उसके पिता का दोस्त रामचन्द्र तो न जाने कब का मर-खप गया और अब तो उसके परिवार का भी कोई अता-पता नहीं था। यह जानकर सुन्दर बहुत निराश हुआ और सोचने लगा कि अब क्या होगा ?


आशा-निराशा तो जीवन में चलती ही रहती है, लेकिन सुन्दर उन युवकों में से नहीं था जो हताश होकर बैठ जाते हैं। उसमें हिम्मत और आत्मविश्वास कूट-कूटकर भरा था।

उसने अपने आपको दिलासा दिया और बोला-‘बेटे सुन्दर ! निराश होने से कुछ नहीं होगा। अब शहर आ ही गए हैं तो कुछ करके ही लौटेंगे। मां और बापू ने मुझसे बड़ी उम्मीदें लगा रखी हैं, मैं ही उनके बुढ़ापे की लाठी हूं। अब शहर आ ही गया हूं तो कुछ बनकर ही लौटूंगा। तुझे याद नहीं, गांव में मास्टर जी कहा करते थे-हिम्मत-ए-मर्दा, मदद-ए-खुदा। यानी जो लोग हिम्मत करते हैं...उनकी मदद खुद भगवान करते हैं।’

अपने आपको इसी प्रकार हौसला बंधाता हुआ सुन्दर पूछता-पूछता एक सराय में आकर ठहर गया।

उसने स्नान आदि से निवृत्त होकर थोड़ा आराम किया, फिर किसी नौकरी की तलाश में निकल पड़ा।

वह जहां भी नौकरी मांगने जाता, दुकानदार उसके बातचीत करने के ढंग और उसकी सूझ-बूझ से प्रभावित तो होता किन्तु कोई जान-पहचान न होने के कारण उसे नौकरी नहीं मिल पाती थी।

इसी प्रकार कई दिन गुजर गए।


सुन्दर गांव से अपने साथ जो रुपया-पैसा लेकर आया था, वह भी लगभग समाप्त होने को था।

अब तो सचमुच सुन्दर को चिन्ताओं ने आ घेरा।

वह सोचने लगा कि काश ! शहर में उसकी कोई जानकारी होती तो अवश्य ही उसे कोई नौकरी मिल जाती। एक दिन की बात है, सुन्दर थक-हारकर एक पेड़ के नीचे बैठा मौजूदा स्थिति के विषय में सोच रहा था। उससे कुछ ही दूरी पर राज कर्मचारी पेड़ की ठंडी छांव में बैठे गपशप कर रहे थे। अनमना-सा सुन्दर उनकी बातें सुनने लगा। एक दूसरे से कह रहा था-‘‘कुछ भी कह भाई रामवीर ! तू है बड़ा नसीब वाला। हम दोनों साथ-साथ ही राजदरबार की सेवा में आए थे, मगर तू तरक्की करके राजाजी का खजांची बन गया और मैं रहा सिपाही का सिपाही। इसे कहते हैं तकदीर।’’

‘‘तकदीर भी उन्हीं का साथ देती है गंगाराम, जो सूझबूझ और हिम्मत से काम लेते हैं। मैंने अपनी सूझबूझ से कुछ ऐसे काम किए कि महाराज का विश्वासपात्र बन गया और उन्होंने मेरी ईमानदारी देखकर मुझे खजांची बना दिया।’’

‘‘न-न भाई, तू जरूर किसी साधु या फकीर से कोई मन्तर-वन्तर पढ़वाकर लाया होगा जो इतनी जल्दी इतनी तरक्की कर ली। वरना मैं क्यों न किसी ऊंचे पद पर पहुंच गया ? भइया, तू मुझे भी अपनी कामयाबी का राज बता।’’

‘‘तेरे जैसे लोग इसी चक्कर में रहते हैं कि पकी-पकाई मिल जाए और खा लें। अरे भाई मेरे, अगर इन्सान में हिम्मत हौसला, ईमानदारी साहस और सूझबूझ हो तो वह पहाड़ को खोदकर नदी बहा दे। देख, तू वह मरा हुआ चूहा देख रहा है ना !’’ रामवीर ने सड़क के किनारे पड़े एक मरे हुए चूहे की ओर इशारा किया।

‘‘हां-देख रहा हूं।’’


‘‘आने-जाने वाले लोग भी उसे देख रहे हैं और घृणा से थूककर दूसरी ओर मुंह फेरकर निकल रहे हैं।’’

‘‘रामवीर भाई ! मैं तुझसे तेरी कामयाबी का रहस्य पूछ रहा था और तू मुझे मरा हुआ चूहा दिखा रहा है। ये क्या बात हुई ?’’

‘‘गंगाराम ! मैं तुझे कामयाबी की बाबत ही बता रहा हूं। सुन, लोग उस मरे हुए चूहे पर थूककर जा रहे हैं। मगर कोई सूझबूझ वाला इंसान इस मरे हुए चूहे से भी चार पैसे कमा लेगा। भइया मेरे, अक्ल का इस्तेमाल करने से ही इन्सान कामयाबी हासिल करता है। जन्तर-मन्तर से कुछ नहीं होता। ’’

‘‘मैं समझ गया भाई रामवीर।’’ निराश-सा होकर गंगाराम बोला-‘‘तू मुझे अपनी कामयाबी का राज बताना ही नहीं चाहता। खैर, कभी तो मेरे भी दिन बदलेंगे। आ, अब चलते हैं।’’

इस प्रकार वे दोनों राज कर्मचारी उठकर चले गए।


वे तो चले गए। मगर खजांची रामवीर की चूहे वाली बात ने सुन्दर के दिमाग में खलबली-सी मचा दी। उसके दिमाग में रामवीर की कही बात बार-बार गूंज रही थी-‘लोग उस मरे हुए चूहे पर थूक-थूककर जा रहे हैं, मगर कोई सूझबूझ वाला इंसान इस मरे हुए चूहे से भी चार पैसे कमा लेगा...चार पैसा कमा लेगा...चार पैसे कमा लेगा।’

सुन्दर सोचने लगा-‘खजांची की बात में दम है। जिस देश में मिट्टी भी बिकती हो, वहां कोई चीज बेचना मुश्किल नहीं-मगर इस मरे हुए चूहे को खरीदेगा कौन ? कैसे कमाएगा कोई इससे चार पैसे ?’

चूहे को घूरते हुए सुन्दर यही सोच रहा था, लेकिन उसकी समझ में नहीं आ रहा था।

तभी सड़क पर उसे एक तांगा आता दिखाई दिया। तांगे में एक सेठ बैठा था जिसने एक बिल्ली को अपनी गोद में दबोचा हुआ था। बिल्ली बार-बार उसकी पकड़ से छूटने की कोशिश कर रही थी।

अभी घोड़ा गाड़ी सुन्दर के आगे से गुजरी ही थी कि बिल्ली सेठ की गोद से कूदी और सड़के के किनारे की झाड़ियों में जा घुसी।


‘‘अरे...अरे तांगे वाले, तांगा रोको। मेरी बिल्ली कूद गई।’’ सेठ चिल्लाया।

तांगा रुका और सेठ उतरकर तेजी से झाड़ियों की तरफ लपका।

‘‘अरे भाई तांगे वाले, देखो ! मेरी बिल्ली उन झाड़ियों में जा घुसी है। उसे पकड़ने में मेरी मदद करो।’’ सेठ झाड़ियों के पास जाकर बिल्ली को बुलाने लगा-‘‘आ...आ...पूसी..पूसी आओ।’’

इसी बीच तांगे वाला और सुन्दर सहित कुछ अन्य लोग भी वहां जमा हो गए थे।

‘‘अरे भाई ! मैं किसी खास प्रयोजन से इस बिल्ली को खरीदकर लाया हूं। कोई इसे बाहर निकालने में सहायता करो।’’ सेठ बेताब होकर एकत्रित हो गए लोगों से गुहार कर रहा था।

जबकि झाड़ियों में घुसी बिल्ली पंजे झाड़-झाड़कर गुर्रा रही थी।

‘‘देख नहीं रहे हो सेठजी कि बिल्ली किस प्रकार गुर्रा रही है।’’ एक व्यक्ति बोला-‘‘हाथ आगे बढ़ाते ही झपट पड़ेगी।’’

यह सब देखकर सुन्दर के मस्तिष्क में राजा के खजांची की बात गूंज गई-‘कोई सूझ-बूझ वाला इंसान इस मरे हुए चूहे से भी चार पैसे कमा लेगा।’


सुन्दर के मस्तिष्क में धमाका-सा हुआ और तुरन्त उसके मस्तिष्क में एक युक्ति आ गई। वह सेठ से बोला-‘‘सेठ जी ! अगर मैं आपकी बिल्ली को काबू करके दूं तो आप मुझे क्या देंगे ?’’

‘‘आएं’’ सेठ जी ने तुरन्त सुन्दर की ओर देखा और बोला-‘‘भाई ! तू मेरी बिल्ली को काबू करके देगा तो मैं तुझे चांदी का एक सिक्का दूंगा।’’

‘‘चांदी का सिक्का।’’ सुन्दर के मुंह में पानी भर आया-‘‘ठीक है, आप यहीं रुकिए, मैं अभी आपकी बिल्ली काबू करके आपको देता हूं।’’

कहकर सुन्दर दौड़ा-दौड़ा उसी दिशा में गया जिधर मरा हुआ चूहा पड़ा था।

‘वाह बेटा सुन्दर ! बन गया काम। उस खजांची ने ठीक ही कहा था कि यदि सूझबूझ से काम लिया जाए तो इस मरे हुए चूहे से भी चार पैसे कमाए जा सकते हैं।


सुन्दर ने मन-ही-मन खुश होते हुए एक रस्सी तलाश की और चूह की गरदन में फंदा डालकर झाड़ियों की ओर चल दिया।

‘‘हटो-हटो-सब पीछे हटो।’’भीड़ को एक ओर हटाता हुआ सुन्दर बोला-‘‘बिल्ली अभी बाहर आती है।’’

‘‘अरे ! मरा हुआ चूहा-यह तो वहां पड़ा था’’ किसी ने कहा।

दूसरा बोला-‘‘भई वाह ! इस लड़के ने तो मौके का फायदा उठाकर एक सिक्का कमा लिया।’’

‘‘इसे कहते हैं, बुद्धि का करिश्मा।’’

‘‘यह लड़का अवश्य ही एक दिन बड़ा आदमी बनेगा।’’

लोग तरह-तरह की बातें बनाने लगे।

सुन्दर झाड़ियों के करीब बैठ गया और रस्सी से बंधे चूहे को बिल्ली के सामने लहराने लगा।

मोटे-चूहे को देखकर बिल्ली के मुंह में पानी भर आया, एक नजर उसने मैत्री भाव से सुन्दर की ओर देखा, फिर दुम हिलाती हुई धीरे-धीरे सुन्दर के करीब आने लगी।

सभी लोग उस्सुकता से यह तमाशा देख रहे थे।

और फिर कुछ ही पलों बाद चूहे के लालच में जैसे ही बिल्ली बाहर आई, सुन्दर ने उसकी पीठ पर प्यार से हाथ फेरा और उसे गोद में उठा लिया।


दो हंसों की कहानी-जातक कथा


मानसरोवर, आज जो चीन में स्थित है, कभी ठमानस-सरोवर' के नाम से विश्वविख्यात था और उसमें रहने वाले हंस तो नीले आकाश में सफेद बादलों की छटा से भी अधिक मनोरम थे। उनके कलरव सुन्दर नर्तकियों की नुपुर ध्वनियों से भी अधिक सुमधुर थे। उन्हीं सफेद हंसों के बीच दो स्वर्ण हंस भी रहते थे। दोनों हंस बिल्कुल एक जैसे दिखते थे और दोनों का आकार भी अन्य हंसों की तुलना में थोड़ा बड़ा था। दोनों समान रुप से गुणवान और शीलवान भी थे। फर्क था तो बस इतना कि उनमें एक राजा था और दूसरा उसका वफादार सेनापति। राजा का नाम धृतराष्ट्र था और सेनापति का नाम सुमुख। दोनों हंसों की चर्चा देवों, नागों, यक्षों और विद्याधर ललनाओं के बीच अक्सर हुआ करती थी। कालान्तर में मनुष्य योनि के लोगों को भी उनके गुण-सौन्दर्य का ज्ञान होने लगा। वाराणसी नरेश ने जब उनके विषय में सुना तो उस के मन में उन हंसों को पाने की प्रबल इच्छा जागृत हुई। तत्काल उसने अपने राज्य में मानस-सदृश एक मनोरम-सरोवर का निर्माण करवाया, जिसमें हर प्रकार के आकर्षक जलीय पौधे और विभिन्न प्रकार के कमल जैसे पद्म, उत्पल, कुमुद, पुण्डरीक, सौगन्धिक, तमरस और कहलर विकसित करवाये। मत्स्य और जलीय पक्षियों की सुंदर प्रजातियाँ भी वहाँ बसायी गयीं। साथ ही राजा ने वहाँ बसने वाले सभी पक्षियों की पूर्ण सुरक्षा की भी घोषणा करवायी, जिससे दूर-दूर से आने वाले पंछी स्वच्छंद भाव से वहाँ विचरण करने लगे।


एक बार, वर्षा काल के बाद जब हेमन्त ॠतु प्रारम्भ हुआ और आसमान का रंग बिल्कुल नीला होने लगा तब मानस के दो हंस वाराणसी के ऊपर से उड़ते हुए जा रहे थे। तभी उनकी दृष्टि राजा द्वारा निर्मित सरोवर पर पड़ी। सरोवर की सुन्दरता और उसमें तैरते रमणीक पक्षियों की स्वच्छंदता उन्हें सहज ही आकर्षित कर गयी। तत्काल वे नीचे उतर आये और महीनों तक वहाँ की सुरक्षा, सुंदरता और स्वच्छंदता का आनंद लेते रहे। अन्ततोगत्वा वर्षा ॠतु के प्रारंभ होने से पूर्व वे फिर मानस को प्रस्थान कर गये। मानस पहुँच कर उन्होंने अपने साथियों के बीच वाराणसी के कृत्रिम सरोवर की इतनी प्रशंसा की कि सारे के सारे हंस वर्षा के बाद वाराणसी जाने को तत्पर हो उठे।


हंसों के राजा युधिष्ठिर और उसके सेनापति सुमुख ने अन्य हंसों की इस योजना को समुचित नहीं माना। युधिष्ठिर ने उनके प्रस्ताव का अनुमोदन न करते हुए, यह कहा कि, पंछी और जानवरों की एक प्रवृत्ति होती है। वे अपनी संवेदनाओं को अपनी चीखों से प्रकट करते हैं। किन्तु जन्तु जो कहलाता है "मानव" बड़ी चतुराई से करता है अपनी भंगिमाओं को प्रस्तुत जो होता है उनके भावों के ठीक विपरीत।


फिर भी कुछ दिनों के बाद हंस-राज को हंसों की ज़िद के आगे झुकना पड़ा और वह वर्षा ॠतु के बाद मानस के समस्त हंसों के साथ वाराणसी को प्रस्थान कर गया। जब मानस के हंसों का आगमन वाराणसी के सरोवर में हुआ और राजा को इसकी सूचना मिली तो उसने अपने एक निषाद को उन दो विशिष्ट हंसों को पकड़ने के लिए नियुक्त किया।


एक दिन युधिष्ठिर जब सरोवर की तट पर स्वच्छंद भ्रमण कर रहा था तभी उसके पैर निषाद द्वारा बिछाये गये जाल पर पड़े। अपने पकड़े जाने की चिंता छोड़ उसने अपनी तीव्र चीखों से अपने साथी-हंसों को तत्काल वहाँ से प्रस्थान करने को कहा जिससे मानस के सारे हंस वहाँ से क्षण मात्र में अंतर्धान हो गये। रह गया तो केवल उसका एकमात्र वफादार हमशक्ल सेनापति-सुमुख। हंसराज ने अपने सेनापति को भी उड़ जाने की आज्ञा दी मगर वह दृढ़ता के साथ अपने राजा के पास ही जीना मरना उचित समझा। निषाद जब उन हंसों के करीब पहुँचा तो वह आश्चर्यचकित रह गया क्योंकि पकड़ा तो उसने एक ही हंस था फिर भी दूसरा उसके सामने निर्भीक खड़ा था। निषाद ने जब दूसरे हंस से इसका कारण पूछा तो वह और भी चकित हो गया, क्योंकि दूसरे हंस ने उसे यह बताया कि उसके जीवन से बढ़कर उसकी वफादारी और स्वामि-भक्ति है। एक पक्षी के मुख से ऐसी बात सुनकर निषाद का हृदय परिवर्तन हो गया। वह एक मानव था; किन्तु मानव-धर्म के लिए वफादार नहीं था। उसने हिंसा का मार्ग अपनाया था और प्राणातिपात से अपना जीवन निर्वाह करता था। शीघ्र ही उस निषाद ने अपनी जागृत मानवता के प्रभाव में आकर दोनों ही हंसों को मुक्त कर दिया।


दोनों हंस कोई साधारण हंस तो थे नहीं। उन्होंने अपनी दूरदृष्टि से यह जान लिया था कि वह निषाद निस्सन्देह राजा के कोप का भागी बनेगा। अगर निषाद ने उनकी जान बख़शी थी तो उन्हें भी निषाद की जान बचानी थी। अत: तत्काल वे निषाद के कंधे पर सवार हो गये और उसे राजा के पास चलने को कहा। निषाद के कंधों पर सवार जब वे दोनों हंस राज-दरबार पहुँचे तो समस्त दरबारीगण चकित हो गये। जिन हंसों को पकड़ने के लिए राजा ने इतना प्रयत्न किया था वे स्वयं ही उसके पास आ गये थे। विस्मित राजा ने जब उनकी कहानी सुनी तो उसने तत्काल ही निषाद को राज-दण्ड से मुक्त कर पुरस्कृत किया। उसने फिर उन ज्ञानी हंसों को आतिथ्य प्रदान किया तथा उनकी देशनाओं को राजदरबार में सादर सुनता रहा।


इस प्रकार कुछ दिनों तक राजा का आतिथ्य स्वीकार कर दोनों ही हंस पुन: मानस को वापिस लौट गये।



रुरु मृग की कथा-जातक कथा


रुरु एक मृग था। सोने के रंग में ढला उसका सुंदर सजीला बदन; माणिक, नीलम और पन्ने की कांति की चित्रांगता से शोभायमान था। मखमल से मुलायम उसके रेशमी बाल, आसमानी आँखें तथा तराशे स्फटिक-से उसके खुर और सींग सहज ही किसी का मन मोह लेने वाले थे। तभी तो जब भी वह वन में चौकडियाँ भरता तो उसे देखने वाला हर कोई आह भर उठता।


जाहिर है कि रुरु एक साधारण मृग नहीं था। उसकी अप्रतिम सुन्दरता उसकी विशेषता थी। लेकिन उससे भी बड़ी उसकी विशेषता यह थी कि वह विवेकशील था ; और मनुष्य की तरह बात-चीत करने में भी समर्थ था। पूर्व जन्म के संस्कार से उसे ज्ञात था कि मनुष्य स्वभावत: एक लोभी प्राणी है और लोभ-वश वह मानवीय करुणा का भी प्रतिकार करता आया है। फिर भी सभी प्राणियों के लिए उसकी करुणा प्रबल थी और मनुष्य उसके करुणा-भाव के लिए कोई अपवाद नहीं था। यही करुणा रुरु की सबसे बड़ी विशिष्टता थी।


एक दिन रुरु जब वन में स्वच्छंद विहार कर रहा था तो उसे किसी मनुष्य की चीत्कार सुनायी दी। अनुसरण करता हुआ जब वह घटना-स्थल पर पहुँचा तो उसने वहाँ की पहाड़ी नदी की धारा में एक आदमी को बहता पाया। रुरु की करुणा सहज ही फूट पड़ी। वह तत्काल पानी में कूद पड़ा और डूबते व्यक्ति को अपने पैरों को पकड़ने कि सलाह दी। डूबता व्यक्ति अपनी घबराहट में रुरु के पैरों को न पकड़ उसके ऊपर की सवार हो गया। नाजुक रुरु उसे झटक कर अलग कर सकता था मगर उसने ऐसा नहीं किया। अपितु अनेक कठिनाइयों के बाद भी उस व्यक्ति को अपनी पीठ पर लाद बड़े संयम और मनोबल के साथ किनारे पर ला खड़ा किया।


सुरक्षित आदमी ने जब रुरु को धन्यवाद देना चाहा तो रुरु ने उससे कहा, "अगर तू सच में मुझे धन्यवाद देना चाहता है तो यह बात किसी को ही नहीं बताना कि तूने एक ऐसे मृग द्वारा पुनर्जीवन पाया है जो एक विशिष्ट स्वर्ण-मृग है; क्योंकि तुम्हारी दुनिया के लोग जब मेरे अस्तित्व को जानेंगे तो वे निस्सन्देह मेरा शिकार करना चाहेंगे।" इस प्रकार उस मनुष्य को विदा कर रुरु पुन: अपने निवास-स्थान को चला गया।


कालांतर में उस राज्य की रानी को एक स्वप्न आया। उसने स्वप्न में रुरु साक्षात् दर्शन कर लिए। रुरु की सुन्दरता पर मुग्ध; और हर सुन्दर वस्तु को प्राप्त करने की तीव्र अभिलाषा से रुरु को अपने पास रखने की उसकी लालसा प्रबल हुई। तत्काल उसने राजा से रुरु को ढूँढकर लाने का आग्रह किया। सत्ता में मद में चूर राजा उसकी याचना को ठुकरा नहीं सका। उसने नगर में ढिंढोरा पिटवा दिया कि जो कोई-भी रानी द्वारा कल्पित मृग को ढूँढने में सहायक होगा उसे वह एक गाँव तथा दस सुन्दर युवतियाँ पुरस्कार में देगा।


राजा के ढिंढोरे की आवाज उस व्यक्ति ने भी सुनी जिसे रुरु ने बचाया था। उस व्यक्ति को रुरु का निवास स्थान मालूम था। बिना एक क्षण गँवाये वह दौड़ता हुआ राजा के दरबार में पहुँचा। फिर हाँफते हुए उसने रुरु का सारा भेद राजा के सामने उगल डाला।


राजा और उसके सिपाही उस व्यक्ति के साथ तत्काल उस वन में पहुँचे और रुरु के निवास-स्थल को चारों ओर से घेर लिया। उनकी खुशी का ठिकाना न रहा जब उन्होंने रुरु को रानी की बतायी छवि के बिल्कुल अनुरुप पाया। राजा ने तब धनुष साधा और रुरु उसके ठीक निशाने पर था। चारों तरफ से घिरे रुरु ने तब राजा से मनुष्य की भाषा में यह कहा "राजन् ! तुम मुझे मार डालो मगर उससे पहले यह बताओ कि तुम्हें मेरा ठिकाना कैसे मालूम हुआ ?"


उत्तर में राजा ने अपने तीर को घुमाते हुए उस व्यक्ति के सामने रोक दिया जिसकी जान रुरु ने बचायी थी। रुरु के मुख से तभी यह वाक्य हठात् फूट पड़ा

"निकाल लो लकड़ी के कुन्दे को पानी से न निकालना कभी एक अकृतज्ञ इंसान को।"


राजा ने जब रुरु से उसके संवाद का आशय पूछा तो रुरु ने राजा को उस व्यक्ति के डूबने और बचाये जाने की पूरी कहानी कह सुनायी। रुरु की करुणा ने राजा की करुणा को भी जगा दिया था। उस व्यक्ति की कृतध्नता पर उसे रोष भी आया। राजा ने उसी तीर से जब उस व्यक्ति का संहार करना चाहा तो करुणावतार मृग ने उस व्यक्ति का वध न करने की प्रार्थना की।


रुरु की विशिष्टताओं से प्रभावित राजा ने उसे अपने साथ अपने राज्य में आने का निमंत्रण दिया। रुरु ने राजा के अनुग्रह का नहीं ठुकराया और कुछ दिनों तक वह राजा के आतिथ्य को स्वीकार कर पुन: अपने निवास-स्थल को लौट गया।



बुद्धिमान् वानर-जातक कथा


हज़ारों साल पहले किसी वन में एक बुद्धिमान बंदर रहता था। वह हज़ार बंदरों का राजा भी था।


एक दिन वह और उसके साथी वन में कूदते-फाँदते ऐसी जगह पर पहुँचे जिसके निकट क्षेत्र में कहीं भी पानी नहीं था। नयी जगह और नये परिवेश में प्यास से व्याकुल नन्हे वानरों के बच्चे और उनकी माताओं को तड़पते देख उसने अपने अनुचरों को तत्काल ही पानी के किसी स्रोत को ढूंढने की आज्ञा दी।


कुछ ही समय के बाद उन लोगों ने एक जलाशय ढूंढ निकाला। प्यासे बंदरों की जलाशय में कूद कर अपनी प्यास बुझाने की आतुरता को देख कर वानरराज ने उन्हें रुकने की चेतावनी दी, क्योंकि वे उस नये स्थान से अनभिज्ञ था। अत: उसने अपने अनुचरों के साथ जलाशय और उसके तटों का सूक्ष्म निरीक्षण व परीक्षण किया। कुछ ही समय बाद उसने कुछ ऐसे पदचिह्नों को देखा जो जलाशय को उन्मुख तो थे मगर जलाशय से बाहर को नहीं लौटे थे। बुद्धिमान् वानर ने तत्काल ही यह निष्कर्ष निकाला कि उस जलाशय में निश्चय ही किसी खतरनाक दैत्य जैसे प्राणी का वास था। जलाशय में दैत्य-वास की सूचना पाकर सारे ही बंदर हताश हो गये। तब बुद्धिमान वानर ने उनकी हिम्मत बंधाते हुए यह कहा कि वे दैत्य के जलाशय से फिर भी अपनी प्यास बुझा सकते हैं क्योंकि जलाशय के चारों ओर बेंत के जंगल थे जिन्हें तोड़कर वे उनकी नली से सुड़क-सुड़क कर पानी पी सकते थे। सारे बंदरों ने ऐसा ही किया और अपनी प्यास बुझा ली।


जलाशय में रहता दैत्य उन्हें देखता रहा मगर क्योंकि उसकी शक्ति जलाशय तक ही सीमित थी, वह उन बंदरों का कुछ भी नहीं बिगाड़ सका । प्यास बुझा कर सारे बंदर फिर से अपने वन को लौट गये।


छद्दन्त हाथी-जातक कथा


हिमालय के घने वनों में कभी सफेद हाथियों की दो विशिष्ट प्रजातियाँ हुआ करती थीं - छद्दन्त और उपोसथ। छद्दन्त हाथियों का रंग सफेद हुआ करता था और उनके छ: दाँत होते थे। (ऐसा पालि साहित्य मे उल्लिखित है।) छद्दन्त हाथियों का राजा एक कंचन गुफा में निवास करता था। उसके मस्तक और पैर माणिक के समान लाल और चमकीले थे। उसकी दो रानियाँ थी - महासुभद्दा और चुल्लसुभद्दा।


एक दिन गजराज और उसकी रानियाँ अपने दास-दासियों के साथ एक सरोवर में जल-क्रीड़ा कर रहे थे। सरोवर के तट पर फूलों से लदा एक साल-वृक्ष भी था। गजराज ने खेल-खेल में ही साल वृक्ष की एक शाखा को अपनी सूंड से हिला डाला। संयोगवश वृक्ष के फूल और पराग महासुभद्दा को आच्छादित कर गये। किन्तु वृक्ष की सूखी टहनियाँ और फूल चुल्लसुभद्दा के ऊपर गिरे। चुल्लसुभद्दा ने इस घटना को संयोग न मान, स्वयं को अपमानित माना। नाराज चुल्लसुभद्दा ने उसी समय अपने पति और उनके निवास का त्याग कर कहीं चली गई। तत: छद्दन्तराज के अथक प्रयास के बावजूद वह कहीं ढूंढे नहीं मिली।


कालान्तर में चुल्लसुभद्दा मर कर मद्द राज्य की राजकुमारी बनी और विवाहोपरान्त वाराणसी की पटरानी। किन्तु छद्दन्तराज के प्रति उसका विषाद और रोष इतना प्रबल था कि पुनर्जन्म के बाद भी वह प्रतिशोध की आग में जलती रही। अनुकूल अवसर पर उसने राजा से छद्दन्तराज के दन्त प्राप्त करने को उकसाया। फलत: राजा ने उक्त उद्देश्य से कुशल निषादों की एक टोली बनवाई जिसका नेता सोनुत्तर को बनाया।


सात वर्ष, सात महीने और सात दिनों के पश्चात् सोनुत्तर छद्दन्तराज के निवास-स्थान पर पहुँचा। उसने वहाँ एक गड्ढा खोदा और उसे लकड़ी और पत्तों से ढ्ँक दिया। फिर वह चुपचाप पेड़ों की झुरमुट में छिप गया। छद्दन्तराज जब उस गड्ढे के करीब आया तो सोनुत्तर ने उस पर विष-बुझा बाण चलाया। बाण से घायल छद्दन्त ने जब झुरमुट में छिपे सोनुत्तर को हाथ में धनुष लिये देखा तो वह उसे मारने के लिए दौड़ा । किन्तु सोनुत्तर ने संन्यासियों का गेरुआ वस्र पहना हुआ था जिस के कारण गजराज ने निषाद को जीवन-दान दिया। अपने प्राणों की भीख पाकर सोनुत्तर का हृदय-परिवर्तन हुआ। भाव - विह्मवल सोनुत्तर ने छद्दन्त को सारी बातें बताई कि क्यों वह उसके दांतों को प्राप्त करने के उद्देश्य से वहाँ आया था।


चूँकि छद्दन्त के मजबूत दांत सोनुत्तर नहीं काट सकता था इसलिए छद्दन्त ने मृत्यु-पूर्व स्वयं ही अपनी सूँड से अपने दांत काट कर सोनुत्तर को दे दिये।

वाराणसी लौट कर सोनुत्तर ने जब छद्दन्त के दाँत रानी को दिखलाये तो रानी छद्दन्त की मृत्यु के आघात को संभाल न सकी और तत्काल मर गयी।



लक्खण मृग-जातक कथा


हजारों साल पहले मगध जनपद के एक निकटवर्ती वन में हजार हिरणों का एक समूह रहता था जिसके राजा के दो पुत्र थे- लक्खण और काल। जब मृगराज वृद्ध होने लगा तो उसने अपने दोनों पुत्रों को उत्तराधिकारी घोषित किया और प्रत्येक के संरक्षण में पाँच-पाँच सौ मृग प्रदान किए ताकि वे सुरक्षित आहार-विहार का आनंद प्राप्त कर सकें।


उन्हीं दिनों फसल काटने का समय भी निकट था तथा मगधवासी अपने लहलहाते खेतों को आवारा पशुओं से सुरक्षित रखने के लिए अनेक प्रकार के उपक्रम और खाइयों का निर्माण कर रहे थे। मृगों की सुरक्षा के लिए वृद्ध पिता ने अपने दोनों पुत्रों को अपने मृग-समूहों को लेकर किसी सुदूर और सुरक्षित पहाड़ी पर जाने का निर्देश दिया।


काला एक स्वेच्छाचारी मृग था। वह तत्काल अपने मृगों को लेकर पहाड़ी की ओर प्रस्थान कर गया। उसने इस बात की तनिक भी परवाह नहीं की कि लोग सूरज की रोशनी में उनका शिकार भी कर सकते थे। फलत: रास्ते में ही उसके कई साथी मारे गये।


लक्खण एक बुद्धिमान और प्रबुद्ध मृग था। उसे यह ज्ञान था कि मगधवासी दिन के उजाले में उनका शिकार भी कर सकते थे। अत: उसने पिता द्वारा निर्दिष्ट पहाड़ी के लिए रात के अंधेरे में प्रस्थान किया। उसकी इस बुद्धिमानी से उसके सभी साथी सुरक्षित पहाड़ी पर पहुँच गए।


चार महीनों के बाद जब लोगों ने फसल काट ली तो दोनों ही मृग-बन्धु अपने-अपने अनुचरों के साथ अपने निवास-स्थान को लौट आये। जब वृद्ध पिता ने लक्खण के सारे साथियों को जीवित और काला के अनेक साथियों के मारे जाने का कारण जाना तो उसने खुले दिल से लक्खण की बुद्धिमत्ता की भूरि-भूरि प्रशंसा की।


महाकपि का बलिदान-जातक कथा


हिमालय के फूल अपनी विशिष्टताओं के लिए सर्वविदित हैं। दुर्भाग्यवश उनकी अनेक प्रजातियाँ विलुप्त होती जा रही हैं। कुछ तो केवल किस्से- कहानियों तक ही सिमट कर रह गयी हैं। यह कहानी उस समय की है, जब हिमालय का एक अनूठा पेड़ अपने फलीय वैशिष्ट्य के साथ एक निर्जन पहाड़ी नदी के तीर पर स्थित था। उसके फूल थाईलैंड के कुरियन से भी बड़े, चेरी से भी अधिक रसीले और आम से भी अधिक मीठे होते थे। उनकी आकृति और सुगंध भी मन को मोह लेने वाली थी।


उस पेड़ पर वानरों का एक झुण्ड रहता था, जो बड़ी ही स्वच्छंदता के साथ उन फूलों का रसास्वादन व उपभोग करता था। उन वानरों का एक राजा भी था जो अन्य बन्दरों की तुलना कई गुणा ज्यादा बड़ा, बलवान्, गुणवान्, प्रज्ञावान् और शीलवान् था, इसलिए वह महाकपि के नाम से जाना जाता था। अपनी दूर-दृष्टि उसने समस्त वानरों को सचेत कर रखा था कि उस वृक्ष का कोई भी फल उन टहनियों पर न छोड़ा जाए जिनके नीचे नदी बहती हो। उसके अनुगामी वानरों ने भी उसकी बातों को पूरा महत्तव दिया क्योंकि अगर कोई फल नदी में गिर कर और बहकर मनुष्य को प्राप्त होता तो उसका परिणाम वानरों के लिए अत्यंत भयंकर होता।


एक दिन दुर्भाग्यवश उस पेड़ का एक फल पत्तों के बीचों-बीच पक कर टहनी से टूट, बहती हुई उस नदी की धारा में प्रवाहित हो गया।


उन्हीं दिनों उस देश का राजा अपनी औरतों दास-दासीयों तथा के साथ उसी नदी की तीर पर विहार कर रहा था। वह प्रवाहित फल आकर वहीं रुक गया। उस फल की सुगन्ध से राजा की औरतें सम्मोहित होकर आँखें बंद कर आनन्दमग्न हो गयीं। राजा भी उस सुगन्ध से आनन्दित हो उठा। शीघ्र ही उसने अपने आदमी उस सुगन्ध के स्रोत के पीछे दौड़ाये। राजा के आदमी तत्काल उस फल को नदी के तीर पर प्राप्त कर पल भर में राजा के सम्मुख ले आए। फल का परीक्षण कराया गया तो पता चला कि वह एक विषहीन फल था। राजा ने जब उस फल का रसास्वादन किया तो उसके हृदय में वैसे फलों तथा उसके वृक्ष को प्राप्त करने की तीव्र लालसा जगी। क्षण भर में सिपाहियों ने वैसे फलों पेड़ को भी ढूँढ लिया। किन्तु वानरों की उपस्थिति उन्हें वहाँ रास नहीं आयी। तत्काल उन्होंने तीरों से वानरों को मारना प्रारम्भ कर दिया।


वीर्यवान् महाकपि ने तब अपने साथियों को बचाने के लिए कूदते हुए उस पेड़ के निकट की एक पहाड़ी पर स्थित एक बेंत की लकड़ी को अपने पैरों से फँसा कर, फिर से उसी पेड़ की टहनी को अपने दोनों हाथों से पकड़ कर लेट अपने साथियों के लिए एक पुल का निर्माण कर लिया। फिर उसने चिल्ला कर अपने साथियों को अपने ऊपर चढ़कर बेतों वाली पहाड़ी पर कूद कर भाग जाने की आज्ञा दी। इस प्रकार महाकपि के बुद्धि कौशल से सारे वानर दूसरी तरफ की पहाड़ी पर कूद कर भाग गये।


राजा ने महाकपि के त्याग को बड़े गौर से देखा और सराहा । उसने अपने आदमियों को महाकपि को जिन्दा पकड़ लाने की आज्ञा दी।


उस समय महाकपि की हालत अत्यन्त गंभीर थी। साथी वानरों द्वारा कुचल जाने के कारण उसका सारा शरीर विदीर्ण हो उठा था। राजा ने उसके उपचार की सारी व्यवस्थता भी करवायी, मगर महाकपि की आँखें हमेशा के लिए बंद हो चुकी थीं।


संत भैंसा और नटखट बंदर-जातक कथा


हिमवंत के वन में कभी एक जंगली भैंसा रहता था। कीचड़ से सना, काला और बदबूदार। किंतु वह एक शीलवान भैंसा था। उसी वन में एक नटखट बंदर भी रहा करता था। शरारत करने में उसे बहुत आनंद आता था। मगर उससे भी अधिक आनंद उसे दूसरों को चिढ़ाने और परेशान करने में आता था। अत: स्वभावत: वह भैंसा को भी परेशान करता रहता था। कभी वह सोते में उसके ऊपर कूद पड़ता; कभी उसे घास चरने से रोकता तो कभी उसके सींगों को पकड़ कर कूदता हुआ नीचे उतर जाता तो कभी उसके ऊपर यमराज की तरह एक छड़ी लेकर सवारी कर लेता। भारतीय मिथक परम्पराओं में यमराज की सवारी भैंसा बतलाई जाती है।


उसी वन के एक वृक्ष पर एक यक्ष रहता था। उसे बंदन की छेड़खानी बिल्कुल पसन्द न थी। उसने कई बार बंदर को दंडित करने के लिए भैंसा को प्रेरित किया क्योंकि वह बलवान और बलिष्ठ भी था। किंतु भैंसा ऐसा मानता था कि किसी भी प्राणी को चोट पहुँचाना शीलत्व नहीं है; और दूसरों को चोट पहुँचाना सच्चे सुख का अवरोधक भी है। वह यह भी मानता था कि कोई भी प्राणी अपने कर्मों से मुक्त नहीं हो सकता। कर्मों का फल तो सदा मिलता ही है। अत: बंदर भी अपने बुरे कर्मों का फल एक दिन अवश्य पाएगा। और एक दिन ऐसा ही हुआ जबकि वह भैंसा घास चरता हुआ दूर किसी दूसरे वन में चला गया। संयोगवश उसी दिन एक दूसरा भैंसा पहले भैंसा के स्थान पर आकर चरने लगा। तभी उछलता कूदता बंदर भी उधर आ पहुँचा। बंदर ने आव देखी न ताव। पूर्ववत् वह दूसरे भैंसा के ऊपर चढ़ने की वैसी ही धृष्टता कर बैठा। किंतु दूसरे भैंसा ने बंदर की शरारत को सहन नहीं किया और उसी तत्काल जमीन पर पटक कर उसकी छाती में सींग घुसेड़ दिये और पैरों से उसे रौंद डाला । क्षण मात्र में ही बंदर के प्राण पखेरु उड़ गये।


सीलवा हाथी और लोभी मित्र-जातक कथा


कभी हिमालय के घने वनों में एक हाथी रहता था। उसका शरीर चांदी की तरह चमकीला और सफेद था। उसकी आँखें हीरे की तरह चमकदार थीं। उसकी सूंड सुहागा लगे सोने के समान कांतिमय थी। उसके चारों पैर तो मानो लाख के बने हुए थे। वह अस्सी हज़ार गजों का राजा भी था।


वन में विचरण करते हुए एक दिन सीलवा ने एक व्यक्ति को विलाप करते हुए देखा। उसकी भंगिमाओं से यह स्पष्ट था कि वह उस निर्जन वन में अपना मार्ग भूल बैठा था। सीलवा को उस व्यक्ति की दशा पर दया आयी। वह उसकी सहायता के लिए आगे बढ़ा। मगर व्यक्ति ने समझा कि हाथी उसे मारने आ रहा था। अत: वह दौड़कर भागने लगा। उसके भय को दूर करने के उद्देश्य से सीलवा बड़ी शालीनता से अपने स्थान पर खड़ा हो गया, जिससे भागता आदमी भी थम गया।


सीलवा ने ज्योंही पैर फिर आगे बढ़ाया वह आदमी फिर भाग खड़ा हुआ और जैसे ही सीलवा ने अपने पैर रोके वह आदमी भी रुक गया तीन बार जब सीलवा ने अपने उपक्रम को वैसे ही दो हराया तो भागते आदमी का भय भी भाग गया। वह समझ गया कि सीलवा कोई खतरनाक हाथी नहीं था। तब वह आदमी निर्भीक हो कर अपने स्थान पर स्थिर हो गया। सीलवा ने तब उसके पास पहुँचा कर उसकी सहायता का प्रस्ताव रखा। आदमी ने तत्काल उसके प्रस्ताव को स्वीकार किया। सीलवा ने उसे तब अपनी सूँड के उठाकर पीठ पर बिठा लिया और अपने निवास-स्थान पर ले जाकर नानाप्रकार के फलों से उसकी आवभगत की। अंतत: जब उस आदमी की भूख-प्यास का निवारण हो गया तो सीलवा ने उसे पुन: अपनी पीठ पर बिठा कर उस निर्जन वन के बाहर उसकी बस्ती के करीब लाकर छोड़ दिया।


वह आदमी लोभी और कृतघ्न था। तत्काल ही वह एक शहर के बाज़ार में एक बड़े व्यापारी से हाथी दाँत का सौदा कर आया। कुछ ही दिनों में वह आरी आदि औजार और रास्ते के लिए समुचित भोजन का प्रबन्ध कर सीलवा के निवास स्थान को प्रस्थान कर गया।


जब वह व्यक्ति से सीलवा के सामने पहँचा तो सीलवा ने उससे उसके पुनरागमन का उद्देश्य पूछा। उस व्यक्ति ने तब अपनी निर्धनता दूर करने के लिए उसके दाँतों की याचना की। उन दिनों सीलवा दान-पारमी होने की साधना कर रहा था। अत: उसने उस आदमी की याचना को सहर्ष स्वीकार कर लिया तथा उसकी सहायता के लिए घुटनों पर बैठ गया ताकि वह उसके दाँत काट सके।


उस व्यक्ति ने शहर लौटकर सीलवा के दांतों को बेचा और उनकी भरपूर कीमत भी पायी। मगर प्राप्त धन से उसकी तृष्णा और भी बलवती हो गयी। वह महीने भर में फिर सीलवा के पास पहुँच कर उसके शेष दांतों की याँचना कर बैठा। सीलवा ने उस पुन: अनुगृहीत किया।


कुछ ही दिनों के बाद वह लोभी फिर से सीलवा के पास पहुँचा और उसके शेष दांतों को भी निकाल कर ले जाने की इच्छा जताई। दान-परायण सीलवा ने उस व्यक्ति की इस याचना को भी सहर्ष स्वीकार कर लिया। फिर क्या था? क्षण भर में वह आदमी सीलवा के मसूढ़ों को काट-छेद कर उसके सारे दांत-समूल निकाल कर और अपने गन्तव्य को तत्काल प्रस्थान कर गया।


खून से लथपथ दर्द से व्याकुल कराहता सीलवा फिर जीवित न रह सका और कुछ समयोपरान्त दम तोड़ गया।


लौटता लोभी जब वन की सीमा भी नहीं पार कर पाया था तभी घरती अचानक फट गयी और वह आदमी काल के गाल में समा गया।


तभी वहाँ वास करती हुई एक वृक्ष यक्षिणी ने यह गान गाया।


मांगती है तृष्णा और.... और --- !

मिटा नहीं सकता जिसकी भूख को सारा संसार....

कपिराज-जातक कथा


कभी एक राजा के बगीचे में अनेक बंन्दर रहते थे और बड़ी स्वच्छंदता से वहाँ कूद-फांद करते थे।


एक दिन उस बगीचे के द्वार के नीचे राज-पुरोहित घूम रहा था। उस द्वार के ऊपर एक शरारती बंदर बैठा था। जैसे ही राज-पुरोहित उसके नीचे आया उसने उसके गंजे सर पर विष्ठा कर दि। अचम्भित हो पुरोहित ने चारों तरफ देखा, फिर खुले मुख से उसने ऊपर को देखा । बंदर ने तब उसके खुले मुख में ही मलोत्सर्ग कर दिया। क्रुद्ध पुरोहित ने जब उन्हें सबक सिखलाने की बात कही तो वहाँ बैठे सभी बंदरों ने दाँत किटकिटा कर उसका और भी मखौल उड़ाया।


कपिराज को जब यह बात मालूम हुई कि राजपुरोहित वहाँ रहने वाले वानरों से नाराज है, तो उसने तत्काल ही अपने साथियों को बगीचा छोड़ कहीं ओर कूच कर जाने ही सलाह दी । सभी बंदरों ने तो उसकी बात मान ली। और तत्काल वहाँ से प्रस्थान कर गये। मगर एक दम्भी मर्कट और उसके पाँच मित्रों ने कपिराज की सलाह को नहीं माना और वहीं रहते रहे।


कुछ ही दिनों के बाद राजा की एक दासी ने प्रासाद के रसोई घर के बाहर गीले चावल को सूखने के लिए डाले। एक भेड़ की उस पर नज़र पड़ी और वह चावल खाने को लपका । दासी ने जब भेड़ को चावल खाते देखा तो उसने अंगीठी से निकाल एक जलती लकड़ी से भेड़ को मारा, जिससे भेड़ के रोम जलने लगे। जलता भेड़ दौड़ता हुआ हाथी के अस्तबल पर पहुँचा, जिससे अस्तबल में आग लग गयी और अनेक हाथी जल गये।


राजा ने हाथियों के उपचार के लिए एक सभा बुलायी जिसमें राज-पुरोहित प्रमुख था। पुरोहित ने राजा को बताया कि बंदरों की चर्बी हाथियों के घाव के लिए कारगर मलहम है। फिर क्या था ! राजा ने अपने सिपाहियों को तुरन्त बंदरों की चर्बी लाने की आज्ञा दी। सिपाही बगीचे में गये और पलक झपकते उस दम्भी बंदर और उसके पाँच सौ साथियों को मार गिराया।


महाकपि और उसके साथी जो किसी अन्य बगीचे में रहते थे शेष जीवन का आनंद उठाते रहे।

 

कौवों की कहानी-जातक कथा


वर्षों पहले एक समुद्र में एक नर और एक मादा कौवा मदमस्त हो कर जल-क्रीड़ा कर रहे थे। तभी समुद्र की एक लौटती लहर में कौवी बह गयी, जिसे समुद्र की किसी मछली ने निगल लिया। नर कौवे को इससे बहुत दु:ख हुआ। वह चिल्ला-चिल्ला कर विलाप करने लगा। पल भर में सैंकड़ों कौवे भी वहाँ आ पहुँचे। जब अन्य कौवों ने उस दु:खद घटना को सुना तो वे भी जोर-जोर से काँव-काँव करने लगे।


तभी उन कौवों में एक ने कहा कि कौवे ऐसा विलाप क्यों करे ; वे तो समुद्र से भी ज्यादा शक्तिशाली हैं। क्यों न वे अपनी चोंच से समुद्र के पानी को उठा कर दूर फेंक दें। सारे कौवों ने इस बात को समुचित जाना और अपनी-अपनी चोंचों के समुद्र का पानी भर दूर तट पर छोड़ने लगे। साथ ही वे कौवी की प्रशंसा भी करते जाते।


एक कहता,” कौवी कितनी सुंदर थी।” दूसरा कहता, “कौवी की आवाज कितनी मीठी थी।” तीसरा कहता, “समुद्र की हिम्मत कैसे हुई कि वह उसे बहा ले जाय”। फिर कोई कहता, “हम लोग समुद्र को सबक सिखला कर ही रहेंगे।”


कौवों की बकवास समुद्रको बिल्कुल रास न आयी और उसने एक शक्तिशाली लहर में सभी कौवों को बहा दिया। 


महान मर्कट-जातक कथा


हिमवंत के निर्जन वन में कभी एक महान मर्कट रहा करता था। शीलवान्, दयावान और एकांतप्रिय वह सदा ही फल-फूल और सात्विक आहार के साथ अपना जीवन- यापन करता था।


एक दिन एक चरवाहा अपने जानवरों की खोज में रास्ता भूल उसी वन में भटक गया। भूख प्यास से व्याकुल जब उसने एक पेड़ की छाँव में विश्राम करना आरम्भ किया तभी उसकी नजर फलों से लदे एक तिंदुक के पेड़ पर पड़ी। पलक झपकते ही वह उस पेड़ पर जा चढ़ा। भूख की तड़प में उसने यह भी नहीं देखा कि उस पेड़ की एक जड़ पथरीली पहाड़ी की एक पतली दरार से निकलती थी और उसके निकट एक झरना बहता था। शीघ्र ही वह रसीलों फलों से लदी एक शाखा पर पहुँच गया मगर वह शाखा उसके बोझ को संभाल न सकी और टूट कर बहते झरने में जा गिरी। चरवाहा भी उसी प्रपात में जा गिरा। बहते पानी के साथ फिर वह एक ऐसे खड्ड में जा फँसा, जहाँ की चिकनी चट्टानों को पकड़ कर उसका या किसी भी आदमी का बाहर आ पाना असंभव था।


मृत्यु के भय से निकलती उस आदमी की चीखें उस निर्जन वन में गूंजने लगी। आदमी तो वहाँ कोई था भी नहीं जो उसकी पुकार सुन सके। हाँ, उसी वन में रहने वाले उस मर्कट ने उसके क्रन्दन को अवश्य सुना। दौड़ता हुआ वह शीघ्र ही वहाँ पहुँचा और आनन-फानन में कूदता हुआ उस खड्ड में पहुँच कर उस आदमी को खींचता हुआ बड़ी मुश्किल से झरने के बाहर ले आया। आदमी के बोझ से उसके अंग-प्रत्यंग में असीम पीड़ा हो रही थी। वह बेहोशी की हालत में था और विश्राम के लिए सोना चाहता था। इसी उद्देश्य से उसने आदमी को अपने पास बैठ रखवाली करने को कहा, क्योंकि उस वन में अनेक हिंस्त्र पशु भी विचरते थे।


जैसे ही मर्कट गहरी नींद में सोया, वह आदमी उठकर एक बड़ा-सा पत्थर उठा लाया क्योंकि वह सोच रहा था कि उस मर्कट के मांस से ही वह अपना निर्वाह कर सकेगा। ऐसा सोचकर उसने उस पत्थर को मर्कट के ऊपर पटक दिया। पत्थर मर्कट पर गिरा तो जरुर मगर इतनी क्षति नहीं पहुँचा सका कि तत्काल हो उसकी मृत्यु हो सके। असह्य पीड़ा से कराहते मर्कट ने जब अपनी आँखें खोली और अपने ऊपर गिरे पत्थर और उस आदमी की भंगिमाओं को देखा तो उसने क्षण में ही सारी बातें जान ली। आवाज में उसने उस आदमी को यह कहते हुए धिक्कारा :


“ओ आदमी ! जाता था तू दूसरी दुनिया को; आ गया मगर वापिस उस काल के गाल से; अब एक गर्त से निकल; तू है अब दूसरे गर्त गिरा; होता है जो और भी भयंकर; धिक्कार है तुम्हारे उस अज्ञान को; जिसने है दिखलाया तुम्हें यह क्रूरता और पाप भरा मार्ग; है वह सिर्फ तुम्हारा मोड़; जिसने दिखलाया है तुम्हें; झूठी आशाओं के छलावे को; नहीं देते मेरे घाव मुझे उतनी पीड़ा जितना है यह विचार- कि मेरे ही कारण अब तुम गिरे हो ऐसी गर्त में निकाल नहीं सकता तुम्हें वहाँ से मैं या कोई कभी।” घायल महान् मर्कट ने फिर भी उस व्यक्ति को उस वन से बाहर निकाल दिया।


कालान्तर में वह चरवाहा कुष्ठ रोग का शिकार हुआ। तब उसके सगे संबन्धी व गाँव वाले घर और गाँव से निर्वासित कर दिये कही और शरण ना पाए वह फिर से उसी वन में निवास करने लगा। उसके कर्मों की परिणति कुष्ठ रोग में हो चुकी थी, जिससे उसका शरीर गल रहा था; और पश्चाताप की अग्नि में उसका मन ! काश ! उसने वह कुकर्म न किया होता !


महान् मत्स्य-जातक कथा


श्रावस्ती के निकट जेतवन में कभी एक जलाशय हुआ करता था। उसमें एक विशाल मत्स्य का वास था। वह शीलवान्, दयावान् और शाकाहारी था।


उन्हीं दिनों सूखे के प्रकोप के उस जलाशय का जल सूखने लगा। फलत: वहाँ रहने वाले समस्त जीव-जन्तु त्राहि-त्राहि करने लगे। उस राज्य के फसल सूख गये । मछलियाँ और कछुए कीचड़ में दबने लगे और सहज ही अकाल-पीड़ित आदमी और पशु-पक्षियों के शिकार होने लगे । अपने साथियों की दुर्दशा देख उस महान मत्स्य की करुणा मुखर हो उठी । उसने तत्काल ही वर्षा देव पर्जुन का आह्मवान् अपनी सच्छकिरिया के द्वारा किया। पर्जुन से उसने कहा, “हे पर्जुन अगर मेरा व्रत और मेरे कर्म सत्य-संगत रहे हैं तो कृपया बारिश करें।” उसकी सच्छकिरिया अचूक सिद्ध हुई। वर्षा देव ने उसके आह्मवान् को स्वीकारा और सादर तत्काल भारी बारिश करवायी।

इस प्रकार उस महान और सत्यव्रती मत्स्य के प्रभाव से उस जलाशय के अनेक प्राणियों के प्राण बच गये।


सिंह और सियार-जातक कथा


वर्षों पहले हिमालय की किसी कन्दरा में एक बलिष्ठ शेर रहा करता था। एक दिन वह एक भैंसे का शिकार और भक्षण कर अपनी गुफा को लौट रहा था। तभी रास्ते में उसे एक मरियल-सा सियार मिला जिसने उसे लेटकर दण्डवत् प्रणाम किया। जब शेर ने उससे ऐसा करने का कारण पूछा तो उसने कहा, “सरकार मैं आपका सेवक बनना चाहता हूँ । कुपया मुझे आप अपनी शरण में ले लें । मैं आपकी सेवा करुँगा और आपके द्वारा छोड़े गये शिकार से अपना गुजर-बसर कर लूंगा।” शेर ने उसकी बात मान ली और उसे मित्रवत् अपनी शरण में रखा।


कुछ ही दिनों में शेर द्वारा छोड़े गये शिकार को खा-खा कर वह सियार बहुत मोटा हो गया। प्रतिदिन सिंह के पराक्रम को देख-देख उसने भी स्वयं को सिंह का प्रतिरुप मान लिया। एक दिन उसने सिंह से कहा, “अरे सिंह ! मैं भी अब तुम्हारी तरह शक्तिशाली हो गया हूँ। आज मैं एक हाथी का शिकार करुँगा और उसका भक्षण करुँगा और उसके बचे-खुचे माँस को तुम्हारे लिए छोड़ दूँगा।” चूँकि सिंह उस सियार को मित्रवत् देखता था, इसलिए उसने उसकी बातों का बुरा न मान उसे ऐसा करने से रोका। भ्रम-जाल में फँसा वह दम्भी सियार सिंह के परामर्श को अस्वीकार करता हुआ पहाड़ की चोटी पर जा खड़ा हुआ। वहाँ से उसने चारों और नज़रें दौड़ाई तो पहाड़ के नीचे हाथियों के एक छोटे से समूह को देखा। फिर सिंह-नाद की तरह तीन बार सियार की आवाजें लगा कर एक बड़े हाथी के ऊपर कूद पड़ा। किन्तु हाथी के सिर के ऊपर न गिर वह उसके पैरों पर जा गिरा। और हाथी अपनी मस्तानी चाल से अपना अगला पैर उसके सिर के ऊपर रख आगे बढ़ गया। क्षण भर में सियार का सिर चकनाचूर हो गया और उसके प्राण पखेरु उड़ गये।


पहाड़ के ऊपर से सियार की सारी हरकतें देखता हुआ सिंह ने तब यह गाथा कही –


"होते हैं जो मूर्ख और घमण्डी

होती है उनकी ऐसी ही गति।"


सोमदन्त-जातक कथा


हिमालय के वन में निवास करते एक सन्यासी ने हाथी के एक बच्चे को अकेला पाया । उसे उस बच्चे पर दया आयी और वह उसे अपनी कुटिया में ले आया। कुछ ही दिनों में उसे उस बच्चे से मोह हो गया और बड़े ममत्व से वह उसका पालन-पोषण करने लगा। प्यार से वह उसे सोमदन्त पुकारने लगा और उसके खान-पान के लिए प्रचुर सामग्री जुटा देता।


एक दिन जब सन्यासी कुटिया से बाहर गया हुआ था तो सोमदन्त ने अकेले में खूब खाना खाया। तरह-तरह के फलों के स्वाद में उसने यह भी नहीं जाना कि उसे कितना खाना चाहिए । वहाँ कोई उसे रोकने वाला भी तो नहीं था। वह तब तक खाता ही चला गया जब तक कि उसका पेट न फट गया। पेट फटने के तुरन्त बाद ही उसकी मृत्यु हो गयी।


शाम को जब वह सन्यासी वापिस कुटिया आया तो उसने वहाँ सोमदन्त को मृत पाया। सोमदन्त से वियोग उसके लिए असह्य था। उसके दु:ख की सीमा न रही। वह जोर-जोर से रोने-बिलखने लगा। सक्क (शक्र; इन्द्र) ने जब उस जैसे सन्यासी को रोते-बिलखते देखा तो वह उसे समझाने नीचे आया। सक्क ने कहा, हे सन्यासी ! तुम एक धनी गृहस्थ थे । मगर संसार के मोह को त्याग तुम आज एक सन्यासी बन चुके हो । क्या संसार और संसार के प्रति तुम्हारा मोह उचित है” सक्क के प्रश्न का उत्तर उस सन्यासी के पास था। उसे तत्काल ही अपनी मूर्खता और मोह का ज्ञान हो गया। मृत सोमदन्त के लिए उसने तब विलाप करना बन्द कर दिया।


कालबाहु- जातक कथा


एक बार किसी ने दो तोते-भाइयों को पकड़ कर एक राजा को भेंट में दिया। तोतों के गुण और वर्ण से प्रसन्न हो राजा ने उन्हें सोने के पिंजरे में रखा, उनका यथोचित सत्कार करवाया और प्रतिदिन शहद और भुने मक्के का भोजन करवाता रहा। उन तोतों में बड़े का नाम राधा और छोटे का नाम पोट्ठपाद था।


एक दिन एक वनवासी राजा को एक काले, भयानक बड़े-बड़े हाथों वाला एक लंगूर भेंट में दे गया। वह लंगूर सामान्यत: एक दुर्लभ प्राणी था। इसलिए लोग उस विचित्र प्राणी को देखने को टूट पड़ते। लंगूर के आगमन से तोतों के प्रति लोगों का आकर्षण कम होता गया ; और उनके सरकार का भी।


लोगों के बदलते रुख से खिन्न हो पोट्ठपाद खुद को अपमानित महसूस करने लगा और रात में उसने अपने मन की पीड़ा राधा को कह सुनाई। राधा ने अपने छोटे भाई को ढाढस बँधाते हुए समझाया,” भाई ! चिंतित न हो ! गुणों की सर्वत्र पूजा होती है। शीघ्र ही इस लंगूर के गुण दुनिया वालों के सामने प्रकट होंगे और तब लोग उससे विमुख हो जाएंगे।”


कुछ दिनों के बाद ऐसा ही हुआ जब नन्हें राजकुमार उस लंगूर से खेलना चाहते थे; इस तो लंगूर ने अपना भयानक मुख फाड़, दाँतें किटकिटा कर इतनी जोर से डराया कि वे चीख-चीख कर रोने लगे। बच्चों के भय और रुदन की सूचना जब राजा के कानों पर पड़ी तो उसने तत्काल ही लंगूर को जंगल में छुड़वा दिया।


उस दिन के बाद से राधा और पोट्ठपाद की आवभगत फिर से पूर्ववत् होती रही।


नन्दीविसाल-जातक कथा


दान में प्राप्त बछड़े को एक ब्राह्मण ने बड़े ही ममत्व के साथ पाला-पोसा और उसका नाम नन्दीविसाल रखा । कुछ ही दिनों में वह बछड़ा एक बलिष्ठ बैल बन गया ।


नन्दीविसाल बलिष्ठ ही नहीं एक बुद्धिमान और स्वामिभक्त बैल था । उसने एक दिन ब्राह्मण के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए कहा, ” हे ब्राह्मण ! आपने वर्षों मेरा पालन-पोषण किया है। आपने तन-मन और धन से मेरा उपकार किया है। मैं आपका ॠणी हूँ । अत: आपके उपकार के बदले में आपके प्रचुर धन-लाभ के लिए सहायता करना चाहता हूँ, और एक युक्ति सुझाता हूँ। चूँकि मेरे जैसे बलिष्ठ बैल इस संसार में अन्यत्र कहीं नहीं है, इसलिए हाट जाकर आप हज़ार स्वर्ण मुद्राओं की सट्टा लगाएँ कि आपका बैल सौ बड़ी-बड़ी गाड़ियों का बोझ इकट्ठा खींच सकता है।”


ब्राह्मण को वह युक्ति पसन्द आयी और बड़े साहूकारों के साथ उसने बाजी लगा ली। पूरी तैयारी के साथ जैसे ही नन्दीविसाल ने सौ भरी गाड़ियों को खींचने की भंगिमा बनाई, ब्राह्मण ने तभी नन्दीविसाल को गाली देते हुए कहा, ” दुष्ट ! खींच-खींच इन गाड़ियों को फटाफट।” नन्दी को ब्राह्मण की भाषा पसन्द नहीं आई। वह रुष्ट होकर वहीं जमीन पर बैठ गया। फिर ब्राह्मण ने हज़ारों युक्तियाँ उसे उठाने के लिए लगाई । मगर वह टस से मस न हुआ। साहूकारों ने ब्राह्मण का अच्छा मज़ाक बनाया और उससे उसकी हज़ार स्वर्ण-मुद्राएँ भी ले गये । दु:ख और अपमान से प्रताड़ित वह हारा जुआरी अपने घर पर पड़ी एक खाट पर लेटकर विलाप करने लगा।


तब नन्दीविसाल को उस ब्राह्मण पर दया आ गयी। वह उसके पास गया और पूछा, ” हे ब्राह्मण क्या मैं ने आपके घर पर कभी भी किसी चीज का कोई भी नुकसान कराया है या कोई दुष्टता या धृष्टता की है?” ब्राह्मण ने जब “नहीं” में सिर हिलाया तो उसने पूछा, ” क्यों आपने मुझे सभी के सामने भरे बाजार में दुष्ट कह कर पुकारा था। ब्राह्मण को तब अपनी मूर्खता का ज्ञान हो गया। उसने बैल से क्षमा मांगी। तब नन्दी ने ब्राह्मण को दो हज़ार स्वर्ण-मुद्राओं का सट्टा लगाने को कहा।


दूसरे दिन ब्राह्मण ने एक बार फिर भीड़ जुटाई और दो हज़ार स्वर्ण मुद्राओं के दाँव के साथ नन्दीविसाल को बोझ से लदे सौ गाड़ियों को खींचने का आग्रह किया। बलिष्ठ नन्दीविसाल ने तब पलक झपकते ही उन सारी गाड़ियों को बड़ी आसानी से खींच कर दूर ले गया।


ब्राह्मण ने तब दो हज़ार स्वर्ण मुद्राओं को सहज ही प्राप्त कर लिया।


चमड़े की धोती-जातक कथा


कभी किसी ने एक घमण्डी साधु को चमड़े की धोती दान में दे दी जिसे पहन कर वह साधु अपने को अन्य साधुओं से श्रेष्ठ समझाने लगा।


एक दिन वह उसी वस्र को पहन कर भिक्षाटन के लिए घूम रहा था। रास्ते में उसे एक बड़ा सा जंगली भेड़ मिला। वह भेड़ पीछे को जाकर अपना सिर झटक-झटक कर नीचे करने लगा। साधु ने समझा कि निश्चय ही वह भेड़ झुक कर उसका अभिवादन करना चाहता था, क्योंकि वह एक श्रेष्ठ साधु था; जिसके पास चमड़े के वस्र थे।


तभी दूर से एक व्यापारी ने साधु को आगाह करते हुए कहा: “हे ब्राह्मण! मत कर तू विश्वास किसी जानवर का; बनते है; वे तुम्हारे पतन का कारण, जाकर भी पीछे वे मुड़ कर करते हैं आक्रमण।”


राहगीर के इतना कहते-कहते ही उस जंगली भेड़ ने साधु पर अपने नुकीले सींग से आक्रमण कर नीचे गिरा दिया। साधु का पेट फट गया और क्षण भर में ही उसने अपना दम तोड़ दिया।


निग्रोध मृग-जातक कथा


वाराणसी के वनों में कभी एक सुवर्ण मृग रहता था । उसकी आँखों रत्न-सी चमकीली ; सींग रजत की कांति लिए हुए तथा उसका शरीर अन्य हिरणों से अधिक बड़ा और सुंदर था। वह पाँच सौ मृगों का राजा था और उसे निग्रोधराज के नाम से पुकारा जाता था। उसी वन में उसी के सदृश एक और हिरण रहता था। वह भी पाँच सौ मृगों का राजा था। उसका नाम साखा था।


उन दिनों वाराणसी-नरेश को हिरण का मांस बहुत प्रिय था। हर रोज उसे हिरण के मांस के नये-नये व्यंजन खाने का शौक था। राजा के अनुचर इससे बहुत परेशान रहते थे, क्योंकि हिरण बड़े चौकन्ने और बड़ी तेज चौकड़ियाँ होते हैं; क्षण भर में आँखों से ओझल हो जाते थे। अत: एक दिन राजा के आदमियों ने प्रतिदिन हिरण के पीछे न भागने का एक निदान ढूँढ़ निकाला। उन लोगों ने वन से नगर को जाने वाली एक पगडंडी को छोड़ सारे को चारों तरफ से घेर लिया और ढोल-बाजे के साथ वन केन्द्र को बढ़ने लगे। तब सारे मृग नगर को जाने वाली पगडंडी से होते हुए राजा के एक उद्यान में इकट्ठे हो गये। जैसे ही सारे मृग उद्यान में पहुँचे, लोगों ने उद्यान-द्वार बन्द कर दिया। उन्हीं मृगों के बीच दो स्वर्ण-मृग भी थे। राजा ने जब उनकी चर्चा सुनी तो स्वयं भी वह उन्हें देखने आया तथा उनकी विशिष्टता के कारण उन्हें प्राण-दान दे दिया।


उस दिन के पश्चात् जब भी राजा के अनुचर किसी हिरण को मारने आते तो उनके आगमन से डर कर हिरण जहाँ-तहाँ भाग-दौड़ करने लगते जिसके कारण एक हिरण के स्थान पर अनेक हिरण मारे जाते या घायल हो जाते। इस आपदा से बचने के लिए हिरणों ने एक सभा की और तय किया कि प्रतिदिन एक हिरण राजा के घात-स्थान पर स्वयं जा कर अपना बलिदान करे। राजा के अनुचरों को भी हिरणों के सहयोग से प्रसन्नता हुई और वे केवल आये हुए वध्य हिरण के ही प्राण हरते थे।


एक दिन एक मादा हिरणी की बारी आयी। उसके पेट में एक नन्हा हिरण पल रहा था। चूँकि वह साखा हिरण की झुण्ड में रहती थी इसलिए वह अपने राजा के पास जाकर अपने बदले किसी और को भेजने की प्रार्थना करने लगी। शाखा हिरण ने उसकी बात को यह कहते हुए ठुकरा दिया कि कानून में परिवर्तन संभव नहीं था। रोती बिलखती वह हिरणी फिर निग्रोधराज के पास पहुँची और उसके सामने भी अपनी प्रार्थना दुहरायी। निग्रोधराज ने तब उसकी सहायता के लिए अपने प्राणों की बलि देना उचित समझा।


अगले दिन जब राजा के अनुचरों ने वध्य-स्थान पर एक स्वर्ण मृग को मरने के लिए तैयार खड़ा पाया तो उक्त घटना की सूचना तत्काल राजा को पहुँचायी। प्राण-दान पाकर भी वह हिरण क्यों मृत्यु के लिए तत्पर था इसका कारण राजा ने जानना चाहा। इसलिए उसने तत्काल घटना-स्थल पर पहुँच कर निग्रोधराज से उसकी मृत्यु की तत्परता का कारण जानना चाहा। निग्रोधराज ने तब उसे गर्भिणी हिरणी की कथा सुनायी। जिसे सुनकर राजा ने उसके साथ उस गर्भवती हिरणी को भी अभय-दान दिया। निग्रोधराज ने फिर अन्य हिरणों के विषय में पूछा कि उनके प्राणों के लिए राजा क्या करना चाहेंगे। राजा ने तब कहा, ” उन्हें भी प्राण-दान प्राप्त होगा”। निग्रोध ने पूछा, ” शेष जानवरों के प्राणों का क्या होगा?” राजा ने कहा, ” उन्हें भी जीवन-दान मिलेगा।” मृग ने फिर पंछी और जलचरों के प्राणों के विषय में भी पूछा। राजा ने तब अपने राज्य में रहने वाले समस्त पक्षी और मत्स्य आदि की अवध्यता की घोषणा कर दी।” और जब तक वह राजा जीवित रहा, उसके राज्य में किसी भी जीव-जन्तु की हत्या नहीं की गई।


श्राद्ध-संभोजन-जातक कथा


श्राद्ध-भोज के लिए किसी ब्राह्मण ने एक बार एक बकरे की बलि चढ़ाने की तैयारी आरंभ की । उसके शिष्य बकरे को नदी में स्नान कराने ले गये । नहाने के समय बकरा एकाएक बडी जोर से हँसने लगा ; फिर तत्काल दु:ख के आँसू बहाने लगा । उसके विचित्र व्यवहार से चकित हो कर शिष्यों ने उससे जब ऐसा करने का कारण जानना चाहा तो बकरे ने कहा कि कारण वह उनके गुरु के सामने ही बताएगा।


ब्राह्मण के सामने बकरे ने यह बतलाया कि वह भी कभी एक ब्राह्मण-पुरोहित था और एक बार उसने भी एक बकरे की बलि चढ़ायी थी, जिसकी सज़ा वह आज तक पा रहा था । तब से चार सौ निन्यानवे जन्मों में उसका गला काटा जा चुका था और अब उसका गले कटने की अंतिम बारी है। इस बार उसे एक बुरे कर्म का अंतिम दंड भुगतना था, इसलिए वह प्रसन्न होकर हँस रहा था। किन्तु वह दु:खी हो कर इसलिए रोया था कि अगली बार से उस ब्राह्मण के भी सिर पाँच सौ बार काटे जाएंगे।


ब्राह्मण ने उसकी बात को गंभीरता से लिया और उसके बलि की योजना स्थगित कर दी तथा अपने शिष्यों से उसे पूर्ण संरक्षण की आज्ञा दी । किन्तु बकरे ने ब्राह्मण से कहा कि ऐसा संभव नहीं था क्योंकि कोई भी संरक्षण उसके कर्मों के विपाक को नष्ट नहीं कर सकते क्योंकि कोई भी प्राणी अपने कर्मों से मुक्त नहीं हो सकता ।


जब शिष्य-गण उस बकरे को ले कर उसे यथोचित स्थान पर पहुँचाने जा रहे थे । तभी रास्ते में किनारे एक पेड़ के शाखा पर नर्म-नर्म पत्तों को देख ज्योंही बकरे ने अपना सिर ऊपर किया, तभी एक वज्रपात हुआ और पेड़ के ऊपर पहाड़ी पर स्थित एक बड़े चट्टान के कई टुकड़े छिटके। एक बड़ा टुकड़ा उस बकरे के सिर पर इतनी ज़ोर से आ लगा कि पलक झपकते ही उसका सिर धड़ से अलग हो गया ।


उल्लू का राज्याभिषेक-जातक कथा


कौवों और उल्लुओं की शत्रुता बड़ी पुरानी है । जैसे मनुष्यों ने एक सर्वगुण-सम्पन्न पुरुष को अपना अधिपति बनाते हैं; जानवरों ने सिंह को ; तथा मछलियों ने एक विशाल मत्स्य को । इससे प्रेरित हो कर पंछियों ने भी एक सभा की और उल्लू को भारी मत से राजा बनाने का प्रस्ताव रखा ।


राज्याभिषेक के ठीक पूर्व पंछियों ने दो बार घोषणा भी की कि उल्लू उनका राजा है किन्तु अभिषेक के ठीक पूर्व जब वे तीसरी बार घोषणा करने जा रहे थे तो कौवे ने काँव-काँव कर उनकी घोषणा का विरोध किया और कहा क्यों ऐसे पक्षी को राजा बनाया जा रहा था जो देखने से क्रोधी प्रकृति का है और जिसकी एक वक्र दृष्टि से ही लोग गर्म हांडी में रखे तिल की तरह फूटने लगते हैं । कौवे के इस विरोध को उल्लू सहन न कर सका और उसी समय वह उसे मारने के लिए झपटा और उसके पीछे-पीछे भागने लगा। तब पंछियों ने भी सोचा की उल्लू राजा बनने के योग्य नहीं था क्योंकि वह अपने क्रोध को नियंत्रित नहीं कर सकता था। अत: उन्होंने हंस को अपना राजा बनाया।


किन्तु उल्लू और कौवों की शत्रुता तभी से आज तक चलती आ रही है।


वानर-बन्धु-जातक कथा


हिम-वन में कभी दो वानर-बन्धु रहते थे । बड़े का नाम नंदक और छोटे का नाम चुल्लनंदक था। वे दोनों वहाँ रहने वाले अस्सी हज़ार वानरों के मुखिया थे।


एक बार वे दोनों वानर-बन्धु अपने साथियों के साथ कूदते-फाँदते किसी दूरस्थ वन में चले गये ; और अपने साथियों के साथ नये-नये के फलों का आनन्द लेते रहे । उनकी बूढ़ी माँ भी थी, जो वृद्धावस्था में कूद-फाँद नहीं कर सकती थी। इसलिए वह हिमवा के वन में ही रहा करती थी। दोनों ही वानर-बन्धु अपनी माता का भरपूर ध्यान भी रखते थे । अत: वे नये वन से भी अपने अनुचरों के हाथों अपनी माता के लिए फलादि भिजवाते रहे।


कुछ दिनों के बाद जब दोनों वानर-बन्धु हिमवा स्थित अपने घर पहुँचे तो उन्होंने अपनी माता को कंकाल के रुप में पाया ; वह बिल्कुल हड्डी की ठठरी बन चुकी थी। उसने कई दिनों से कुछ भी नहीं खाया था। उनके द्वारा भेजे गये फल भी उस बूढ़ी और रुग्ण माता तक नहीं पहुँचा थे, क्योंकि साथी बंदरों ने वे फल रास्ते में ही चट कर लिए थे।


अपनी माता की दयनीय दशा को देखकर उन दोनों बन्दरों ने शेष बन्दरों से दूर रहना उचित समझा और अपनी माता के साथ एक नये स्थान पर डेरा डाला।


एक दिन उस वन में एक शिकारी आया। उसे देखते ही दोनों वानर पेड़ के घने पत्तों के पीछे छुप गये। किन्तु उनकी वृद्धा माता जिसे आँखों से भी कम दीखता था उस व्याध को नहीं देख सकी।


व्याध एक ब्राह्मण था जो कभी तक्षशिला के विश्वविख्यात गुरु परासरीय का छात्र रह चुका था ; किंतु अपने अवगुणों के कारण वहाँ से निकाला जा चुका था। जैसे ही व्याध की दृष्टि बूढ़ी बंदरिया पर पड़ी उसने उसपर तीर से मारना चाहा। अपनी माता के प्राणों की रक्षा हेतू नंदक कूदता हुआ व्याध के सामने “आ खड़ा हुआ और कहा, हे व्याध ! तुम मेरे प्राण ले लो मगर मेरी माता का संहार न करो।’ व्याध ने नंदक की बात मान ली और एक ही तीर में उसे मार डाला। दुष्ट व्याध ने नंदक को दिये गये वचन का उल्लंघन करते हुए फिर से उस बूढ़ी मर्कटी पर तीर का निशाना लगाना चाहा । इस बार छोटा भाई चुल्लनंदक कूदता हुआ उसके सामने आ खड़ा हुआ। उसने भी अपने भाई की तरह व्याध से कहा, हे व्याध ! तू मेरे प्राण ले ले, मगर मेरी माता को न मार।” व्याध ने कहा, “ठीक है ऐसा ही करुंगा” और देखते ही देखते उसने उसी तीर से चुल्लनंदक को भी मार डाला। फिर अपने वचन का पालन न करते हुए उसने अपने तरकश से एक और तीर निकाला और बूढ़ी मर्कटी को भी भेद डाला।


तीन बन्दरों का शिकार कर वह व्याध बहुत प्रसन्न था, क्योंकि उसने एक ही दिन में उनका शिकार किया था। यथाशीघ्र वह अपने घर पहुँच कर अपनी पत्नी और बच्चों को अपना पराक्रम दिखाना चाहता था। जैसे ही वह अपने घर के करीब पहुँच रहा था, उसे सूचना मिली कि एक वज्रपात से उसका घर ध्वस्त हो चुका था और उसके परिवार वाले भी मारे जा चुके थे। अपने परिजनों के वियोग को उसके मन ने नहीं स्वीकारा। फिर भी विस्मय और उन्माद में दौड़ता हुआ वह अपने तीर, शिकार व अपने कपड़ों तक छोड़ जैसे ही अपने जले हुए घर में प्रवेश किया तो एक जली हुई बौंस भरभरा कर गिर पड़ी और उसके साथ उसके घर के छत का बड़ा भाग ठीक उसके सिर पर गिरा और तत्काल उसकी मृत्यु हो गयी।


बाद में कुछ लोगों ने उपर्युक्त घटना-चक्र का आखों-खा वृतांत सुनाया। उनका कहना था कि ज्योंही ही व्याध ने अपने घर में प्रवेश किया धरती फट गयी और उसमें से आग की भयंकर लपटें उठीं जिस में वह स्वाहा हो गया। हाँ, मरते वक्त उसने तक्षशिला के गुरु की यह बात अवश्य दुहरायी थी:-


अब आती है याद मुझे

गुरुदेव की वह शिक्षा

बनो श्रम्रादी

और करो नहीं कभी ऐसा

जिससे पश्चाताप की अग्नि में

पड़े तुम्हें जलना।


बंदर का हृदय-जातक कथा


किसी नदी के तट पर एक वन था। उस वन में एक बंदर निवास करता था, जो वन के फल आदि खा कर अपना निर्वाह करता था। नदी में एक टापू भी था और टापू और तट के बीच में एक बड़ी सी चट्टान भी थी। जब कभी बंदर को टापू के फल खाने की इच्छा होती वह उस चट्टान पर उस टापू पर पहुँच जाता और जी भर अपने मनचाहे फलों का आनंद उठाता।


उसी नदी में घड़ियालों का एक जोड़ी भी रहती थी। जब भी वह उस हृष्ट-पुष्ट बंदर को मीठे-रसीले फलों का आनंद उठाते देखती तो उसके मन में उस बंदर के हृदय को खाने की तीव्र इच्छा उठती। एक दिन उसने नर घड़ियाल से कहा, “प्रिय ! अगर तुम मुझसे प्रेम करते हो तो मुझे उसका हृदय खिला कर दिखा दो,” नर घड़ियाल ने उसकी बात मान ली।


दूसरे दिन बंदर जैसे ही टापू पर पहुँचा नर-घड़ियाल टापू और तट के बीच के चट्टान के निचले हिस्से पर चिपक गया। वह बंदर एक बुद्धिमान प्राणी था । शाम के समय जब वह लौटने लगा और तट और टापू के बीच के चट्टान को देखा तो उसे चट्टान की आकृति में कुछ परिवर्तन दिखाई पड़ा । उसने तत्काल समझ लिया कि जरुर कुछ गड़बड़ी है । तथ्य का पता लगाने के लिए उसने चट्टान को नमस्कारकरते हुए कहा, “हे चट्टान मित्र ! आज तुम शांत कैसे हो ? मेरा अभिवादन भी स्वीकार नहीं कर रही हो ? ” घड़ियाल ने समझा, शायद चट्टान और बंदर हमेशा बात करते रहते हैं इसलिए उसने स्वर बदल कर बंदर के नमस्कार का प्रत्युत्तर दे डाला । बंदर की आशंका सत्य निकली । बंदर टापू में ही रुक तो सकता था मगर टापू में उसके निर्वाह के लिए पर्याप्त आहार उपलब्ध नहीं था। जीविका के लिए उसका वापिस वन लौटना अनिवार्य था। अत: अपनी परेशानी का निदान ढूंढते हुए उसने घड़ियाल से कहा, “मित्र! चट्टान तो कभी बातें नहीं करती ! तुम कौन हो और क्या चाहते हो?” दम्भी घड़ियाल ने तब उसके सामने प्रकट हो कहा, ” ओ बंदर ! मैं एक घड़ियाल हूँ और तुम्हारा हृदय अपनी पत्नी को खिलाना चाहता हूँ । ” तभी बंदर को एक युक्ति सूझी । उसने कहा, ” हे घड़ियाल ! बस इतनी सी बात है तो तुम तत्काल अपनी मुख खोल दो, मैं सहर्ष ही अपने नश्वर शरीर को तुम्हें अर्पित करता हूँ।” बंदर ने ऐसा इसलिए कहा कि वह जानता था कि जब घड़ियाल मुख खोलते हैं, तो उनकी आँखें बंद हो जाती हैं।


फिर जैसे ही घड़ियाल ने अपना मुख खोला, बंदर ने तेजी से एक छलांग उसके सिर पर मारी और दूसरी छलांग में नदी के तट पर जा पहुँचा।


इस प्रकार अपनी सूझ-बूझ और बुद्धिमानी से बंदर ने अपने प्राण बचा लिए ।

 


बुद्धिमान् मुर्गा-जातक कथा


अपने सैकड़ों रिश्तेदारों के साथ किसी वन में एक मुर्गा रहता था । अन्य मुर्गों से वह कहीं ज्यादा बड़ा और हृष्ट-पुष्ट भी था । उसी वन में एक जंगली बिल्ली रहती थी । उसने मुर्गे के कई रिश्तेदारों को मार कर चट कर लिया था । उसकी नज़र अब उस मोटे मुर्गे पर थी । अनेक यत्न करने पर भी वह उसे पकड़ नहीं पाती थी । अँतत: उस ने जुगत लगाई और एक दिन उस पेड़ के नीचे पहुँची जिसके ऊपर वह मुर्गा बैठा हुआ था । बिल्ली ने कहा, ” हे मुर्गे ! मैं तुमसे प्यार करती हूँ । तुम्हारी सुन्दरता पर मुग्ध हूँ । तुम्हारे पंख और कलगी बडे आकर्षक हैं । मुझे तुम अपनी पत्नी स्वीकार करो और तत्काल नीचे आ जाओ, ताकि मैं तुम्हारी सेवा कर सकूँ।


मुर्गा बड़ा बुद्धिमान् था। उसने कहा :-


"ओ बिल्ली ! तेरे हैं चार पैर

मेरे हैं दो

ढूँढ ले कोई और वर

तू है क्योंकि

सुन्दर

होते नहीं कभी एक

पक्षी और जंगली जानवर।"


बिल्ली ने मुर्गे को जब फिर से फुसलाना चाहा तो मुर्गे ने उससे कहा,


"ओ बिल्ली तूने मेरे रिश्तेदारों का

खून पिया है। मेरे लिए भी तेरे मन में

कोई दया-भाव नहीं है। तू फिर क्यों

मेरी पत्नी बनने की इच्छा जाहिर कर रही है ?"


मुर्गे के मुख से कटु सत्य को सुनकर और स्वयं के ठुकराये जाने की शर्म से वह बिल्ली उस जगह से तत्काल प्रस्थान कर गयी, और उस पेड़ के आस-पास फिर कभी भी दिखाई नहीं पड़ी।


कबूतर और कौवा-जातक कथा


प्राचीन ‎भारत में कई बार लोग पक्षियों के आवागमन के लिए घर के आस-पास दानों से भर कर टोकरियाँ लटका रखते थे। राजा के कोषाध्यक्ष के रसोइयों ने भी ऐसा कर रखा था। उन्हीं टोकरियों में से एक में एक कबूतर ने डेरा जमा रखा था जो रात भर तो उसमें रहता फिर शाम ढलते ही वापस अपनी टोकरी में लौट आता।


एक दिन एक कौवा भी वहाँ के रसोई-घर से आती हुई पकते मांसादि की सुगन्ध से आकर्षित हो कबूतर की टोकरी में आ बैठा और प्रेमपूर्वक वार्तालाप करने लगा। कौवे की चिकनी-चुपड़ी बातों में आकर कबूतर ने उसे आतिथ्य प्रदान किया किन्तु यह चेतावनी भी दी कि रसोई घर से उन्हें कुछ भी नहीं चुराना चाहिए।


रसोइयों ने जब दोनों पक्षियों को साथ-साथ देखा तो उन्होंने तत्काल कौवे के लिए भी एक टोकरी, कबूतर की टोकरी के पास लटका दी, यह सोचते हुए कि ऐसा करने से दोनों मित्रों को बातचीत करते रहने के और भी अच्छे अवसर मिलेंगे ।


दूसरे दिन कबूतर जब तड़के ही उड़कर दूर निकल गया तो कौवा अपने वास-स्थान पर दुबका पड़ा रहा। उस दिन रसोइयों ने मछली पकाना आरंभ किया। पकती मछली की सुगन्ध से कौवे के मुख में पानी भर-भर आता।


समय-समय पर वह टोकरी के बाहर सिर निकालता और माँस चुराने का मौका तलाशता। एक बार उसने जब देखा कि रसोई घर के रसोइये थोड़ी देर के लिए धूम्रपान के लिए बाहर निकले हुए थे, तब वह उड़ता हुआ नीचे आया और पकते मांस के एक बड़े से टुकड़े पर चोंच मार दी जिससे हांड़ी के ऊपर रखा कड़छुल नीचे गिर गया । गिरे कड़छुल की आवाज़ सुन एक रसोइया दौड़ता हुआ नीचे आया और कौवे की चोरी पकड़ ली । उसने तत्काल रसोई घर का द्वार बंद कर कौवे को धर दबोचा और बड़ी बेरहमी से उसके पंखों को नोच उसे मिर्च-मसालों में लपेट कर बाहर फेंक दिया। थोड़ी ही देर में कौवे के प्राण निकल गये।


शाम को कबूतर जब अपने निवास-स्थान को लौटा तो उसने कौवे के पंख और मृत देह को बाहर फेंका हुआ पाया । उसने तत्काल समझ लिया कि कौवा अपने लोभ का शिकार हो चुका था । कबूतर एक समझदार और दूरदर्शी पक्षी था । वह तत्काल उस स्थान को छोड़, दूसरे स्थान को प्रस्थान कर गया क्योंकि हर कोई अपने साथियों की मूर्खता के दण्ड का भागी हो सकता है।


रोमक कबूतर-जातक कथा


हिमालय पर्वत की किसी कंदरा में कभी रोमक नाम का एक कपोत रहता था। शीलवान्, गुणवान् और अतिमान वह सैकडों कपोतों का राजा भी था। उस पहाड़ के निकट ही एक सँयासी की कुटिया थी। रोमक प्राय: उस सँयासी के पास जाता और उसके प्रवचन का आनन्द उठाया करता था ।


एक दिन वह सँयासी अपनी उस कुटिया को छोड़ किसी दूसरी जगह चला गया । कुछ दिनों के बाद उसी कुटिया में एक पाखण्डी सँयासी के भेष में आकर वास करने लगा । वह आदमी अक्सर ही पास की बस्ती में जाता, लोगों को ठगता और उनके यहाँ अच्छे-अच्छे भोजन कर सुविधापूर्वक जीवन बिताता । एक बार जब वह किसी धनिक गृहस्थ के घर में माँस आदि का भक्षण कर रहा था तो उसे कबूतर का मसालेदार माँस बहुत भाया । उसने यह निश्चय किया कि क्यों न वह अपनी कुटिया में जाकर आस-पास के कबूतरों को पकड़ वैसा ही व्यञ्जन बनाए ।


दूसरे दिन तड़के ही वह मसाले, अंगीठी आदि की समुचित व्यवस्था कर तथा अपने वस्रों के अंदर एक मजबूत डंडे को छिपा कर कबूतरों के इंतजार में कुटिया की ड्योढ़ी पर ही खड़ा हो गया । कुछ ही देर में उसने रोमक के नेतृत्व में कई कबूतरों को कुटिया के ऊपर उड़ते देखा । पुचकारते हुए वह नीचे बुलाने का प्रलोभन देने लगा । मगर चतुर रोमक ने तभी उस कुटिया से आती हुई मसालों की खुशबू से सावधान हो अपने मित्रों को तत्काल वहाँ से उड़ जाने की आज्ञा दी । कबूतरों को हाथ से निकलते देख क्रोधवश रोमक पर अपने डंडे को बड़ी जोर से फेंका किन्तु उसका निशाना चूक गया । वह चिल्लाया, “अरे! जा तू आज बच गया ।”


तब रोमक ने भी चिल्ला कर उसका जवाब दिया, “अरे दुष्ट! मैं तो बच गया किन्तु तू अपने कर्मों के फल भुगतने से नहीं बचेगा। अब तू तत्काल इस पवित्र कुटिया को छोड़ कहीं दूर चला जा वरना मैं बस्ती वालों के बीच तुम्हारा सारा भेद खोल दूँगा ।


रोमक के तेजस्वी वचनों को सुन वह पाखण्डी उसी क्षण अपनी कुटिया और गठरी लेकर वहाँ से कहीं और खिसक गया ।


रुरदीय हिरण-जातक कथा


एक वन में एक हिरण रहता था जो हिरणों के गुर  और कलाबाजियों में अत्यंत पटु था । एक दिन उसकी बहन अपने एक नन्हे हिरण रुरदीय को लेकर उसके पास आई और उससे कहा, “भाई! तुम्हारा भाँजा निठल्ला है; और हिरणों के गुर से भी अनभिज्ञ। अच्छा हो यदि तुम इसे अपने सारे गुर सिखला दो।” हिरण ने अपने नन्हे भाँजे को एक निश्चित समय पर आने के लिए कहा और फिर उनका आदर सत्कार कर विदा कर दिया ।


दूसरे दिन निश्चित समय पर वह अपने भाँजे के आने की राह तकता रहा, मगर वह नहीं पहुँचा । इस प्रकार सात दिनों तक उसकी प्रतीक्षा करता रहा मगर वह नहीं आया । किन्तु आठवें दिन उसकी माँ आई । वह रो-बिलख रही थी और अपने भाई को ही बुरा-भला कहती हुई यह सुना रही थी कि उसने अपने भाँजे को कोई भी गुर नहीं सिखाया था, जिससे वह शिकारियों के जाल में फँसा था। वह अपने पुत्र को हर हालत में मुक्त कराना चाहती थी।


तब हिरण ने अपनी बहन को बताया कि उसका बेटा दुष्ट था, जिसमें सीखने की लगन भी नहीं थी । इसलिए वह उसके पास सीखने के लिए कभी भी नहीं पहुँचा था और अपनी माँ की आँखों में ही धूल झोंकता रहा था । वह अब अपने कर्मों के अनुरुप ही दण्ड का भागी था, क्योंकि जिस जाल में वह फँसा था वहाँ से उसे निकाल पाना असंभव था ।


दूसरे दिन शिकारियों ने रुरदीय को पकड़ एक पैनी छुरी से उसका वध कर दिया और उसकी खाल और मांस अलग-अलग कर शहर में बेचने चले गये ।


व्याघ्री-कथा: जातक कथा


कुलीन वंश में पैदा हो कर एक बार एक ज्ञानी संसार से वितृष्ण हो संन्यासी का जीवन-यापन करने लगा । उसके आध्यात्मिक विकास और संवाद से प्रभावित हो कुछ ही दिनों में अनेक सन्यासी उसके अनुयायी हो गये।


एक दिन अपने प्रिय शिष्य अजित के साथ जब वह एक वन में घूम रहा था तब उसकी दृष्टि वन के एक खड्ड पर पड़ी जहाँ भूख से तड़पती एक व्याघ्री अपने ही नन्हे-नन्हे बच्चों को खाने का उपक्रम कर रही थी । गुरु की करुणा व्याघ्री और उसके बच्चों के लिए उमड़ पड़ी । उसने अजित को पास की बस्ती से व्याघ्री और उसके बच्चों के लिए कुछ भोजन लाने के लिए भेज दिया। फिर जैसे ही अजित उसकी दृष्टि से ओझल हुआ वह तत्काल खाई में कूद पड़ा और स्वयं को व्याघ्री के समक्ष प्रस्तुत कर दिया । भूखी व्याघ्री उसपर टूट पड़ी और क्षण भर में उसके चीथड़े उड़ा दिये।


अजित जब लौटकर उसी स्थान पर आया उसने गुरु को वहाँ न पाया । तो जब उसने चारों तरफ नज़रें घुमाईं तो उसकी दृष्टि खाई में बाघिन और उसके बच्चों पर पड़ी। वे खूब प्रसन्न हो किलकारियाँ भरते दीख रहे थे । किन्तु उनसे थोड़ी दूर पर खून में सने कुछ कपड़ों के चीथड़े बिखरे पड़े थे जो निस्सन्देह उसके गुरु के थे । गुरु ने व्याघ्री के नन्हे बच्चों की जान बचाने के लिए अपने प्राणों की बलि चढ़ा दी थी ! गुरु की करुणा और त्याग से उसका शीश श्रद्धा से झुक गया ।


कछुए की कहानी-जातक कथा


गंगा नदी से सटा एक पोखरा था, जिसके प्राणी इच्छानुसार नदी का भ्रमण कर वापिस भी आ जाते थे । जलचर आदि अनेक प्राणियों को दुर्भिक्ष-काल की सूचना पहले ही प्राकृतिक रुप से प्राप्य होती है । अत: जब पोखर-वासियों ने आने वाले सूखे का अन्देशा पाया वे नदी को पलायन कर गये । रह गया तो सिर्फ एक कछुआ क्योंकि उसने सोचा:


“हुआ था मैं पैदा यहाँ

हुआ हूँ मैं युवा यहाँ

रहते आये मेरे माता-पिता भी यहाँ

जाऊँगा मैं फिर यहाँ से कहाँ!”


कुछ ही दिनों में पोखर का पानी सूख गया और वह केवल गीली मिट्टी का दल-दल दिखने लगा । एक दिन एक कुम्हार और उसके मित्र चिकनी मिट्टी की तलाश में वहाँ आये और कुदाल से मिट्टी निकाल-निकाल कर अपनी टोकरियों में रखने लगे । तभी कुम्हार का कुदाल मिट्टी में सने कछुए के सिर पड़ी । तब कछुए को अपनी आसक्ति के दुष्प्रभाव का ज्ञान हुआ और दम तोड़ते उस कछुए ने कहा:-


“चला जा वहाँ

चैन मिले जहाँ

जैसी भी हो वह जगह

जमा ले वहीं धूनी

हो वह कोई

वन, गाँव या हो तेरी ही जन्म-भूमि

मिलता हो जहाँ तुझे खुशी का जीवन

समझ ले वही है तेरा घर और मधुवन”

 

कृतघ्न वानर-जातक कथा


वाराणसी के निकट कभी एक शीलवान गृहस्थ रहता था, जिसके घर के सामने का मार्ग वाराणसी को जाता था। उस मार्ग के किनारे एक गहरा कुआँ था जिसके निकट लोगों ने पुण्य-लाभ हेतु जानवरों को पानी पिलाने के लिए एक द्रोणि बाँध रखी थी । अनेक आते-जाते राहगीर जब कुएँ से पानी खींचते तो जानवरों के लिए भी द्रोणि में पानी भर जाते ।


एक दिन वह गृहस्थ भी उस राह से गुजरा । उसे प्यास लगी । वह उस कुएँ के पास गया और पानी खींचकर अपनी प्यास बुझाई। तभी उसकी दृष्टि प्यास से छटपटाते एक बंदर पर पड़ी जो कभी कुएँ के पास जाता तो कभी द्रोणि के पास । गृहस्थ को उस बंदर पर दया आई । उसने कुएँ से जल खींचकर खाली द्रोणि को भर दिया । बंदर ने तब खुशी-खुशी द्रोणि में अपना मुँह घुसाया और अपनी प्यास बुझा ली । फिर बंदर उस गृहस्थ को मुँह चिढ़ा-चिढ़ा कर डराने लगा । गृहस्थ जो उस समय निकट के पेड़ की छाँव में आराम कर रहा था बुदबुदाया, “अरे! जब तू प्यास से तड़प रहा था, तो मैंने तेरी प्यास बुझायी । अब तू मेरे साथ ऐसी धृष्टता कर रहा है । क्या तू और कोई अच्छा कर्त्तव्य नहीं दिखा सकता!”


बंदर ने तब कहा, “हाँ मैं और भी अच्छा काम कर सकता हूँ।” फिर वह कूदता हुआ उस पेड़ के ऊपर पहुँच गया जिसके नीचे राहगीर विश्राम कर रहा था । पेड़ के ऊपर से उसने राहगीर के सिर पर विष्ठा की और कूदता हुआ वहाँ से भाग खड़ा हुआ । खिन्न राहगीर ने तब फिर से पानी खींचकर अपने चेहरे व कपड़ों को साफ किया और अपनी राह पर आगे बढ़ गया।

 

मूर्ख बुद्धिमान-जातक कथा


वाराणसी नरेश के राज-बगीचे में कभी एक माली रहता था। वह दयावान् था और उसने बगीचे में बंदरों को भी शरण दे रखी थी। बंदर उसके कृपापात्र और कृतज्ञ थे।


एक बार वाराणसी में कोई धार्मिक त्यौहार मनाया जा रहा था । वह माली भी सात दिनों के उस जलसे में सम्मिलित होना चाहता था । अत: उसने बंदरों के राजा को अपने पास बुलाया और अपनी अनुपस्थिति में पौधों को पानी देने का आग्रह किया । बंदरों के राजा ने अपनी बात सहर्ष स्वीकार कर ली । जब माली बाग से चला गया तो उसने अपने सारे बंदर साथियों को बुलाकर उनसे पौधों को पानी देने की आज्ञा दी । साथ ही उसने उन्हें यह भी समझाया कि बंदर जाति उस माली की कृतज्ञ है इसलिए वे कम से कम पानी का प्रयोग करें क्योंकि माली ने बड़े ही परिश्रम से पानी जुटाया था। अत: उसने उन्हें सलाह दी कि वे पौधों की जड़ों की गहराई माप कर ही उन पर पानी ड़ाले । बंदरों ने ऐसा ही किया । फलत: पल भर में बंदरों ने सारा बाग ही उजाड़ दिया।


तभी उधर से गुजरते एक बुद्धिमान् राहगीर ने उन्हें ऐसा करते देख टोका और पौधों को बर्बाद न करने की सलाह दी । फिर उसने बुदबुदा कर यह कहा-“जब कि करना चाहता है अच्छाई । मूर्ख कर जाता है सिर्फ बुराई ।”


सँपेरा और बंदर-जातक कथा


हज़ारों साल पहले वाराणसी में एक सँपेरा रहता था। उसके पास एक साँप और एक बंदर था। लोगों के सामने वह उनके करतब दिखा जो पैसा पाता उससे ही अपना गुजर-बसर करता था। उन्हीं दिनों वाराणसी में सात दिनों का एक त्यौहार मनाया जा रहा था, जिससे सारे नगर में धूम मची हुई थी। सँपेरा भी उस उत्सव में सम्मिलित होना चाहता था। अत: उसने अपने बंदर को अपने एक मित्र के पास छोड़ दिया जिसके पास एक विशाल मक्के का खेत था। मक्के का खेतिहर बंदर की अच्छी देखभाल करता और समय पर यथायोग्य भोजन भी कराता रहा।


सात दिनों के बाद वह सँपेरा वापिस लौटा। उत्सव का मद और मदिरा का उन्माद उस पर अब भी छाया हुआ था। खेतिहर से जब अपने बंदर को वापिस लेकर वह अपने घर को लौट रहा था तो अकारण ही उस बन्दर को एक मोटे बाँस की खपची से तीन बार मारा जैसे कि वह एक ढोल हो। घर लाकर उसने बंदर को अपने घर के पास के एक पेड़ से बाँध दिया और मदिरा और नींद के उन्माद में पास पड़ी खाट पर बेसुध सो गया।


बंदर का बंधन ढीला था। थोड़े ही प्रयत्न से उसने स्वयं को रस्सी से मुक्त कर लिया और पास के पेड़ पर जा बैठा।


सँपेरे की जब नींद टूटी और बंदर को उसने मुक्त पाया तो पास बुलाने के उद्देश्य से उसने उसे पुचकारते हुए कहा, “आ जा ओ अच्छे बंदर! आ जा मेरा बंदर महान्!!” बंदर ने तब उसके प्रत्युत्तर में कहा-“ओ सँपेरे! वृथा है तुम्हारा यह गुणगान क्योंकि बंदर होते नहीं महान्।” फिर वह बंदर तत्काल ही वहाँ से उछलता कूदता कहीं दूर निकल गया और सँपेरा हाथ मलता ही रहा गया।

 

सियार न्यायधीश-जातक कथा


किसी नदी के तटवर्ती वन में एक सियार अपनी पत्नी के साथ रहता था। एक दिन उसकी पत्नी ने रोहित (लोहित/रोहू) मछली खाने की इच्छा व्यक्त की । सियार उससे बहुत प्यार करता था । अपनी पत्नी को उसी दिन रोहित मछली खिलाने का वायदा कर, सियार नदी के तीर पर उचित अवसर की तलाश में टहलने लगा।


थोड़ी देर में सियार ने अनुतीरचारी और गंभीरचारी नाम के दो ऊदबिलाव मछलियों के घात में नदी के एक किनारे बैठे पाया। तभी एक विशालकाय रोहित मछली नदी के ठीक किनारे दुम हिलाती नज़र आई । बिना समय खोये गंभीरचारी ने नदी में छलांग लगाई और मछली की दुम को कस कर पकड़ लिया । किन्तु मछली का वजन उससे कहीं ज्यादा था । वह उसे ही खींच कर नदी के नीचे ले जाने लगी । तब गंभीरचारी ने अनुतीरचारी को आवाज लगा बुला लिया । फिर दोनों ही मित्रों ने बड़ा जोर लगा कर किसी तरह मछली को तट पर ला पटक दिया और उसे मार डाला । मछली के मारे जाने के बाद दोनों में विवाद खड़ा हो गया कि मछली का कौन सा भाग किसके पास जाएगा ।


सियार जो अब तक दूर से ही सारी घटना को देख रहा था । तत्काल दोनों ही ऊदबिलावों के समक्ष प्रकट हुआ और उसने न्यायाधीश बनने का प्रस्ताव रखा । ऊदबिलावों ने उसकी सलाह मान ली और उसे अपना न्यायाधीश मान लिया । न्याय करते हुए सियार ने मछली के सिर और पूँछ अलग कर दिये और कहा –


“जाये पूँछ अनुतीरचारी को

गंभीरचारी पाये सिर

शेष मिले न्यायाधीश को

जिसे मिलता है शुल्क।”


सियार फिर मछली के धड़ को लेकर बड़े आराम से अपनी पत्नी के पास चला गया।


दु:ख और पश्चाताप के साथ तब दोनों ऊदबिलावों ने अपनी आँखे नीची कर कहा-


“नहीं लड़ते अगर हम, तो पाते पूरी मछली

लड़ लिये तो ले गया, सियार हमारी मछली

और छोड़ गया हमारे लिए

यह छोटा-सा सिर; और सूखी पुच्छी।”


घटना-स्थल के समीप ही एक पेड़ था जिसके पक्षी ने तब यह गायन किया –


“होती है लड़ाई जब शुरु

लोग तलाशते हैं मध्यस्थ

जो बनता है उनका नेता

लोगों की समपत्ति है लगती तब चुकने

किन्तु लगते हैं नेताओं के पेट फूलने

और भर जाती हैं उनकी तिज़ोरियाँ।”

 

दानव-केकड़ा-जातक कथा


हिमालय के किसी सरोवर में कभी एक दानव केकड़ा निवास करता था। हाथी उसका सबसे प्रिय आहार था। जब भी हाथी के झुण्ड उस सरोवर में पानी पीने अथवा जल-क्रीड़ा के लिए आते तो उनमें से एक को वह अपना आहार अवश्य बनाता। चूँकि हाथी समूह के लिए उस वन में जल का कोई अन्य स्रोत नहीं था। अत: गजराज ने अपनी गर्भिणी हथिनी को दूर किसी प्रदेश में भेज दिया कि कहीं गलती से हथिनी उस दानव-केकड़े का ग्रास न बन जाय।


कुछ ही महीनों के बाद हथिनी ने एक सुंदर और बलिष्ठ हाथी को जन्म दिया। जब वह बड़ा हुआ तो उसने अपने पिता का ठिकाना पूछा और यह भी जानना चाहा कि आखिर उसे इतने दिनों तक पिता का वियोग क्यों मिला था। जब उसने सारी बातें जान लीं तो वह माता की आज्ञा लेकर अपने पिता से मिलने हिमालय के उसी वन में आ पहुँचा। फिर उसने पिता को प्रणाम कर अपना परिचय देते हुए उस दानव केकड़े को मारने की इच्छा व्यक्त की और इस महान् कार्य के लिए पिता की आज्ञा और आशीर्वचन मांगे। पिता ने पहले तो उसकी याचना ठुकरा दी किन्तु बार-बार अनुरोध से उसने अपने पुत्र को पराक्रम दिखाने का अवसर दे ही दिया।


पुत्र ने अपनी सेना तैयार की और अपने शत्रु की सारी गतिविधियों का पता लगाया। तब उसे यह विदित हुआ कि वह केकड़ा हाथियों को तभी पकड़ता था जब वे सरोवर से लौटने लगते थे; और लौटने वालों में भी वह उसी हाथी को पकड़ता जो सबसे अंत में बाहर आते थे।


सूचनाओं के अनुकूल उसने अपनी योजना बनायी और अपने साथियों के साथ सरोवर में पानी पीने के लिए प्रवेश किया। उन साथियों में उसकी प्रेयसी भी थी।


जब सारे हाथी सरोवर से बाहर निकलने लगे तो वह जानबूझकर सबसे पीछे रह गया। तभी केकड़े ने उचित अवसर पर उसके पिछले पैर को इस प्रकार पकड़ा जैसे एक लुहार लोहे के एक पिण्ड को अपने चिमटे से पकड़ता है। हाथी ने जब अपना पैर खींचना चाहा तो वह टस से मस भी न हो सका। घबरा कर हाथी ने चिंघाड़ना शुरु किया, जिसे सुनकर हाथियों में भगदड़ मच गई। वे उसकी मदद को न आकर इधर-उधर भाग खड़े हुए। हाथी ने अपनी प्रेयसी को पुकारा और उससे सहायता मांगी। प्रेयसी हाथी को सच्चे दिल से प्यार करती थी। तत्काल अपने प्रेमी को छुड़ाने के लिए उसके पास आई और केकड़े से कहा-


“तू है एक बहादुर केकड़ा

नहीं है तेरे जैसा कोई दूसरा

हो वह गंगा या नर्मदा

नहीं है शक्तिशाली तेरे जैसा कोई बंदा।”


मादा हाथी की प्यार भरी बातों से प्रसन्न हो केकड़े ने अपनी पकड़ ढीली कर दी। तभी हाथी ने प्रसन्नता भरी चिंघाड़ लगाई जिसे सुनकर सारे हाथी इकट्ठे होकर उस केकड़े को ढकेलते हुए तट पर ले आये और पैरों से कुचल-कुचल कर उसकी चटनी बना दी।


क्रोध-विजयी चुल्लबोधि-जातक कथा


एक बार चुल्लबोधि नामक एक शिक्षित व कुलीन व्यक्ति ने सांसारिकता का त्याग कर सन्यास-मार्ग का वरण किया । उसकी पत्नी भी उसके साथ सन्यासिनी बन उसकी अनुगामिनी बनी रही । तत: दोनों ही एकान्त प्रदेश में प्रसन्नता पूर्वक सन्यास-साधना में लीन रहते।


एक बार वसन्त ॠतु में दोनों एक घने वन में विहार कर रहे थे । चुल्लबोधि अपने फटे कपड़ों को सिल रहा था । उसकी पत्नी वहीं एक वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ थी । तभी उस वन में शिकार खेलता एक राजा प्रकट हुआ । चीथड़ों में लिपटी एक अद्वितीय सुन्दरी को ध्यान-मग्न देख उसके मन में कुभाव उत्पन्न हुआ । किन्तु सन्यासी की उपस्थिति देख वह ठिठका तथा पास आकर उसने उस सन्यासी की शक्ति-परीक्षण हेतु यह पूछा,”क्या होगा यदि कोई हिंस्त्र पशु तुम लोगों पर आक्रमण कर दे।” चुल्लबोधि ने तब सौम्यता से सिर्फ इतना कहा, “मैं उसे मुक्त नहीं होने दूँगा।”


राजा को ऐसा प्रतीत हुआ कि वह सन्यासी कोई तेजस्वी या सिद्ध पुरुष नहीं था। अत: उसने अपने आदमियों को चुल्लबोधि की पत्नी को रथ में बिठाने का संकेत किया। राजा के आदमियों ने तत्काल राजा की आज्ञा का पालन किया। चुल्लबोधि के शांत-भाव में तब भी कोई परिवर्तन नहीं आया।


जब राजा का रथ संयासिनी को लेकर प्रस्थान करने को तैयार हुआ तो राजा ने अचानक चुल्लबोधि से उसके कथन का आशय पूछा । वह जानना चाहता था कि चुल्लबोधि ने किस संदर्भ में “उसे मुक्त नहीं होने दूंगा” कहा था । चुल्लबोधि ने तब राजा को बताया कि उसका वाक्य क्रोध के संदर्भ में था, क्योंकि क्रोध ही मानव के सबसे बड़ा शत्रु होता है क्योंकि –


“करता हो जो क्रोध को शांत

जीत लेता है वह शत्रु को

करता हो जो मुक्त क्रोध को

जल जाता है वह स्वयं ही

उसकी आग में ।”


राजा चुल्लबोधि की सन्यास-साधना की पराकाष्ठा से अत्यंत प्रभावित हुआ । उसने उसकी पत्नी को सादर वहीं रथ से उतारा और पुन: अपने मार्ग को प्रस्थान कर गया।

 

महिलामुख हाथी-जातक कथा


एक राजा के अस्तबल में महिलामुख नाम का एक हाथी रहता था जो बहुत ही सौम्य था तथा अपने महावत के लिए परम स्वामिभक्त और आज्ञाकारी भी।


एक बार अस्तबल के पास ही चोरों ने अपना अड्डा बना लिया। वे रात-बिरात वहाँ आते और अपनी योजनाओं और अपने कर्मों का बखान वहाँ करते। उनके कर्म तो उनकी क्रूरता आदि दुष्कर्मों के परिचायक मात्र ही होते थे। कुछ ही दिनों में उनकी क्रूरताओं की कथाएँ सुन-सुन महिलामुख की प्रवृत्ति वैसी ही होने लगी। दुष्कर्म ही तब उसे पराक्रम जान पड़ने लगा। तब एक दिन उसने चोरों जैसी क्रूरता को उन्मुख हो, अपने ही महावत को उठाकर पटक दिया और उसे कुचल कर मार डाला।


उस सौम्य हाथी में आये आकस्मिक परिवर्तन से सारे लोग हैरान परेशान हो गये। राजा ने जब महिलामुख के लिए एक नये महावत की नियुक्ति की तो उसे भी वैसे ही मार डाला। इस प्रकार उसने चार अन्य परवर्ती महावतों को भी कुचल कर मार डाला। एक अच्छे हाथी के बिगड़ जाने से राजा बहुत चिंतित था। उसने फिर एक बुद्धिमान् वैद्य को बुला भेजा और महिलामुख को ठीक करने का आग्रह किया। वैद्य ने हर तरह से हाथी और उसके आसपास के माहौल का निरीक्षण करने के बाद पाया कि अस्तबल के पास ही चोरों का एक अड्डा था, जिनके दुष्कर्मों की कहानियाँ सुन महिलामुख का हृदय भी उन जैसा भ्रष्ट होने लगा था।


बुद्धिमान वैद्य ने तत्काल ही राजा से उस अस्तबल को कड़ी निगरानी में रखने की और चोरों के अड्डे पर संतों की सत्संग बुलाने का अनुरोध किया। राजा ने बुद्धिमान् वैद्य के सुझाव को मानते हुए वैसा ही करवाया। संतों की वाणी सुन-सुन कर महिलामुख भी संतों जैसा व्यवहार करने लगा। महिलामुख की दिमागी हालत सुधर जाने से राजा बहुत प्रसन्न हुआ और वैद्य को प्रचुर पुरस्कार देकर ससम्मान विदा किया। 


वेस्सन्तर का त्याग-जातक कथा


राजा हरिश्चन्द्र की कथा जेतुन्तर के राजा संजय और रानी फुसती के पुत्र वेस्सन्तर के त्याग की कहानी से संभवत: नकल होनेका प्रतीत होती है । इस कहानी से झूठ, अंधविश्वास, अतिरंजित वर्णन और वैदिक चरित्रों की प्रचार को निकालदें तो कहानी का असली सार आप को बौद्धिक ज्ञानसम्पदा का अंस विशेष लगेगा क्यों की कलिंग बौद्ध सभ्यता की भूखंड रहा और उनकी मातृभाषा ही पाली भाषा है जिसको अब ओड़िआ कहा जाता है ।


कहा जाता है कि मात्र आठ वर्ष की अवस्था में वेस्सन्तर ने महान् दान की जब प्रतिज्ञा ली थी तभी पृथ्वी प्रकंपित हो उठी थी। सोलह वर्ष की आयु में उनका विवाह मद्दी से हुआ। उसके जालि नामक पुत्र और कण्हजिना नामक पुत्री थी।


उन्हीं दिनों कलिंग राज्य में भयंकर सूखे का प्रकोप हुआ। लोग अन्न और जल के लिए त्राहि-त्राहि कर उठे। जब वहाँ के लोगों को यह ज्ञात हुआ कि जेतुन्तर राज्य में एक ऐसा सफेद हाथी था जिसकी उपस्थिति मात्र से इच्छानुसार बारिश होती है। इसे कलिंग राज्य के आठ ब्राह्मण जेतुन्तर पहुँचे । जब उन्हें उस हाथी के स्वामी वेस्सन्तर की दान वीरता का ज्ञान हुआ तो वे वेस्सन्तर के पास जा पहुँचे और उन्होंने वेस्सन्तर से हाथी मांगा। दानवीर वेस्सन्तर ने उनकी याचना सहर्ष स्वीकार की। उसने हाथी को कलिंग के ब्राह्मणों को सौंप दिया।


उस शुभ हाथी के दान दिये जाने की खबर से जेतुन्तर की प्रजा अत्यंत खिन्न और क्रुध हुई। लोग दौड़ते हुए राजा के पास पहुँचे। वेस्सन्तर को दण्डित करने को कहा, तब राजा संजय ने वेस्सन्तर को वनवास का आदेश दिया।


वेस्सन्तर के लाख मना करने के बावजूद भी उसकी पत्नी मद्दी भी पति का साथ देने के लिए वनवास को तैयार हुई। अंतत: वेस्सन्तर अपनी पत्नी और बच्चों के साथ चार घोड़ों के एक रथ पर सवार वन को प्रस्थान कर गया।


मार्ग में उसे चार लोभी ब्राह्मण मिले । उन्होंने वेस्सन्तर से उनके चारों घोड़ों को मांग लिया। वेस्सन्तर ने उन्हें भी अपने घोड़े सहर्ष दे दिये। जब वह स्वयं ही रथ खींचन की तैयारी करने लगा तब उसकी सहायता के लिए चार यक्ष लाल हिरणों के रुप में वहाँ पहुँचे और वेस्सन्तर के रथ को खींचते हुए जंगल की ओर बढ़े। तभी मार्ग में एक ब्राह्मण भिक्षु प्रकट हुआ । उसने वेस्सन्तर से उसका रथ मांग लिया। दान में रथ देकर वेस्सन्तर और मद्दी गोद में बच्चों को लिए पैदल ही वन की ओर बढ़ते रहे। कहा जाता है कि धूप की तपिश से उन्हें बचाने के लिए बादल उनके ऊपर छत्र बन कर चलता रहा । जब उन्हें भूख लगती तो फलों से लदे पेड़ झुक-झुक कर उन्हें फल प्रदान करते । जब उन्हें प्यास लगती तो कमल के जलाशय उनके सामने स्वत: प्रकट हो उनकी प्यास बुझाते । अंतत: उनकी यात्रा की परिसमाप्ति बंकगिरी के वन पहुँच कर हुई जहाँ विश्वकर्मा ने उनके लिए एक कुटिया का निर्माण कर रखा था।


वेस्सन्तर का प्रताप इतना महान् था कि कोई भी जंगली या हिंस्त्र जानवर उनकी कुटिया के आस-पास भटकता भी नहीं था। इस तरह वन में विहार करते, उनके चार महीने खुशी-खुशी निकल गये।


एक दिन जब मद्दी भोजन इकट्ठा करने वन में कहीं दूर चली गयी थी और कुटिया के बाहर बच्चे खेल रहे थे तभी जूजका नाम का एक दरिद्र और वृद्ध ब्राह्मण वेस्सन्तर की कुटिया के पास पहुँचा।


उस वृद्ध को जवान पत्नी का घर के काम-काज आदि कराने के लिए दासों की आवश्यकता थी। अत: उसने वृद्ध जूजका को वेस्सन्तर के बच्चों को दान में लाने के लिए भेजा था; क्योंकि वेस्सन्तर के त्याग की चर्चा सर्वव्याप्त थी। जूजका ने वेस्सन्तर से उसके दोनों बच्चों को दान में मांग लिया और लताओं से उन बच्चों के हाथ-पैर बाँध बड़ी बेदर्दी से मारता-पीटता और घसीटता अपने मार्ग पर बढ़ गया।


देर शाम को जब मद्दी लौटी तब बच्चों को कुटिया में न पाकर रोती-पिटती उसने वेस्सन्तर से उनका पता पूछा किन्तु उत्तर में वेस्सन्तर मौन ही रहा। हाँ, दूसरे दिन वेस्सन्तर ने जूजका ब्राह्मण द्वारा बच्चों के ले जाने की सूचना दी क्योंकि उस समय तक मद्दी बच्चों के वियोग को सहन करने में सक्षम हो चुकी थी। मद्दी ने भी तब पति की दान-शीलता की प्रशंसा की।


वेस्सन्तर के इस महान् त्याग से पृथ्वी प्रकंपित हो उठी और साथ ही सिनेरु पर्वत भी हिल उठा जिससे सक्क (शक्र या इंद्र) भी चौंक उठे; और एक संयासी का भेष बना वेस्सन्तर की दान-परायणता की परीक्षा लेने उनकी कुटिया पर आ धमके। वहाँ उन्होंने वेस्सन्तर से उनकी पत्नी को दान में मांगा। वेस्सन्तर ने मद्दी को भी दान में दे दिया। मद्दी के हृदय से भी आह या क्रोध का कोई शब्द नहीं फूटा।


सक्क के लिए भी वेस्सन्तर का त्याग पूज्य था । उन्होंने तत्काल ही अपना असली रुप धारण कर, उनकी पारिवारिक खुशी लौटाने का वर प्रदान किया और दान-परायण पति-पत्नी से विदा ले अंतर्धान हो गये।


उस समय कलिंग को जाने वाला जूजका लहु-लुहान बच्चों को लेकर रास्ता भूल जेतुन्तर जा पहुँचा। जोतुन्तर के सिपाहियों ने जुजका को शंकित होकर देखा क्योंकि वह किसी भी तरह से बच्चों का अभिभावक या सम्बन्धी प्रतीत नहीं होता था। अत: वे उसे बन्दी बनाकर राजा के पास ले गये। राजा संजय ने तत्काल अपने खून को पहचान लिया और अपने पौत्रों को मुँह मांगे दामों में खरीद लिया। जूजका की किस्मत में आकस्मिक धनागमन का भोग नहीं लिखा था क्योंकि दूसरे दिन ही जरुरत से बहुत ज्यादा भोजन करने के कारण उसकी मृत्यु हो गयी।


उसी दिन वह सफेद हाथी भी कलिंग छोड़ वापिस जेतुन्तर आ पहुँचा । राजा अपने सिपाहियों को साथ वंकगिरी जा युवराज वेस्सन्तर और मद्दी को वापिस अपने राज्य ले आया।


विधुर-जातक कथा


कुरु जनपद के राजा धनञ्जय, जिसकी राजधानी इन्द्रप्रस्थ थी, पृथ्वी लोक का सबसे पराक्रमी राजा माना जाता था। उसके राज्य में विधुर नाम का एक अत्यंत बुद्धिमान मंत्री था जिसके विवेक की कहानियाँ सर्वत्र सुनी-सुनायी जाती थीं।


उन दिनों राजा धनञ्जय के समकालीन तीन और अत्यंत पराक्रमी राजा राज करते थे, जिनके नाम सक्क, वरुण और वेनतेय्या थे, जो क्रमश: देवों, नागों और सुपण्ण-यक्षों (स्वर्ण-गरुड़ों) के राजा थे।


एक बार किसी अवसर पर चारों राजा एक बाग में एकत्रित हुए जहाँ उनमें यह विवाद उत्पन्न हो गया कि उन चारों में सर्वाधिक शीलवान् कौन था। विवाद जब बढ़ने लगा तो उन चारों ने सर्व-सहमति से विधुर को बुला उसकी राय जाननी चाही। तब विधुर ने उन राजाओं से यह कहा कि वे चारों ही समान रुप से शीलवान् थे, ठीक किसी रथ के चक्रों के आरे (अर) की तरह। विधुर की राय से चारों ही राजा अत्यंत प्रसन्न हुए और उसे अनेक पुरस्कार दिये।


उस रात नागराज वरुण जब अपने शयन कक्ष में आराम कर रहा था तो उसकी रानी ने उसके गले के हार को लुप्त पाया। कारण पूछने पर जब उसे ज्ञात हुआ कि राजा ने अपना प्रिय हार विधुर को उसकी बुद्धिमानी से प्रसन्न हो पुरस्कार में दिया है तो उसने राजा से विधुर का हृदय भेंट में मांगा और ज़िद पूरी न होते देख मूर्व्हिच्छत होने का स्वांग रचा।


एक दिन सुपण्ण यक्षों का सेनापति पुण्णकराज नागलोक के ऊपर से उड़ता हुआ जा रहा था। तभी उसकी दृष्टि नाग-राजकुमारी इरन्दती पर पड़ा जो एक सुन्दर झूले में गाती-झूलती दिखी। इरन्दती की अपूर्व सुन्दरता को देख पुण्णकराज तत्काल नीचे उतर आया और इरन्दती से उसी क्षण अपना प्रणय निवेदन किया। पुण्णक के व्यक्तित्व से इरन्दती भी कम प्रभावित नहीं थी। उसने उसी क्षण उसके प्रेम को स्वीकार कर लिया।


पुण्णक तब नागराज वरुण के पास पहुँचा। वहाँ उसने इरन्दती का हाथ मांगा। नाग और गरुड़ों का वैमनस्य बहुत पुराना था। किन्तु नागों पर गरुड़ भारी पड़ते थे। इसके अतिरिक्त राजा अपनी पुत्री का दिल भी तोड़ना नहीं चाहता था; और न ही नाग-पुत्री का हाथ किसी गरुड़ को दे समस्त प्रजा का बैर मोल लेना चाहता था। अत: उसने पुण्णक से कुछ समय की मोहलत ले एकांत में अपने मंत्री से सलाह की। नाग-मंत्री कुरुराज के मंत्री विधुर का वैरी था। उसे विधुर की प्रतिष्ठा से ईर्ष्या थी। अत: उसने राजा को सलाह दी कि वह पुण्णक को इरन्दती का हाथ तब दे जब वह विधुर का हृदय लाकर रुग्ण महारानी को दे। इस युक्ति से रानी भी स्वस्थ हो जाएगी और स्वस्थ रानी को देख प्रजा भी।


पुण्णक ने जब नागराज की शर्त को सुना तो वह तत्काल उड़ता हुआ कुरु देश की राजधानी इन्द्रप्रस्थ पहुँचा। वह कुरुराज धनञ्जय की कमज़ोरी जानता था। वह जानता था कि कुरुराज एक महान् जुआरी था। अत: राजा धनञ्जय के पास पहुँचा। उसने उसे जुए के लिए ललकारा और दाँव पर अपने उड़ने वाले घोड़े तथा अपने उस रत्न को रखा जिससे विश्व की समस्त वस्तुएँ दिख सकती थीं। राजा धनञ्जय भी जुआ खेलने को तैयार था और उसने भी अपने अनेक प्रकार के रत्नों को दाँव पर लगाना चाहा। किन्तु पुण्णक ने तब उससे कहा कि यदि रत्न ही दाँव पर लगाना था तो उसे अपने राज्य के सबसे अनमोल रत्न विधुर को लगाना होगा। खेल आरम्भ हुआ। धनञ्जय की हार हुई और पुण्णक की जीत।


पुण्णक तब विधुर को ले उड़ता हुआ काल पर्वत पर पहुँचा । वहाँ उसने विधुर पर तलवार से प्रहार किया । मगर विधुर को छूते ही पुण्णक की तलवार टूट गयी । विस्मित पुण्णक ने तब विधुर को मुक्त करना चाहा।


विधुर ने पुण्णक द्वारा प्रदत्त मुक्ति को उस क्षण अस्वीकार कर दिया क्योंकि वह पुण्णक के साथ नाग-लोक जाकर उसकी सहायता करना चाहता था। उसने पुण्णक को उसके द्वारा पूछे गये प्रश्न का उत्तर भी टाल दिया।


जब पुण्णक और विधुर नाग-लोक पहुँचे तो उनका भव्य स्वागत हुआ। विधुर ने राजा वरुण और रानी विमला को उपदेश और ज्ञान-चर्चा से प्रसन्न किया। तत्पश्चात् पुण्णक और इरन्दती का विवाह बड़ी धूम-धाम से सम्पन्न हुआ।


विवाहोपरान्त पुण्णक ने विधुर को ससम्मान इन्द्रप्रस्थ पहुँचाया और उसे अपना वह रत्न भेंट में दिया जिससे विश्व की कोई भी वस्तु देखी जा सकती थी।


विनीलक-जातक कथा


एक बार एक स्वर्णिम राज-हंस मिथिला में रुका, जहाँ उसने एक कौवी के साथ सहवास किया जिससे काले मेघ के समान एक कौवा पैदा हुआ जिसका नाम उसके वर्ण और छवि के अनुकूल विनीलक रखा गया। कुछ ही दिनों में हंस और कौवी अलग-अलग हो गये और हंस फिर से हिमालय के निकटवर्ती एक सरोवर में वास करने लगा। वहाँ उसने एक सुंदर हंसी के साथ विवाह कर एक नया घर-संसार बसाया। हंसी ने दो सुन्दर सफेद हंसों को जन्म दिया।


हंस-पुत्र जब बड़े हो गये और उन्हें विनीलक के अस्तित्व का ज्ञान हुआ तो पिता की आज्ञा ले, वे विनीलक से मिलने मिथिला जा पहुँचे। गंदे कूड़े के ढेर पर रहते विनीलक को उन्होंने अपने साथ पिता के पास हिमालय चलने का निमंत्रण दिया। विनीलक ने उनका निमंत्रण सहर्ष स्वीकार कर लिया। तब दोनों ही हंसों ने एक लकड़ी के दोनों छोरों से पकड़ विनीलक को उस पर सवार होने का आग्रह किया। जब विनीलक ने वैसा किया तो उन्होंने हिमालय की तरफ उड़ना आरम्भ कर दिया। मार्ग में उन्हें मिथिला के राजा विदेह की सवारी दिखाई पड़ी जिसे चार सफेद घोड़े खींच रहे थे। राजा की सवारी देख विनीलक चिल्ला उठा “देख! राजा की सवारी उसके सफेद घोड़े ज़मीन पर खींच रहे हैं किन्तु मेरी सवारी तो सफेद अनुचर आसमान पर! दोनों हंसों को कौवे की अपमान-जनक वाणी से क्रोध तो बहुत आया मगर पिता की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए उन्होंने उसे नीचे नहीं गिराया और हिमालय में लाकर पिता के सामने रख दिया। फिर उन्होंने विनीलक के अपशब्दों से भी पिता को अवगत कराया। विनीलक के गुणों को सुन पिता ने अपने दोनों पुत्रों को फिर से विलीलक को मिथिला छोड़ आने को कहा क्योंकि वह हिमालय पर रहने योग्य नहीं था। तब हंसों ने उसे उठाकर फिर मिथिला पहुँचा आये जहाँ वह मलों के ढेर में अपना वास बना काँव-काँव करता हुआ रहने लगा।


इसिसंग का प्रलोभन-जातक कथा


गंगा के किनारे एक तपस्वी रहता था । एक दिन जब वह नदी के स्नान कर बाहर आया तो उसी स्थान पर जाकर एक हिरणी ने पानी पिया जिससे वह तत्काल गर्भवती हो गई। संयासी ने जब हिरणी की अवस्था को देखा तो उसे यह ज्ञात हुआ कि वह उसके बच्चे की माँ बनने वाली थी।


कुछ ही दिनों के बाद हिरणी ने एक बच्चे को जन्म दिया। तपस्वी ने उसका नाम इसिसंग रखा। वह संयासी पुत्र भी पिता के संरक्षण में एक महान् तपस्वी बनने लगा।


कुछ वर्षों के बाद जब तपस्वी ने अपना अंतकाल निकट पाया तो उसने इसिसंग को अंतिम उपदेश हेतु बुलाया और उसने उसे नारी के मोह-पाश से मुक्त रहने का परामर्श दिया। फिर उसने हमेशा के लिए अपनी आँखें मूंद ली।


कालान्तर में इसिसंग एक महान् संयासी के रुप में मान्य होने लगा जिससे शक्र को देव-लोक हिलता प्रतीत हुआ। अत: इसिसंग को संयासी पथ से भ्रष्ट करने के लिए शक्र ने अलम्बुसा नामक एक अति-सुंदर अप्सरा को पृथ्वी पर भेजा।


उस दिन इसिसंग जब गंगा-स्नान कर नदी से बाहर निकल ही रहा था कि उसकी दृष्टि अलम्बुसा पर पड़ी जो ठीक उसके सामने खड़ी था। उसके रुप-सौन्दर्य के जादू से इसिसंग अपने होश खो बैठा। अलम्बुसा ने तब उसे इशारों से खींचती उसकी कुटिया में ले गई। तभी से वह तीन वर्षों तक अलम्बुसा के आलिंगन में बंधा रहा। एक दिन जब उसे होश आया तब उसने जाना कि उसने वर्षों की साधनाओं का फल खो दिया था। उसका संयास-व्रत भंग हो चुका था। वह फूट-फूट कर रोने लगा। अलम्बुसा को उसकी दशा पर बहुत दया आई। उसने इसिसंग से माफ़ी मांगी। इसिसंग ने उस पर कोई दोष आरोपित नहीं किया, क्योंकि वह जानता था कि भूल तो उसकी अपनी ही थी।


अलम्बुसा जब देव-लोक पहुँची तो शक्र ने उसे उसकी सफलता के लिए बधाई दी और कोई भी वर मांगने को कहा। तब खिन्न अलम्बुसा ने देवराज से यह वर मांगा कि वे उसे फिर किसी ऐसे कार्य में न लगाये जिससे किसी तपस्वी का शील भंग हो।

 

कुशीनगर की कहानी-जातक कथा


कुशीनगर का नाम कुशीनगर क्यों पड़ा इसकी एक रोचक कथा है । वही कथा यहाँ प्रस्तुत की जा रही है।


मल्लदेश के राजा की रानी शीलवती से दो पुत्र थे । पहला पुत्र बिल्कुल कुरुप था; किन्तु समस्त विद्याओं का ज्ञाता। दूसरा पुत्र बहुत ही खूबसूरत था; किन्तु बिल्कुल बुद्धिहीन।


कुश एक कुशाग्र बुद्धि का व्यक्ति था । वह जानता था कि उसकी बदसूरती को देख कोई भी कन्या उससे विवाह करना नहीं चाहेगी। फिर भी शीलवती के आग्रह से उसने विवाह करना स्वीकार किया और प्रभावती नाम की एक बहुत ही सुन्दर कन्या से उसकी माता ने उसका विवाह करवा दिया जो सागल देश की राजकुमारी थी।


कुश के असल रुप को छुपाने के लिए शीलवती ने प्रभावती से झूठ कहा कि उसकी पारिवारिक परम्परा के अनुरुप प्रभावती और कुश एक दूसरे को तब तक प्रकाश में नहीं देखेंगे जब तक उनका बच्चा गर्भस्थ नहीं होता।


कुछ दिनों के बाद कुश के मन में प्रभावती को देखने की इच्छा उत्पन्न हुई । उसने अपने मन की बात अपनी माता को बताई। माता ने उसे घोड़ों के घुड़साल में प्रभावती को दिखाने की योजना बनाई। अस्तबल में बैठे एक सारथी के भेष में कुश ने जब प्रभावती को देखा तो उसे एक शरारत सूझी । उसने प्रभावती पर पीछे से घोड़े की लीद(विष्ठा) फेंकी । प्रभावती क्रुद्ध हुई, किन्तु शीलवती के कहने पर वह फिर आगे बढ़ गयी।


इसी प्रकार कुश ने दो-तीन बार अपनी माता की सहायता से प्रभावती को देखा और जितना ही वह उसे देखता उतना ही उसे और देखना चाहता। अत: एक बार माता ने प्रभावती को कमल के जलाशय में भेजा, जहाँ कुश छुपा बैठा था। जब जलाशय में प्रभावती नहाने लगी तो कुश का धैर्य छूट गया। वह तैरता हुआ प्रभावती के पास गया और उसके हाथ पकड़ कर अपना भेद खोला डाला कि वही उसका पति था। उस कुरुप और प्रेत की शक्ल वाले कुश को देख प्रभावती मूर्व्हिच्छत हो गयी। जब उसे होश आया तो वह तत्काल अपने मायके चली गयी।


कुश भी उसके पीछे-पीछे उसे मनाने गया और सागल देश में कई प्रकार की नौकरियाँ की । जब वह टोकरी बनाने का काम करता तो प्रभावती को अपना प्रेम-संदेश टोकरी की कलात्मकता के साथ भेजता। कभी कुम्हार बनता तो अपने हाथों की कलात्मकता से अपना संदेश भेजता। फिर भी प्रभावती उससे घृणा करती रही। अंतत: उसने प्रभावती के घर में रसोईये के रुप में काम कर हर किसी का दिल जीता। फिर भी प्रभावती उससे घृणा करती रही।


एक दिन आठ देशों के राजाओं ने मिलकर सागल पर चढ़ाई की । तब कुश ने अपने ससुर के सामने प्रकट होकर सागल को बचाने का प्रस्ताव रखा । अपने जमाई राजा को वहाँ उपस्थित देख सागलराज बहुत प्रसन्न और आश्चर्य-चकित हुए । जब उन्होंने कुश को अपनी पुत्री के प्रेम में हर प्रकार का संघर्ष करते देखा तो उससे वह बहुत प्रभावित हुआ । उसने प्रभावती को फिर अच्छी फटकार लगाते हुए कुश की प्रशंसा की । प्रभावती ने भी उस संकट की घड़ी में कुश के गुणों को स्वीकारा और सराहा।


कुश के साथ फिर आठ राजाओं की लड़ाई हुई । कुश ने उन आठ राजाओं को पराजित कर उनसे प्रभावती की आठ छोटी बहनों का ब्याह करवा दिया। फिर खुशी-खुशी प्रभावती के साथ मल्लदेश को लौट गया । तभी से मल्लदेश का नाम उसी पराक्रमी राजा कुश के नाम पर पड़ा ।


मातंग-जातक कथा


यह बात उस समय की है जब अस्पृश्यता अपने चरम पर थी। एक बार एक धनी सेठ की कन्या अपनी सहेलियों के साथ क्रीड़ा के लिए एक उद्यान जा रही थी। तभी मार्ग में उसे मातंग नाम का एक व्यक्ति दिखा जो जाति से चाण्डाल था। अस्पृश्यता की परंपरा को मानने वाली वह कन्या मातंग को देखते ही उल्टे पाँव लौट गई। उस कन्या के वापिस लौटने से उसकी सहेलियाँ और दासियाँ बहुत क्रुद्ध हुईं और उन्होंने मातंग की खूब पिटाई की। मार खाकर मातंग सड़क पर ही गिर पड़ा। उसका खून बहता रहा मगर कोई भी उसकी मदद को नहीं आया।


मातंग को जब होश आया तो उसने उसी क्षण अस्पृश्यता के विरोध का निश्चय किया। वह उस कन्या के घर के सामने पहुँचा और जहाँ वह भूख-हड़ताल पर बैठ गया। सात दिनों तक उसने न तो कुछ खाया और न ही पिया। बस, वह इसी मांग पर अड़ा रहा कि उसकी शादी उस कन्या से तत्काल करवा दी जाय वरना वह बिना खाये-पिये ही अपने प्राण त्याग देगा।


सात दिनों के बाद मातंग मरणासन्न हो गया तब उस कन्या के पिता को यह भय हुआ कि अगर मातंग वहाँ मरेगा तो उसके मृत शरीर को कौन हाथ लगाएगा, वहाँ से हटाएगा? अत: उस भय के कारण पिता ने अपनी ही कन्या को जबरदस्ती मातंग के पास ढकेल अपना दरवाज़ा बन्द कर लिया । मातंग ने तब अपनी हड़ताल तोड़ी और उस कन्या के साथ विवाह रचाया।


फिर उसने अपने गुणों और कर्मों से पहले अपनी पत्नी को विश्वास दिलाया कि वह किसी भी जाति के व्यक्ति से कम गुणवान् नहीं था। पत्नी को विश्वास दिलाने के बाद उसने अपने नगरवासियों को भी यह विश्वास दिलाया कि वह एक महान् गुणवान् व्यक्ति था।


एक बार उस नगर के किसी ब्राह्मण ने उसका अपमान किया तो लोगों ने उस ब्राह्मण को पकड़ उसके पैरों पर गिर माफी मांगने पर विवश किया। माफी मांगने के बाद वह ब्राह्मण किसी दूसरे राज्य में चला गया।


संयोग से मातंग भी एक बार उसी राज्य में पहुँचा, जहाँ उस ब्राह्मण ने शरण ली थी। मातंग को वहाँ देख उस ब्राह्मण ने उस देश के राजा के कान भरे। उसने राजा को बताया कि मातंग एक खतरनाक जादूगर है, जो उसके राज्य का नाश करा देगा । तब राजा ने अपने सिपाहियों को बुला तुरंत ही मातंग का वध करने की आज्ञा दी । ब्राह्मण के षड्यन्त्र से अनभिज्ञ मातंग जब भोजन कर रहा था, तभी सिपाहियों ने अचानक उस पर हमला बोला और उसकी जान ले ली।


मातंग के संहार से प्रकृति बहुत कुपित हुई । कहा जाता है, उसी समय आसमान से अंगारों की वृष्टि हुई जिससे वह देश पूरी तरह से जलकर ध्वस्त हो गया । इस प्रकार बोधिसत्व मातंग की हत्या का प्रतिशोध प्रकृति ने लिया।


महाजनक का संयास-जातक कथा


मिथिला के एक राजा की मृत्यु के पश्चात् उसके दो बेटों में भयंकर युद्ध हुआ । अंतत: बड़ा भाई मारा गया और छोटा भाई राजा बना । बड़े भाई की पत्नी अपने पुत्र को लेकर एक वन में किसी संयासी की शरण में रहने लगी । वहीं उसने अपने बढ़ते पुत्र को अपने दादा और पिता के राज्य को पुन: प्राप्त करने के लिए उत्प्रेरित किया।


सोलह वर्ष की अवस्था में पुत्र ने पैतृक राज्य प्राप्त करने के लिए धन और सेना इकट्ठा करने की ठानी । अत: उसने सुवर्णभूमि को प्रस्थान किया। किन्तु रास्ते में उसका जहाज़ डूब गया। समुद्र में तैरते हुए उसने किसी तरह अपनी जान बचायी। बन में घूमते हुए उसने एक आम्र वाटिका में आश्रय लिया । उसी दिन मिथिला के राजा की मृत्यु हो गई, जो और कोई नहीं उस कुमार का चाचा ही था।


जब लोग राजसलाहकारों के साथ ढोल बजाते हुए एक नये राजा की खोज में जा रहे थे तो उनकी दृष्टि आम्र वाटिका में सोते कुमार पर पड़ी। मिथिला- राजसलाहकारों ने किशोर के शरीर पर राजा-योग्य कई लक्षण देखे। अत: उसने उसे जगा कर महल में आमंत्रित किया। वहाँ राजकुमारी सीवली ने उससे कुछ पहेलियाँ पूछी जिसका जवाब कुमार ने बड़ी बुद्धमानी से दिया। फिर दोनों की शादी करा दी गयी और वह किशोर मिथिला का नया राजा बना दिया गया। इस प्रकार कुमार ने अपने दादा और पिता का राज्य पुन: प्राप्त कर लिया। सिवली से उसे एक पुत्र की भी प्राप्ति हुई।


कालान्तर में महाजनक संयास को उन्मुख हुआ और सीवली की प्रत्येक चेष्टा के बाद भी गृहस्थ जीवन का परित्याग कर संयासी बन गया।

 

सहिष्णुता का व्रत-जातक कथा


कुण्डक कुमार नाम का एक संयासी एक बार ठंड के दिनों में हिमालय से उत्तर वाराणसी पहुँचा । वहाँ उसके बचपन का मित्र एक सेनापति था । उसने संयासी को राज-उद्यान में स्वच्छन्द भ्रमण की अनुमति दी ।


एक दिन कुण्डक कुमार उद्यान में बैठा तप कर रहा था कि तभी वाराणसी का एक दुराचारी राजा अपनी प्रेमिकाओं के साथ वहाँ प्रविष्ट हुआ । वहाँ वह उन सुन्दरियों के साथ आमोद-प्रमोद करते हुए सो गया । राजा को सोता छोड़ सुन्दरियाँ बाग में भ्रमण करने लगी । तभी उनकी नज़र कुण्डक कुमार पर पड़ी जो साधना में लीन था । सुन्दरियों ने उसका ध्यान आकृष्ट कर उसे उपदेश सुनाने को कहा । कुण्डक कुमार ने तब उन्हें सहिष्णुता की महत्ता पर उपदेश देना प्रारंभ किया ।


थोड़ी देर के बाद जब राजा की नींद टूटी और उसने अपनी सुंदरियों को अपने पास नहीं पाया तो वह उन्हें ढूंढता हुआ कुण्डक कुमार के पास पहुँचा । एक संयासी द्वारा उसकी सुन्दरियों का आकृष्ट हो जाना उसके लिए असह्य था। अत: क्रोध से उसने संयासी से पूछा कि वह उन सुन्दरियों को कौन सा सबक सिखा रहा था। संयासी ने तब उसे भी सहिष्णुता के महत्त्व की बात बताई जिसके परिपालन का स्वयं उसने व्रत ले रखा था। यह सुन राजा ने उसे कोड़ों से पिटवाया। जब वह लहुलुहान हो गया तो राजा ने फिर पूछा कि उसके व्रत का क्या हुआ? खून से लथपथ सन्यासी को कोई क्रोध नहीं आया और वह सहिष्णुता के व्रत का ही गुणगान करता रहा। क्रोध में राजा ने तब उसके हाथ, फिर पैर आदि कटवा कर वही प्रश्न बार-बार पूछा, किन्तु संयासी हर बार शांत भाव से सहिष्णुता के व्रत की ही गाथा गाता । अंत में उस संयासी की सहिष्णुता से परम क्रुद्ध हो राजा ने उसकी छाती पर लात मारी और वापिस लौट गया।


कहा जाता है कि राजा जब वापिस लौट रहा था तभी धरती फट गई उसके अंदर से उठती आग की लपटों ने राजा को निगल लिया । संयासी के घाव भी तभी स्वयमेव क्षण मात्र में भर गये थे और वह पुन: हिमालय पर वापिस चला गया।

 

शक्र की उड़ान-जातक कथा


एक बार देवों और दानवों में भयंकर संग्राम हुआ । उस युद्ध में देव पराजित हुए और भाग खड़े हुए। देवों के राजा शक्र (सक्क) उस समय दानवों को पूरी टक्कर रहे थे। उनके सारथी ने जब देवों की सेना को भागते देखा तो वह देवराज के रथ को भगाता आकाश में ले उड़ा। दानवों ने उस रथ के तेजी से पीछा किया।


तभी शक्र की दृष्टि ऊँचे-उँचे पेड़ों पर स्थित चीलों के घोंसलों पर पड़ी। यदि उनका रथ उसी दिशा में उसी गति से जाता तो चील के अण्डे और बच्चे नष्ट हो जाते। अत: उन्होंने अपने सारथी को कहा कि वह रथ को दानवों की ओर पीछे लौटा ले।


रथ को पीछे लौटते और शक्र के हाथों में खड्ग देख दानवों ने समझा कि शक्र ने ऐसा किसी युद्ध-नीति के अनुरुप किया था। अत: वे सारे दानव जो उनका पीछा कर रहे थे, डर कर भाग खड़े हुए।


दानवों के भागने के बाद देव-सेना पुन: एकत्रित हुई और दानवों पर आक्रमण कर उन्हें परास्त किया। 


दैत्य का संदूक-जातक कथा


हिमालय की तराई में कभी एक बौद्ध साधु रहता था, जिसके उपदेश सुनने एक दबंग दुष्ट (दैत्य) भी आता था। किन्तु दबंग दुष्ट अपनी दानवी(दमन करने की वृत्ति) प्रवृत्ति के कारण राहगीरों को लूटता था और उन्हें मारता था । एक बार उसने काशी के एक धनी सेठ की पुत्री और उसके अनुचरों की सवारी पर आक्रमण किया । दैत्य को देखते ही उस कन्या के सारे अनुचर अपने अस्र-शस्र छोड़ भाग खड़े हुए । सेठ की कन्या को देखकर दैत्य उस पर मुग्ध हो गया । उसने उसकी हत्या न कर उसके साथ ब्याह रचाया । इस डर से कि वह सुन्दर कन्या कहीं भाग न जाय वह उसे एक संदूक में बंद कर देता था । एक दिन वह दैत्य साधु से मिलने जा रहा था तभी उसकी नज़र एक सुन्दर झील पर पड़ी । गर्मी बहुत थी । इसलिए वह झील के पास आया । उसने अपने साथ लिए हुए संदूक बाहर निकाला । फिर संदूक को खोलकर कन्या को बाहर निकाला और उसे जलाशय में अपने हाथों से स्नान कराया । उसके बाद वह स्वयं जलाशय में स्नान करने लगा । मुक्त हो कन्या जलाशय के किनारे विचरण करने लगी । तभी कन्या की नज़र एक नव युवक पर पड़ी जो एक जादूगर भी था।


उस अत्यंत सुन्दर युवक को देख कन्या ने उसे इशारों से अपने पास बुलाया । फिर प्रेम-क्रीड़ा करने के लिए उसने उसे संदूक में बैठने को कहा । युवक जब वहाँ बैठ गया तब वह उसे अपने लिबास से ढंक कर स्वयं उसके ऊपर जा बैठी । नहा कर दैत्य जब लौटा तो उसने संदूक को बंद कर लिया।


दैत्य जब साधु के आश्रम में पहुँचा तो साधु ने उसका स्वागत करते हुए कहा, “आप तीनों का स्वागत है”। साधु की बात सुन दैत्य चौंक गया क्योंकि वह नहीं जानता था कि कन्या और उसके अतिरिक्त भी कोई तीसरा उनके साथ था।


साधु की बात सुनते ही उसने संदूक को बाहर निकाला । ठीक उसी समय युवक संदूक से बाहर निकल रहा था । उस समय तक वह अपनी तलवार ध्यान से पूरी तरह खींच भी नहीं पाया था । अगर और कुछ क्षणों का विलम्ब होता तो वह निश्चित रुप से दैत्य का पेट फाड़ देता । दैत्य को देख युवक भाग खड़ा हुआ ।


साधु के वचन एवं ज्ञान को सुनने के कारण चूँकि दैत्य की जान बच गई थी इसलिए उसने साधु का धन्यवाद ज्ञापन किया । साधु ने तब उसे शीलवान् बनने की शिक्षा दी और उस कन्या को भी मुक्त करने का परामर्श दिया । उस दिन के बाद से दैत्य शीलव्रती बन गया।


कंदरी और किन्नरा-जातक कथा


एक राजकुमार था। उसका नाम कंदरी था। वह बहुत ही सुन्दर था और प्रतिदिन हज़ार घटों के इत्र से नहाता था। भोजन भी वह सुगंधित लकड़ियों की थाल में करता था। उसका रुप यौवन और उसकी जीवन चर्या इतनी आकर्षक थी कि कोई भी कन्या उस पर अनायास मुग्ध हो उठती थी।


युवावस्था में ही वह राजा बना और उसका विवाह किन्नरा नाम की एक राजकुमारी से हुआ। वह अपनी रानी से इतना प्यार करता था कि उसे प्रसन्न रखने के लिए उसने कोई और विवाह नहीं किया।


राजा के महल के पास एक जामुन का पेड़ था। एक दिन उस पेड़ के नीचे चीथड़ों में लिपटा एक अपंग भिखारी आ बैठा। रानी ने जब उसे देखा तो वह उसके पहली नज़र में प्यार कर बैठी। वह हर रात उसके पास जाती और सुबह होने से पहले फिर से राजा के पास लौट आती। एक दिन राजा कंदरी और उसका पुरोहित उस पेड़ के नीचे से घूम रहे थे। तभी राजा की नज़र उस धूल-धूसरित भिखारी पर पड़ी। उसे देख राजा के मुख से निकल गया, "क्या ऐसे गंदे व्यक्ति को कोई कन्या प्यार कर सकती है ?"


भिखारी ने राजा की बात सुन ली। और जवाब में उस से कहा, "क्या कहते हो ? मुझे तो इस राजा की रानी भी प्यार करती है।"


राजा ने तब छुप कर रानी की निगरानी की। और उसने भिखारी की बात को सच पाया। दूसरे दिन उसने रानी को दरबार में बुलाया और मृत्युदण्ड दे दिया। लेकिन पुरोहित ने उस दण्ड का विरोध किया। इस पर राजा ने रानी को मृत्युदण्ड न दे, उस भिखारी के साथ रानी को राज्य से निष्कासित कर दिया और उस जामुन के पेड़ को भी कटवा डाला।


कुशल-ककड़ी-जातक कथा


एक विद्वान् परिवार में सात भाई और एक बहन थी। परिवार का सबसे बड़ा भाई बहुत ही शीलवान् और गुणी था। उसने अपने काल की अनेक विद्याओं का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया था।


जब उसके माता-पिता की मृत्यु हो गई तो उसने संयास वरण करने का निश्चय किया। भाई के आदर्शों पर चलने वाले उसके छोटे बहन-भाई भी उसका अनुकरण करना चाहते थे । उनके साथ ही उनकी सेवा-टहल के लिए उनका एक नौकर और एक नौकरानी भी हो ली। उन लोगों ने वन में एक जलाशय के किनारे अपनी अलग-अलग कुटिया बनाई । फिर उन्होंने यह व्रत लिया कि दिन भर में वे केवल एक बार ही भोजन करेंगे और प्रत्येक पाँचवें दिन बड़े भाई के उपदेश सुनने के लिए इकट्ठा होंगे।


नौकरानी उनके लिए प्रतिदिन कमल की ककड़ी जलाशय से निकाल आठ बराबर भागों में बाँट, दो लकड़ियों को बजा उन सभी को यह सूचना दिया करती थी कि उनका भोजन तैयार है। वे भाई-बहन उम्र के क्रम से आते और अपना हिस्सा उठा पुन: अपनी कुटिया में लौट जाते। हाँ, प्रत्येक पाँचवें दिन वे सभी बड़े भाई का उपदेश को सुनने अवश्य इकट्ठे होते थे।


उनकी कठिन साधना को देख, परीक्षण हेतु एक शातिर शरारती प्रतिष्ठित धूर्त एक दिन वहाँ पहुँचा। उस दिन नौकरानी ने जब लकड़ियाँ बजा कर कुटिया-वासियों को यह संदेश दिया कि “उनका भोजन तैयार है”, तो प्रतिष्ठित धूर्त ने अदृश्य रुप से बड़े भाई के हिस्से की कमल-ककड़ी चुरा ली। बड़े भाई ने, जो सबसे पहले वहाँ पहुँचता था, जब अपने हिस्से की ककड़ी गायब देखी तो वह चुपचाप ही अपनी कुटिया को लौट गया। फिर शेष भाई-बहन आते गये और अपने हिस्से का भोजन लेकर अपनी-अपनी कुटिया को लौट गये। इस प्रकार पाँच दिनों तक प्रतिष्ठित धूर्त ने वैसा ही किया जिससे बड़ा भाई बिना भोजन किये ही साधना करता रहा और उसका स्वास्थ्य बिगड़ गया।


पाँचवे दिन जब सारे भाई-बहन, नौकर-नौकरानी बड़े भाई के उपदेश सुनने इकट्ठे हुए तो वह बिल्कुल रुग्ण दीखा। उसके मुख से भी आवाज़ ठीक से नहीं निकल रही थी। कारण जानने के बाद सभी बड़े खिन्न हुए। फिर भी उन्होंने चोर की भत्र्सना नहीं की बल्कि उसकी मंगलकामना की। इसे सुनकर प्रतिष्ठित धूर्त लज्जित हुआ और उनसे क्षमा मांगी और बड़े भाई के शील-व्रत की विशेष प्रशंसा की।


सिवि का त्याग-जातक कथा


अरीद्वपुरा देश के राजा सिवि बड़े दान-पारमी थे । एक बार उन्होंने संकल्प लिया कि क्यों न मांगे जाने पर वे अपना अंग भी याचक को दान में दे दे। उनके संकल्प को देख शक्र (इन्द्र) ने उनकी दानवीरता की परीक्षा लेनी चाही और एक दिन वे राज-दरबार में एक साधु के भेष में जा पहुँचे । वहाँ उन्होंने सिवि से उसकी दोनों आँखें मांगी । राजा ने सहर्ष अपनी दोनों आँखें निकालकर देवराज को दे दी ।


कुछ दिनों के बाद एक बाग में बैठ राजा सिवि ने अपने भविष्य के विषय में सोचना प्रारंभ किया तो शक्र (इन्द्र) को उन पर दया आ गयी। वे तत्काल ही सिवि के पास पहुँचे और उन्हें ‘सच्चक्रिया’ करने की सलाह दी।


सच्चक्रिया करते हुए तब राजा ने कहा कि यदि दान के पूर्व और दान के पश्चात् उनकी भावना याचक के लिए एक जैसी थी तो उनका पहला नेत्र वापिस लौट आए । उनके ऐसा कहते ही उनका पहला नेत्र आँख के गड्ढे में उत्पन्न हो गया।


पुन: सच्चक्रिया करते हुए उन्होंने जब कहा कि यदि दूसरी आँख के दान से उन्हें उतनी ही प्रसन्नता हुई थी जितनी पहली आँख के दान से तो उनका दूसरा नेत्र भी तत्काल उत्पन्न हो जाये। ऐसा कहते ही उनका दूसरा नेत्र भी उत्पन्न हो गया।


इस प्रकार राजा सिवि पूर्ववत् देखने लगे।

 

सुरा-कुंभ-जातक कथा


एक बार शक्र जब पृथ्वी लोक का अवलोकन कर रहे थे तो उनहोंने सब्बमित्र नामक एक राजा को देखा जो हर प्रकार की योग्यताएँ रखता था किन्तु वह कुसंगत में एक शराबी बन गया था।


शक्र ने तभी यह बात ठान ली कि वे उसकी बुरी आदत को छुड़ा कर रहेंगे । अत: धरती पर वे एक अति सुंदर सुरा कुंभ के साथ पहुँचे और सब्बमित्र के पास पहुँच कर कहा कि उनके पास उस कुंभ में ऐसी मदिरा है जिसकी तुलना में विश्व की हर मदिरा फीकी पड़ सकती थी।


राजा ने जब उसकी मदिरा की विशिष्टता पूछी तो उन्होंने कही कि उसकी मदिरा बहुत उत्तम थी क्योंकि उसे पीने वाला देश, काल और पात्र को भूल हर वह कुकृत्य कर सकता था जो नीति और समाज, शरीर और मानस सभी के लिए घातक था।


राजा ने जब एक शराब बेचने वाले को ही शराब के मुख से शराब के अवगुण सुने तो उसकी आँखें खुल गईं और उसने उस दिन के बाद फिर कभी शराब को हाथ नहीं लगाया।


बावेरु द्वीप-जातक कथा


जब वाराणसी के कुछ व्यापारी बावेरु द्वीप पहुँचे तो वे अपने साथ एक कौवा भी ले गये। उस देश के लोगों ने कभी भी किसी कौवे को नहीं देखा था। इसलिए उन्होंने मुँह माँगा दाम दे उस कौवे को खरीद लिया। कौवे की तब अच्छी आवभगत हुई। उसे सोने के पिंजरे में रखा गया और नाना प्रकार के फल व मांस से उसका सत्कार किया गया। दर्शनार्थी उसे देख कहते, ” वाह इस पक्षी की कैसी सुन्दर आँखें हैं। क्या सुन्दर रंग है “, आदि आदि।


दूसरी बार वाराणसी के व्यापारी जब उस द्वीप पर पहुँचे तो वे अपने साथ एक मोर भी लेते गये, जो चुटकी बजाने से बोलता और ताली बजाने से नाचता था। बावेरु-वासियों ने जब उस अद्भुत सुन्दर पक्षी को देखा तो उन्होंने उसे भी खरीदना चाहा। व्यापारियों ने उसे हज़ार मुद्राओं में बेचा।


लोगों ने मोर को रत्न जड़ित पिंजरे में रखा और बढ़-चढ़ कर उसकी आवभगत की।


उस दिन के बाद से किसी ने कौवे को एक नज़र भी नहीं देखा। एक दिन पिंजरे का द्वार खुला पाकर कौवा बाहर उड़ गया और काँव-काँव करता मलों के ढेर पर जा बैठा । वही उसकी उपयुक्त जगह जो थी।


चंपेय्य नाग-जातक कथा


पारमिता को सिद्ध करने के लिए नागराज चंपेय्य ने संन्यास वरण किया। बौद्धों में यह अवधारणा है कि दान, शील, धैर्य आदि दस गुणों के परम आचरण से बुद्धत्व की प्राप्ति होती है, और उसकी संपूर्ण सिद्धि पारमिता कहलाती है।


संन्यास वरण कर चंपेय्य पर्वत पर जाकर साधना में लीन हो गये । वहाँ एक दुष्ट ब्राह्मण ने आपने मंद बुद्धि और बाहु बल से उनको अपने दास बना लिया और शहर-शहर अपनी काम करवाता रहा ।


चंपेय्य ने जब संन्यास वरण किया था तब उनकी रानी सुमना गर्भवती थी । पुत्र को जन्म देने के बाद वह भी अपने पति की खोज में अपने बच्चे को उठाये शहर-शहर घूमती रहती।


एक दिन सुमना ने अपने पति को वाराणसी नरेश अग्रसेन के दरबार में ब्राह्मण की गुलामी करते देखा।


सुमना को अचानक वाराणसी दरबार में उपस्थित देख चंपेय्य भी चौंक उठे और आपने दासत्व को त्याग कर दिया। जब सभी चंपेय्य के व्यवहार से आश्चर्य-चकित थे तो सुमना दौड़ती हुई राजा अग्रसेन के पास पहुँची और अपनी सारी कहानी सुनायी। राजा उसकी करुण-कहानी से प्रभावित हुआ और उसने चंपेय्य को मुक्त करके वापिस जाने की सुविधा उपलब्ध करा दी।


अग्रसेन ने नागराज का निमन्त्रण भी स्वीकार किया और कुछ दिनों के लिए उनके राज्य में भी अतिथि के रुप में रहा। वहाँ वह चंपेय्य से उपदेश ग्रहण करने के बाद वापिस अपने राज्य को लौट आया और बौद्ध सन्यासी बन गए ।


घतकुमार-जातक कथा


वाराणसी में राज्य करता हुआ घतकुमार नाम के एक राजा ने अपने हरम में एक मंत्री के दुर्व्यवहार को देखा। उसने उस मंत्री को दण्डित करते हुए अपने राज्य से निष्कासित कर दिया।


उस मंत्री ने तब श्रावस्ती के राजा वंक के पास शरण ली। कुछ दिनों के बाद उस मंत्री ने राजा वंक को वाराणसी राज्य के कई भेद बताये। जिससे वंक ने वाराणसी पर आक्रमण किया और उस राज्य को अपने अधीन कर लिया और राजा घत को बंदी बना लिया।


रात में वंक ने जब घतकुमार के कारागार का दौरा किया तो वह उसे योग में लीन पाया।


घत के आचरण से पर प्रभावित हो वंक ने उससे पूछा कि वह भयभीत क्यों नहीं था; और क्यों उस संकट की घड़ी में मुस्कुरा रहा था। घत ने तब उसे बतलाया कि ” वृथा है पश्चाताप जो बदल नहीं सकता कभी अतीत था इतिहास हे वंक! क्यों करुँ मैं कोई पश्चाताप जो बदल नहीं सकता कभी कोई भविष्य क्यों होने दूँ में उसे तब आपक।”


घत की बातों से प्रसन्न हो वंक ने घत को मुक्त कर दिया और उसे उसका राज्य वापिस कर दिया। किन्तु घत ने अपना राज्य अपने परिजनों को सौंप दिया और स्वयं संन्यासी गया।


नागराज संखपाल-जातक कथा


राजगृह का राजा एक बौद्ध धर्मी राजा से उपदेश ग्रहण कर मरणोपरान्त संखपाल नामक एक संन्यासी बना; और परम-सील की सिद्धि प्राप्त करने हेतु दीमक-पर्वत-पर कठिन तप करने लगा । उसी समय सोलह दुष्ट व्यक्तियों ने उन्हें भालों से बींध कर उनके शरीर में कई छेद बनाये और उन छेदों में रस्सी घुसा कर उन्हें बाँध दिया। फिर वे उन्हें सड़कों पर घसीटते हुए ले जाने लगे।


मार्ग में एक आलाट नामक एक समृद्ध श्रेष्ठी पाँच सौ बैलगाडियों में माल भर कर कहीं जा रहा था । उसने जब संखपाल की दुर्दशा देखी तो उसे उन पर दया आई। उसने उन सोलह व्यक्तियों को पर्याप्त मूल्य देकर संखपाल को मुक्त कराया। संखपाल तब ऊलार के राज्य ले जाकर एक वर्ष तक अपने यहाँ अतिथि के रुप में रखा और अपने महान् उपदेशों से लाभान्वित किया।


नाविक सुप्पारक-जातक कथा


सुप्पारक नाम के एक कुशल नाविक ने अचानक अपनी आँखों की रोशनी खो दी। इस कारण उसे कुछ दिनों तक एक राजा के यहाँ नौकरी करनी पड़ी। राजा ने उसकी कद्र नहीं की। अत: वह वहाँ से इस्तीफा देकर अपने घर बैठ गया।


एक दिन उसकी योग्यताओं को सुन कुछ समुद्री व्यापारी उसके पास पहुँचे। उन्होंने उसे एक जहाज का कप्तान बना दिया। फिर सुप्पारक की कप्तानी में वे अपने जहाज का दूर विदेश ले गये।


मार्ग में एक भयंकर तूफान आया जिससे जहाज अपने रास्ते से भटक गया। फिर भी सुप्पारक के कौशल से वह खुरमाला, अग्गिमाला, दपिमाला आदि जगहों से होता हुआ वापिस मारुकुच्छ पहुँच गया। रास्ते में सुप्पारक दूर स्थान से अनेक रत्न और कीमती द्रव्य भी निकलवा लाया था, जिसे पाकर व्यापारियों की क्षति की भरपाई भी हो गई।


आम चोर-जातक कथा


गंगा के किनारे एक कुटिया बनाकर कोई ढोंगी सन्यासी रहा करता था। उसने अपनी कुटिया के पास एक आम का बगीचा बना रखा था और हर वह गलत काम करता जो एक सन्यासी के आचरण के प्रतिकूल था। शक्र ने जब उसकी लालच आदि कुवृतियाँ देखी तो उसे सबक सिखाने का निर्णय किया।


एक दिन वह ढोंगी सन्यासी जब भिक्षा मांगने पास के गाँव में गया तो शक्र ने उसके सारे आम तोड़ कर गायब कर दिये।


शाम को जब वह अपनी कुटिया में लौटा तो बगीचे की अच्छी धुनाई देखी। और तो और उसके सारे आम भी गायब थे। खिन्न वह वहीं खड़ा था तभी एक श्रेष्ठि की चार पुत्रियाँ बगीचे के करीब से गुजरीं। ढोंगी ने उन्हें बुला उनपर आरोप लगाया कि वे चोर हैं। अपनी सफाई में चारों कन्याओं ने पैरों पर बैठकर कसमें खाईं कि उन्होंने कोई चोरी नहीं की थी। ढोंगी ने तब उन्हें छोड़ दिया क्योंकि उसके पास आरोप सिद्ध करने के लिए कोई प्रमाण नहीं था।


शक्र को उन कन्याओं का अपमान नहीं भाया। वह तब एक भंयकर रुप धारण कर ढोंगी के सामने प्रकट हुआ। शक्र के रुप से डर वह ढोंगी सदा-सदा के लिए ही उस स्थान को छोड़ भाग गया ।


गूंगा राजकुमार-जातक कथा


काशी की महारानी चंदादेवी की कोई संतान नहीं थी। चूँकि वह शीलवती थी इसलिए उसने नियोग के जरिये पुत्र गर्भस्थ किया और उसका नाम तेमिय रखा गया।


तेमिय राज सुख से ना खुश होकर राजा न बनने के लिए उसने सोलह वर्षों तक गूंगा और अक्रियमाण बने रहने का स्वांग रचा । लोगों ने जब उसे भविष्य में राजा बनने के योग्य नहीं पाया तो राजा को यह सलाह दी गई कि तेमिय को कब्रिस्तान में भेज कर मरवा दे और वही उसे दफ़न भी करवा दे।


राजा ने सुनंद नामक एक व्यक्ति को यह काम सौंपा। सुनंद उसे एक रथ पर लाद कब्रिस्तान पहुँचा। वहाँ, तेमिय को जमीन पर लिटा उसने फावड़े से एक कब्र तैयार करना आरंभ किया।


तेमिय तभी चुपचाप उठकर सुनंद के पीछे जा खड़ा हुआ। फिर उसने सुनंद से कहा कि वह न तो गूँगा है ; और न ही अपंग। वह तो मूलत: सिर्फ संन्यास वरण करना चाहता था। तेमिय के शांत वचन को सुन सुनंद ने उसका शिष्यत्व पाना चाहा। तेमिय ने उसकी प्रार्थना स्वीकार की लेकिन उससे पहले उसे राजमहल जा कर उसके माता-पिता को बुलाने को कहा।


सुनंद के साथ राजा-रानी और अनेक प्रजागण भी तेमिय से मिलने आये। उन सभी को तेमिय ने संन्यास का सदुपदेश दिया। जिसे सुनकर राजा-रानी व अन्य सारे श्रोता भी सन्यासी बन गये।


कालांतर में तेमिय एक महान् सन्यासी के रुप में विख्यात हुआ।

 

कुशल जुआरी-जातक कथा


एक रईस नौजवान जुआरी एक बार रात काटने के लिए एक सराय में रुका । उस सराय में भी कुछ लोग जुआ खेल रहे थे। नौजवान भी उन लोगों के साथ जुआ खेलने लगा ।


जुआ खेलते हुए उसने देखा कि एक जुआरी बड़ी सफाई से खेल की कौड़ी को मुँह में डाल दूसरी कौड़ी को खेल के स्थान में रख देता था, जिससे उसकी जीत हो जाती थी। नौजवान ने तब उस बेईमान जुआरी को सबक सिखाने की ठानी।


उस रात अपने कमरे में जाकर उसने पासे को जहर में डुबोकर सुखाया।


दूसरे दिन नौजवान ने उस बेईमान जुआरी को खेल के लिए ललकारा। खेल आंरभ हुआ। बेईमान ने मौका देख खेल के पासे को अपने मुख में डाल किसी अन्य पासे को पूर्ववत् रख दिया। लेकिन जिस पासे को उसने अपने मुख में छुपाया था वह विष से बुझा हुआ था। देखने ही देखते वह बेईमान ज़मीन पर लोटने लगा।


नौजवान एक दयालु आदमी था, वह उस बेईमान की जान लेना नहीं चाहता था। अत: उसने अपने झोले से उस जहर का तोड़ निकाला और बेईमान जुआरी के मुख में उँडेल दिया। बेईमान के प्राण तो बच गये किन्तु उसका छल लोगों की नज़रों से नहीं बच सका । उसने सभी के सामने अपनी बेईमानी को स्वीकारा और बेईमानी से जीती गईं सारी मुद्राएँ नौजवान को वापिस लौटा दी।


मणिवाला साँप-जातक कथा


गंगा के किनारे दो कुटिया थीं, जिनमें दो सन्यासी रहते थे। दोनों ही सगे भाई थे। उसी नदी के पास एक साँप का जैसा दुष्ट व्यक्ति भी रहता था जिसके पास एक मणि था और हमेशा तरह तरह की वेशभूषा बदलता रहता था ।


एक दिन वह नदी किनारे टहल रहा था। तभी उसकी दृष्टि छोटे संन्यासी पर पड़ी जो अपनी कुटिया में बैठा था। साँप प्रवृत्ति दुष्ट उसके पास पहुँचा और नमस्कार कर उससे बातचीत करने लगा। पहले ही दिन से दोनों एक दूसरे के अच्छे मित्र बन गये। फिर तो दोनों के मिलने का सिलसिला बढ़ता गया ; और वे दोनों हर एक दो दिनों में मिलने लगे। और आते-जाते एक दूसरे का आलिंगन भी करते।


एक दिन साँप प्रवृत्ति दुष्ट अपना खुद की असली रुप में प्रकट हुआ। उसने अपनी मणि भी उस सन्यासी को दिखाई। उस के असली रुप को देख कर संन्यासी के होश उड़ गये। डर से उसने अपनी भूख-प्यास भी खो दी।


इससे उसकी अवस्था कुछ ही दिनों में एक चिर-कालीन रोगी की तरह हो गयी। बड़े सन्यासी ने जब उसकी रुणावस्था को देखा तो उससे उसका कारण जानना चाहा। छोटे भाई के भय को जान उसने उसे सलाह दी कि उसे उस साँप का जैसा दुष्ट व्यक्ति की मित्रता से छुटकारा पाना चाहिए। और किसी भी व्यक्ति को दूर रखने का सर्वश्रेष्ठ उपाय है कि उसकी कोई प्रियतम वस्तु मांगी जाए। अत: वह भी साँप का जैसा दुष्ट व्यक्ति को दूर रखने के लिए उससे उसकी मणि को मांगे।


दूसरे दिन जब वह छोटे संन्यासी की कुटिया में पहुँचा तो संन्यासी ने उससे उसकी मणि मांगी। इसे सुन वह कुछ बहाना बना वहाँ से तुरन्त चला गया। इसके पश्चात् भी संन्यासी की दो बार उसकी मुलाकात हुई; और उसने हर बार उससे उसकी मणि मांगी। तब उसे दूर से ही नमस्कार कर चला गया ; और फिर कभी भी उसके सामने नहीं आया।


निश्छल गृहस्थ-जातक कथा


काशी नगरी के पास के गाँव में एक बार भयंकर बाढ़ आई और गाँव वालों की फसल बहा ले गयी। तब गाँव वाले सहायता के लिए गाँव के मुखिया के पास पहुँचे। मुखिया ने उन्हें बैल ॠण में दिया और कहा कि जब उनके मक्के आदि की फसल कटेगी तो वे अपने फसल का कुछ भाग उसे दे अपना ॠण चुका दें।


उसी गाँव में एक सीधा-सादा गृहस्थ भी रहता था। उसकी पत्नी पतिव्रता नहीं थी। उन दिनों उसके सम्बन्ध गाँव के मुखिया के साथ थे। जब उस गृहस्थ के कानों में पत्नी के अवैध संबंध की चर्चा पड़ी तो उसने सत्य जानने के लिए एक युक्ति लगाई। एक दिन उसने अपनी पत्नी से कहा कि वह कुछ दिनों के लिए गाँव के बाहर कुछ कार्य के लिए जाएगा। दूसरे दिन वह यात्रा के सामान के साथ गाँव के बाहर निकल गया। फिर कुछ ही घंटों में वापिस लौट आया।


उस समय उसके घर पर उसकी पत्नी और गाँव का मुखिया रंगरेलियाँ मना रहे थे। पति को लौटा देख उसकी पत्नी ने सत्य छुपाने के लिए मुखिया को एक युक्ति बताई और दौड़ती हुई धान्यागार के एक कोट में खड़ी हो गई।


जब उस गृहस्थ ने घर के अंदर प्रवेश किया तो उसने उस समय मुखिया को यह कहते सुना, ” दे दे मेरा बैल या चुका दे ॠण।” और औरत कह रही थी, ” कोट में कोई धान नहीं है। मैं ॠण नहीं चुका सकती।” गृहस्थ ने सारी बातें समझ लीं। उसने मुखिया की अच्छी पिटाई की । फिर वह अपनी पत्नी को एक कड़ी चेतावनी दे उसे माफी का एक अवसर भी प्रदान किया। उसके रौद्र रुप को देख उसकी पत्नी सुधर गयी।

 

बौना तीरंदाज-जातक कथा


तक्षशिला के एक उत्कृष्ट गुरु से धनुर्विद्या प्राप्त कर एक बौना महान् धनुर्धर बना। मगर जीविका के लिए वह जब किसी राज्य में जाता तो लोग उसकी योग्यता को जाने बिना ही उसकी ठिठोली करते। अपनी सारी योग्यताएँ लोगों की ठिठोली पर लुटती देख उसने अपनी कामयाबी के लिए एक तरकीब निकाली। घूमता हुआ उसने भीमसेन नाम के एक हृष्ट-पुष्ट जुलाहे को ढूँढ निकाला और उसके सामने अपने युद्ध कौशल दिखाया और उसे एक सेनानी बनाने का प्रस्ताव रखा। जुलाहे से उसने कहा कि वह सिर्फ बौने की सलाह मानता रहे ; वह उसके अनुचर के रुप में उसके पीछे खड़ा हो अपना सारा जौहर दिखाता रहेगा।


बौने ने उसे फिर राजा के पास जाकर सेनानी की नौकरी मांगने को कहा। भीमसेन ने वैसा ही किया। राजा ने भीमसेन को सिर्फ उसकी कद-काठी को देख ही एक सरदार की नौकरी दे दी। इसके बाद राजा जब भी कोई कार्य भीमसेन को सौंपता तो उसके अनुचर के रुप में बौना उसके पीछे खड़ा हो उसका काम सम्पन्न कर देता। राजा और शेष लोग यही समझते रहे कि भीमसेन वाकई एक महान योद्धा था।


कुछ ही दिनों में भीमसेन धन-और प्रसिद्धि पाकर और भी मोटा हो गया और उसकी मोटी बुद्धि के साथ-साथ उसका अहंकार भी फूल गया। तब वह फिर बौने को मित्रवत् न देख एक नौकर की तरह उसके साथ व्यवहार करने लगा।


बौने को भीमसेन की वृत्ति अपमानजनक लगी और उसने मन ही मन यह ठान लिया कि वह भीमसेन को उसकी अभद्रता और कृतघ्नता का फल किसी दिन जरुर चखाएगा।


संयोगवश तभी पड़ोसी देश के एक राजा ने भीमसेन के राज्य पर चढ़ाई की। राजा ने भीमसेन को सेना का नेतृत्व सौंपा। भीमसेन एक विशाल हाथी पर सवार हो गया और बौने को अपने पीछे बिठा लिया। किन्तु जैसे ही उसने शत्रु-सेना को पास से देखा तो उसके होश उड़ गये। वह काँपता हुआ हाथी के ऊपर से गिर गया और हाथी की लीद पर लोटता नज़र आया।


शत्रु सेना आगे पहुँच चुकी थी। बौना देश-भक्त और वफादार सेनानी था। उसने तत्काल ही फौज की कमान अपने हाथों में संभाली और सिंह-नाद करता हुआ शत्रु सेना पर टूट पड़ा। उसके कुशल नेतृत्व में शत्रु सेना को मुँह की खानी पड़ी और वे रणभूमि छोड़ भाग खड़े हुए।


राजा ने जब बौने के युद्ध-कौशल को सुना तो उसने तत्काल ही उसे अपना नया सेनापति नियुक्त किया। बौने ने तब ढेर सारा धन देकर भीमसेन को अपने पुराने काम को करते रहने ही प्रेरणा दे कर विदा कर दिया।

 

पैरों के निशान पढ़ने वाला-जातक कथा


किसी वन में एक यक्षिणी रहती थी। उसे कुछ शरारत तरकीब प्राप्त थीं जो उस वन की परिधि तक ही सीमित थीं। वह वन से गुजरते राहगीरों को लूटती और उन्हें नुक़सान पहुंचाती थी।


एक दिन उस वन से एक खूबसूरत नौजवान घूम रहा था । शरारती महिला ने उसे भी पकड़ लिया मगर उसे अपना शिकार नहीं बनाया बल्कि उसने उससे शादी रचायी। वह उसे जंज़ीरों से बाँध कर रखती क्योंकि उसे भय था कि वह भाग जाएगा। कुछ दिनों के बाद यक्षिणी ने एक पुत्र को जन्म दिया। जब वह पुत्र कुछ बड़ा हुआ तो उस ने उसे पैरों के निशान पढ़ने की विद्या सिखायी। वे निशान बारह वर्षो तक पढे जा सकते थे।


बालक कुछ और बड़ा हुआ। उसने अपने पिता को माता की कैद में देखा। वह एक दिन माता की अनुपस्थिति में अपने पिता को मुक्त करा उस जंगल के बाहर भगा लाया चूंकि यक्षिणी की शक्ति वन के बाहर नगण्य हो जाती थी। अत: वह उन्हें फिर कभी पकड़ नहीं पायी। पिता और पुत्र ने वाराणसी में शरण ली। एक दिन वाराणसी के सरकारी खजाने में चोरी हुई। राजा ने तब यह घोषणा करवाई कि जो कोई भी जनता की उस सम्पति को ढूँढने में सहायता करोगा उसे यथोचित पारितोषिक दिया जाएगा।


यक्षिणी पुत्र ने तब तत्काल ही चोरों के पद-चिन्हों को पढ़ता, राजा और जनता को उस स्थान पर ले गया जहाँ खजाना छुपाया गया था। विस्मित हो सभी ने बालक की भूरि-भूरि प्रशंसा की।


राजा ने तब बालक से चोरों का नाम-पता पूछा। बालक ने कहा कि चोरों का नाम बताना उचित नहीं होगा। किन्तु जब राजा ने हठ किया तो उसने चोरों का नाम बता दिया। चोर और कोई नहीं थे, बल्कि राजा और उनके पुरोहित थे। लोगों को तब राजा और पुरोहित पर बहुत गुस्सा आया। उन्होंने उन दोनों चोरों को पीट-पीट कर मार डाला और उस बालक को अपना नया राजा बना दिया।


पेट का दूत-जातक कथा


वाराणसी में एक राजा राज करता था। उसके दो ही शौक थे। एक तो वह अतिविशिष्ट व्यंजनों का भोजन करना चाहता था ; और दूसरा वह यह चाहता था कि लोग उसे खाता हुआ देखें।


एक दिन जब वह लोगों के सामने बैठा नाना प्रकार की चीजें खा रहा था, तभी एक व्यक्ति चिल्लाता हुआ उस के पास आया। वह कह रहा था, "वह एक दूत है।" सिपाहियों ने जब उसे रोकना चाहा तो राजा ने राजकीय शिष्टाचार के अनुरुप उस व्यक्ति को अपने बराबर के आसन पर बिठा अपने साथ ही खाना खिलाया।


भोजन के बाद राजा ने जब उससे पूछा कि वह किस देश का दूत था तो उसने कहा कि वह किसी देश का दूत नहीं बल्कि मात्र अपने भूखे पेट का दूत था । उसने यह कहा, “हर कोई पेट का दूत होता है और पेट की क्षुधा बुझाने के लिए अनेकों उपक्रम करता है । अत: वह भी एक दूत है ; और क्षम्य है ।” राजा को उसका तर्क पसंद आया और उसने उस व्यक्ति को माफ कर दिया।

 

 सुदास-जातक कथा


कभी सुदास नामक एक राजा एक घने वन में शिकार खेलता अपने साथियों से बिछुड़ गया। थकान से चूर, घोड़े से उतर वह एक पेड़ के नीचे बैठ गया वहाँ बैठते ही उसे गहरी नींद आ गई।


तभी उसके सुन्दर शरीर के देख एक सिंहनी (आदिवासी/जंगल में रहने वाली योध्या कन्या) आकृष्ट हुई और प्यार से उसके पैरों को दबाने लगी। जब सुदास की नींद टूटी तो उसे भी सिंहनी से प्रेम हो गया । दोनों के सम्बन्ध से सिंहनी ने कलमसपदास नामक एक पुत्र को जन्म दिया । फिर तीनों साथ रहने लगे। कुछ दिनों तक राजा उनके साथ रहता रहा फिर वह किसी तरह मार्ग ढूँढ अपने राज्य को लौट आया।


जब राज्य में सुदास के लौटने का उत्सव मनाया जा रहा था तो उसने चुपके से सिंहनी और अपने बच्चे को भी राजमहल में प्रविष्ट करा लिया। और फिर वहीं अपने परिवार के साथ सुखपूर्वक रहने लगा।

 

सुतसोम-जातक कथा


एक राज्य में सुतसोम नाम का एक दान-शील-सम्पन्न राजकुमार का जन्म हुआ । बड़ा होने पर एक बार वह राजकुमार अपनी पत्नियों और अनुचरों के साथ एक बाग में बैठा संगीत का आनंद ले रहा था। तभी नंद नामक एक बौद्ध सन्यास उसके पास पहुँचे। बौद्ध सन्यास को सादर बैठाकर वह उनसे उपदेश ग्रहण करने लगा। तभी कलमसपदास नामत एक वहशी व्यक्ति वहाँ पहुँचा। वह एक युद्धखोर राजा का पुत्र था। और मानव-हत्या उसे बहुत प्रिय था। वह सुतसोम को भी पकड़ कर ले गया।


सुतसोम को जब उसने कारागृह में रोते देखा तो उसने उसका मज़ाक उड़ाते हुए कहा, "मृत्यु से सभी भयभीत हो जाते हैं !" सुतसोम ने तब उसे बताया कि वह मृत्यु से भयभीत नहीं था ; बल्कि एक श्रेष्ठ बौद्ध सन्यास के वचनों से वंचित रहने के कारण दु:खी था। सुतसोम ने तब कलमसपदास से दो दिनों मांगा ताकि वह बौद्ध सन्यास नन्द के पूर्ण उपदेश ग्रहण कर सके। सिंह-पुरुष ने उसे दो दिन का समय दे दिया।


बौद्ध सन्यास के उपदेश सुनने के बाद सुतसोम जब कलमसपदास के पास वापिस लौट आया तो कलमसपदास चकित रह गया और उसपर प्रसन्नता प्रकट करते हुए उसे वर मांगने को कहा । सुतसोम ने तब उससे कहा कि जो व्यक्ति स्वयं अपनी आकांक्षाओं और तृष्णा का दास हो, वह दूसरों को कैसी मुक्ति और कैसा वरदान दे सकता है ?


सुतसोम के वचन सुनकर सिंह-पुरुष की आँखें खुल गयी और उसका सोया हुआ मनुष्यत्व भी जाग गया । उसने सुतसोम को छोड़ दिया और उसके साथ मिलकर अपने पिता सुदास का राज्य भी फिर से वापिस प्राप्त कर लिया । उसने फिर कभी मानव-हत्या नहीं की।


 ढोल बजाने वाला-जातक कथा

वाराणसी के निकटवर्ती गाँव में कभी एक दरिद्र ढोल बजाने वाला अपनी पत्नी और एक बच्चे के साथ रहता था।


एक दिन वाराणसी शहर में एक मेले का आयोजन हुआ। मेले की चर्चा हर किसी की जुबान पर थी। ढोल बजाने वाले की पत्नी को जब मेले की सूचना मिली तो वह तत्काल दौड़ती हुई पति के पास पहुँची और उसे भी मेले में जाकर ढोल बजाने को कहा ताकि वह कुछ पैसे कमा लाये।


ढोल बजाने वाले को पत्नी का प्रस्ताव उचित जान पड़ा। वह अपने बेटे को लेकर शहर गया और मेले में पहुँच बड़े उत्साह से ढोल बजाने लगा। वह एक कुशल ढोल-वादक था। अत: शाम तक उसके पास पैसों के ढेर लग गये। खुशी-खुशी तब वह सारे पैसे बटोर वापिस अपने गाँव लौट पड़ा।


वाराणसी और उसके गाँव के बीच एक घना जंगल था। उसका नन्हा बेटा भी बहुत प्रसन्न था क्योंकि पिता ने रास्ते में उसे उसकी की मनपसन्द चीज़ें खरीद कर दे दी थी। अत: उमंग में वह पिता का ढोल उठाये उस पर थाप देता गया। वन में प्रवेश करते ही पिता ने बेटे को लगातार ढोल बजाते रहने के लिए मना किया। उसने उसे यह सलाह दी कि यदि उसे ढोल बजाना हो तो वह वह रुक-रुक कर ऐसे ढोल बजाये कि हर सुनने वाला यह समझ कि किसी राजपुरुष की सवारी जा रही हो। ऐसा उसने इसलिए कहा क्योंकि वह जानता था कि उस जंगल में डाकू रहते थे जो कई बार राहगीरों को लूटा करते थे।


पिता के मना करने के बाद भी बेटे ने उसकी एक न सुनी और जोर-जोर से ढोल बजाता रहा। ढोल की आवाज सुनकर डाकू आकृष्ट हुए और जब उन दोनों को अकेले देखा तो तत्काल उन्हें रोक कर उनकी पिटाई की और उनके सारे पैसे भी छीन लिये।

 

 जानवरों की भाषा जानने वाला-जातक कथा


एक बार कुछ बच्चे एक नाग को मार रहे थे। एक राजा ने उसकी रक्षा की। राजा पर प्रसन्न हो नाग ने उस राजा को जानवरों की भाषा समझने और बोलने का वर प्रदान किया था । किन्तु उसे यह चेतावनी भी दी थी कि यदि वह उस बात की चर्चा यदि कभी भी किसी से करेगा तो उसके प्राण चले जाएंगे।


एक दिन राजकीय काम-काज के बाद राजा जब अपनी प्रिय रानी के साथ एक बाग में बैठा कुछ खा पी रहा था। तभी मिष्टान्न का एक छोटा-सा टुकड़ा नीचे गिर गया। थोड़ी देर में वहाँ एक चींटी पहुँची और उस टुकड़े को देख खुशी से चिल्ला उठी, ” अरे वाह ? इतना बड़ा मिष्टान्न जो एक पूरी बैल-गाड़ी में भी नहीं समा सकता !” फिर वह उस टुकड़े को उठा ले जाने की चेष्टा करने लगी। चींटी की बात सुन राजा को हँसी आ गई और वह मुस्करा उठा।


राजा की रहस्यमयी मुस्कान को देख रानी ने समझा कि उसके श्रृंगार में शायद कोई त्रुटि रह गयी थी। अत: उसने राजा से उसकी मुस्कान का कारण जानना चाहा।


किन्तु राजा ने उसकी बात टाल दी। उस रात राजा जब अपने शयन-कक्ष में पहुँचा तो रानी ने उसकी रहस्यमयी मुस्कान का कारण जानने के लिए तरह-तरह का नाटक किया। अँतत: राजा को हार माननी पड़ी और उसने रानी से कहा कि यदि वह कारण बताएगा तो उसकी मृत्यु हो जाएगी। इस बात को भी सुनकर रानी अपनी ज़िद पर अड़ी रही। तब राजा ने उससे कहा कि दूसरे दिन उसे उसी उद्यान में सारी बात बता देगा।


दूसरे दिन जब राजा अपने अनुचरों के साथ उसी उद्यान में जा रहा था तो उसे मार्ग में एक गधा और एक बकरी बात-चीत करते दिखे। पास पहुँचने पर राजा ने सुना कि वह बकरी गधे से कह रही थी, “गधे ! तुम तो मूर्ख हो ! किन्तु आज मैंने जाना कि यह राजा तुमसे भी बड़ा मूर्ख है।” राजा को बकरी की बात से बड़ा आश्चर्य हुआ। वह बकरी से पूछ बैठा कि आखिर वह उसे बड़ा मूर्ख’ क्यों समझती है ? बकरी ने राजा से कहा, “हे राजन ! आज तुम प्रसन्नता-पूर्वक अपनी रानी को खुश करने के लिए अपने जीवन का बलिदान कर रहे हो। किन्तु जब वह रानी तुम्हारी मृत्यु के बाद तुम्हारी समस्त सम्पत्ति की अधिकारिणी हो किसी दूसरे व्यक्ति के साथ जीवन का आनन्द उठाएगी तो क्या तब भी तुम प्रसन्न रहोगे।”


बकरी की बात सुनकर राजा का विवेक जाग उठा वह अपने जीवन का मूल्य समझने लगा।


जब राजा बाग पहुँचा तो उसने रानी से कहा, “रानी मैं तुम्हें अपनी मुस्कान का कारण बताने को तैयार हूँ, किन्तु एक शर्त है। तुम्हें एक सौ कोड़े खाने पड़ेंगे, क्योंकि भेद बताने पर मेरे तो प्राण तत्काल निकलेंगे।” रानी ने समझा राजा तो उसे बहुत प्यार करता था उस पर झूठ-मूठ में कोड़े बरसाए जाएंगे। अत: वह कोड़े खाने को तैयार हो गयी। तब राजा ने अपने एक सिपाही से (पूरी शक्ति के साथ) रानी पर कोड़े बरसाने को कहा। सिपाही ने तब रानी पर पूरी शक्ति से कोड़े बरसाये।


जैसे ही कोड़े वाले ने रानी को एक कोड़ा मारा वह चीख उठी 'आह ! बहुत दर्द होता है। मुझे कोड़े से नहीं मारो ! मुझे राजा के मुस्कान का रहस्य भी नहीं जानना है।'


तब राजा ने कोड़े वाले से कहा कि वह और जोर से रानी पर कोड़े बरसाये क्योंकि उसे अपने पति की मौत स्वीकार थी किन्तु एक कोड़े की चोट भी नहीं।


कोड़े वाले ने जब फिर से रानी पर कोड़ा बरसाने को हुआ तभी राजा के मंत्री ने राजा से आग्रह किया कि वह रानी को क्षमा कर दे। राजा ने रानी को क्षमा तो कर दिया किन्तु वह मान-सम्मान और प्यार फिर कभी भी प्रदान नहीं किया।

 

साम-जातक कथा


पिता दुकुलक और माता पारिका से पुत्र साम का जन्म हुआ । एक दिन पिता दुकुलक और माता पारिका जब एक वन में घूम रहे थे तो तेज वर्षा आरम्भ हुई। उन्होंने एक पेड़ के नीचे शरण ली और बारिश से अपने बचाव करना चाहा । किन्तु उनके शरीर और वस्र से रिसते पानी से एक भयंकर विषधर साँप भीगने लगा जो उनके पैरों के नीचे चीटियों के एक बिल में निवास का रहा था। वृद्ध साँप ने तब एक भयंकर उच्छ्वास छोड़ा । उसके उच्छ्वास में विद्यमान विष-कण और पानी जब उन दोनों की आँखों में पड़ा तो दोनों की दृष्टि चली गयी।


देर शाम तक जब साम के माता-पिता वापिस घर नहीं लौटे तो वह उन्हें ढूँढता हुआ उसी वन में पहुँचा । थोड़ी देर ढूँढने के बाद उसने उन्हें वन में भटकता पाया । फिर वह उन्हें घर ले आया और उनकी सेवा-शुश्रुषा करने लगा।


एक बार पिलियक्ख नामक वाराणसी का एक राजा शिकार खेलता उसी वन में पहुँचा, जहाँ साम और उसके माता-पिता रहते थे । उस समय साम पास के जलाशय में अपने वृद्ध माता-पिता के लिए एक घड़े में जल भर रहा था जिसकी आवाज सुन राजा ने सोचा शायद कोई जानवर पानी पी रहा था । शब्द की दिशा में राजा ने एक बाण चलाया जो साम के हृदय को बींध गया । राजा जब घटना-स्थल पर पहुँचा तो साम को घायल पाया।


उसी समय राजा के सामने एक औरत प्रकट हुई जो जंगल में साम का एक मुंह बोली माता थी । उसने राजा को डराते हुए साम के माता पिता को साम की घायल की सूचना देने का आदेश दिया।


राजा ने जब साम के माता-पिता को पुत्र की घायल का समाचार दिया तो उन्होंने बिना विचलित हुए राजा से उन्हें साम के शरीर के पास ले जाने को कहा । जब माता-पिता साम के अचेत शरीर के पास पहुँचे तो साम का मुंह बोली माँ ने चिकत्सा द्वारा साम को आरोग्य कर दिया । तत: उसने चिकत्सा करके साम के माता-पिता की आँखों में भी रोशनी लौटा दी।

  

 सुखबिहारी-जातक कथा


हिमालय की पर्वत-कंदराओं में कभी एक प्रतिष्ठित संन्यासी रहा करता था, जिसके हज़ारों अनुयायी थे। एक बार वर्षा-काल में वे पहाडों से उतर वाराणसी पहुँचे, जहाँ उन्हें वाराणसी नरेश द्वारा राजकीय सम्मान एवं आतिथ्य प्राप्त हुआ। वर्षा-काल जब शेष हुआ और वे वापिस हिमालय पर वापिस लौटने की तैयारी करने लगे तो राजा ने सन्यासी से वहीं रुकने का आग्रह किया। अत: सन्यासी ने अपने शिष्यों को अपने प्रमुख शिष्य की देख-रेख में वापिस भेज दिया।


कुछ महीनों के बाद वह प्रमुख शिष्य गुरु से मिलने और संघ की सूचना देने हेतु पुन: वापिस आया और गुरु के ही पास बैठ गया, जहाँ उसकी आवभगत नाना-प्रकार की भोज्य वस्तुओं और फलों से हुई।


थोड़ी देर के बाद राजा भी उस गुरु के पास पहुँचा। उस समय पकवान और फलादि के बीच बौठा वह प्रमुख शिष्य अपने गुरु से कर रहा था, “वाह ! क्या सुख है ! क्या सुख है !!”


तब राजा ने समझ लिया वह शिष्य लोभी है। अत: गुरु द्वारा हिमालय पर भेजे जाने के बाद भी सांसारिक भोगों की कामना से पुन: वापिस लौट आया था।


राजा की अप्रसन्नता को देख गुरु ने उसके मन के भाव को पढ़ लिया। उसने राजा से कहा, “राजन् ! आप मेरे जिस शिष्य को लोभी समझ रहे हैं, वह वस्तुत: एक बहुत बड़े सम्राट रहे हैं । सांसारिकता का त्याग कर उन्होंने अपना राज-पाट बन्धु-बान्धवों को सौंप दिया है। ये जिस सुख की चर्चा का रहे हैं वह भोग्य सांसारिक पदार्थों की नहीं अपितु संन्यास के सुखों के संदर्भ में है !”


राजा ने तब अपना गलती को समझा और शर्म से उसका शीश झुक गया।

 

फुस्स बुद्ध-जातक कथा


चौबीस बुद्धों की परिगणना में फुस्स बुद्ध का स्थान अट्ठारहवाँ हैं। इनका जन्म काशी के सिरिमा उद्यान में हुआ था। इनके पिता का नाम जयसेन था जो एक कुलीन क्षत्रिय थे। मनोरत्थपूरणी के अनुसार उनके पिता का नाम महिन्द्र था। उनकी एक बहन थी और तीन सौतेले भाई। इनकी पत्नी का नाम किसागोतमा था, जिससे उन्हें आनन्द नाम के पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई थी।


परम्परा के अनुसार उनकी लम्बाई अट्ठावन हाथों की थी तथा वे गरुड, हंस तथा सुवम्णभार नामक तीन प्रासादों में छ: हज़ार वर्षों तक रहे। तत: एक हाथी पर सवार हो उनहोंने गृहस्थ-जीवन का परित्याग किया था। एवं छ: वर्षों के तप के बाद उन्होंने सम्बोधि प्राप्त की।


सम्बोधि के ठीक पूर्व उन्होंने एक श्रेष्ठी कन्या सिरिवड्ढा के हाथों खीर और सिखिवड्ढ नामक एक संयासी द्वारा प्रदत्त घास का आसन ग्रहण किया था। एक अमन्द (आम्लक) वृक्ष के नीचे विद्या बोधि की प्राप्ति की।


सुखित और धम्मसेन उनके प्रमुख शिष्य थे तथा साला और उपसाला उनकी प्रमुख शिष्याएँ। संजय, धनन्जय तथा विसारक उनके प्रमुख उपासक थे तथा पदुमा और नागा उनकी प्रमुख उपासिकाएँ। उपर्युक्त दोनों महिलाएँ उनकी मुख्य प्रश्रय-दा थीं।


उन दिनों बोधिसत्त अरिमंद नामक स्थान में उत्पन्न हुए थे। तब उनका नाम निज्जितावी था।


नब्बे हजार वर्ष की अवस्था में उनहोंने सेताराम (सोनाराम) में परिनिर्वाण की प्राप्ति की। तत: उनके अवशेष बिखेर दिये गये थे।

 

विपस्सी बुद्ध-जातक कथा


पालि परम्परा में विपस्सी उन्नीसवें बुद्ध माने जाते हैं। उनका जन्म बन्धुमती के खेम-उद्यान में हुआ था। उनकी माता का नान भी बन्धुमती था। उनके पिता का नाम बन्धुम था, जिनका गोत्र कोनडञ्ञ था। उनका विवाह सूतना के साथ हुआ था जिससे उन्हें समवत्तसंघ नामक पुत्र की प्राप्ति हुई थी।


एक रथ पर सवार हो उन्होंने अपने गृहस्थ-जीवन का परित्याग किया था। तत: आठ महीने के तप के बाद उन्होंने एक दिन सुदस्सन-सेट्ठी की पुत्री के हाथों खीर ग्रहण कर पाटलि वृक्ष के नीचे बैठ सम्बोधि प्राप्त की। उस वृक्ष के नीचे उन्होंने जो आसन बनाया था उसके लिए सुजात नामक एक व्यक्ति ने घास दी थी।


सम्बोधि प्राप्ति के बाद उन्होंने अपना पहला उपदेश अपने भाई संघ और अपने कुल पुरोहित पुत्र-लिस्स को खोयमित्रदाय में दिया था। अशोक उनके मुख्य उपासक थे तथा चंदा एवं चंदमिता उनकी मुख्य उपासिकाएँ थी। पुनब्बसुमित्त एवं नाग उनके मुख्य प्रश्रयदाता तथा सिरिमा एवं उत्तरा उनकी प्रमुख प्रश्रयदातृ थीं। अस्सी हजार वर्ष की अवस्था में वे परिनिवृत हुए।


विपस्सी बुद्ध के काल में बोधिसत्त अतुल नामक नागराज के रुप में जन्मे थे। तब उन्होंने विपस्सी बुद्ध को एक रत्न-जड़ित स्वर्ण-आसन प्रदान करने का गौरव प्राप्त किया था।

 

 शिखि बुद्ध-जातक कथा


पालि परम्परा में शिखि बुद्ध बीसवें बुद्ध हैं। इनके पिता का नाम अरुनव और माता का नाम पभावति है। अरुणावती नामक स्थान पर इनका जन्म हुआ। इनकी पत्नी का नाम सब्बकामा था। इनके अतुल नाम का एक पुत्र था।


इन्होंने हाथी पर सवार होकर गृह-त्याग करने से पूर्व, सात हज़ार वर्षों तक सुछन्दा, गिरि और वेहन के प्रासादों में निवास किया। आठ महीने इन्होंने तपस्या की। बुद्धत्व-प्राप्ति से पूर्व इन्होंने प्रियदस्सी सेट्ठी की पुत्री से खीर ग्रहण की, और अनोमादास्सी द्वारा निर्मित आसन पर ये बैठे। पुण्डरीक (कमल) के वृक्ष के नीचे इन्हें ज्ञान-प्राप्ति हुई। मिगचिर उद्यान में इन्होंने अपना प्रथम उपदेश दिया और सुरियावती के निकट एक चम्पक-वृक्ष के नीचे इन्होंने अपने चमत्कार द्वय का प्रदर्शन किया। इनके पट्टशिष्य थे- अभिभू और सम्भव। अखिला (या मखिला) और पदुमा इनकी प्रमुख शिष्याएँ थीं। खेमंकर इनके प्रमुख सेवक थे। सिरिवद्ध और छन्द (या नन्द) इनके मुख्य आश्रयदाता थे तथा चित्ता एवं सुगुत्ता इनकी प्रमुख आश्रयदातृयाँ थीं।


ये सत्तर हज़ार वर्ष जिए और सीलावती के दस्साराम (अस्साराम) में इन्होंने देह-त्याग किया।


इनकी पगड़ी (उन्हिस; संस्कृत- उष्णीष) शिखा (आग की लपट) की भाँति प्रतीत होने से इन्हें शिखि कहा गया।


इस युग में बोधिसत्त का अवतार राजा अरिन्दम के रुप में हुआ और उन्होंने परिभुत्त पर राज्य किया।


 वेस्सभू बुद्ध-जातक कथा


वेस्सभू बुद्ध पालि परम्परा में इक्कीसवें बुद्ध के रुप में मान्य हैं। उनके पिता का नाम सुप्पतित्त तथ माता का नाम यसवती था। उनका जन्म अनोम नगर में हुआ था तथा उनका नाम वेस्सभू रखा गया था क्योंकि पैदा होते ही उन्होंने वृसभ की आवाज़ निकाली थी। उनकी पत्नी का नाम सुचित्रा तथा पुत्र का नाम सुप्पबुद्ध था।


छ: हज़ार सालों तक रुचि, सुरुचि और वड्ढन नामक प्रासादों में सुख-वैभव का जीवन-यापन करने के बाद सोने की पालकी में बैठकर उन्होंने अपने गृहस्थ-जीवन का परित्याग किया था।


तत: छ: महीनों के तप के पश्चात् उन्होंने एक साल वृक्ष के नीचे सम्बोधि प्राप्त की। सम्बोधि के पूर्व उन्होंने सिरिवड्ञना नामक कन्या के हाथों खीर ग्रहण किया था। उनका आसन नागराज नरीन्द ने एक साल वृक्ष के नीचे बिताया था। उन्होंने अपने प्रथम उपदेश अपने दो भाई सोन और उत्तर को दिये थे, जो कि उनके दो प्रमुख शिष्यों के रुप में जाने जाते हैं। उपसन्नक उनके प्रमुख उपासक थे। उनके प्रमुख प्रश्रयदाता सोत्थिक एवं राम, गोतमी और सिरिमा तथा उनकी प्रश्रयदातृ थीं।


साठ हज़ार वर्ष की अवस्था में उन्होंने खोमाराम में परिनिर्वाण प्राप्त किया। उनके अवशेषों को अनेक स्थानों में बिखेर दिया गया था। उन दिनों बोधिसत्त सारभवती में राजा सुदस्सन के नाम से राज्य करे था।


 ककुसन्ध बुद्ध-जातक कथा


पालि-परम्परा में ककुसन्ध बाईसवें बुद्ध हैं। ये खेमा वन में जन्मे थे। इनके पिता अग्गिदत्त खेमावती के राजा खेमंकर के ब्राह्मण पुरोहित थे। इनकी माता का नाम विशाखा था। इनकी पत्नी का नाम विरोचमना और पुत्र का नाम उत्तर था।


इन्होंने चार हज़ार वर्ष की आयु में एक रथ पर चढ़ कर सांसारिक जीवन का परित्याग किया और आठ महीने तपस्या की। बुद्धत्व-प्राप्ति से पूर्व इन्होंने सुचिरिन्ध ग्राम की वजिरिन्धा नामक ब्राह्मण-कन्या से खीर ग्रहण की और ये सुभद्द द्वारा निर्मित कुशासन पर बैठे। शिरीष-वृक्ष के नीचे इन्हें ज्ञान-प्राप्ति हुई और अपना प्रथम उपदेश इन्होंने मकिला के निकट एक उद्यान में, चौरासी हज़ार भिक्षुओं को दिया।


भिक्षुओं में विधुर एवं संजीव इनके पट्टशिष्य थे और भिक्षुणियों में समा और चम्पा। बुद्धिज इनके प्रमुख सेवक थे। प्रमुख आश्रयदाता थे- पुरुषों में अच्छुत और समन तथा महिलाओं में नन्दा और सुनन्दा। अच्छुत ने ककुसन्ध बुद्ध के लिए उसी स्थान पर एक मठ बनवाया था, जहाँ कालान्तर में अनाथपिण्डक ने गौतम बुद्ध के लिए जेतवन आराम बनवाया था।


संयुत्त निकाय (त्त्.१९४) के अनुसार, उस समय राजगीर के वेपुल्ल पर्वत का नाम पच्छिनवंस था और उस क्षेत्र के लोग तिवर थे।


ककुसन्ध बुद्ध ने चालीस हज़ार वर्ष की आयु में देह-त्याग किया। इनके समय में बोधिसत्त ने राजा खेम के रुप में अवतार लिया था।

 

कोनगमन बुद्ध-जातक कथा

कोनगमन तेईसवें बुद्ध माने जाते हैं। ये भद्वकप्र (भद्र कल्प) के दूसरे बुद्ध हैं। सोभावती के समगवती उद्यान में जन्मे कोनगमन के पिता का नाम यञ्ञदत्त था। उत्तरा उनकी माता थी। इनकी धर्मपत्नी का नाम रुचिगत्ता था; और उनके पुत्र का नाम सत्तवाहा।


तीन हज़ार सालों तक एक गृहस्थ के रुप में रहने के बाद एक हाथी पर सवार होकर इन्होंने गृह-त्याग किया और संयास को उन्मुख हुए। छ: महीनों के कठिन तप के बाद इन्होंने अग्गिसोमा नाम की एक ब्राह्मण कन्या के हाथों खीर ग्रहण किया। फिर तिन्दुक नामक व्यक्ति द्वारा दी गई घास का आसन उदुम्बरा वृक्ष के नीचे बिछा कर तब तक समाधिस्थ रहे जब तक कि मेबोधि प्राप्त नहीं की। तत: सुदस्मन नगर के उद्यान में उनहोंने अपना पहला उपदेश दिया।


भिथ्य व उत्तर उनके प्रमुख शिष्य थे और समुद्दा व उत्तरा उनकी प्रमुख शिष्याएँ। कोपगमन का नाम कनकगमन से विश्पत्त है क्योंकि उनके जन्म के समय समस्त जम्बूद्वीप (भारतीय उपमहाद्वीप) में सुवर्ण-वर्षा हुई थी। इन्हीं का नाम संस्कृत परम्परा में कनक मुनि है। इनके काल में राजगीर के वेपुल्ल पर्वत का नाम वंकक था और वहाँ के लोग रोहितस्स के नाम से जाने जाते थे। उन दिनों बोधिसत्त मिथिला के एक क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुए थे। तब उनका नाम पब्बत था। तीस हज़ार वर्ष की आयु में पब्बताराम में उनका परिनिर्वाण हुआ।


कोनगमन की कथ् केवल साहित्यिक स्रोत्रों पर ही आधारित नहीं है, उनका पुरातात्त्विक आधार भी है क्योंकि सम्राट अशोक ने अपने राज्याभिषेक के बीसवें वर्ष में कोनगमन बुद्ध के छूप को, जो उनके जन्मस्थान पर निर्मित था, दुगुना बड़ा करवाया था। इसके अतिरिक्त, फाहियान व ह्मवेनसांग ने भी उस छूप की चर्चा की है।

 

कस्सप बुद्ध-जातक कथा


कस्सप बुद्ध पालि परम्परा में परिगणित चौबीसवें बुद्ध थे। इनका जन्म सारनाथ के इसिपतन भगदाय में हुआ था, जहाँ गौतम बुद्ध ने वर्षों बाद अपना पहला उपदेश दिया था।


काश्यप गोत्र में उतपन्न कस्सप को पिता का नाम ब्रह्मदत्त था और माता का नाम धनवती। उनके जन्मकाल में वाराणसी में राजा किकी राज्य करते थे। इनकी धर्मपत्नी का नाम सुनन्दा था, तथा पुत्र का नाम विजितसेन।


दो हज़ार वर्षों तक गृहस्थ जीवन भोगने के बाद उन्होंने संयास का मार्ग अपनाया। सम्बोधि के पूर्व उनकी धर्मपत्नी ने उन्हें खीर खिलाई थी और सोम नामक एक व्यक्ति ने आसने के लिए घास दिये थे। उनका बोधि-वृक्ष एक वट का पेड़ था।


कस्सप बुद्ध ने अपना पहला उपदेश इसिपतन में दिया था। तिस्स और भारद्वाज उनके प्रमुख शिष्य थे तथा अतुला और उरुवेला उनकी प्रमुख शिष्याएँ। उनके काल में बोधिसत्त का जन्म एक ब्राह्मण के रुप में हुआ था, जिनका नाम ज्योतिपाल था।


बीस हज़ार वर्ष की अवस्था में कस्सप का परिनिर्वाण काशी के सेतव्य उद्यान में हुआ था।


फाह्यायान और ह्मवेनसाँग ने भी कस्सप बुद्ध के तीर्थस्थलों की चर्चा की है।


संस्कृत परम्परा में कस्सप बुद्ध कश्यप बुद्ध के नाम से जाने जाते हैं।

 

मेत्रेयः भावी बुद्ध-जातक कथा


पालि परम्परा में मेत्रेय भावी बुद्ध के रुप में जाने जाते हैं। (संस्कृत ग्रंथों में इनका नाम मैत्रेय है ) परम्परा में यह मान्य है कि इनका जन्म तब होगा जब मनुष्यों का औसतन जीवन-काल चौरासी हज़ार वर्षों का होगा।


मेत्रेय का जन्म एक प्रसिद्ध विद्वत्-कुल में अजित के नाम से केतुमती नामक एक स्थान में होगा। इनके पिता का नाम सुब्रह्मण तथा माता का नाम ब्राह्मवती होगा। इनकी पत्नी की नाम चंदमुखी और पुत्र का नाम ब्रह्मवड्ढन होगा।


अभी मेत्रेय तुसित नामक देवलोक में नाथ के नाम से निवास कर रहे हैं। इन्हें विश्वपाणि भी कहा जाता है। महामाया के पेट में गर्भस्थ होने से पूर्व गौतम ने विश्वपाणि को ही तुसितलोक का उत्तराधिकार सौंपा था। चूँकि मेत्रेय ने अभी तक सांसारिकता का त्याग नहीं किया है। अत: चित्रों व प्रतिमाओं में मुकुट के साथ ही दर्शाए जाते हैं।

 

 


 

 








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