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मांसाहार निषेध, हिन्दी ‘मांसाहार और मनुस्मृति’ ओ३म् ‘मांसाहार और मनुस्मृति’ –मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

 

मांसाहार निषेध, हिन्दी

मांसाहार और मनुस्मृति’

ओ३म्

मांसाहार और मनुस्मृति’

 

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

 

प्राचीन काल में भारत में मांसाहार नहीं होता था। महाभारतकाल तक भारत की व्यवस्था ऋषि मुनियों की सम्मति से वेद निर्दिष्ट नियमों से राजा की नियुक्ति होकर चली जिसमें मांसाहार सर्वथा वर्जित था। महाभारतकाल के बाद स्थिति में परिवर्तन आया। ऋषि तुल्य ज्ञानी मनुष्य होना समाप्त हो गये। ऋषि जैमिनी पर आकर ऋषि परम्परा समाप्त हो गई। उन दिनों अर्थात् मध्यकाल के तथाकथित ज्ञानियों ने शास्त्र ज्ञान से अपनी अनभिज्ञता, मांसाहार की प्रवृति अथवा किसी वेद-धर्मवेत्ता से चुनौती न मिलने के कारण अज्ञानवश वेदों के आधार पर शास्त्रों में प्रयुक्त गोमेघ, अश्वमेघ, अजामेघ व नरमेध आदि यज्ञों को विकृत कर उनमें पशुओं के मांस की आहुतियां देना आरम्भ कर दिया था। ऐसा होने पर भी हमें लगता है कि यज्ञ से इतर वर्तमान की भांति पशुओं की हत्या नहीं होती थी। जिन पशुओं को यज्ञाहुति हेतु मारा जाता था, ऐसा लगता है कि उस मृतक पशुओं का सारा शरीर तो यज्ञ में प्रयुक्त नहीं हो सकता था, अतः यज्ञशेष के रूप में यज्ञकर्ताओं द्वारा यज्ञ में आहुत उस पशु के मांस का भोजन के रूप व्यवहार किया जाना भी सम्भव है। कालान्तर में इसके अधिक विकृत होने की सम्भावना दीखती है। अतः कुछ याज्ञिकों की अज्ञानता के कारण यज्ञों में पशु हिंसा का दुष्कृत्य हमारे मध्यकालीन तथाकथ्ति विद्वानों ने प्रचलित किया था। इन लोगों ने अपनी अज्ञानता व स्वार्थ के कारण प्राचीन धर्म शास्त्रों की उपेक्षा की। यदि वह मनुस्मृति आदि ग्रन्थों को ही देख लेते तो उनको ज्ञात हो सकता था कि न केवल यज्ञ अपतिु अन्यथा भी पशुओं का वध घोर पापपूर्ण कार्य है।

 

 

 

भारत से दूर अन्य देशों के लोगों के पास वेद और वैदिक साहित्य जैसे न तो ग्रन्थ थे, न आचार्य व गुरु थे और न ही श्रेष्ठ परम्परायें थी। अतः उन लोगों का मांसाहार करना शास्त्र, गुरु, आचार्य व ज्ञान के अभाव में अनुचित होते हुए भी वहां मांसाहार का प्रचलन अधिक हुआ। भारत में जब विदेशी आक्रमण हुए तो यह मांसाहार भी आक्रान्ताओं के साथ आया। आक्रान्ताओं का एक कार्य भारत के लोगों का मतान्तरण या धर्मान्तरण करना भी था। अतः भारत के मांस न खाने वाले लोगों को मृत्यु का भय दिखाकर मुट्ठी भर संख्या में आये आक्रान्ताओं ने असंगठित लोगों का धर्मान्तरण करने के साथ उन्हें मांसाहारी भी बनाया। इतिहास में इन घटनाओं के समर्थक अनेक उदाहरण सुनने व पढ़ने को मिलते हैं। अतः भारत में मांसाहार की प्रवृत्ति में वृद्धि का कारण मांसाहारी विदेशियों का आक्रामक के रूप में भारत आना प्रमुख कारण बना।

 

 

 

वेदों में यज्ञ को अध्वर कहा गया है जिसका तात्पर्य ही यह है कि जिसमें नाम मात्र भी हिंसा न की जाये। इस दृष्टि से यज्ञ में मांस का विधान करने वाले हमारे मध्यकालीन विद्वानों की बुद्धि पर हमें दया आती है। इन लोगों ने देश व संसार सहित वैदिक धर्म को सबसे अधिक हानि पहुंचाई हैं। मांसाहार के सन्दर्भ में वेदों में पशुओं की रक्षा करने के स्पष्ट विधान हैं। यजुर्वेद के प्रथम मन्त्र में ही ‘‘यजमानस्य पशुन् पाहि” कहकर यजमान के पशु गाय, घोड़ा, बकरी, भैंस आदि की रक्षा व हिंसा न करने की बात कही गई है। प्राचीन वैदिक परम्परा में धर्म व आचार विषयक किसी भी प्रकार की शंका होने पर वेद वचनों को ही परम प्रमाण माने जाने की परम्परा भारत में रही है जिसका समर्थन मनुस्मृति से भी होता है। इस लेख में हम मनुस्मृति में मांसाहार विरोधी महाराज मनु जी का एक महत्वपूर्ण श्लोक प्रस्तुत कर रहे हैं।

 

 

 

अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी।

 

संस्कर्त्ता चोपहत्र्ता च खादकश्येति घातकः।।               मनुस्मृति 5/51

 

 

 

पौराणिक पं. हरगेविन्द शास्त्री, व्याकरण-साहित्याचार्य-साहित्यरत्न इस मनुस्मृति के श्लोक का अर्थ करते हुए लिखते हैं कि ‘‘अनुमति देने वाला, शस्त्र से मरे हुए जीव के अंगों के टुकड़े–टुकड़े करने वाला, मारने वाला, खरीदने वाला, बेचने वाला, पकाने वाला, परोसने या लाने वाला और खाने वाला यह सभी जीव वध में घातक–हिसक होते हैं।”

 

 

 

इस पर अपने विचार प्रस्तुत करते हुए वैदिक विद्वान आचार्य शिवपूजन सिंह जी लिखते हैं कि अनुमन्ता-जिसकी अनुमति के बिना उस प्राणी का वध नहीं किया जा सकता, वह क्रय-विक्रयी वा खरीदकर बेचने वाला, मारने वाला हन्ता, धन से खरीदने वाला, धन लेकर बेचने वाला और उसमें प्रवृत्ति करने वाला तथा मांस पकाने वाला घातक वा प्राणी हिंसा करने वाले होते हैं। खरीदने (खाने) वाले तथा बेचने वाले दोनों पापभागी होते हैं। यह घातक (हिंसक) दोष शास्त्रोक्त विधि से हिंसा है। शास्त्र के विधि-निषेध उभयपदक होते हैं तथा मांस-भक्षक के लिए अन्यत्र प्रायश्चित कहा गया है।

 

 

 

मनुस्मृति के श्लोक 11/95 ‘‘यक्षरक्षः पिशाचान्नं मद्यं मांस सुरा ऽऽ सवम्। सद् ब्राह्मणेन नात्तव्यं देवानामश्नता हविः।” में कहा गया है कि ‘‘मद्य, मांस, सुरा और आसव ये चारों यक्ष, राक्षसों तथा पिशाचों के अन्न (भक्ष्य पदार्थ) हैं, अतएव देवताओं के हविष्य खाने वाले ब्राह्मणों को उनका भोजन (पान) नहीं करना चाहिये।” अतः मनुस्मृति में राजर्षि मनु बता रहे हैं कि जो मनुष्य मांसाहार करता है वह राक्षस व पिशाच कोटि का मनुष्य है। ब्राह्मण व अन्य मनुष्यों का भोजन तो देवताओं को दी जाने वाली गोघृत, अन्न, ओषधि, नाना प्रकार के फल व शाकाहारी पदार्थों की आहुतियां ही हैं।

 

 

 

हम समझते हैं कि मांसाहार का सेवन मनुष्य के आचरण से जुड़ा कार्य है। प्राणियों की हिंसा होने से इसे सदाचार कदापि नहीं कह सकते। बहुत से लोगों कि यह मिथ्या धारणा है कि मांसाहार से शारीरिक बल में वृद्धि होती है। यह मान्यता असत्य व अप्रमाणिक है। हमारे महापुरुष, राम, कृष्ण, दयानन्द, हनुमान, भीम, चन्दगीराम व अन्य अनेक शारीरिक बल में संसार में श्रेष्ठतम रहे हैं। यह सभी शाकाहारी गोदुग्ध, गोघृत, अन्न व फल आदि का सेवन ही करते थे। यह भी सर्वविदित है कि मांसाहार से अनेक प्रकार के रोगों की संभावना होती है। मनुष्य के शरीर की आकृति, इसके खाद्य व पाचन यन्त्र भी शाकाहारी प्राणियों के समान ईश्वर ने बनाये है। मांसाहारी पशु केवल मांस ही खाते हैं, उन्हें अन्न अभीष्ट नहीं होता। यदि मनुष्य अन्न का त्याग कर पशुओं की भांति केवल मांसाहार करें तो अनुमान है कि वह अधिक दिनों तक जीवित नहीं रह सकेंगे। अन्न खाना मनुष्य के लिए आवश्यक व अपरिहार्य है। महर्षि दयानन्द जी द्वारा गोकरुणानिधि में किया गया यह प्रश्न भी समीचीन व महत्वपूर्ण है कि जब मांसाहार के कारण सभी पशु आदि समाप्त हो जायेंगे तब क्या मांसाहारी मनुष्य मांस की प्रवृत्ति के कारण अपने आस पास के मनुष्यों को मारकर खाया करेंगे? मांसाहार करना अमनुष्योचित कार्य है। इससे मनुष्य के स्वभाव में हिंसा की प्रवृत्ति व क्रोध का प्रवेश होता है। मनुष्यों में ईश्वर ने दया व करूणा का जो गुण दिया है वह भी मांसाहार से बाधित, न्यून व समाप्त होता है। परमात्मा ने मनुष्यों के लिए प्रचुर मात्रा में अन्न व अन्य भोज्य पदार्थ बनायें हैं जो भूख वा क्षुधा को शान्त करने, बल व आरोग्य देने सहित सर्वाधिक स्वादिष्ट भी होते हैं। यह पदार्थ शीघ्र ही पच जाते हैं। शाकाहारी मनुष्य आयु की दृष्टि से भी अधिक जीते हैं। महाभारत काल में भीष्म पितामह, श्री कृष्ण व अर्जुन आदि योद्धा 120 से 180 वर्ष बीच की आयु के थे। शाकाहारी मनुष्य शाकाहारी पशुओं के समान फुर्तीला होता है। यह मांसाहारियों से अधिक कार्य कर सकता है। यदि सभी शाकाहारी होंगे तो बल-शक्ति-आयु में अधिक होने से देश को अधिक लाभ होगा। चिकित्सा पर व्यय कम होगा और अधिक शारीरिक क्षमता से देश व समाज की उन्नति अधिक होगी। शाकाहार पर्यावरण सन्तुलन के लिए भी आवश्यक है। यदि मांसाहार जारी रहा तो हो सकता है कि भविष्य में पृथिवी पशु व पक्षियों से रहित हो जाये और तब मनुष्य का जीवन भी शायद् सम्भव नहीं होगा। एक घटना को देकर हम इस लेख को विराम देते हैं। एक बार हम अपने एक मित्र के परिवार सहित उत्तर पूर्वी प्रदेशों की यात्रा पर गये।एक बंगाली बन्धु की टैक्सी में जब हम शिलांग घूम लिये तो अनायास उस बन्धु ने हमसे पूछा कि क्या आपने यहां कोई पक्षी देखा? हमने कुछ क्षण सोचा और न में उत्तर दिया तो उन्होंने कहा कि यहां के लोग पक्षियों को मार कर खा जाते हैं जिससे यहां सभी पक्षी समाप्त हो गये हैं। कहीं यही स्थिति भविष्य में समस्त भारत व विश्व में न आ जाये, इसके लिए हमें ईश्वर की वेद में की गई वेदाज्ञा का पालन करते हुए मांसाहार का सर्वथा त्याग कर देना चाहिये। इसी में हमारी और हमारी भावी पीढ़ियों की भलाई है।

 

मांसाहार निषेध, हिन्दी

पं. गणपति शर्मा जी का मौलिक तर्कःराजेन्द्र जिज्ञासु

पं. गणपति शर्मा जी का मौलिक तर्कः-श्रीयुत् आशीष प्रतापसिंह लखनऊ तथा एक अन्य भाई ने मांसाहार विषयक एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर पूछा है। इस प्रश्न का उत्तर किसी ने एक संन्यासी महाराज से भी पूछा। प्रश्न यह था कि वृक्षों में जब जीव है तो फिर अन्न, फल व वनस्पतियों का सेवन क्या जीव हिंसा व पाप नहीं है? संन्यासी जी ने उत्तर में कहा, ऐसा करना पाप नहीं। यह वेद की आज्ञा के अनुसार है। यह उत्तर ठीक नहीं है। इसे पढ़-सुनकर मैं भी हैरान रह गया।

महान् दार्शनिक पं. गणपति शर्मा जी ने झालावाड़ शास्त्रार्थ में इस प्रश्न का ठोस व मौलिक उत्तर दिया। मांसाहार इसलिए पाप है कि इससे प्राणियों को पीड़ा व दुःख होता है। वृक्षों व वनस्पतियों में जीव सुषुप्ति अवस्था में होता है, अतः उन्हें पीड़ा नहीं होती। हमें काँटा चुभ जाये तो सारा शरीर तड़प उठता है। किसी भी अंग पर चोट लगे तो सारा शरीर सिहर उठता है। पौधे से फूल तोड़ो या वृक्ष की दो-चार शाखायें काटो तो शेष फूलों व वृक्ष की शाखाओं पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। फूल तोड़ कर देखिये, पौधा मुर्झाता नहीं है। जीव, जन्तु व मनुष्य पीड़ा अनुभव करते हैं।

पं. गणपति शर्मा जी ने यह तर्क भी दिया कि मनुष्य का , पशु व पक्षी का कोई अंग काटो तो फिर नया हाथ, पैर, भुजा नहीं उगता, परन्तु वृक्षों की शाखायें फिर फूट आती हैं। इससे सिद्ध होता है कि वनस्पतियों वृक्षों में जीव तो है, परन्तु इनकी योनि मनुष्य आदि से भिन्न है। इन्हें पीड़ा नहीं होती, अतः इन्हें खाना हिंसा नहीं है। अहिंसा की परिभाषा ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में भी पढ़िये। पं. गणपति शर्मा जी का नाम लेकर यह उत्तर देना चाहिये। पण्डित जी का उत्तर वैज्ञानिक व मौलिक है।

 

मांसाहार निषेध, हिन्दी

हम शाकाहारी क्यों बनें?

हम शाकाहारी क्यों बनें?

 

डॉ. गोपालचन्द्र दाश

 

गर्मी का महीना है। गर्मी की छुट्टी के कारण सभी स्कूल बन्द हैं। एक लड़का अपने मामाजी के घर घूमने आया। उसके मामा ने उससे कहा कि एक कबूतर को पकड़कर लाओ। उसके मामा मांसाहारी थे। वे कबूतर की हत्या करके उसके मांस को पकाकर खाना चाहते थे। इसी शंका से लड़के ने कबूतर को पकड़ने के लिए पहले मना कर दिया था। उसके मामा ने भरोसा दिलाया कि वे कबूतर की हत्या नहीं करेंगे। आखिर मासूम लड़के ने कबूतर को पकड़ कर मामाजी को सौंप दिया। मामा अपने आश्वासन से मुकर गए और उसी रात कबूतर की हत्या करके उसके मांस से व्यंजन बनाए। यह घटना जानकर उस लड़के को बहुत मानसिक कष्ट हुआ। इसने उसके मन को उद्वेलित किया। रात में खाने के लिए बुलाने पर उसने सीधा मना कर दिया। रात भर बिना भोजन किए सोया। परिवार के सभी लोग लड़के से प्यार करते थे। उसका समर्थन करते हुए परिवार के दूसरे लोगों ने भी रात में भोजन नहीं किया। अगले दिन मामाजी को ज्ञात हुआ कि परिवार के सभी लोग उपवास पर हैं। मामाजी ने अपनी गलती को महसूस किया। लड़के के सामने उन्होंने कसम खायी कि भविष्य में कभी जीवहत्या नहीं करेंगे। वे पूर्ण शाकाहारी बन गए। अपने परिवार के बुजुर्ग लोगों के हृदय में संपूर्ण परिवर्तन लाने के कारण उक्त शाकाहारी बालक स्वाधीन भारत का प्रधानमंत्री बना। भारत के उस महान् सपूत का नाम है लाल बहादुर शास्त्री।

 

कुछ दिन पहले किसी एक दैनिक समाचार पत्र में रंगीन विज्ञापन प्रकाशित हुआ था। उक्त विज्ञापन की विषयवस्तु पढ़ने से मन दुःख से खिन्न हो गया। अँग्रेजी में लिखित विज्ञापन की विषयवस्तु इस प्रकार थीः- Dear meat lovers, we bring to you best desi khassi kids between the age of 6 to 8 months only rich your plate. Please contact…………विज्ञापन में एक सुन्दर मेमने की तस्वीर बनी थी। इसका आशय यह है कि ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए यह एक व्यवसायिक चाल थी। अपनी जीभ की लालसा को तृप्त करने के लिए मांसाहार करने के कारण ग्राहकों को समाज में उस तरह का विज्ञापन दृष्टिगत होता है। भुवनेश्वर की सड़क की पगडंडी के अधिकांश स्थान पर विज्ञापन पट्ट पर लिखा हुआ है- ‘‘मिट्टी के बर्तन में पकाया गया मांस और भात (बिरयानी)’’। इस तरह का विज्ञापन मांसाहार को प्रोत्साहित करता है। मानव शरीर के लिए मांसाहार अनुकूल है या नहीं, यह बात जानने से पहले यह जानना चाहिए कि आदमी जीभ के स्वाद के लिए खाता है। मांसाहारी व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप से जीव हत्या नहीं करने के बावजूद वह निश्चित रूप से महापाप में मुख्य भूमिका निभाता है।

 

बच्चा प्रसव के पश्चात् माँ का दूध पीता है। माँ का दूध उपलब्ध न होने से माँ के घरवाले गाय के दूध की व्यवस्था करते हैं। इसलिए मनुष्य जन्म से शाकाहारी है। आयु के बढ़ने के बाद परिवार और समाज के प्रभाव से व्यक्ति मांसाहारी बन जाता है। समाज में विद्यमान कुशिक्षा उस की जड़ है। शरीर की संरचना की दृष्टि से मानव शरीर शाकाहारी भोजन के लायक है। उदाहरण के तौर पर-

 

१. मांसाहार करनेवाले प्राणी की लार में अम्ल की मात्रा अधिक होती है।

 

२. मांसाहारी प्राणी के रक्त की रासायनिक स्थिति (पी.एच.) कम है अर्थात् अम्लयुक्त है। शाकाहारी प्राणी के रक्त का पी.एच. ज्यादा है अर्थात् क्षारयुक्त है।

 

३. मांसाहारी प्राणी के रक्त में स्थित लिपोप्रोटीन शाकाहारी प्राणी से अलग होता है। शाकाहारी प्राणी का लिपोप्रोटीन मनुष्य जैसा होता है।

 

४. मांस की पाचन क्रिया में मांसाहारी प्राणी के आमाशय में उत्पन्न हाइड्रोक्लोरिक एसिड की मात्रा मनुष्य की तुलना में दस गुणा होती है। मनुष्य और अन्य प्राणियों के आमाश्य में उत्पन्न अम्ल (एसिड) की मात्रा कम होने के कारण मांस की पाचन क्रिया में बाधा उत्पन्न होती है।

 

५. मांसाहारी प्राणी की आंत्रनली की लम्बाई छोटी और शरीर की लम्बाई के बराबर होती है। आंत्रनलिका छोटी होने के कारण मांस शरीर में विषैला होने से पहले बाहर निकल जाता है, परन्तु मनुष्य और अन्य शाकाहारी प्राणियों की आंत्रनली की लम्बाई शरीर की लम्बाई से चार गुणा अधिक होती है, इसलिए मांसाहार से उत्पन्न विषैला तत्त्व शरीर से सहज ढंग से निकल नहीं सकता है, इसलिए शरीर रोगाक्रान्त हो जाता है। मांसाहार से उत्पन्न प्रमुख रोग हैं-उच्च रक्तचाप, मधुमेह, हृदयरोग, गुर्दे का रोग, गठिया, अर्श, एक्जीमा, अलसर, गुदा और स्तन कर्कट आदि।

 

६. शिकार को सहज ढंग से पकड़ने के लिए मांसाहारी प्राणी की जीभ कंटीली, दाँत पैने और ऊँगलियों में पैने नाखून होते हैं। लेकिन शाकाहारी प्राणी की जीभ चिकनाईयुक्त, चौड़े दाँत और नाखून आयताकार जैसे होते हैं। शाकाहारी प्राणी होंठ के सहारे पानी पीता है, परन्तु मांसाहारी प्राणी जीभ से पानी पीता है।

 

७. मांसाहारी प्राणी की जीभ ऊपर और नीचे की और गतिशील होती है। इसलिए वे बिना चबाकर भोजन को निगल लेते हैं, इसके विपरीत शाकाहारी प्राणियों की जीभ चारों दिशाओं में गतिशील होती है। इसलिए वे भोजन को चबाकर खाते हैं।

 

८. मांसाहारी भोजन से शरीर में उत्पन्न अधिक वसा आदि के निर्गत के लिए उनके यकृत और गुर्दे का आकार बड़ा होता है। शाकाहारी प्राणियों के ऐसे अंग-प्रत्यंग छोटे होने की वजह से धमनी में एथेरोक्लेरोसिम जैसे रोग उत्पन्न होते हैं।

 

९. शाकाहारी की तुलना में मांसाहारी जीव की घ्राणशक्ति तेज तथा आवाज कठोर और भयानक होती हैं। ऐसे गुण उन्हें शिकार के लिए मदद करते हैं।

 

१०. मांसाहारी प्राणी की संतान जन्म के बाद एक सप्ताह तक दृष्टिहीन होती हैं। मनुष्य की तरह अन्य शाकाहारी पशु की संतान जन्म के बाद देख सकती हैं। ऐसे सभी विश्लेषण से ज्ञात होता है कि मानव शरीर की संरचना अन्य मांसाहारी प्राणियों से भिन्न होती हैं और शाकाहारी प्राणियों के अनुरूप होती हैं। इसलिए मनुष्य हमेशा एक शाकाहारी प्राणी है।

 

मनुष्य से भिन्न दुनिया का अन्य कोई भी प्राणी अपनी शारीरिक संरचना एवं स्वभाव के विपरीत आचरण नहीं करता है। उदाहरण के रूप में बाघ भूखा रहने पर भी शाकाहारी नहीं बनता है अथवा गाय भूख के कारण मांसाहार नहीं करती है। कारण यह कि ऐसा उनके स्वभाव के अनुकूल नहीं है, परन्तु मनुष्य जैसे विवेकशील एवं बुद्धिमान् प्राणी में इस तरह के प्रतिकूल स्वभाव पाए जाते हैं। मनुष्य का भोजन केवल पेट भरने तथा स्वाद तक सीमित नहीं है। यह मनुष्य के शारीरिक, मानसिक, चरित्रगत तथा बौद्धिक स्वास्थ्य के विकास में मुख्य भूमिका निभाता है। इसके लिए कहा गया है- ‘‘जैसा अन्न, वैसा मन’’। भोजन में रोग उत्पन्न करनेवाला, स्वास्थ्य को बिगाड़नेवाला और उत्तेजक पदार्थ रहने से वह शरीर के लिए हानिकारक होता है तथा शरीर के लिए विजातीय तत्त्वों को बाहर निकालने में रुकावट पैदा करता है। भोजन ऐसा होना चाहिए जिससे कि शरीर से अनावश्यक तत्त्व शीघ्र बाहर निकलने के साथ-साथ रोगनिरोध शक्ति उत्पन्न हो। पेड़ पौधों से बनाए जाने वाले शाकाहारी भोजन में पर्याप्त रेशा (फाइबर) होने के कारण यह कब्ज को दूर करने के साथ-साथ अनावश्यक पदार्थ जैसेः- अत्यधिक वसा (फैट) और सुगर आदि मल के रूप में निर्गत करवाता हैं। इसी वजह से व्यक्ति को मधुमेह और उच्च रक्तचापआदि रोगों से मुक्ति मिलती है। मांसाहारी खाद्य की तुलना में शाकाहारी खाद्य में स्वास्थ्यवर्धक पदार्थों की मात्रा अधिक होती है। यह व्यक्ति को स्वस्थ, दीर्घायु, निरोग और हृष्टपुष्ट बनाता है। शाकाहारी व्यक्ति हमेशा ठंडे दिमागवाले, सहनशील, सशक्त, बहादुर, परिश्रमी, शान्तिप्रिय आनन्दप्रिय और प्रत्युत्पन्नमति होते हैं। वे अधिक समय बिना भोजन के रहने की क्षमता रखते हैं। इसलिए उनके पास दीर्घ समय तक उपवास करने की क्षमता है। उदाहरण स्वरूप भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र भाई मोदी ने इस वर्ष नवरात्रि पर्व के दौरान अपनी अमेरीका यात्रा के दौरान लगातार पाँच दिनों तक उपवास करके केवल गर्म पानी पी कर धाराप्रवाह भाषण के माध्यम से दिन-रात अनेक सभाओं को बिना अवसाद सम्बोधित किया था। यह घटना विश्ववासियों को आश्चर्यचकित करती थी।

 

शाकाहारी भोजन न केवल शक्ति प्रदायक होता है, यह आर्थिक दृष्टि से किफायती भी है। शाकाहारी भोजन द्वारा पशुधन सुरक्षित होने के साथ-साथ इसका सही उपयोग होता है। गौ पशुधन से प्राप्त दूध, दूध-सम्बन्धी उत्पाद, गोबर खाद, ईंधन गैस और विद्युत ऊर्जा उत्पन्न होती हैं। मुर्गी वातावरण की संरक्षा और मछली जल का शोधन करती है। इसके विपरीत यदि शाकाहारी प्राणी प्रतिदिन मांसाहार करता है तो इतनी मात्रा में अम्ल और जहरीला पदार्थ उत्पन्न होंगे तो शारीरिक क्रिया को क्रमशः ठप करा देंगे। उससे व्यक्ति अल्पायु होता है। उदाहरण के तौर पर भौगोलिक परिवेश के अनुरूप मांसाहार से जीवनयापन करने के कारण एस्किमों की औसत आयु सिर्फ ३० वर्ष होती है। कसाईखाने में मासूम जानवर अपनी आत्मरक्षा का प्रयास करते हुए छटपटाता है। भय और आवेग से पशु के शरीर से अत्यधिक मात्रा में आड्रेनलीन उत्पन्न होता है। यह एक उत्तेजक हारमोन है। इससे पशु का मांस विषैला बन जाता है। उक्त मांस को खानेवाला व्यक्ति हमेशा सामान्य उत्तेजक स्थिति में उत्तेजित होता हैं एवं क्रुद्ध बन जाता है। मांसाहार से सम्बद्ध अन्य बुरी आदतें हैं जैसे- मदिरा पान, धूमपान। मांस और मदिरा के चपेट में आकर मनुष्य अज्ञात रूप से बहुत कुकर्म करता है।

 

विगत दिनों की घटनाओं पर चिंतन करने पर यह पाया गया है कि वाइरसजन्य बर्ड फ्लू और स्वाइन फ्लू समग्र विश्व में बारबार महामारी का रूप लेते हैं। ये रोग मुर्गियों और सूअरों के माध्यम से मनुष्य को संक्रमित करते हैं। उपर्युक्त पक्षी और जानवर का मांसाहार इसका प्रमुख कारण है। शाकाहारी जीवन शैली से इन रोगों का संपूर्ण निराकरण किया जा सकता है। मछलियों, मांस और अण्डों को सुरक्षित रखने के लिए व्यवहृत विभिन्न किस्म के रसायन मनुष्य शरीर के लिए हानिकारक हैं। परीक्षा से इस बात की पुष्टि की गई हैकि यदि अण्ड़े को आठ डिग्री सेंटिग्रेड से अधिक तापमान में बारह घंटे से अधिक समय के लिए रखा जाता है तो अन्दर से अण्डे की सड़न प्रक्रिया शुरू हो जाती है। भारत जैसे ग्रीष्म मंडलीय जलवायु में अण्डे को निरन्तर वातानुकूलित व्यवस्था में रखा जाना संभव नहीं हो पाता है। ये वाइरस, टाइफाइड और खाद्य सामग्री को विषैला बना देते हैं। लिस्टेरिया वाइरस गर्भवती महिलाओं में गर्भपात की समस्या तथा गर्भस्थ शिशु में रोग उत्पन्न करता है।

 

मनुष्य सभी प्राणियों में श्रेष्ठ है। अहिंसा मानव का परम धर्म है। सभी धर्मों में जीवहत्या का विरोध किया गया है। जीवहत्या के बिना मांसाहार असंभव है। दया और विनम्रता गुण मनुष्य के भूषण होते हैं। निर्दयता मनुष्य को जीवहत्या के लिए प्रेरित करती है। यह मनुष्य का गुण नहीं है, अवगुण है। महात्मा बुद्ध, वर्धमान महावीर, महर्षि दयानन्द, संत कबीर और राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जैसे महापुरुषगण जीवहत्या का विरोध करते थे और कहते थे कि मांस की खरीद करने वाला आदमी मांसाहार करने वाले आदमी की तरह दोषी हैं।

 

वर्तमान समाज में परिवर्तन की लहर आई है। पाश्चात्य देश के लोग हमारी संस्कृति से प्रभावित होकर धीरे-धीरे शाकाहारी बन रहे हैं, परन्तु हम लोग विपरीत आचरण कर रहे हैं। जन जागरण के लिए वर्तमान केबिनेट मंत्री श्रीमती मेनका गाँधी समाचार पत्रों और दूरदर्शन के माध्यम से मांसाहार के कुपरिणाम और शाकाहार के लाभ के बारे में निरन्तर अपने विचार व्यक्त करती आ रही हैं। कनाडा के अनुसंधानकर्त्ताओं की एक टीम ने ५ सालों के परीक्षण के बाद ‘अम्बलीडमा अमेरिकनस’ नाम से एक कीड़े का आविष्कार किया है। ठंडे परिवेश में अपने वंश का विस्तार करने वाला कीड़ा यदि आदमी को काट देता है तो उसके शरीर में एक अस्वाभाविक परिवर्तन होता है।

 

मनुष्य की भावना उसके कर्म को प्रभावित करती है। जिस व्यक्ति में अहिंसा, दया, क्षमा और उपकार करने की भावना है, वह अन्य किसी प्राणी को दर्द देनेवाला निर्दय कर्म नहीं करेगा। प्राणी के कष्ट को हृदय में महसूस करने वाला व्यक्ति मांसाहार करेगा, इसकी कल्पना कभी भी नहीं की जा सकती है, तो आइए, हम सब शाकाहारी बनें।    – अपर स्वास्थ्य निदेशक, पूर्व तट रेल्वे, भुवनेश्वर।

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