अनियंत्रित और नियंत्रित मन में अंतर
नियंत्रण और अनियंत्रण की बात जब की जाती है, तो प्रायः लोग नियंत्रण पर ही जो देते है, क्योंकि जिस प्रकार से हमारी कार यदि हमारे नियंत्रण में
नहीं होगी, तो उसका दुर्घटना होना तय हैं, और जब दुर्घटना होगी, तो नुकसान होगा। यहां तक हमारे जीवन
पर भी खतरा आ सकता है, मान ले
कि हमारी जान दुर्घटना में नहीं जाती है, फिर भी हमारे शरीर को जिन कष्टों का समाना करना पड़ता है, वह शरीर का स्वामी जो इस शरीर में रहने वाली है उसके लिए जीना
काफी दुष्कर हो जाता है। और हर मानव चेतना अपने आप को इस कष्ट से बचाना चाहती है,
और इस से बचने का केवल एक रास्ता है की हम अपनी गाड़ी को अपने नियंत्रण में चलाएं,
ऐसा भी हो सकता है, की हम अपनी गाड़ी को चलाने के लिए किसी कुशल चालक को भी किराये
पर रख सकते हैं। लेकिन मैं यहां पर अपनी शरीर की गाड़ी को नियंत्रण में रखने की
बात कर हूं, हमारी शरीर जिससे नियंत्रित होती है उसे बुद्धि कहते है, और बुद्धि
जिससे नियंत्रित होती है, उसे मन कहते है, और मन पर अहं कार का नियंत्रण होता है
और अहंकार पर चित्त का नियंत्रण होता है। यह नियंत्रण और अनियंत्रण का खेल ही हमारा
जीवन मुल धुरा है। हमारी आत्मा को सुख की अनुभूति तब होती है जब उसके नियंत्रण में मन, बुद्धि, चित्त, और अहंकार होते
हैं, जब ऐसा नहीं होता है तो दूसरा खेल हमारे जीवन में चलता है जिसको विनाश लीला
कह सकते है, और हर मानव चेतना अर्थात आत्मा इस विनाश लीला से स्वयं को बचाना चाहती
है।
ऐसा क्यों होता है, क्या आपने कभी इस विषय पर विचार
किया है, विनाश शरीर का तो होना निश्चित है, पूर्ण रूप से शरीर का विनाश मृत्यु करती
है, तो जीवन क्या करता है, जीवन का मतलब है, ऐसी शक्ति जो मृत्यु से शरीर को बचाने
का कार्य करती है, जीवन के सहायक के रूप में यही मन, बुद्धि, चित्त, और अहंकार
हैं, जीवन जीव से बनता है, अर्थात वह जीव जो मन में रहता है, इसलिये इसको एक साथ
मिला कर जीवन कहते हैं, मन में यह चारों तत्व एक साथ समाहित होते है, तो यहां पर
मुख्य प्रश्न यहीं है कि मन को कैसे नियंत्रण किया जाए, क्योंकि मन का नियंत्रण
जीव अर्थात आत्मा के लिए शुभ है, और मन पर अनियंत्रण आत्मा के लिए अशुभ है, मन पर
नियंत्रण किसका होता अर्थात इन चार तत्वों का जो समूह है जिसको मन, बुद्धि, चित्त,
और अहंकार कहते हैं, तो इसका सिधा सा अर्थ है इस पर नियंत्रण जीव का या फिर आत्मा
का होना चाहिए, लेकिन जब इन पर चेतना का अर्थात आत्मा का नियंत्रण मन पर नहीं होता
है, इसका परिणाम मृत्यु होती है, और यह मृत्यु रोज होती है, सुबह शाम होती है, जो
यह सुबह शाम मृत्यु की घटना घटती है, इससे आत्मा को यदि स्वयं को बचाना है, तो आत्मा
को इन सब से शक्तिशाली बनना होगा। और आत्मा शक्ति शाली कैसे बन सकता है, क्योंकि
कोई शक्तिशाली ताकतवर ही इस मृत्यु के वाहक मन को नियंत्रित कर सकता है, क्योंकि मन
के माध्यम से ही मृत्यु रोज इस शरीर पर आक्रमण करती है, जिसका कष्ट आत्मा सहन करती
है, रोज मरने का मतलब है, की शरीर जब पूर्ण रूप से आत्मा के नियंत्रण में नहीं रहती
है, तो मन अपने दूसरे भाइयों के साथ अर्थात बुद्धि, अहंकार, और चित्त के साथ मिल
कर शरीर का दोहन करता है, अर्थात शरीर जिस शक्ति को अपने खाने पीने से संचित करता
है, उससे खून बनता है, और खून से रस, मांस, मज्जा, मेद, हड्डी, और विर्य बनता है, और
इसी से शरीर स्वयं बनता है हर पल यह कार्य निरंतर हो रहा है, और इसी शरीर में जीव
अर्थात जीवात्मा अपने किसी विशेष कार्य की सिद्धि के लिए निवास करता है, शरीर का
निर्वाण और शरीर का नाश इन दोनों कार्यों में मन का योगदान होता है, मन एक और कार्य
करता है, वह कार्य है शरीर क अन्दर तैयार होने वाला बहुमूल्य तत्व उसका वीर्य जिससे
शरीर स्वयं का निर्वाण करती है, और इसी वीर्य का यदि वह किसी औरत क गर्भ में सिंचित करता है, तो उस जैसी
एक और शरीर तैयार होती है, पुत्र या पुत्री क रूप में , मन अपने क्षणिक सुख के लिए इस वीर्य का हस्तमैथुन के माध्यम से
अपव्यय करता है, जिससे शरीर आत्मा के उस कार्य को सिद्ध करने में अयोग्य सिद्ध
होती है, जिससे आत्मा को बहुत भयानक क्लेश होता है, और उसके शरीर क धारण करने का उद्देश्य सिद्ध नहीं होता है।
शरीर को स्वस्थ रखना अलग बात है, शरीर को पूर्णतः स्वस्थ रखने का मतलब है कि इसके अंदर रहने वाले जीवात्मा अर्थात उसके लिए शरीर उपयोगी सिद्ध हो और उसके उस आवश्यक कार्य को पूर्ण कराने में पूर्णतः सिद्ध कराने में परिपूर्ण सहयोग करेे, और यह कार्य शरीर के लिए तभी संभव हो सकता है जब यह आत्मा के लिए उपयोगी सिद्ध हो और अपने शरीर में उत्पन्न होने वाली शक्ति अर्थात वीर्य का संचय करके स्वयं को मजबुत रखे, और यह कार्य मन के नियंत्रण से ही संभव है, अनियंत्रित मन वासना की किस्ती पर सवार हो कर इस शरीर का सर्वनाश कर देता है।
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