यशस्वी सांसद: वेद की दृष्टि में
यशो मा द्यावापृथिवी यशो मेन्द्रबृहस्पती।
यशो भगस्य विन्दतु यशो मा प्रतिमुच्यताम्।
यशस्व्या३स्याः संसदोऽहं प्रवदिता स्याम्॥
-सामवेद ६११
ऋषिः-वामदेवो गौतमः।
देवता:-लिङ्गोक्तः। छन्दः-महापंक्ति।
पदपाठ-यशः । मा। द्यावा। पृथिवी।
यशः । मा। इन्द्रबृहस्पति। यशः। भगस्य। विन्दतु। यशः। मा। प्रति-मुच्यताम्। यशसा।
अस्याः । संसदः। अहम्। प्र-वदिता। स्याम्॥
(यश: मा द्यावा-पृथिवी) - मुझे द्यौ और पृथिवी का यश,
(यश: मा इन्द्र-बृहस्पती) - मुझे इन्द्र और बृहस्पति का यश,
(यश: भगस्य) [तथा] ऐश्वर्य का यश
(विन्दतु) प्राप्त हो।
(यशः मा प्रतिमुच्यताम्) - यश मुझे कभी न छोड़े।
(यशसा अस्याः सम्सद) - यश से युक्त, इस संसद का
(अहम् प्रवदिता स्याम्) - मैं प्रभावशाली प्रवक्ता होऊँ।
प्रस्तुत मन्त्र में द्रष्टा ऋषि वामदेव
गौतम' ने, जो स्वयं प्रशस्त गुण तथा उत्तम- इन्द्रियों वाला है, एक यशस्वी सांसद (संसदसदस्य) की प्रभु से व्यक्त की गई याचना
की ओर ध्यान दिला कर तीन बातों को बिल्कुल साक्षात् करके हमारे समक्ष रख दिया है
(१) आर्यावर्त में ही नहीं, समस्त भू-मण्डल पर, जहाँ तक भी आर्यों का चक्रवर्ती राज्य रहा, संसदीय प्रणाली इतनी ही प्रचीनतम
रही है, जितना प्राचीनतम है परमात्मा की
अमर कल्याणी वाणी 'वेद'। मन्त्र में 'संसद' शब्द की विद्यमानता से आधुनिक
राजनीति के आचार्यों की इस बात का खण्डन हो जाता है, जो यह मानते हैं कि संसदीय प्रणाली
अर्वाचीन राजनीतिक विचारधारा में हए क्रमश: विकास की देन है। यदि प्राचीन काल में
संसदीय व्यवस्था नहीं थी, तो किसी को क्या ज़रुरत पड़ी थी इस
कामना की, कि 'यश से युक्त मैं इस संसद का
प्रभावशाली प्रवक्ता होऊं'। इस प्रकार की कामना का होना ही
प्राचीनतम काल से एक परिपुष्ट कार्यशील संसदीय व्यवस्था का होना सिद्ध करता है।
(२) सार्वजनिक हित तथा कल्याणकारी योजनाओं सम्बन्धी
नीति-विषयक निर्णय आदि-काल से ही संसद द्वारा सामूहिक निर्णय के आधार पर लिये जाते
रहे हैं, जहां प्रत्येक संसद सदस्य को अपने
विचार व्यक्त करने की स्वतन्त्रता रही है। प्रत्येक सांसद की यह कामना 'कि वह संसद में एक प्रभावशाली
प्रवक्ता के रूप में सफल हो' इतनी ही प्राचीनतम है, जितना प्राचीनतम है 'वेद'।
(३) वेद की दृष्टि में केवल 'महान यश वाले' यशस्वी तथा ज्ञानवान व्यक्ति ही संसद में जाने तथा
प्रभावशाली ढंग से बोलने के अधिकारी रहे हैं, अन्य नहीं। सांसद की प्रभु से यह कामना, कि 'यश मुझे कभी न छोड़े' सिद्ध करती है, कि यदि उसका यश जाता रहा, तो वह कहीं का नहीं रहेगा।
इससे पूर्व कि हम मन्त्र पर ज़रा
गहराई से विचार करें, एक बात का ध्यान रखना जरूरी है।
वेद में संसद', 'सभा','समिति', 'परिषद' सब शब्द एक दूसरे के पर्याय हैं।
इस प्रकार 'सभा', 'समिति' चाहे किसी भी स्तर या श्रेणी की हो, उनके सदस्य/ सभासद एक प्रकार के
सांसद ही हैं। अत: मन्त्र में 'संसद' को 'सभा' के रूप में लेना ही युक्ति-युक्त
है। वैसे भी जिसे आज हम संसद कहते हैं, वे सभा ही हैं- जैसे लोक-सभा, राज्य-सभा आदि। इस प्रकार आज जितनी
भी 'सभा', 'समितियां', 'परिषदें' हैं, वे सब अपने-अपने क्षेत्र में 'संसद' ही हैं। इस दृष्टि से मन्त्र में
जो कुछ भी कहा गया है, वह प्रत्येक सभा को तथा उसके
सभासदों को लागू होता है।
सभा/संसद कैसी हो, क्या स्वरूप हो, इस विषय में वेदों में बहुत कुछ
ज्ञान उपलब्ध है। देखें अथर्ववेद के यह मन्त्र।
सभा च मा समितिश्चावतां
प्रजापतेर्दुहितरौं संविदाने।
येना संगच्छा उपमा स शिक्षाच्चारु
वदानि पितरः संगतेषु॥ -अथर्व०७।१२।१
"प्रजापति (स्वामिन प्रजा) की
दुहिता (कन्या) तुल्य सभा और समिति एकजुट होकर मेरी रक्षा करें। जिस किसी सभासद/
सांसद के साथ मैं मिलूं, वह मुझे शिक्षित करे (उचित मार्ग
दिखावे)। विद्वान, ज्ञानी, वरिष्ठ, अग्रज जन सभाओं में उत्तम प्रकार
से बोलें।"
संसद / सभा / समिति की निर्मात्री
प्रजा है, अतः प्रजा ही इन सभाओं की पति
(स्वामी) है। संसद / सभा आदि प्रजा की पुत्री तुल्य हैं । पुत्री जैसे पितृ-कुल और
पति-कुल दोनों का हित सम्पादित करने वाली होती है, इस प्रकार संसद / सभायें (समस्त) राष्ट्र तथा प्रजा दोनों
का हित सम्पादित करने वाली होनी चाहियें।
विद्य तें सभे नाम नरिष्टा नाम वा
असि।
ये ते के च सभासद्स्ते में सन्तु
सवाचसः॥ -अथर्व०७।१२।२
"हे सभा! तेरा नाम (यश) हम
जानते हैं। तू निस्सन्देह नरिष्टा (अरिष्ट) है। जो कोई भी तेरे सभासद हों, वे मेरे (जनता के, समाज के, राष्ट्र के, विश्व के) प्रति सम्यक् बोलने वाले
हों।" सभा में बैठने वाले को 'सभ्य' कहते हैं। 'सभ्यों' के व्यवहार, रहन-सहन, चाल-चलन को 'सभ्यता' कहते हैं। अतः सभासदों के व्यवहार, रहन-सहन और चाल-चलन से सभा का
स्वरूप बनता है। नेकनामी या बदनामी (यश या अपयश) सभा को प्राप्त होती है, केवल अपने सभासदों से। अत: संसद /
सभा के परिचालनों में सभासदों और सभापति पर बड़ी जिम्मेवारी आती है।
सभासदों के बारे में तो वेद ने कहा
है (स
वाचसः)
सही बोलें, सत्य बोलें, (चारु) (उत्तम) बोलें। जो सभा का अनुशासन भंग करता है, शोर-शराबा तथा वितण्डा खड़ा करता
है, असभ्यता का प्रदर्शन करता है, वह सभासद सभा में बैठने योग्य
नहीं। इसी प्रकार जो सभासद सभा में बैठकर भी मौन रहता है, वह भी वेदविरुद्ध आचरण करता है।
मनु महाराज ने कहा है
सभा वा न प्रवेष्टव्यं वक्तव्यं वा
समञ्जसम्।
अब्रुवन्-विब्रुवन् वाऽपिनरो भवति
किल्विषी॥
यत्र धर्मोह्य धर्मेण सत्यं
यत्रानुतेन च ।
हन्यते प्रेक्षमाणानां हस्तास्तत्र
सभासदः॥
-मनुस्मृति ८।१३-१४
"या तो सभा में प्रवेश न करे, और जो प्रवेश किया हो तो समञ्जित-सत्य
वक्तव्य ही देवे। जो कोई नर सभा में (अन्याय को देखते हुये वा असत्य को सुनकर भी)
मौन रहे, या सत्य न्याय के विपरीत बोले, तो महापापी होता है। जिस सभा/संसद
में बैठे हुये सभासदों के सामने अधर्म से धर्म का और झूठ से सच का हनन होता है, उस सभा में सब सभासद मरे से ही
(मृतक समान) हैं।"
सभापति को भी चाहिये कि
यद वो मनः परागतं यद बद्धमिह वेह
वा।
तद व आ वर्तयामसि मयि वो रमतां मनः
।।
-अथर्व०७।१२।४
"यदि आप सभासदों का मन कहीं
अन्यत्र चला गया है, या इधर-उधर बद्ध हो रहा है, तो आपके उस मन को पुनः लौटाने का
आदेश देता हूँ। आपका मन मेरी कही बातों में लगे।"
सभासद यदि विषयान्तर करे, तो उसको वापस अपने विषय पर लाना
सभापति का दायित्व है। संसद/ सभा के लक्ष्य के बारे में वेद में आयाअस्माद्य सदसः सोम्यादा
विद्यामेषं वृजनै जीरदानुम्॥
-ऋग्० १११८२१८
आज इस सोम्य सभा में प्रेरणा
(इच्छा-सिद्धि), बल (साहसशक्ति) तथा जीवन्त (जीवन
के लिये) आस्था एवं दिशा प्राप्त करें। वेद के अनुसार संसद/ सभा का सौम्य अर्थात्
सोम गुणों से युक्त होना जरूरी है। तथा संसद व सभा की कार्यवाही से लोगों को नई
प्रेरणा, नया बल और जीवन्त-जीवन के लिये नई
दिशा और विश्वास मिलना चाहिये। संसद/सभा में दस प्रकार के परिपक्व विद्वान्
स्त्री-पुरुष (पितर: कोटि के) होने चाहिये
त्रैविद्यौ हेतुकस्तर्की नैरुक्तो
धर्म-पाठकः।
त्रयश्चाश्रमिणः पूर्वे
परिषत्-स्यात्-दशावरा॥
-मनुस्मृति १२११११
परिषद् में दस प्रकार के विद्वानों
का वरण इस प्रकार का हो"तीन प्रकार की विद्याओं के जानने वाले, हैतुक (कारण-अकारण वा कार्य-कारण
के ज्ञाता वैज्ञानिक), तर्की (तर्क-निपुण, न्यायविद्) नैरुक्तः (निरुक्त
अर्थात् विधा को जानने वाले),
धर्म-पाठकः
धर्म का पाठ पढ़ने वाले (धर्म का क्षेत्र इतना बड़ा है, कि आयु-पर्यन्त मनुष्य उसमें पाठक
ही रहता है।), तीन पूर्व-आश्रमों के व्यक्ति
अर्थात् आदित्य-ब्रह्मचारी,सद-गृहस्थी तथा वानप्रस्थी।"
तीन प्रकार की विद्याओं को जानने
वाले से तात्पर्य 'ईश्वर', 'जीव' और 'प्रकृति' के विशद-ज्ञान से है, अर्थात् उनके गुण, कर्म और स्वभाव का सम्यक् ज्ञान।
जिस सभा/ संसद में उपरोक्त दस प्रकार के विद्वान-देव गण होंगे, वह सभा 'सभा' होगी। सभा का एक अर्थ 'प्रकाशयुक्त' भी है। जिस सभा में उपरोक्त दस
प्रकार के महापुरुष होंगे, वहां प्रकाश और पारदर्शिता होगी
ही। इस प्रकार की सभा दिव्य-विभूतियों और उनके सुवचनों से निश्चित रूप से जगमगा
रही होगी।
ऐसी सभा/ संसद के लिये सभासद/
सांसद की सर्वशक्तिमान् तथा अनन्त ऐश्वर्य सच्चिदानन्द-स्वरूप परमेश्वर से
प्रार्थना है, कि (विन्दतु) प्राप्त हो-(यशः माद्यावा-पृथिवी) द्यौ और पृथिवी का यश, (यशः मा इन्द्र-बृहस्पती) इन्द्र और बृहस्पति का यश, तथा (यशः भगस्य) भग (ऐश्वर्य) का यश। वेद की
दृष्टि में सांसद/ सभासद यश अवश्य प्राप्त करे, पर कोरी वाह-वाही वाला नहीं, चाटुकारों और जात-बिरादरी वालों का यश नहीं, अपनी प्रशस्ति में कीर्तन वाला यश
नहीं, पुत्रैषणा तथा लोकैषणा की पूर्ति
द्वारा प्राप्त यश नहीं, विज्ञापनबाजी और झुठे प्रोपेगेंडा
वाला यश नहीं, दलितों, किसानों, श्रमिकों के मसीहा कहाने वाला यश
नहीं, धर्मगुरु, धर्माचार्य, धर्मावतार की उपाधि से विभूषित यश
नहीं, अपितु उसे चाहिये 'द्यौ' और 'पृथिवी' का यश, 'इन्द्र' और 'बृहस्पति' का यश और 'ऐश्वर्य' का यश। 'यश' कहते है-'प्रतिष्ठा' को, 'महिमा'
को
'प्रताप' को, 'गौरव' को। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में दो
महिमामान लोक हैं-एक है 'पृथिवी' जिस पर जीवन है, और दूसरा है 'द्यौ' अर्थात् 'ऊर्ध्व लोक, जिसमें समस्त लोक-लोकान्तर
प्रतिष्ठित हैं। द्यौ में ही सारे दिव्य नक्षत्र, तारागण आदि जगमगा रहे हैं। ज्योति और प्रकाश का पुञ्ज है
द्यौ लोक, और जल व जीवन से प्रतिष्ठित है
पृथिवी लोक। द्यौः इव भूम्ना, पृथिवी इव वरिम्णा (यजु० ३।५) घी के समान भूना
(अर्थात् महान्, गरिमावान व दिव्यताओं से युक्त) और
पृथिवी के समान वरिम्णा (अर्थात् वरणीय, यजनीय,
सहनशील
व गतिमान) होना ही द्यौ और पृथिवी के यश को प्राप्त करना है। यथा द्यौश्च पृथिवी च न बिभीतो न
रिष्यतः (अथर्व०२।१५
। १) जैसे द्यौ और पृथिवी न भयभीत होते हैं और न रूठते हैं, उसी प्रकार जो न डरता है, और न नाराज होता है, वह द्यौ और पृथिवी के यश को
प्राप्त करता है, उसके प्राणों को कोई खतरा नहीं
होता।
जैसे पृथिवी और द्यौ का यश
महत्वपूर्ण है, उसी प्रकार 'इन्द्र' और 'बृहस्पति' का। इस पिण्ड में इन्द्रियों का
स्वामी जैसे 'इन्द्र' है, उसी प्रकार ब्रह्माण्ड का स्वामी 'बृहस्पति' है। इन्द्र' यदि 'आत्मा' है, तो बृहस्पति 'परमात्मा'
है।
'इन्द्र' यदि आत्मज्ञान और आत्मबल का चाहने
वाला है तो 'बृहस्पति' गुरु के समान आत्मज्ञान और आत्मबल
का देने वाला है। पृथिवी पर जो जीवन है, जीवन में जो इच्छा है, गति है,
प्रयत्न
है, पुरुषार्थ है, अनुभूति है, वह इसी 'इन्द्र' से है। इसी प्रकार बृहद्, महद् और विराट ब्रह्माण्ड में जो
नियमन है, व्यवस्था है, गति है, कारण और कार्य है, उसका अधिपति 'बृहस्पति' है। ब्रह्मवै बृहस्पतिः (मैत्रायणी संहिता-२।२।३) ब्रह्म
ही बृहस्पतिः है। बृहस्पति के नेतृत्व में 'इन्द्र'
भद्रादधि
श्रेयः प्रेहि-अथर्व० ७।८।१ भद्र से ऊपर श्रेय को प्राप्त करता है। इन्द्रस्य युज्यः सखा (यजु:० ६।४, १३।३३, साम० १६७१) इन्द्र का परम सखा तो
व्यापक परमेश्वर ही है। परमेश प्रभु की सख्यता में य ओजिष्ठ इन्द्र तं सु नो दा मदो
वृषन्त्स्वभिष्टिास्वान्। -ऋग्० ६।३३।१ के अनुसार 'इन्द्र' ओजिष्ठ (ओज व पराक्रम से युक्त) मदः (आनन्दयुक्त) सु-अभिष्टिः (भली भांति सम्मानीय), दास्वान् (दानों का दाता) वृषन (बलवान), विघ्नों का नाश करने वाला और
शत्रुओं को पराजित करने वाला बनता है। चूंकि शरीर ही नाशवान है और आत्मा अमर है, अतः इन्द्र को जब अपने अमरत्व का
एहसास होता है तो वह निर्भय होकर कह उठता है 'अहम् इन्द्रः न पराजिग्य, न इत् धनम्, न मृत्यवे अव तस्थे'-ऋग्०१०। ४८।५ मैं इन्द्र हूँ, न । पराजित होता हूँ न धन और
मृत्यु के नीचे दबाया जा सकता हूँ।
पृथिवी, द्यौ, इन्द्र और बृहस्पति के विवेचन से
स्वतः यह स्पष्ट हो जाता है, कि यश की कामना करने वाले सांसद/
सभासद के लिये वेद की दृष्टि में क्यों इन पृथिवी, द्यौ, इन्द्र और बृहस्पति का यश प्राप्त
करना जरुरी है। वेद सांसद/ सभासद को समान गरिमावान, दिव्यताओं से युक्त, यजनीय,
सहनशील
और निर्भीक देखना चाहता है। वेद की दृष्टि में सांसद आत्म-ज्ञान और आत्मबल से पुरित
श्रेय मार्ग पर चलने वाले ओज और पराक्रम से युक्त अजेय और अदब्ध: होने चाहिये, जो 'ब्रह्म पीपिहि सौभगाय-यजु:०१४ । 'सौभाग्य के लिये ब्रह्म पान कर 'इन्द्रो विश्वस्य राजति-यजु:०३६।८'इन्द्र के समान विश्व का रञ्जन
करें।
(यशः भगस्य) भग (ऐश्वर्य) के यश के लिये 'भग एव भगवाँ अस्तु' ऋग्० ७।४१।५ भगवान ही ऐश्वर्य हो। 'स नो भग पुरएता भवेह' वही (भगवान) ही ऐश्वर्य हेतु हमारा
आदर्श प्रेरक नेता हो। सांसद/सभासद वेद की दृष्टि में केवल ईश्वर को ही अपना
पथ-प्रदर्शक देखे, और उन समस्त दैवी सम्पदाओं से
युक्त हों, जो मोक्षदायिनी हैं। यह सम्पदायें
हैं-अभयता, शुद्धता, ज्ञान व योग में अवस्थिति, दान, दमनशीलता, यज्ञ, स्वाध्याय, तप, अकृत्रिमता, अहिंसा,
सत्य, अक्रोध, त्याग, शान्ति, अपैशुन, अलोलुपता, अचपलता, दया, हया (लोकलाज), कोमलता, तेज, क्षमा, धैर्य, पवित्रता, अद्रोह तथा नातिमानता (अत्यधिक
मान-सम्मान से विमुखता)। यही सांसद/ सभासद का ऐश्वर्य तथा उसकी पूंजी है, धन-अभषण जमीन-जायदाद नहीं। इसी
प्रकार सांसद/सभासद के लिये दम्भ,
दर्प, अभिमान, क्रोध, असत्य-कठोर वचन और अज्ञान सर्वथा
त्याज्य हैं। ___ अगली बात मन्त्र में कही (यशः मा प्रतिमुच्यताम् ) यश मुझे कभी न त्यागे। श्रेष्ठतम
कर्मों के कर्ता का नाम और यश तो उसकी मृत्यु के उपरान्त भी जीवित रहता है, परन्तु मनुष्य जब इन्द्रियों को
दास हो जाता है, 'इन्द्र' और 'बृहस्पति' को नकार देता है, कृत्रिमता और झूठ का आश्रय लेने
लगता है, तब यश उसे छोड़ देता है।
अर्थानामीश्वरो यः
स्यादिन्द्रियाणामनीश्वरः।
इन्द्रियाणा मनैश्वर्यादैश्वर्याद्
भ्रश्यते हि सः॥
-विदुर नीति २०६१
"जो धन-ऐश्वर्यों का स्वामी
तो है, परन्तु इन्द्रियों का स्वामी न
होकर उनका दास है, इन्द्रियों को वश में न रखने के
कारण वह शीघ्र ही उस ऐश्वर्य से भ्रष्ट हो जाता है।"
अतः संयम, सदाचार और सद्विरेक ही यश को चिरस्थायी बनाते हैं।
उत्थानं संयमो दाक्ष्यमप्रमादो
धृतिः स्मृतिः।
समीक्ष्य च समारम्भो विद्धि मूलं
भवस्य तु॥
-विदुर नीति ७।६७
"ऊपर उठना, संयम, दक्षता, अप्रमाद (जागरूकता) धीरज, स्मृति और समीक्षा करके कार्य का
आरम्भ करना ही उन्नति के मूल इस प्रकार अनासक्त होकर श्रद्धा से जो यशाशक्ति महान
कार्यों को करता है, सुयश उसको कभी नहीं त्यागता। किसी
भी सभा/ संसद के सदस्यों के लिये यशस्वी, तेजस्वी और वर्चस्वी जीवन-पर्यन्त रहना वेद की अनिवार्यता
है। यश यदि साथ छोड़ गया, तो सारा परिश्रम और पुरुषार्थ
बेकार गया।
मन्त्र की अन्तिम महत्वपूर्ण बात (यशसा अस्या संसदोऽहम् प्रवदिता
स्याम्) यश
से युक्त मैं इस संसद का प्रभावशाली प्रवक्ता होऊं। मन्त्र में प्रयुक्त 'प्रवदिता' शब्द बड़े महत्व का है। 'वदिता' का अर्थ है, बोलने वाला। प्रवदिता का अर्थ है, प्रकृष्टता के साथ, समस्त उत्कृष्टताओं के साथ बोलने
वाला। उत्कृष्ट यशस्वी जीवन और उत्कृष्ट प्रभावशाली भाषण, ऐसा जो दिलों को छू जाये, और जिसके लोग कायल जो जायें।
हल्ला-गुल्ला करके, चीख-चिल्ला के और शोर मचा कर संसद/सभा का ध्यान अपनी ओर
आकृष्ट करना एक वेद-सम्मत यशस्वी सांसद/सभासद के लिये कोई गौरव की बात नहीं। विदुर
जी ने क्या सुन्दर कहा है
नसा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा, वृद्धा न ते ये न वदन्ति धर्मम्।
नासौ धर्मों यत्र न सत्यमस्ति, न तत्सत्यं यच्छलेनाभ्युपेतम्॥
-विदुर नीति ३१५७
"वह सभा ही नहीं है जहाँ
वृद्ध (परिपक्व, अनुभवी-जन) न हों। वे वृद्ध (परिपक्व, प्रौढ़) नहीं हैं जो धर्म की बात
नहीं बोलते। वह धर्म नहीं है, जिसमें सत्य न हो, और वह सत्य नहीं है जो छल-छद्य से
युक्त हो।"
क्या भारत की महान् संस्कृति की
बात करने वाले हमारे सासंद, क्या वेद और वैदिक धर्म की जय बोलने वाले हमारी सभाओं के
सभासद, क्या पंचों को परमेश्वर कहने वाले
पंच-सरपंच और पंचायतों के सदस्य, वेद की इस बात को धारण कर सकेंगे, कि उन्होंने यशस्वी सांसद/यशस्वी
सभासद/यशस्वी प्रवक्ता बनना है, अपने जीवन को यशस्वी बना कर। कुर्सी या पदों से नहीं, यश से चिपकना है। सांसद/सभासद
सदस्य सब सोचें कि यश ने यदि त्याग दिया, तो बचा क्या? क्या साथ लेकर जाना है, और क्या छोड़ जाना है-यश या अपयश? सोचें, वेद की दृष्टि से। वेदानुकूल आचरण
एवं व्यवहार करने में ही सांसदों की प्रतिष्ठा है, और संसद की गरिमा।
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