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संसद में जन-प्रतिनिधि: वेद की दृष्टि में

 



संसद में जन-प्रतिनिधि: वेद की दृष्टि में

ऋषिः-वसिष्ठ। देवता-अग्निः। छन्दः-भुरिक पंक्तिः।

अस्य देवस्य संसद्यनीके यं मतीसः श्येतं जंगभें।

नियो गृभं पौरुषेयीमुवोच दुरोकमग्निरायवे शुशोच॥

-ऋग्वे द ७।४।३

पदपाठ-अस्य। देवस्य। संसद। अनीके। यम्। मर्तासः। श्येतम्। जगृभ्रे। नि। यः। गृभम्। पौरुषेयीम्। उवोच । दुरोकम्। अग्निः । आयवे। शुशोच।।

(अस्य देवस्य संसद - इस देव (विद्वान) को सर्वोच्च संसद

(अनीके) में,

(म स: श्येतं जगृभ्रे) - शुद्ध चरित्र वाले मनुष्य ग्रहण करते (स्वीकारते) हैं;

(यः पौरुषेयीम् गृभम्) - जो पौरुष से युक्त [व्यवहारिक/ नि उवोच)

स्वीकार्य बातें] नियमित रीति से उच्चरित करता है,

(यम् अग्निः दुरोकम्) जिसका अग्नि (आत्माग्नि, नेतृत्व, अंतर्वाला), दुरितों को रोकने [तथा] जीवनमूल्यों

(आयवे शुशोच) की रक्षा के लिये चिंतित रहता है।

        वेद 'लोक तन्त्र' का पोषक है। त्वां विशो वृणता राज्याय' (अथर्व० ३।४।२) प्रजायें तुझ को राज्य के लिये वरण करें। पर वेद का लोकतन्त्र 'निर्वाचन' (इलेक्शन) पर आधारित न होकर 'वरण' (सिलेक्शन) पर आधारित है। अन्तर स्पष्ट है; 'निर्वाचन' (इलेक्श न) होता है, समर्थकों के बहुमत से। और 'वरण' (सिलेक्शन) होता है गुणों की बहुतायत से। उत्कृष्ट और श्रेष्ठतम गुणों के आधार पर जिसका वरण, शिष्ट, मुमुक्षु और धर्मात्माओं द्वारा किया जाता है, उसी को वेद में 'वरुण' शब्द से जाना जाता है। 'य सर्वान् शिष्टान् मुमुक्षून् धर्मात्मनो वृणोति, अथवा यः शिष्टर्मुमुक्षुभि धर्मात्मभिर्जियते वय॑ते वा स वरुणः।' 'जो समस्त शिष्ट, मुमुक्षु, धर्मात्माओं को स्वीकार, अथवा जो शिष्ट मुमुक्षु, धर्मात्माओं से ग्रहण किया जाता है, उसकी संज्ञा 'वरुण' है।' जो सब से श्रेष्ठ और वरणीय है, वही वेद की दृष्टि में 'वरुण' है।

      ब्रह्माण्ड में तो उस 'ज्येष्ठ ब्रह्म' से बढ़कर कोई नहीं; सारी व्यवस्था ही उसी की है, अत: वही वरुण है; परन्तु मानव-समुदाय में व्यवस्था, नीति निर्धारण और प्रशासन के हेतु संसद, सभा, समिति, सभी की आवश्यकता विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति के लिये रहती है। वेद ने संसद, सभा, समिति, सभासद, सभी को मान्यता दी है, और उनके संचालन के लिये उचित निर्देश भी दिये हैं। संसद में भी जनप्रतिनिधि किस प्रकार के वरण किये जायें, कौन उनको वरण करने का अधिकारी हो, वे कैसा व्यवहार करें, कैसा सोचें, क्या बोलें, इस पर ऋग्वेद के सप्तम मण्डल के चौथे सूक्त का तीसरा, चौथा और पांचवा मन्त्र काफी महत्वपूर्ण है।

प्रस्तुत मन्त्र उन्हीं में से एक है।

पहली बात जो मन्त्र में अत्यन्त ही सार-गर्भित है, वह है (मर्तासः श्येतं जगृभ्रे) अर्थात्, वरुण सदृश्य देवों का वरण सर्वोच्च संसद के लिये (श्येतं) शुद्ध चरित्र वाले (मर्तासः) मनुष्य लोग (जगृभ्रे) ग्रहण करें। स्वीकारें। यहाँ वरण करने वाले के वर्ण, वर्ग, जाति, वृत्ति, पद, हैसियत आदि को प्रधानता नहीं है। प्रधानता है, तो उसके शुद्ध धवल, शुभ्र चरित्र को। दागी, पापी, चरित्रहीन मनुष्य (चाहे वे स्त्री हो या पुरुष) सर्वोच्च सभा या संसद के लिये वेद की दृष्टि से वरण किये जाने के अधिकारी नहीं हैं। उनका नैतिक आचरण स्वस्थ (साउन्ड माँरल कैरक्टर) होना ज़रूरी है। ऐसे शुभ्र धवल चरित्र वाले व्यक्ति का आकलन कैसे हो, इसको भी ऋग्वेद ७।४।२ में बड़े सुन्दर ढंग से दर्शाया है। मन्त्र है

स गृत्सो अग्निस्तरुणश्चिदस्तु यतो यविष्ठो अजनिष्ट मातुः।

सं यो वा युवते शुचिदन्भूरि चिदन्ना समिदत्ति सद्यः॥

-ऋग्वे द ७।४।२

     "जो जन्मदाता माता (तथा ज्ञानदाता गुरु वा आचार्य) के प्रति अभी भी निष्ठावान है; जो यम-नियम का पालक, उत्तम युवा, तरुण, बुद्धिमान, तेजस्वी, शुचिदन् (कालिमा-से-रहित स्वच्छ-मुख वाला), अन्नाहारी, समित-चित (सम्यक् चित्त वाला), तत्परता से सूर्य की किरणों के समान प्रकाश को फैलाने वाला, अग्रणी है, वही [जनता का प्रतिनिधि होने का पात्र] है।"

        बड़ी सरल और सुस्पष्ट बात है। अच्छे चरित्रवान व्यक्ति ही अच्छे जन-प्रतिनिधियों का चयन करने में समर्थ हो सकते हैं। दुराचारी, पतित और आसुरी प्रवृत्ति के लोग तो अपने जैसों का ही वरण करेंगे।

        साधरणतया प्रजा तो प्रवाह के समान है। यह उत्तरदायित्व तो विद्वानों और उपदेशकों पर आता है कि वे प्रजाओं में विचारों और व्यवहारों की पवित्रता लायें। जन-प्रतिनिधियों को वरण करने का अधिकार 'यविष्ठ' तरुणों (अर्थात् व्यसकों) को हो, यह बात तो मन्त्र से स्पष्ट है; परन्तु जो तरुण निष्ठावान, यम-नियमों के पालक, बुद्धिमान, तेजस्वी, शुद्ध आहार, शुद्ध विचार, शुद्ध व्यवहार वाले कर्म-कुशल हों, वे ही जन-प्रतिनिधियों का संसद, सभा आदि के लिये वरण करें, यह भी वेद के अनुसार आवश्यक है। ऐसे व्यस्कों के निर्माण में माता, पिता और आचार्यों की कितनी महत्वपूर्ण भूमिका है, इसको सहज ही समझा जा सकता है। वेद की तो यही कामना है, कि प्रत्येक मनुष्य परमेश्वर से यही प्रार्थना करे-'मा सुचरिते भज' (यजु:०४।२८) मुझको सु-चरित्र में स्थापित कर । 'यद भद्रं तन्नआ सुव' (यजुः०३०।३) जो भद्र, कल्याणकारी है, उसे हमें प्राप्त करा।

        अब सर्वोच्च संसद में जिन प्रतिनिधियों को ग्रहण किया जाना है, वे कैसे हों; तो इसके विषय में मन्त्र ने कहा (अस्य देवस्य संसद अनीके) इस देव को सर्वोच्च संसद में स्वीकार करो। वे देव कैसे हो, यह तो मन्त्र ने आगे बताया। परन्तु मन्त्र के इस अंश जो दो शब्द अपने आप में अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं, वे हैं "अनीक" जो संसद के साथ आया है; और 'देव' जो संसद के सभासदों की प्रथम अनिवार्यता है। अनीकः अनीके या अनीकम् के अर्थ होते हैं, सेना, विशेषकर सेना का वह दस्ता, जो अग्रभाग में प्रधान, मुख्य या सर्वोच्च हो। सेना जैसे योद्धाओं का समूह है, उसी प्रकार वेद संसद को भी देवों के एक समूह के रूप मे लेता है। 'अनीक:' का एक अर्थ 'मुख' भी है। इस प्रकार से संसद पूरे राष्ट्र का एक मुख, एक चेहरा है। जैसे व्यक्ति की पहचान उसके चेहरे से होती है, जो शरीर में सर्वोच्च है, उसी प्रकार किसी राष्ट्र की पहचान उसकी संसद से होती है, जिसका राष्ट्र में सर्वोच्च स्थान होता है।

       दूसरा महत्वपूर्ण शब्द है-"देव'। गुणों की दृष्टि से मनुष्यों को तीन कोटियों में रखा जा सकता है। दिव्य गुणों से सम्पन्न विद्वान और विवेकी मनुष्य 'देव' कहाते हैं। इनकी वृत्तियाँ 'सात्विक' होती हैं। निकृष्ट तथा दुर्गणों से युक्त मनुष्य 'असुर' वा 'राक्षस' कहाते हैं। इनका स्वभाव तामसिक होता है। सामान्य गुणों एवं अवगुणों से युक्त मनुष्य 'मनुष्य' ही कहाते हैं। प्रायः इनकी वृत्तियाँ राजसिक होती हैं। वेद की दृष्टि से संसद में वरण किये जाने की प्रथम अनिवार्यता है-केवल दिव्य-कोटि के लोगों अर्थात् 'देवों' का ही स्वीकार किया जाना। मानवी दुर्बलताओं से युक्त 'मनुष्य' और आसुरी सम्पदाओं से युक्त 'असुर' वा 'राक्षस' संसद में जनप्रतिनिधियों के रूप में वरण किये जाने के योग्य ही नहीं हैं। संसद की गरिमा को 'देव' ही बनाये रखने में सक्षम हो सकते हैं, 'दानव' नहीं।

      जिन दिव्य गुणों को धारण करके और सतत अभ्यास से आचरण में लाकर मनुष्य 'देव' कहाते हैं, उनमें प्रमुख हैं, दानशीलता, दीप्तिमत्ता, प्रभुद्धता, क्रीड़ाशीलता, व्यवहारकुशलता, कर्मकुशलता, निर्द्वन्द्वता, निर्भयता, शोभनीयता, आनन्दवृत्ति, निराभिमानता, क्रियाशीलता, प्रगतिशीलता, आदि । स्वभाव से देवों का प्रसन्नवदन, हंसमुख, मृदु, महत्वाकांक्षी, साफल्याभिलाषी, गतिशील, विनम्र, अहिंसक, गुणों का प्रशंसक और एक सफल प्रेरक होना जरुरी है। सबसे बड़ी बात यह कि देव देते ही हैं, लेते नहीं। यदि लेते हैं, तो उस से कई गुणा पुनः दे देते हैं। जबकि मनुष्यों का स्वभाव यह होता है, कि वे अधिक से अधिक लेना चाहते हैं, और कम से कम देना चाहते हैं। देवों की समत्व और दान भावना ही उनको देवता बनाये रखती है। दूसरी बात यह कि मनुष्य अपनी निर्बलताओं के कारण अपने ऊपर नियन्त्रण नहीं रख पाते। इन्द्रियों के दास हो जाते हैं। देव अपने को पूरी तरह नियन्त्रित और अनुशासित रखते हैं। वे इन्द्रियों के दास नहीं, स्वामी होते हैं। इन्द्रियाँ उनके अधीन होती हैं, वे इन्द्रियों के अधीन नहीं होते। इन्द्रियों के अधिपति होने के कारण वे 'इन्द्र' कहाते हैं। तीसरी बात यह कि 'देव"आत्म-ज्ञान' और 'आत्मबल' से पूरित होते हैं, धीरता, वीरता, साहस और शौर्य उनके प्रत्येक आचरण में परिलक्षित होता है। जोखिम उठाने और सघर्षों से जूझने की उनमें अपूर्व क्षमता होती है। मनुष्यों में यह सब कुछ न्यून या नहीं के बराबर होता है। असुरों में शक्ति तो होती है, परन्तु आत्मिक बल नहीं होता। दर्प और अहंकार से चूर वे गरजते तो बहुत हैं, और यदि बरसते हैं, तो केवल पीड़ा एवं दुःखों का ही सृजन करते हैं।

        ऋग्वेद में देवों के गुण और कर्म के विषय में कहा- 'विश्वे देवासो अस्त्रिध एहिमायासो अद्रुहः। मेधं जुषन्त वह्नयः' (ऋग० १।३।९) समस्त देव अधि (क्षय वा शोषण से रहित), अद्रुहः (द्रोह तथा द्वेषादि से रहित), एहिमायासः (सर्वतोमुखी प्रज्ञा वाले) मेधं-जुषन्त (यज्ञों अर्थात् श्रेष्ठतम कर्मों के सेवी) तथा वह्नयः (उपकारों के वाहक) होते हैं। ऋग्वेद १०।१३४।७ में एक और सुन्दर बात कही गई है

नकिर्देवा मिनीमसि नकिरा योपयामसि मन्त्रश्रुत्यै चरामसि। पक्षेभिरपिकक्षेभिरत्राभि सं रेभामहे॥ -ऋ० १०।१३४१७

      देव न तो किसी की हिंसा करते हैं, न ही किसी को बहकाते हैं। मन्त्रज्ञान वा वेद-विधान को आचरण में लाते हैं। पक्ष और विपक्ष के साथ सर्वत: यहां सम्यक् मिल कर कार्य करते हैं।

           देवों के उपरोक्त गुण, कर्म और स्वभाव के अतिरिक्त जो दो बातें मन्त्र में उनकी संसद में जन-प्रतिनिधि के रूप में ग्रहण किये जाने के सम्बन्ध में कही गई हैं, वे उनकी जन-प्रतिनिधि की भूमिका के लिये अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। प्रथम, वे (पौरुषेयीम गृभम् नि उवोच) पौरुष से युक्त व्यवहारिक (प्रैक्टिकल) बातें नियमित रीति से कहें। संसद मात्र चीखने और चिल्लाने की जगह नहीं। यहां जो कुछ भी बोला जाये, वह बोलने वाले के पौरुषेय, अर्थात् उसके आत्म-विश्वास और आत्म-विश्लेषण से युक्त हो, और नियमों के अनुसार कहा जाये । संसद में चीखना-चिल्लाना या हल्ला बोलना किसी समाचार पत्र के लिये समाचार हो सकता है, किन्तु बोलने वाले का पौरुषेय कदापि नहीं हो सकता। संसद में जन-प्रतिनिधि देव का पौरुषेय किन बातों में है, इसको वेद ने यों कहा

आ यो योनि देवकृतं ससाद क्रत्वा ह्य निरमृता अतारीत्।

तमोषधीश्च वनिनश्च गर्भं भूमिश्च विश्वायसं बिभर्ति। -ऋ०७।४।५

     "(यः) जो (देवकृतम्) देवों के बनाये (योनिम्) गृह/ संसद को (आ ससाद) प्राप्त होता है, वह (क्रत्वा अमृतान् अतारीत) अपने बुद्धि-कौशल वा कर्म-सामर्थ्य से जीवित मनुष्यों को [संकटो से] तारता है। जैसे (औषधि च, वनिन च, भूमि च) औषधियाँ तथा वन एवं भूमि (गर्भम्) गर्भ में (अग्निः) अग्नि को धारण किये हैं, वैसे ही (तम्) उस (विश्वधायसम्) समस्त राष्ट्र को धारने वाली [संसद] को [वह] अपने उपदेश वचनों से (बिभर्ति) पुष्ट करता है "सकारात्मक सोच और रचनात्मक प्रवृत्ति जब सभासदों की होती है, तब संसद शक्तिशाली होती है, और शक्तिशाली संसद के माध्यम से सारा राष्ट्र शक्तिशाली होता है।

      अगली बात जो मन्त्र में कही गई, वह सचमुच विलक्षण है। संसद में वरण किये जाने के वह देव पात्र है, (यम् अग्निः दुरोकम् आयवे शुशोच) जिसका आत्माग्नि, (नेतृत्व, अन्तर्वाला) दुरितों, दुष्टों वा दुष्टताओं को रोकने के लिये तथा जीवों के कल्याण के लिये चिंतित एवं संघर्षशील रहता है। 'अग्निः' का प्रयोग यहां देवों की आत्माग्नि के लिये हुआ है। जन-प्रतिनिधि देवों का आत्मा अग्निः के समान प्रकाशमान, तेजस्वी और धधकता हुआ होना चाहिये। उनका नेतृत्व एक मशाल हो, जो प्रजा-जनों का पथ आलोकित कर सके, चमका सके। उनकी इस अग्निः को दिशा भी वेदमन्त्र ने दे रखी है। 'दुरोकम' का अभिप्राय है, राष्ट्र में दुर्विचारों, दुष्प्रवृत्तियों, दुर्गुणों, दुर्व्यसनो अथवा जो कुछ भी 'दुः' अर्थात् दुःखों से सेवित है, उसको रोकना। जिन देवों ने अपना जीवन कुरीतियों, कुप्रथाओं, दुर्विचारों, दुष्प्रवृत्तियों, दुर्गुणों, दुर्व्यसनों की रोकथाम में लगा दिया हो, वे पात्र होते हैं संसद में ग्रहण किये जाने के । इस से यह भी स्पष्ट होता है, कि जो समाज में राष्ट्र में तथा मानव समुदाय में निरन्तर विष घोलते रहे हों, उनका कदापि भी संसद में वरण न किया जाये। किसी भी राष्ट्र का चरित्र बनता है, उसके निवासियों के सद्-विचार सद्-व्यवहार और सद्-आचार से। जिन देवों का योगदान इस दिशा में रहा हो, वे यदि संसद में होंगे, तभी राष्ट्र चमक सकता है। ___ 'आयवेशुशोच' यह दूसरी दिशा है, जो मन्त्र ने दी है। 'आयवे' का अर्थ है-'जीवनाय' जीवन के लिये। 'शुशोच' का अभिप्राय चिन्तित होने से है। देव पुरुष वैसे भी अपने लिये नहीं दूसरों के लिये ही चिन्तित रहते हैं। जिन्हें केवल अपने जीवन-साधन, अपनी आजीविका, अपना पद, अपनी कुर्सी, अपनी जायदाद की वृद्धि और केवल अपनी महत्वाकाक्षाओं की पूर्ति की चिन्ता रहती है, वे 'देव' तो हो ही नहीं सकते। और यदि 'देव' नहीं, तो ऐसे लोगों से यह आशा करना, कि वे दूसरों के बारे में कुछ अच्छा सोचेंगे, व्यर्थ ही है। ऐसे लोग दूसरों के विषय में केवल दूसरों को गिराने, नीचा दिखाने, रास्ते से हटाने या उनको प्रगति करने से रोकने की सोच सकते हैं; कोई शुभ चिन्तन नहीं कर सकते। शुभ-चिन्तन (शुशोच) कोई 'देव' ही कर सकता है। पर वेद-मन्त्र जो दिशा संसद के लिये जन-प्रतिनिधि के रूप में वरण किये जाने वाले देवों के लिये दे रहा है, वह यह, कि वे दूसरों के जीवन के लिये शुभचिन्तन करें। उनकी चिन्ता यह होनी चाहिये कि राष्ट्रवासी जनों का जीवन अच्छा, और अच्छा कैसे बनाया जा सकता है। राष्ट्रव्यापी योजनाओं का यही मूल आधार हो सकता है । चिन्तन में बड़ी शक्ति है। जन-हित में लोगों के जीवन को बनाने, संवारने, चमकाने वाला शुभ-चिन्तन राष्ट्र को ऊँचा उठा सकता है, जबकि स्वार्थ-चिन्तन अथवा उठक-पटक की राजनीति से प्रेरित चिन्तन राष्ट्र को धराशायी करने को काफी है।

      ईश्वर करे, कि सम्पूर्ण विश्व के देव कोटि के मानव लोक-तन्त्र की सफलता के लिये वेद से प्रेरणा ले, उन वेदों से जो सार्वकालिक और सार्वभौमिक हैं। संसद में देवों का ही प्रवेश हो जिनके आगे केवल जीवों का हित और जीवन-मूल्य ही सर्वोपरि हों, जो मन वचन और कर्म से अपने पौरुष का सदुपयोग 'सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः' की उदात्त भावना से कर सकें।

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