👉 माँ की सच्ची सीख
🔶 कोई सिद्धान्त अपने आप में अकेला पूर्ण नहीं।
प्रयोगपक्ष जाने बिना सारा ज्ञान अधूरा हैं। फिर क्रिया पक्ष, ज्ञान
पक्ष का पूरक है। ब्रह्म ज्ञान- तत्व चिन्तन अपनी जगह है, अनिवार्य
भी है, परन्तु उसका व्यवहार पदा जिसे साधना- तपश्चर्या के
रूप में जाने बिना एक मात्र मानसिक श्रम और ज्ञान वृद्धि तक ही सीमित रहने से
उद्देश्य की पूर्ति नहीं होगी। चिकित्सकों को अध्ययन भी करना होता है एवं
व्यावहारिक ज्ञान भी प्राप्त करना होता है। यह समग्रता लाये बिना वे चिकित्सक की
पात्रता- पदवी नहीं पाते।
🔷 ऐसा अधूरापन अध्यात्म क्षेत्र में बड़े
व्यापक रूप में देखने को मिलता है। ब्रह्म की, सद्गुणों की, आदर्शवादिता की चर्चा तो काफी लोग करते पाये जाते हैं परन्तु उसे व्यवहार
में उतारने, जीवन का अंग बना लेने वाले कम ही होते हैं।
🔶 एक साधु द्वार पर बैठे तीन भाइयों को उपदेश
कर रहे थे- वत्स! संसार में सन्तोष ही सुख है। जो कछुये की तरह अपने हाथ- पाँव सब
ओर से समेट कर आत्म- लीन हो जाता है, ऐसे निरुद्योगी पुरुष के
लिए संसार में किसी प्रकार का दु:ख नहीं रहता।
🔷 घर के भीतर बुहारी लगा रही माँ के कानों में
साधु की यह वाणी पड़ी तो वह चौकन्ना हो उठी। बाहर आई और तीनों लड़की को खड़ा करके
छोटे से बोली- 'ले यह घडा, पानी भर कर ला', मझले से कहा- 'उठा यह झाडू और घर- बाहर की बुहारी कर',
अन्तिम तीसरे को टोकरी देते हुए उसनें कहा- 'तू
चल और सब कूड़ा उठाकर बाहर फेंक' और अन्त में साधु की ओर
देखकर उस कर्मवती ने उपदेश दिया- 'महात्मन्! निरुद्योगी
मैंने बहुत देखे हैं, कई पड़ोस में ही बीमारी से ग्रस्त,
ऋण भार से दबे शैतान की दुकान खोले पड़े है। अब मेरे बच्चों को भी वह
विष वारुणी पिलाने की अपेक्षा आप ही निरुद्योगी बने रहिये और इन्हें कुछ उद्योग
करने दीजिए। ' ज्ञान को कर्म का सहयोग न मिले तो कितना ही
उपयोगी होने पर भी वह ज्ञान निरर्थक है।
0 Comments
If you have any Misunderstanding Please let me know