सूत्र :तन्निष्ठस्य मोक्षोपदेशात् 1/1/7
सूत्र संख्या :7
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (तन्निष्टस्य) इसमें चित्त के स्थिर होने से है (मोक्षोपदेशात्) मोक्ष को उपदेश होने से।
व्याख्या :भावार्थ- सब शास्त्रकार और वेद इस बात को उपदेश करते हैं कि जिसको परमात्मा को साक्षात् ज्ञान होता है, उसकी मुक्ति होती है और जो प्रकृति की उपासना करता है, वह महान्धकार वाली योनियों को प्राप्त होता हैं। यदि प्रकृति को आत्मा मान लिया जाय, तो वेद के विरूद्ध होने के अतिरिक्त व्यवस्था भी उचित नहीं होगी; क्योंकि बंधन के कारण मुक्ति होना असम्भव है और यह भी बतलाया है कि जो आत्मा को जानते हैं, वे दुःखों से तर जाते हैं। प्रकृति को आत्मा कहने से और उसके जानने से दुःखों से तर जाना चाहिए; यह हो नहीं सकता। प्रश्न- क्या यह आवश्यक है कि जिससे वेद मोक्ष बतलाये, उसमें मोक्ष हो ही जावे और प्रकृति से बंधन हो। यदि बंधन मोक्ष दोनों प्रकृति से स्वीकार किये जावें जैसा कि हम संसार में देखते हैं कि वही वस्तु नियम-पूर्वक ग्रहण करने से सुख को कारण हो जाती हैं और अनियमता से दुःख का कारण होती है; ऐसे ही प्रकृति के सत्य ज्ञान से मोक्ष अथवा मिथ्या ज्ञान से बंधन हो सकता है। उत्तर- प्रकृति परतंत्र है। यह जीव को बाँध नहीं सकती। महर्षि कपिलजी सांख्य-दर्शन में लिखते हैं कि प्रकृति ज्ञान-रहित होने से जीवों को सत्य ज्ञान देकर मोक्ष भी नहीं दे सकती; इस कारण बंधन को कारण मिथ्या ज्ञान है; जो अल्पज्ञ और अज्ञानी के संयोग से होता है और मोक्ष को कारण तत्व ज्ञान है, जो अत्पज्ञ और अज्ञानी के संयोग से होता है और मोक्ष को कारण तत्व ज्ञान है, जो अत्पज्ञ और सर्वज्ञ के संयोग से होता है। इस कारण मोक्ष ज्ञान-रहित प्रकृति से किसी दशा में नहीं हो सकता। और कारण प्रकृति को आत्मा किसी अवस्था में भी नहीं कह सकते। प्रश्न- क्या आत्मा और परमात्मा के भेद-ज्ञान बिना कमी मोक्ष हो सकता है; क्योंकि जब तक भेद है तब दूरी है; जब तक दूरी है तब तक साक्षात् ज्ञान नहीं हो सकता और जब तक साक्षात् ज्ञान न हो तब तक मोक्ष कैसे हो सकता है ? उत्तर- भेद अर्थात् दूरी तीन प्रकार की होती है-जीवात्मा और परमात्मा में नित्य होने से काल की दूरी, परमात्मा के सर्वव्यापक होने से देश ही दूरी और परमात्मा के सर्वज्ञ होने से ज्ञान की दूरी। जब जीवात्मा को यह ज्ञान हो जाता है कि परमात्मा मेरी आत्मा है अर्थात् मुझमें व्यापक है, जब दूरी दूर हो जाती है, परन्तु यह जानना कि मै ही परमात्मा है शास्त्रों और वेदों के विरूद्ध है, जिसको आगे दिखलायेंगे। प्रश्न- जिस प्रकार स्वामी अपने दास और पिता अपने पुत्र को आत्मा शब्द से पुकारता है, ऐसे ही यदि प्रकृति को आत्मा शब्द पुकारकर कहा हो कि आत्मा को जानता है, वह दुःखों से छूट जाता है अर्थात् जो प्रकृति को जानता है वह दुःखों से छूट जाता है। जीवात्मा और परमात्मा के जानने न जानने को प्रभाव एक-सा होता है; क्योंकि वह प्रत्यक्ष नहीं। इस कारण हम इनसे कोई नहीं ले सकते, जिससे उलटा-सीधा फल हो सके; परन्तु प्रकृति के सत्य भोग से सुख और असत्य भोग से दुःख प्रत्यक्ष होता है। इस कारण निश्चय यह ही होता है कि आत्माशब्द प्रकृति के कारण कहा गया है। उत्तर- सुख-दुख का कारण अहंकार है। जिस वस्तु में अहंकार होता है, उसके बिगड़ने-बनने से दुःख होता है। उदाहरण-किसी का स्थान यदि बह अथवा जल जाये, तो घर के स्वामी को घोर कष्ट होता है; परन्तु यदि घर बेचने के कुछ काल उपरान्त वही घर जल जावे, जो स्वामी को कोई कष्ट नहीं; जिससे स्पष्ट है कि बेचने से न तो स्थान ही और हो गया और न स्वामी ही; फिर क्या कारण है कि बेचने से पूर्व घर के जलने ने कष्ट दिया और बेचने के उपरान्त लेशमात्र भी दुःख नहीं रहा। कारण स्पष्ट है कि बेचने के पूर्व इसमें अहंकार था और बेचने के बाद उसका अहंकार नहीं रहा। कया कारण है कि नित्य प्रति सहस्त्रों मनुष्य मरतें हैं; हमें कोई कष्ट प्रतीत नहीं होता; परन्तु जिस दिन कोई हमारा संबंधी मर जाता है, उस दिन हमें घोंर विपत्ति होती है और धाड़ मार-मारकर विलाप करते हैं; इस कारण जब आत्मा को ज्ञान होगा, तो सांसारिक कोई वस्तुयें प्रकृति के कार्य हैं-इनमें अहंकार से तो दुःख होता है, क्योंकि प्रकृति दुःख स्वरूप् है; परन्तु आनन्द नहीं प्राप्त हो सकता; क्योंकि वह प्रकृति में है कि नहीं। प्रश्न-प्रकृति दुःखस्वरूप् है इसमें क्या प्रमाण है ? उत्तर- दुःख नाम परतंत्रता अर्थात् आजादी के न होने के कारण है। परमात्मा स्वतंत्र है, जीव करने में स्वंतत्र है, जीव करने में स्वतंत्र और भोगने में परतंत्र है। परमात्मा के संग से जीव की स्वतंत्रता बढ़ती है और प्रकृति के संग से परतंत्रता बढ़ती है। अतः परतंत्रता दुःख है। इस कारण परतंत्र प्रकृति दुःखस्वरूप है। जो उसकी उपासना करता है, वही ही दुःख भोगता है; जिसको प्रत्येक जीव नित्य-प्रति अनुभव करता है। प्रश्न-हम तो कभी प्रकृति से सुख अनुभव करते हैं, कभी दुःख। ऐसा हमने नहीं देखा कि दुःख ही दुःख अनुभव किया जावे। उत्तर- इन्द्रियाँ प्रकृति का कार्य होने से प्रकृति से बनी हुई वस्तुओं को ही अनुभव करानेवाली है; इस कारण जद जागते रहते हैं, जब इन्द्रियों से काम लेते हैं; जिससे प्रकृति की ही उपासना होती है। उस समय सिवाय दुःख के और कुछ अनुभव नहीं होता। ईर्षा-द्वेष, काम-क्रोध, लोभ-मोह, रोग, क्षुधा-प्यास सब जागने ही में अनुभव होते हैं। निन्द्रा की अवस्था में जब प्रकृति का संबंध करानेवाली इन्द्रियाँ कर्म नहीं करतीं, कोई दुःख प्रतीत नहीं होता। उसका प्रमाण सूत्रकार देते है। पदार्थ- (हेयत्व) त्यागने योग्य (सवचनात्) न कथन करने से (च) पक्ष के विरूद्ध दिखलाने के कारण है।
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