गायत्री मन्त्र – एक
विवेचन
ॐ
भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात् ॥
(ऋग्वेद ३ । ६२ । १०; शुक्ल यजुर्वेद ३ | ३५, २२ ।९,
३६ । ३ )
गायत्री
वेदों में प्रयुक्त एक छन्द है। चौबीस अक्षरों से निर्मित छन्द को गायत्री कहते हैं।
इसमें कुल तीन पाद अथवा चरण होते हैं।
प्रत्येक चरण में आठ अक्षर होते हैं। कुल मिलाकर
चौबीस अक्षर होते हैं। यह सविता का मन्त्र है। इसमें गायत्री छन्द का प्रयोग होने के
कारण इसको गायत्री मन्त्र कहा जाता है।
गायत्री
वेदमाता है। गायत्री महामन्त्र एक अगाध समुद्र है, जिसके
गर्भ में छुपे रत्नों का शोध करना सरल कार्य नहीं है। गायत्री के चौबीस अक्षरों में
ज्ञान-विज्ञान ब्रह्मज्ञान का महान् भण्डार छुपा हुआ है।
इसके
प्रत्येक अक्षर में इतना दार्शनिक तत्त्वज्ञान समाहित है, जिसका पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है।
विभिन्न
ऋषि महर्षियों ने गायत्री मन्त्र का भाष्यार्थ किया है और अपने-अपने दृष्टिकोण के
अनुसार गायत्री के पदों के अर्थ किये हैं।
मन्त्रों
में शक्ति होती है। मन्त्रों के अक्षर शक्ति बीज कहे जाते हैं।
मन्त्रों
की शब्द रचना ऐसी होती है कि जिसके विधिपूर्वक उच्चारण एवं प्रयोग से अदृश्य
शक्ति- तरंगें उत्पन्न होती हैं। गायत्री महामन्त्र में गूढ़ महाविद्याएँ समाहित
हैं।
इन
महाविद्याओं का अनुसन्धान करना विशिष्ट व्यक्तियों का कार्य है।
यह
विषय सर्वसाधारण जन का नहीं है।
सामान्य
जन के लिये जानने एवं उपयोग में लाने योग्य गायत्री का जो मन्त्रार्थ है, वह इस प्रकार है।
गायत्री
मन्त्र का अन्वय- ॐ भूः भुवः स्वः तत् सवितुः देवस्य वरेण्यं भर्गः धीमहि, यः नः धियः प्रचोदयात् ।
ॐ – गायत्री मन्त्र से पहले 'ॐ' लगानेका
विधान है।
ॐ कार
को ब्रह्म कहा गया है - ॐ ब्रह्मैवेति ( भट्टोजि दीक्षितकृत गायत्री भाष्य
) ।
वह
परमात्मा का स्वयंसिद्ध नाम है 'ॐ' को
परमात्मा का वाचक कहा गया है।
उसे
प्रणव कहा जाता है।
प्रणव
परब्रह्म का नाम है - तस्य वाचकः प्रणवः (पातंजल योगदर्शन १ । २७) ।
प्राण
को परमात्मा में लीन करने के कारण इसे 'प्रणव'
कहा गया है –
प्राणान्सर्वान्परमात्मानि
प्रणाययतीत्येत- स्मात्प्रणवः (अथर्वशिखोपनिषद्) ।
वेद
का आरम्भ ॐ से किया जाता है— ओङ्कारः
पूर्वमुच्चार्यस्ततो वेदम- धीयते ।
इसलिये
गायत्री मन्त्र से पहले भी 'ॐ' लगाया
जाता है।
ओंकार
सब मन्त्रों का कारण है; ओंकार से व्याहृतियाँ उत्पन्न
हुईं और व्याहृतियों से तीन वेद उत्पन्न हुए-
सर्वेषामेव
मन्त्राणां कारणं प्रणवः स्मृतः ।
तस्मात्
व्याहृतयो जातास्ताभ्यो वेदत्रयं तथा ॥ (वृद्धहारीत ३।८५-८६)
ओंकार
अर्थात् ध्वनि मन्त्रों का सेतु है।
बिना
प्रणव के मन्त्रों में सफलता प्राप्त करना अशक्य है।
मन्त्रों
में प्रथम ओंकार रूप सेतु का उच्चारण करने से मन्त्ररूपी शक्ति- धारा को पार किया
जा सकता है।
ॐ
कारं विंदुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः ।
कामदं
मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नमः ॥
भूः
भुवः स्वः - भूः - पृथ्वीलोक भुवः- अन्तरिक्षलोकः स्वः
स्वर्गलोक ।
गायत्री
मन्त्रमें ॐकार के बाद 'भूः भुवः स्वः '- यह तीन महाव्याहृतियाँ आती हैं ये महारहस्यात्मक हैं।
यह
गायत्री मन्त्र के बीज हैं। गायत्री मन्त्रमें 'ॐ के
बाद 'भूः भुवः स्वः' लगा कर ही मन्त्र का
जप करना चाहिये।
बीज
मन्त्र मन्त्रों के जीवरूप होते हैं। बिना बीजमन्त्र का मन्त्र जप करने से वे
साधना का फल नहीं देते। यह तीन व्याहृतियों का त्रिक अनेक अर्थों का बोधक है।
इस
विवरणमें 'भूः भुवः स्वः' का
अर्थ तीन लोक - पृथ्वी, अन्तरिक्ष और स्वर्ग लिया गया है।
भूर्भूमिलोकः
भुवः भुवर्लोकः अन्तरिक्षं स्वः स्वर्लोकः ।
एवमुपरिक्रमेणावस्थितान्
लोकानभि- व्याप्यावतिष्ठननोऽसौ भर्गः एतांस्त्रींल्लोकानेव प्रदीप- वत्
प्रकाशयतीत्यर्थः ।
(रावणभाष्य)
अर्थात् भूः पृथ्वीलोक है।
भुवः
भुवर्लोक अन्तरिक्ष है। स्वः स्वर्गलोक है। इस प्रकार ऊपर क्रमशः स्थित लोकोंमें
व्याप्त होकर वह भर्ग इन तीन लोकोंको दीपक के समान प्रकाशित करता है।
भूरिति
भूर्लोकः भुवः इत्यन्तरिक्षम् । स्वरिति स्वर्लोकः ।
(ब्रह्मपुराण)
अर्थात्
भूः से पृथ्वीलोक, भुवः से अन्तरिक्ष और स्वः से
स्वर्गलोक जानना चाहिये ।
व्याहृतियाँ
सात हैं-भूः भुवः, स्व:, मह:,
जन:, तप और सत्यम् यह व्याहृतियाँ सात ऊर्ध्व
लोकोंका बोध कराती हैं।
शास्त्रानुसार
चौदह भुवन कहे गये हैं । सात अधोलोक और सात ऊर्ध्वलोक ।
सात
अधोलोक- अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, पाताल, और रसातल। यह सातों अधोलोक अन्धकारमय हैं।
वहाँ
सूर्यका प्रकाश नहीं पहुँचता ।
असुर्या
नाम ते लोकाऽअन्धेन तमसावृताः । (शुक्ल यजुर्वेद ४० । ३)
सात
ऊर्ध्व लोकोंमें से तीन-भूः भुवः एवं स्वः लोकको सूर्य प्रकाशित करता है।
अन्य
चार लोक महः, जन:, तपः एवं सत्यम्
लोकको सूर्य प्रकाशित नहीं करता।
वे
स्वयंप्रकाशित हैं। वहाँ अन्धकारका प्रवेश नहीं है।
न
तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः ।
तमेव
भान्तमनुभाति सर्व तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥
(कठोपनिषद्
२। २ । १५ एवं मुण्डकोपनिषद् २।२।१०)
गायत्री
मन्त्र सूर्यपरक होनेसे इसमें सूर्य उद्भासित तीन लोक - भूः भुवः एवं स्वः ही लिये
गये हैं।
तत्-उसका। तत्सवितुः - तस्य
सवितुः । सः सविता इति तत्सवितृ (कर्मधारय समास)।
'तत् तद्' (पुल्लिंग) सर्वनामका षष्ठी विभक्ति एकवचन
होता है 'तस्य', जिसका अर्थ है उसका।
तत्
कहते हैं 'वह' या 'उस'को । 'तत्' शब्द किसीकी ओर संकेत करनेके अर्थमें प्रयुक्त होता है।
गायत्री
मन्त्र 'तत्' शब्दसे प्रारम्भ होता है। गायत्री मन्त्रमें 'तत्' शब्द परमात्मा ईश्वर या सविता (सूर्य) देवका
संकेत करता है।
महावाक्य
'तत्त्वमसि' ( छान्दोग्योपनिषद्
६।८।७) में भी 'तत्' शब्दद्वारा
परमात्माका संकेत किया गया है।
सूर्यमण्डल
में स्थित अनुपम तेज, जिसे उपनिषदों में संसार की
उत्पत्ति, स्थिति और लयका कारणभूत कहा गया है, 'तत्' शब्दसे उस तेजका संकेत किया गया है।
तत्
शब्द स्वयंसिद्ध सब भूतोंमें स्थित परब्रह्म के लिये प्रयुक्त होता है।
सवितुः
- सविता (सूर्य) - का/के/ की।
'सवितृ ' (पुल्लिंग) नामका षष्ठी विभक्ति एकवचन होता
है 'सवितुः', जिसका अर्थ है सविताका के
/ की।
सविता
शब्द की निष्पत्ति 'सु' धातुसे
हुई है, जिसका अर्थ है- उत्पन्न करना, गति
देना तथा प्रेरणा देना ।
गायत्री
मन्त्र के देवता सविता हैं। सविता शब्द सूर्यका पर्यायवाचक है। भानुर्हंसः
सहस्त्रांशुस्तपनः सविता रविः (अमरकोष १ । ३ । ३८) ।
सवितुरिति
सविता आदित्ययो यः (ब्रह्मपुराण) । परमात्माकी अप्रत्यक्ष
शक्ति,
जो तेजके रूपमें हमारी स्थूल दृष्टिके सामने आती है, वह सूर्य है ।
सविता
कहते हैं - तेजस्वीको, प्रकाशवान्को, उत्पन्नकर्ताको ।
परमात्माकी
अनन्त शक्तियाँ हैं, उसके अनेक रूप हैं। उसमें
तेजस्वी शक्तियोंको सविता कहा जाता है।
सविता
सर्वभूतानां सर्व भावश्च सूयते ।
सृजनात्प्रेरणाच्चैव
सविता तेन चोच्यते ॥ (बृहद्योगियाज्ञवल्क्य ९ । ५५)
अर्थात्
सविता प्राणियों को उत्पन्न करता है और समग्र भावोंका उत्पादक है उत्पन्न करनेसे
एवं प्रेरक होनेसे सविता नाम कहा गया है।
देवस्य
- देवका / के की।
'देव' (पुल्लिंग) शब्दका षष्ठी विभक्ति एकवचन होता है
' देवस्य', जिसका अर्थ है देवका/के/की।
निरुक्तकार
यास्कने 'देव' शब्दको दान, दोपन और
स्थान- गत होनेसे निकाला है।
'देव' शब्द दिव्यताके अर्थमें प्रयुक्त होता है। देव
कहते हैं- दिव्यको, अलौकिकको असामान्यको ।
यहाँ
यह ज्ञात रहे कि सविता (सूर्य) शब्दसे स्थूल सूर्यपिण्ड (जड़तत्त्व) - का निर्देश
नहीं है किन्तु सविता (सूर्य) शब्दसे सूर्यमण्डलके अधिष्ठातृदेवता या
सूर्यमण्डलान्तर्गत परमात्मा (चेतनतत्त्व) - का निर्देश है।
देव
(देवस्य) शब्द इसीका द्योतक है। यथा-
ध्येयः
सदा सवितृमण्डलमध्यवर्ती नारायणः सरसिजासनसंनिविष्टः ।
केयूरवान्
मकरकुण्डलवान् किरीटी हारी त्रयीमयाय हिरण्मयवपुर्धृतशङ्खचक्रः ।।
(तन्त्रसार
एवं बृहत्पाराशरस्मृति )
नमः
सवित्रे जगदेकचक्षुषे जगत्प्रसूतिस्थितिनाशहेतवे।
त्रिगुणात्मधारिणे
विरञ्चिनारायणशङ्करात्मने।। (भविष्यपुराण)
वरेण्यं
- वरण करनेयोग्य, श्रेष्ठ ।
'वृ' धातुमें अनीयर् प्रत्यय लगानेसे 'वरणीय' (नपुंसकलिङ्ग) विशेषण बनता है, जिसका प्रथमा विभक्ति एकवचन होता है 'वरणीयम्'। उसका आर्षरूप होता है 'वरेण्यम्' ।
"'वरेण्यम्' कहते हैं - वरण करनेयोग्यको, श्रेष्ठको, ग्रहण करनेयोग्यको धारण करनेयोग्यको जो
तत्त्व हमें सत्, चित् आनन्द, अध्यात्म,
धर्मपथपर अग्रसर करे, वह वरेण्य है।
गायत्री
मन्त्रद्वारा हम ईश्वरीय सत्तासे वह तत्त्व ग्रहण करते हैं, जो वरेण्य है, श्रेष्ठ है, ग्रहण
करनेयोग्य है।
यहाँ
यह ज्ञातव्य है कि गायत्री छन्दमें ८,८,८ के क्रमसे २४ अक्षर होने चाहिये, परंतु गायत्री
मन्त्रके पहले पाद 'तत्सवितुर्वरेण्यं' में अक्षर ही हैं।
इसलिये
शास्त्रानुसार गायत्री मन्त्र जप / अनुष्ठानमें 'वरेण्यं
'के स्थान पर 'वरेणियं' उच्चारण करना चाहिये। ऐसा करनेसे प्रथम पादमें ८ अक्षर पूर्ण हो जायेंगे। 'वरेण्यं' उच्चारण करनेपर गायत्री मन्त्रमें तेईस
अक्षर ही होते हैं।
इससे
गायत्री मन्त्र अपूर्ण रहता है और अनुष्ठानका पूर्ण फल प्राप्त नहीं होता । 'वरेणियं' उच्चारण करनेपर चौबीस
अक्षर पूर्ण होते हैं और अनुष्ठानका पूर्ण फल प्राप्त होता है।
भर्गः
- तेज / प्रकाश ।
‘भर्गस्' (नपुंसकलिंग) नामका प्रथमा विभक्ति एक- वचन
होता है 'भर्ग:', जिसका अर्थ है तेज
अथवा प्रकाश ।
भर्गका
अर्थ है तेज, प्रकाश। भर्गस्तेजः प्रकाशः
(निरुक्त) | गायत्री मन्त्र में भर्गका तात्पर्य है
सूर्यमण्डलके अन्दर उपस्थित ईश्वरीय तेज। भृज् घञ् आदित्यान्तर्गते ऐश्वर्यं
तेजसि ( सायणभाष्य)।
यह
भर्ग कैसा है? जो पृथ्वी, अन्तरिक्ष
एवं स्वर्ग इन तीन लोकोंमें व्याप्त है। और इन तीन लोकोंको प्रकाशित करता है। इसका
वर्णन 'भूः भुवः स्वः' के विवेचनमें हो
चुका है।
स्थूल
रूपसे भर्गका तात्पर्य अन्धकारके नाशक तेज / प्रकाशसे है, किन्तु सूक्ष्म दृष्टिसे भर्ग अज्ञानरूपी अन्धकारका नाशक है।
अज्ञान
अन्धकारका नाश करनेवाली परमात्माकी शक्तिको 'भर्ग'
कहते हैं।
धीमहि
- हम सब ध्यान करते हैं।
यह
क्रियापद है। 'धी/ ध्यै' (आत्मनेपदी)
धातुका विधिलिङ् लकार उत्तमपुरुष बहुवचनका आर्षरूप होता है ' धीमहि', जिसका अर्थ है हम सब ध्यान करते हैं।
'ध्यै' धातुसे 'धीमहि' शब्द निष्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है चिन्तन करना,
ध्यान करना । धीमहि ध्यायेम चिन्तयाम (रावणभाष्य) ।
ध्यान
करने से चित्तकी बिखरी वृत्तियों को एक जगह एकत्रित किया जाता है। इस अभ्यास को
योगसाधना कहते हैं।
वैदिक
वाङ्मय में स्वके स्थानपर विश्वके कल्याणपर बल दिया जाता है। व्यष्टिके स्थानपर
समष्टिके कल्याणपर बल दिया जाता है। यथा—
सर्वे
भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे
भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत् ॥
गायत्री
मन्त्रमें भी अपने हितके स्थानपर सबके हितको महत्त्व दिया गया है। इस कारणसे यहाँ
सबके द्वारा ध्यान करना एवं सबको फलप्राप्ति ( धियः) का निर्देश है।
यः
–
जो । -
'यत् / यद्' (पुल्लिंग) सर्वनामका प्रथमा विभक्ति
एकवचन होता है 'य', जिसका अर्थ है जो ।
'तत्' शब्दके प्रयोगसे ‘यत्'
शब्दका प्रयोग लक्षित होता है - तच्छब्दः प्रयोगादेव यच्छब्द
प्रयोग उपभ्यते (रावणभाष्य)। लिंग व्यतिरेकसे 'यः'
शब्द 'यत्' बन जाता है -
यः इति लिङ्गव्यत्ययः यत् (सायणभाष्य ) ।
गायत्री
मन्त्रके पूर्वार्धमें 'तत्' शब्दसे
जिसका संकेत किया गया है, उसका संकेत उत्तरार्धमें 'य: ' शब्दसे हुआ है। गायत्री मन्त्रमें 'यः' का संकेत परमात्मा, ईश्वर
या सविता (सूर्य) - देवके लिये किया गया है।
नः
- हमारा / हमारी (हम सबका / की) ।
'अस्मत् / अस्मद्' (मैं) उत्तमपुरुष वाचक सर्वनाम है।
उसका षष्ठी विभक्ति बहुवचन होता है 'अस्माकम् ' अथवा 'न' जिसका अर्थ है हमारा
/ हमारी अथवा हम सबका की संस्कृत साहित्यमें 'न: 'का प्रयोग 'अस्माकम् ' के
स्थानपर किया जाता है।
गायत्री
मन्त्रमें परमात्मासे सद्बुद्धि ( धियः) - की याचना की गयी है, किंतु वह मात्र स्वयंके लिये नहीं परंतु सबके लिये है।
इसका
निदर्शन धीमहि 'के विवेचनमें किया गया ।' धीमहि' शब्दद्वारा सबके द्वारा ध्यान किया गया है।
इसलिये फलप्राप्ति भी सबको होनी चाहिये, जिसका निर्देश 'न' शब्दसे हुआ है।
धियः
–
सद्बुद्धियोंको ।
'धी' का अर्थ होता है सद्बुद्धि । 'धी' (स्त्रीलिंग) नामका द्वितीया विभक्ति बहुवचन
होता है 'धियः', जिसका अर्थ है
सद्बुद्धियोंको।
'धीमहि ' एवं 'नः ' द्वारा बहुवचनका प्रयोग हुआ है, इस कारणसे यहाँ भी
बहुवचन ( धियः) का प्रयोग हुआ है।
गायत्री
मन्त्रके पूर्वार्धमें सवितादेवके श्रेष्ठ तेजका ध्यान किया गया। उस ध्यानका हेतु
क्या है ?
यह उत्तरार्ध में स्पष्ट किया गया है। वह हेतु है- सद्बुद्धि (धी)
की प्राप्ति । गायत्रीकी प्रतिष्ठाका अर्थ है- सबुद्धिकी प्राप्ति ।
धी
और बुद्धि – इन दो शब्दोंमें अन्तर है। बुद्धि-
सद्बुद्धि भी हो सकती है और दुर्बुद्धि भी हो सकती है।
व्यक्ति
अपनी बुद्धिको सत्कर्मों में भी लगा सकता है और दुष्कर्मों में भी लगा सकता है।
गायत्री मन्त्रमें केवल बुद्धिके लिये प्रार्थना नहीं की गयी है।
गायत्री
मन्त्रका लक्ष्य सद्बुद्धि (धी) प्राप्त करना है।
धी
और बुद्धिमें वही अन्तर है, जो श्री और लक्ष्मीमें होता
है। लक्ष्मी अच्छे-बुरे किसी भी मार्गसे प्राप्त की जा सकती है।
चोरी-डकैती, छल-कपट, अप्रामाणिकतासे भी लक्ष्मी प्राप्त की जा
सकती है, परंतु श्री स्वधर्माचरणद्वारा प्रामाणिकतासे ही
प्राप्त होती है। लक्ष्मी चंचल है किन्तु श्री स्थिर है।
या
श्रीः स्वयं सुकृतिनां भुवनेष्वलक्ष्मीः पापात्मनां कृतधियां हृदयेषु बुद्धिः ।
श्रद्धा
सतां कुलजनप्रभवस्य लज्जा तां त्वां नताः स्म परिपालय देवि विश्वम् ॥
प्रचोदयात्
—
प्रेरित करें।
यह
क्रियापद है। 'चुद्' धातुमें
अधिकतासूचक 'प्र' उपसर्ग लगानेसे 'प्रचुद्' धातु बनती है। चुद्/ प्रचुद् धातु प्रेरणा
करनेके अर्थमें प्रयोजित होती है।
चोदयति
प्रेरयति ( महीधरभाष्य ) प्रचोदयात् प्रेरयति ( सायण
भाष्य ) । 'प्रबुद्' ( परस्मैपदी
) धातुका आशीर्लिङ्- लकार अथवा लेट्-लकार (केवल वेदोंमें प्रयुक्त) प्रथम पुरुष
एकवचनका आर्षरूप होता है 'प्रचोदयात्', जिसका अर्थ है प्रेरित करें।
गायत्री
मन्त्रमें सवितादेवके श्रेष्ठ तेजके ध्यानद्वारा सद्बुद्धिकी याचना परमात्मासे की
गयी है,
परंतु वह दीन-हीन विधिसे नहीं, अपितु वैदिक
संस्कृतिके अनुसार आत्मगौरवपूर्वक ।
गायत्री
मन्त्रमें 'प्रचोदयात्' शब्दद्वारा
आत्मगौरवकी सम्पूर्ण रक्षा की गयी है।
'प्रचोदयात्' शब्दद्वारा परमात्मासे सदबुद्धिको
प्रेरणा देनेकी याचना की गयी है।
वे
हमारी सद्बुद्धिको प्रेरित करें। भारतीय संस्कृति कर्मवादकी संस्कृति है।
वेदोंमें
ईश्वरसे जो प्रार्थनाएँ की गयी हैं, उसमें
ईश्वरका आशीर्वाद, मार्ग दिखाने, नेतृत्व
देनेकी प्रार्थना की गयी है।
भारतीय
संस्कृतिमें कर्मके साथ फल जोड़ा गया है; प्रयत्नके
बाद सफलता होती है। मनुष्य शक्तियोंका भण्डार है। वह कुछ भी प्राप्त करनेका
सामर्थ्य रखता है।
उसे
जरूरत है केवल प्रेरणाकी, जिससे बुद्धि शुद्ध हो जाय।
सद्बुद्धि आनेसे वह संसारका कोई भी ऐश्वर्य प्राप्त कर सकता है।
गायत्री
मन्त्रमें सबुद्धिके लिये नहीं, अपितु सद्बुद्धिकी
प्रेरणा, प्रोत्साहन, आशीर्वादके लिये
प्रार्थना की गयी है।
सद्बुद्धि
भी स्वयंके प्रयत्नसे ही आती है। 'प्रचोदयात्'
शब्द यही प्रेरणाका बोधक है।
उपर्युक्त
विवेचनके अनुसार गायत्री मन्त्रका सर्वजनसुलभ अर्थ इस प्रकार होता है –
ॐ
पृथ्वी,
अन्तरिक्ष एवं स्वर्गलोकको प्रकाशित करनेवाले उस सविता (सूर्य) -
देवके वरण करनेयोग्य (श्रेष्ठ) तेजका हम सब ध्यान करते हैं, जो
(वे) हमारी ( हम सबकी) सद्बुद्धियोंको प्रेरित करें।
0 Comments
If you have any Misunderstanding Please let me know