स्वर्ग का भोग नहीं
चाहिए
महर्षि मुद्गल परम विरक्त, घोर तपस्वी तथा सेवा भावी थे। वे धर्मशास्त्रों के स्वाध्याय और भगवद्भजन
में लगे रहते थे। खेतों में छोड़े गए अनाज को इकट्ठा कर उनसे अपनी भूख मिटाते थे।
वे कई- कई दिनों के उपवास के अभ्यस्त थे । एक बार की बात है - उपवास के अगले दिन
वे व्रत पारण करने वाले थे कि अचानक एक दीन -हीन व्यक्ति आ पहुँचा । उसने
गिड़गिड़ाते हुए कहा, मैं भूख से व्याकुल हूँ । कुछ खाने को देने की कृपा करें ।
महर्षि ने अपने लिए बनाई रोटियाँ अतिथि के सामने परोस दीं । वह तृप्त होकर
लौट गया । उन्होंने दोबारा रोटियाँ सेंकी और भगवान् को भोग लगाने के बाद जैसे ही
खाने के लिए बैठे कि एक अन्य भूखा व्यक्ति आ पहुंचा । उन्होंने अपना भोजन खुशी-
खुशी उसे भेंट कर दिया । यह क्रम कई बार दोहराया गया । हर बार उन्होंने स्वयं भूखा
रहकर अतिथि को भोजन कराया ।
अचानक सामने देवदूत प्रकट हुआ । उसने कहा, अनूठे अतिथि सत्कार के पुण्यों के कारण आपको स्वर्गलोक ले जाने
आया हूँ । महर्षि ने देवदूत से पूछा, स्वर्गलोक और पृथ्वीलोक में क्या अंतर है? उसने जवाब दिया , स्वर्गलोक भोग भूमि है, जबकि पृथ्वीलोक कर्मक्षेत्र । यहाँ कर्म
द्वारा ज्ञान का उदय होता है । ज्ञान और भक्ति के बल पर स्वाभाविक रूप से मुक्ति
प्राप्त हो जाती है । महर्षि मुद्गल ने अत्यंत आदरपूर्वक देवदूत को वापस लौटाते
हुए कहा, मुझे स्वर्ग
भोग की कोई आकांक्षा नहीं । मैं पृथ्वीलोक में रहकर ही साधना भक्ति करता रहूँगा ।
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