सत्य ही सर्वोपरि
धर्म
एक दिन पार्वतीजी भगवान् शंकर के पास बैठी सत्संग कर रही थीं । उन्होंने पूछ
लिया, आपकी दृष्टि में
सबसे बड़ा धर्म क्या है ? शंकरजी ने जवाब दिया, सबसे बड़ा धर्म है सत्य । सत्य पर सदैव अडिग रहने में ही कल्याण है और सबसे
बड़ा अधर्म असत्य है । शंकरजी ने कहा, सत्य का त्याग कर देने वाला विभिन्न दुर्गुणों का शिकार बनकर
अपना जीवन कष्टमय बना लेता है, जबकि सत्य का पालन करनेवाला न कभी भयभीत होता है और न ही किसी प्रकार के
प्रपंच और लोभ लालच के आकर्षण में फँसता है । मनुष्य को चाहिए कि वह अपने शुभ अथवा
अशुभ कर्मों में स्वयं को ही साक्षी माने । मन, वाणी और क्रिया द्वारा कभी गलत या पाप कर्म करने की इच्छा न करे
। यह ध्यान रखना चाहिए कि जीव जैसा कर्म करता है, वैसा ही फल पाता है । अपने किए का फल उसे स्वयं ही भोगना पड़ता
है, दूसरा कोई उसे
भोगने का अधिकारी नहीं है।
भगवान् शंकर चेतावनी देते हुए कहते हैं, पार्वती, तृष्णा के समान कोई दुःख नहीं है और त्याग के समान कोई सुख नहीं है । समस्त
कामनाओं का परित्याग कर देने वाला मनुष्य ही ब्रह्म भाव को प्राप्त करता है । यह
महान् आश्चर्य की बात है कि मनुष्य की इंद्रियाँ प्रतिक्षण जीर्ण हो रही हैं और
उसकी आयु नष्ट हो रही है, फिर भी वे आकांक्षाओं में, प्रपंचों में लगे रहकर अपना समय गँवा रहे हैं ।
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