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सेवा ही भक्ति है

 

सेवा ही भक्ति है

महिला संत राबिया पशु- पक्षियों, असहायों और रोगियों की सेवा में हमेशा तत्पर रहा करती थीं । यात्रा करती हुई एक बार वे मक्का पहुँची । एक दिन इब्राहिम उनके सत्संग के लिए पहुंचे। उन्होंने देखा कि संत राबिया एक बीमार कुत्ते का घाव धोने के बाद मलहम लगा रही हैं । इब्राहिम उनकी भावना देख अत्यंत प्रभावित हुए । उन्होंने पूछा, आप इबादत के क्षेत्र में बहुत ऊपर पहुँच गई हैं । आप एक सिद्ध संत हैं । आपकी इस सफलता का रहस्य क्या है ?

राबिया ने कहा, जहाँ तक बंदगी की बात है, मैं नमाज दिन में एक बार ही अदा कर पाती हूँ, अधिकतर समय मैं खुदा के बंदों की खिदमत में लगाती हूँ । मक्का तक पहुँचने में मुझे पाँच वर्ष लग गए । रास्ते भर राहगीरों, अपंगों- बीमारों की सेवा करती रही । आदमी तो क्या, मुझसे निरीह पशु - पक्षियों की पीड़ा भी सहन नहीं हो पाती । मैं सेवा को ही खुदा की नेक बंदगी मानती हूँ । मैं नमाज अदा करते समय यही प्रार्थना करती हूँ कि जब तक जिस्म जिंदा है, ऐसे ही जरूरतमंदों की सेवा करती रहूँ । कुछ क्षण रुककर उन्होंने फिर कहा, मैंने पग - पग पर यह अनुभव किया है कि दूसरों की सेवा में जो संतोष मिलता है, वह शरीर से सुख भोगने पर नहीं मिलता ।

इब्राहिम राबिया की सफलता का रहस्य समझ गए । उन्होंने अपनी जीवनचर्या बदल दी । अब वे प्रतिदिन रोगियों और अपंगों की सेवा करने लग गए । उन्हें स्वतः अनुभूति होने लगी कि खुदा उन पर पहले से अधिक दया की वर्षा करने लगे हैं ।


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