मैं तो शहंशाह हूँ
राजस्थान में जन्मे महात्मा मस्तराम परम विरक्त संत थे। वे अपने पास एक कमंडल
तथा एक लंगोटी के अलावा कुछ नहीं रखते थे । मारवाड़ से धर्म प्रचार करते हुए एक
दिन वे काठियावाड़ पहुँचे। उन्हें पता चला कि इस क्षेत्र के ग्रामीण नशीले
पदार्थों का सेवन करते हैं और आलसी हैं । उन्होंने ग्रामीणों को उपदेश देते हुए
शराब, अफीम, तंबाकू आदि से होने वाली हानि से अवगत कराया ।
आलस्य त्यागकर कर्म करने और प्रतिदिन भगवान् का स्मरण करने की प्रेरणा दी ।
भावनगर के राजा भी उनके दर्शन के लिए पहुंचे और उन्हें दोशाला ओढ़ा दिया ।
संतजी ने राजा से कहा, इस दोशाला को किसी जरूरतमंद गरीब को दे देना । मुझ साधु की तपस्या भंग न करो
। एक दिन काठियावाड़ के एक सेठ ने महात्माजी के उपदेशों से प्रभावित होकर उन्हें
धन से भरी थैली भेंट की । स्वामीजी ने कहा, यह थैली किसी गरीब को दे देना ।
सेठ ने हँसकर कहा, महाराज, आपके पास एक
लंगोटी के अलावा कुछ नहीं है । मैं दूसरा गरीब कहाँ से ढूँढंगा? महात्माजी ने कहा, चाह नहीं चिंता नहीं मनवा बेपरवाह, जा को कुछ न चाहिए, सो जग शहंशाह । मैं गरीब नहीं, मैं तो शहंशाह हूँ । अचानक भावनगर के राजा भी
वहाँ आ पहुँचे। महात्माजी ने हँसकर कहा , सेठ, यह थैली राजा को दे दो । इनके पास अथाह संपत्ति है, फिर भी इन्हें संतोष नहीं । जिसे संतोष नहीं, वह तो दरिद्र ही होता है ना । राजा महात्माजी
के चरणों में झुक गए ।
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