ज्ञान और भक्ति की
साधना
एक बार पंचवटी स्थित आश्रम में भगवान् श्रीराम लक्ष्मणजी के साथ बैठे थे।
लक्ष्मण ने सरल भाव से कुछ जिज्ञासाएँ उनके समक्ष रखीं । उन्होंने पूछा, प्रभु , माया किसे कहते हैं ? श्रीराम ने बताया, यह मैं हूँ और यह मेरा है, वह तू है और वह तेरा है - बस यही माया है, जिसने समस्त जीवों को अपने वश में कर रखा है ।
उन्होंने आगे कहा, माया दो
प्रकार की होती है । एक विद्या माया है, जो जीव को गुणों को ग्रहण करने तथा ईश्वर प्राप्ति की ओर उन्मुख
होने की प्रेरणा देती है । दूसरी दोषयुक्त अविद्या माया है, जिसके वश में होकर जीव संसार रूपी कुएँ में
पड़कर अनेक दुःख भोगता है ।
श्रीराम ने अपने अनुज को समझाते हुए कहा, हे तात, ज्ञानी वह है, जिसमें मान, अभिमान आदि एक भी दोष नहीं है और जो सबमें
समान रूप से ब्रह्म को ही देखता है । परम विरागी उसी को कहा जाता है, जो सारी सांसारिकसुविधाओं को त्याग चुका हो ।
वेदों में ऐसा वर्णन है कि धर्म के आचरण से वैराग्य और योग के माध्यम से ज्ञान
प्राप्त होता है । यही मोक्ष देने वाला होता है । भक्ति अनुपम सुख की मूल है ।
भक्ति को ज्ञान -विज्ञान आदि किसी दूसरे साधन के सहारे की आवश्यकता नहीं होती । वह
भक्ति तभी मिलती है, जब संतजन
प्रसन्न होते हैं । जिस भक्त में काम , मद तथा दंभ आदि दोष न हों, जो संतों, गुरु, माता, वृद्धजनों और विद्वानों की सेवा में तत्पर
रहता है, उसे सहज ही
भक्ति- साधना में सफलता मिलती है । श्रीरामजी के विवेचन से लक्ष्मण गद्गद हो उठे ।
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