कुसंग का
दुष्परिणाम
ब्राह्मण किशोर भूरिश्रवा को महर्षि ऋचीक के गुरुकुल में विद्या व शास्त्रों
के अध्ययन के लिए भेजा गया । ऋचीक अग्रणी तत्त्वज्ञानी और ब्रह्मनिष्ठ ऋषि थे। वे
शिष्यों को भी संयम व तप के महत्त्व से परिचित कराकर सांसारिक प्रपंचों में न
पड़ने की प्रेरणा दिया करते थे।
भूरिश्रवा ने अध्ययन पूरा किया, तो गुरु ने विदा करने से पूर्व उपदेश देते हुए कहा, वत्स , हमेशा सत्पुरुषों के सत्संग में रत रहना । गृहस्थ आश्रम में
प्रवेश करने के बाद भी संयम का निरंतर पालन करना । संयम, सत्संग रूपी तप ही पथभ्रष्ट होने से बचाता है
।
भूरिश्रवा का शुचिता नामक शीलवान कन्या से विवाह हुआ । कुछ दिन वे धर्ममय
जीवन बिताते रहे, फिर
दुर्व्यसनी के संग के कारण संध्या, गायत्री, वेदाध्ययन छूटता गया । पत्नी के समझाने के बावजूद वे अधर्म के कर्मों में
लगे रहे । नगर के लोग उनसे घृणा करने लगे । उनका तेज, धन, यश - सब गायब हो गया।
आचार्य ऋचीक को इस बारे में पता चला, तो वे उसके घर जा पहुँचे। भूरिश्रवा और उनकी पत्नी ने देखते ही
आदर से उन्हें बिठाया ।
आचार्य ने कहा, वत्स, यदि तुम
मेरे वचनों पर ध्यान देते, तो तुम्हारी यह गति नहीं होती । कुसंग ने तुम्हारे तेज, तप, संयम, यश - सबकुछ हर लिए हैं । इसलिए दुष्टजनों का कुसंग त्याग दो । मर्यादा एवं
संयम का दृढ़ता से पालन करो ।
भूरिश्रवा गुरु के वचन सुनकर रो पड़ा । उसने दुष्टों का संग त्यागने का
संकल्प लिया । संयम और तप से उसे पुनः तेजस्वी और यशस्वी बना दिया ।
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