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आँखें पहचान न पाई

 

आँखें पहचान न पाई

एक साधु था । एक दिन वह श्मशान में बैठकर चिता की आग में रोटी सेंक रहा था । शिव-पार्वती अचानक उधर से निकले । पार्वतीजी ने उस साधु को देखा, तो दुःखित होकर शंकरजी से बोलीं, इस बेचारे को चूल्हे की आग भी नसीब नहीं है । आप इस साधु की दरिद्रता दूर कर दीजिए ।

__ पार्वतीजी के आग्रह पर शंकरजी एक भिखारी का रूप धारण कर उसके पास पहुंच गए और उससे रोटी माँगी । साधु ने कहा, मेरे पास चार रोटियाँ हैं । दो तू ले जा, शेष दो से मैं अपनी क्षुधा मिटा लूँगा । शंकरजी खुश होकर असली रूप में आ गए । वे बोले, तुमने भूखे को रोटियाँ दीं । वर माँगो । साधु अभिमान में चूर होकर बोला, अरे भिखमंगे, भगवान् बनने का स्वांग न रच । तूने रोटियाँ माँगी, मैंने दे दी । आया था माँगने और अब चला है वर देने । मुझे क्षुधा मिटा लेने दे । पार्वती वृक्ष की ओट में खड़ी देख रही थीं । शंकरजी लौटे, तो वे बोलीं, अभिमान के कारण इसकी आँखों पर परदा पड़ गया है । आपको पहचान नहीं पाया । वास्तव में दया का पात्र ऐसा ही व्यक्ति होता है । चूँकि शंकरजी को साधु ने भोजन परोसा था, इससे खुश होकर उन्होंने उसे शिवलोक भेज दिया ।


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