आशीर्वाद की
शक्ति
कुरुक्षेत्र के मैदान में पांडव और कौरव सेना आमने- सामने डटी हुई थी ।
अचानक धर्मराज युधिष्ठिर निहत्थे ही कौरव पक्ष की ओर चल दिए । पांडव और अन्य सैनिक
युधिष्ठिर को शत्रु पक्ष की ओर जाते देखकर आश्चर्य में पड़ गए ।
युधिष्ठिर सबसे पहले गुरुदेव द्रोणाचार्य की ओर बढ़े । उनके समक्ष झुककर हाथ
जोड़ते हुए आशीर्वाद की याचना की । गुरु द्रोण ने हाथ उठाकर आशीर्वाद दिया ।
युधिष्ठिर ने आगे बढ़कर भीष्म पितामह के चरणों में सिर नवाया और विनम्रता से बोले, विवशता में आप जैसे मार्गदर्शक और पितामह से
युद्ध को प्रवृत्त होना पड़ रहा है । क्षमा माँगने और आशीर्वाद लेने आया हूँ ।
भीष्म पितामह ने मुसकराते हुए सिर पर हाथ फेरकर आशीर्वाद दिया । अर्जुन रथ पर सवार
थे। उन्होंने यह देखा, तो उनके मुख पर चिंता की लहर दौड़ गई । वे युद्ध में अपने कौशल और शौर्य
दिखाने को उत्सुक थे और समझ नहीं पा रहे थे कि युधिष्ठिर को आखिर क्या हो गया है ? वे क्यों शत्रु पक्ष के धुरंधरों के चरणों में
झुक रहे हैं ? सारथी
भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन की मनोदशा समझ गए और बोले, पार्थ, युधिष्ठिर ने गुरु और पितामह का आशीर्वाद प्राप्त कर आधा महाभारत जीत लिया
है । शेष तुम्हारे शौर्य और युद्ध कौशल से जीता जाएगा ।
अर्जुन समझ गए कि श्रीकृष्ण की प्रेरणा से ही धर्मराज युधिष्ठिर शत्रु खेमे में आशीर्वाद लेने पहुंचे थे।
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