क्रोध अधर्म है
उत्तंक मुनि वन में रहकर एकांत साधना में लीन रहते थे। कौरव - पांडव, दोनों के प्रति वे वात्सल्य भावना रखते थे ।
वह सभी के कल्याण की कामना किया करते और प्रायः कहते कि प्रेम, करुणा और लोभ रहित व्यवहार से सभी का मन जीता
जा सकता है । एक दिन उत्तंक मुनि की भेंट भगवान् श्रीकृष्ण से हुई । श्रीकृष्ण ने
मुनि को प्रणाम किया, मुनि ने भी श्रीकृष्ण को मन- ही - मन नमन किया । बातचीत के दौरान मुनि ने
पूछा, केशव, कौरव - पांडव सकुशल तो हैं ।
श्रीकृष्ण ने उन्हें बताया, दुर्योधन के दुराग्रह के कारण हाल ही में महाभारत युद्ध हुआ, जिसमें सभी कौरव मारे गए ।
__ मुनि ने यह सुना, तो वे हतप्रभ रह गए । उन्होंने क्रोध में भरकर कहा, कृष्ण, तुम्हारे रहते यह घोर अधर्म कैसे हो गया ? निश्चय ही तुमने पांडवों से मिलकर छलपूर्वक
कौरवों का विनाश किया होगा । मैं तुम्हें शाप दे सकता हूँ । श्रीकृष्ण ने कहा, मुनिवर, शाप देने में जल्दबाजी करके अपनी तपस्या के पुण्यों को नष्ट न
करें । पहले कौरवों के अन्यायपूर्ण कृत्यों को जान लें । श्रीकृष्ण ने उन्हें पूरी
बात बताई कि कैसे अंत तक समझौते का प्रयास किया गया था , लेकिन दुर्योधन के अहंकार व दुष्प्रवृत्ति के
कारण ऐसा संभव न हो सका ।
मुनि उत्तंक दुर्योधन के दुर्गुणों से परिचित थे। तमाम बातें सुनकर वह शांत हो
गए । बोले, भगवन्, बिना सोचे समझे क्रोध करना भी अधर्म है । मुझे
क्षणिक क्रोध के पाप से क्षमा करें ।
श्रीकृष्ण
ने उन्हें प्रणाम किया और लौट गए ।
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