Ad Code

उपेक्षा का प्रायश्चित्त

 

उपेक्षा का प्रायश्चित्त

अयोध्या के कुलगुरु वशिष्ठजी वनवासी श्रीराम से भेंट करने भरतजी के साथ रवाना हुए । रास्ते में निषादराज गुह को संदेह हुआ कि सेना को साथ लेकर कौन लोग उधर जा रहे हैं, जिधर श्रीराम, लक्ष्मण और सीताजी गए हैं । वे तुरंत अपने साथियों सहित उनके पास जा पहुँचे। सबसे आगे वशिष्ठजी चल रहे थे। निषाद अपने को तुच्छ और निम्न जाति का मानता था । उसने दूर से ही गुरु वशिष्ठजी को जमीन पर लेटकर प्रणाम किया । भरतजी ने यह दृश्य देखा, तो एक वनवासी से पूछा, ये कौन हैं? उसने बताया, ये पिछड़ी जाति के निषाद हैं । इन्होंने अपनी परम भक्ति से भगवान् श्रीराम का मन जीत लिया है । श्रीराम इन्हें अपना अनन्य भक्त मानते हैं । यह सुनते ही भरतजी ने आगे बढ़कर निषाद को सम्मानपूर्वक छाती से लगा लिया ।

निषाद बोले, वन में आप भटक न जाएँ, इसलिए मैं आपके साथ चलकर श्रीरामजी से आपकी भेंट कराता हूँ । वह आगे- आगे चल पड़े । सभी श्रीराम के विश्रामस्थल पर पहुँच गए । श्रीराम भरतजी से गले लगकर मिले । आँखों से अश्रुधारा बह निकली। श्रीराम ने दूर खड़े निषाद को देखा, तो उन्हें भी छाती से लगा लिया । गुरु वशिष्ठजी ने यह दृश्य देखा, तो उन्हें लगा कि उन्होंने निषाद को साधारण वनवासी मानकर उपेक्षा की है, यह तो अधर्म और नासमझी है । अचानक निषाद की नजरें वशिष्ठजी से मिलीं । वह तुरंत भूमि पर लेटकर उनके चरणस्पर्श करने लगा । वशिष्ठ ने उन्हें उठाया और छाती से लगा लिया ।


Post a Comment

0 Comments

Ad Code