निराशा - मनुष्य की कायरता का एक घृणित चिन्ह
शरीर के जिस अंग में पक्षघात हो जाता है, वह अंग क्रिया हीन, निष्वेष्ट तथा निष्प्राण सा हो जाता है। पक्षाघात की जो स्थिति शरीर में होती है, मस्तिष्क में वही अवस्था निराशा में होती है । नैराश्य, मन की सारी स्फूर्ति को कुचलकर उसे निष्क्रिय बना डालता है। निराश व्यक्ति का कभी किसी काम में जी नहीं लगता, किसी प्रकार लगा भी तो वह अधूरा ही रह जाता है। इससे एक पर एक असफलतायें ही बढ़ती जाती हैं। वैसे तो लक्ष्यहीनता, घृणा, उदासीनता, कायरता, अस्थिरता, आदि मनकी नकारात्मक प्रवृत्तियाँ भी मनुष्य के क्रिया व्यवसायों में दूषित प्रभाव डालती हैं किन्तु निराशा के दुष्परिणाम तो इतने गम्भीर रूप से दिखाई देते हैं कि लोग इसके कारण बात की बात में अपनी जान तक गँवा देते हैं । यह निराशा मनुष्य की घोर शत्रु है । इससे बचने में ही कल्याण है ।
अनुमान है कि अमेरिका में प्रतिवर्ष पन्द्रह सौ से भी अधिक लोग आत्म-हत्या करते हैं । संसार के भूभागों में निश्चित ही यह संख्या बहुत बड़ी होगी । सारे संसार में प्रतिवर्ष एक लाख से भी अधिक व्यक्ति आत्मघात कर लेते हैं । प्रतिदिन ५०० से भी अधिक व्यक्तियों की आत्म- हत्या आज के सभ्य संसार के लिये एक बहुत बड़ा कलंक ही है । अकारण ही इस प्रकार जीवन की बाजी लगा देना ही इस युग की सबसे बड़ी और चिन्तनीय समस्या है।
इस आत्म-हत्यायों के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण से यह सिद्ध हो चुका है कि ९० प्रतिशत आत्म-हत्याओं का कारण लोगों की निराशा है। परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाना, व्यवसाय में घाटा, मुकदमे की हार, मान-हानि और प्रेम की असफलता आदि ये कारण इतने बड़े नहीं कि इनसे विक्षुब्ध होकर लोग अपने जीवन का अन्त कर डालें । आये दिन ऐसी घटनायें घटा ही करती हैं । प्रत्येक परीक्षा में पचास प्रतिशत से अधिक लोग अनुत्तीर्ण होते ही हैं, भाव की तेजी-मंदी से व्यवसाय में घाटा आना भी सम्भव है, ऐसे समय निराश व्यक्ति ही अपना मानसिक सन्तुलन खो बैठते हैं और इस प्रकार के दुष्कृत्य कर बैठते हैं ।
निराशा मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु ईश्वर का अभिशाप है। मनुष्य की शारीरिक और मानसिक शक्तियों को समूल नष्ट करने वाली है यह निराशा । इन अवसरों पर जिन व्यक्तियों में धैर्य और आत्म विश्वास की कमी हुई उनके पथ-भ्रष्ट होने में किञ्चित देर नहीं लगती ।
निराशा का मूल कारण है आत्म-विश्वास की कमी । अपने ऊपर जिन्हें प्रत्येक क्षण अविश्वास बना रहता है वे पूरे मन से अपना काम नहीं कर पाते, हर जगह हर बात में आशंका करते रहने से किसी काम में सफलता नहीं मिल पाती । इस कारण से उत्पन्न उद्विग्नता, विक्षोभ और दुःख के कारण निराशा का जन्म होता है । छोटी-छोटी सफलतायें भी अविश्वास का उन्मूलन करती हैं और उतने ही अंशों में निराशा का अन्त होता रहता है । कई बार बौद्धिक क्षमता के अभाव के कारण भी ऐसी परिस्थितियाँ आ जाती हैं। समय और क्षमता के अभाव के कारण भी ऐसी परिस्थितियाँ आ जाती हैं। समय और सामर्थ्य से आगे बढ़कर भी जब हम किसी बहुत बड़े लाभ या सफलता की अभिलाषा करते हैं तब भी निराशा का उदय होता है सफलता के लिये रुचि, समय और स्थान की अनुकूलता, सामर्थ्य और योग्यताऐं भी चाहिए । यदि यह न हुई और सफलता की चाह ज्यों त्यों बनी रही तो अन्त में निराशा के अतिरिक्त और कुछ हाथ लगने वाला नहीं है । इसलिये ऊँची स्थिति प्राप्त करने के लिये पहले छोटे कदम उठाने पड़ते हैं । बी. ए. पास करने के लिये प्रारम्भ में 'अ' और 'ब' भी पढ़ने पड़ते हैं । इ तरह से किये हुए कार्यों में नवीनता और रुचि बनी रहती है । थकावट नहीं आती । अविश्वास, आलस्य और दोष छूटने लगते हैं और प्रतिभा का विकास होने लगता है । यदि ऐसा प्रतीत होने लगे कि इन सीमाओं का उल्लङ्घन कर रहे हैं तो प्रारम्भ से ही धैर्य, साहस और उत्साह का वातावरण नाते रहने का प्रयत्न करना चाहिए ताकि अन्तिम समय में असफल होने पर भी निराशा न आने पाये। यदि ऐसा कर सके तो उस कार्य को दुबारा पूरा करने की आप में पर्याप्त हिम्मत बनी रहेगी ।
कदाचित् आप निराशा से मुक्ति नहीं पा रहे हैं तो उसे आप अपने मन में ही न डाले रहिये मन में ही घुलते रहने से स्वास्थ्य का नाश होगा, मानसिक शक्तियाँ क्षीण होंगी । आप घबराइये नहीं, अपने मित्र से सलाह कर लीजिये, वयोवृद्ध अनुभवी व्यक्तियों से उचित परामर्श कर लीजिये । आपका दुःख बट जायेगा, जी हलका हो जायेगा और आगे के लिये एक नई सूझ उत्पन्न होगी । कैसी भी बात क्यों न हो, उसे गुप्त कभी भी नहीं रखना चाहिए, जहाँ तक हो सके अपने परिजनों मित्रों में व्यक्त कर देने से अपनी आधी कठिनाई तत्काल समाप्त हो जाती है। शेष के लिये कोई हल निकल ही आता है।
अपने विचारों को कार्य रूप में परिणित न करने से भी निराशा पैदा होती है । प्रसिद्ध दार्शनिक गोथे ने लिखा है-"क्रिया में परिणित न होने वाले विचार रोग बन जाते हैं ।" डा. हेनरी के भी ऐसे ही विचार हैं । जिन्होंने लिखा है- " मस्तिष्क जब अपने ही व्यूह में द्रुत गति से चक्कर लगाने लगता है और शारीरिक अवयवों को गति नहीं दे पाता तभी निराशा उत्पन्न होती है ।" अतएव यह सुनिश्चित है कि अपने विचार, अपनी इच्छाओं को पूरी तरह कार्यों में अभिव्यक्त होना चाहिए। यदि ऐसा नहीं हुआ तो अन्तःकरण में घोर अशान्ति छायी रहेगी। अपनी कठिनाइयों को समस्या का रूप मत दीजिये । परिस्थितियों के अनुसार अच्छे-बुरे सभी तरह के परिणाम भुगतने लिये अपना दिल और दिमाग मजबूत रखिये । दिन के चौबीस घन्टे काम में लगे रहिये । न मिलेगा समय, न आयेगी निराशा का सिद्धान्त ही सर्वोत्तम है । इसी तरह उन बातों की कामना करना छोड़ दीजिये तो परिस्थिति साध्य है। जो कुछ मिले उतने से ही सन्तोष कर लिया कीजिये । इससे आपकी मानसिक प्रसन्नता सदैव स्थिर बनी रहेगी ।
संघर्ष के क्षणों में हार मान लेना यह मनुष्य की सबसे बड़ी भूल है । मनुष्य में वह सभी शक्तियाँ सन्निहित हैं जिनके कारण वह असमय में भी मनचाही सफलतायें प्राप्त कर सकता है। पर इसके लिये विश्वास और लगन की आवश्यकता है। ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जब अपनी अल्प शक्तियों का उपयोग करके भी मनोबाँछित सफलतायें प्राप्त की गई है, इसका एक उदाहरण इस प्रकार है :-
हिन्दुओं में अब भी यह विश्वास है कि रामायण और महाभारत पढ़ने से लोगों को मोक्ष मिल जाता है। इस बात का पता जब हाबड़ा की ८० वर्षीय अशिक्षित अनुबती देवी को चला तो उन्हेंने धैर्य, साहस और आत्म- विश्वास के साथ जोतगिर ग्राम में पढ़ना शुरू कर दिया । यह घटना लगभग ८ वर्ष हुए घटित हुई थी । अब तक इस गाँव में अनुवती के इस साहस के कारण वयस्क शिक्षा की विधिवत् परम्परा चल पड़ी है । लगता है अब वहाँ कोई निरक्षर नहीं रहेगा । उद्देश्य कैसा भी हो उसकी पूर्ति के लिये अपनी चेष्टाओं को एकाग्र करके लगन और तत्परता के साथ कार्य करें तो सफलता जरूर मिलती है इसमें किसी तरह का सन्देह नहीं है ।
परेशानी तभी तक रहती है, जब तक मन में शंका तथा भय बना रहता है । साहस के हारते ही निर्णय शक्ति समाप्त हो जाती है। मनुष्य उस विषय पर ठीक विचार नहीं कर पाता, क्योंकि उसकी तर्क शक्ति मन्द पड़ जाती है । मन की इस अराजकता से ही उसकी शक्तियों का पतन होता है और किसी कार्य में सफलता नहीं मिल पाती । मानसिक शक्तियों के दबते ही मनुष्य की प्रतिभा कुन्द हो जाती है और इससे उसकी सारी कार्य क्षमता समाप्त हो जाती है । उस समय यदि निराशा से बचने का प्रयत्न नहीं करते और आशा, उत्साह की कल्पना नहीं करते तो आपका जीवन बेकार हो जायेगा । इस विनाशकारक वृत्ति को रोकने में ही मनुष्य मात्र का कल्याण है।
हमारी समस्त निराशाओं का मूल कारण हमारी ईश्वर से भिन्नता है । मनुष्य तब तक अपने आप में बिलकुल असहाय, अरक्षित और अकेला है जब तक कि वह अपने ही अहंभाव तक सीमित रहता है, उसकी निराशा, दुःख और छटपटाहट भी तभी तक रहती है। जो हमेशा परमात्मा को अपने पास समझता है वह सभी निराशाओं और कष्टों से ऊपर उठ जाता है जिन कठिनाइयों और संघर्षों से सामान्य जन भयभीत बने रहते हैं, ईश्वरवादी उन्हें अपनी प्रगति अपने विकास का माध्यम मानता है और उसका सहर्ष स्वागत करता है । आशाओं का केन्द्र भगवान ही है। जो उस पर आस्था रखता है उसके जीवन में आशा का संचार होने लगता है ।
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