अकारण दुःखी रहने की आदत
दुःख का मूल आधार मनुष्य के नकारात्मक विचार होते है । रचनात्मक, विधेयक विचार मनुष्य में बड़े परिश्रम और लम्बे अभ्यास बाद परिपक्व होते हैं । किन्तु नकारात्मक मनोभूमि मनुष्य की सहज स्वाभाविक प्रवृत्ति का परिणाम है, जिसके कारण मनुष्य में चिन्ता, परेशानी, क्लेश, भय, निराशा, हीनता, अवसाद के भावों का विस्तार होता है । और ये ही दूषित भाव मनुष्य के दुःख का आधार बनते हैं । बाह्य परिस्थितियों के अनुकूल और सुख साधनों से सम्पन्न होकर भी नकारात्मक मनोभूमिका व्यक्ति दुःख ही अनुभव करता है। इतना ही नहीं वह सुख-आनन्द के अवसरों का भी लाभ नहीं उठा सकता । इस तरह जीवन में कभी भी दुःखों से छुटकारा नहीं मिल पाता है।
जीवन पथ पर आगे बढ़ने के लिये हमें स्वस्थ, सबल, रचनात्मक मनोभूमि की अत्यन्त आवश्यकता है । इसके बिना हम एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकेंगे प्रत्युत हमारा असन्तुलित मन ही हमारे विनाश का कारण बन जायेगा । इसके लिये आत्म निरीक्षण द्वारा मनोविकारों को समझा जाये । अपनी मनोभूमि का पूरा-पूरा निराकरण किया जाये । जो भी नकारात्मक विचार हों उनसे पूर्णतया मुक्त होने का प्रयत्न किया जाये । स्मरण रहे आत्म-निरीक्षण की प्रक्रिया इतनी गम्भीर भी न हो जिससे जीवन के अन्य अंगों की उपेक्षा होने लगे । केवल अपने बारे में ही सोचते रहना, अपने व्यक्तित्व में घुसकर ही ताना-बाना बुनते रहना भी आगे चलकर मानसिक दोष बन जाते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि अपनी मनोविकृति के बारे में गम्भीरता से सोचा जाये, और फिर उसे सुधारने के लिये तत्परतापूर्वक लग जाया जाये ।
नकारात्मक कुविचारों को हटाकर रचनात्मक, विधेयक दृष्टिकोण अपनाने पर दुःखदायी परिस्थितियाँ भी मनुष्य के लिये सुखकर परिणाम पैदा कर देती हैं, वस्तुतः स्वस्थ मनोवृत्ति का व्यक्ति सुख और आनन्द को ही जीवन का सर्वस्व नहीं मानता। एक सीमा तक इन्हें उपयोगी भी माना जा सकता है ।
स्वस्थ मनोवृत्ति का मनुष्य दूसरों को सुखी देखकर अधिक सन्तोष अनुभव करता है। जीवन के प्रति सरस और सजीव दृष्टिकोण अपनाने के कारण अपनी कठिनाइयों से भी बहुत कुछ सीखता है और उन्हें एक उग्र अध्यापक मात्र मानकर स्वागत ही करता है।
सुख-दुःख हमारे अपने ही पैदा किये हुए होते हैं । हमारी अपनी मनोभूमि का परिणाम है । हम अपनी मनोभूमि परिष्कृत करें, विचारों को उत्कृष्ट और रचनात्मक बनायें, भावनायें शुद्ध करें, इसी शर्त पर जीवन हमें सुख-शान्ति, प्रसन्नता, आनन्द प्रदान करेगा अन्यथा वह सदा असन्तुष्ट और रूठा हुआ ही बैठा रहेगा और अपने लिये आनन्द के द्वार सदैव बन्द रहेंगे ।
हम आशावादी बनें
आशा मनुष्य का शुभ संकल्प है । प्राणियों में वह अमृत है । जैसे सारा वनस्पति जगत् सूर्य से प्रेरणा पाता है वैसे ही मनुष्य में आशायें ही पूर्ण शक्ि का संचार करती हैं। मनुष्य की प्रत्येक उन्नति, जीवन की सफलता, जीवन लक्ष्य की प्राप्ति का संचार आशाओं द्वारा होता है। आशायें न होतीं तो संसार नीरस, अव्यक्त और निश्चेष्ट सा दिखाई देता । इसलिये भारतीय आचार्यों ने सदैव मानव समाज को यही समझाया है-
निराशया समं पापं मानवस्य न विद्यते ।
तां समूलं समुत्सार्य ह्याशावादपरो भव ॥
मनुष्य के निराशा से बढ़कर दूसरा कोई पाप नहीं इसलिये इसका समूल नाश करके आशावादी धर्म बनाना है । मानवीय प्रगति का आधार आशावादिता को ही मानते हुए उन्होंने आगे और भी कहा है-
मानवस्योन्नतिः सर्वा साफल्यं जीवनस्य च ।
चरितार्थ्यं तथा सृष्टेराशावादे प्रतिष्ठितम् ॥
संसार में आने के उद्देश्य की पूर्ति के लिये हे मनुष्यों ! तुम्हें सर्व प्रथम आशावादिता का आश्रय लेना चाहिए ।
संसार के सारे कार्य आशाओं पर चलते हैं। विद्यार्थी अपना समय, धन लगाकर दिन न रात श्रमपूर्वक अध्ययन में लगा रहता है । अध्यापकों की झड़कियाँ सुनता है, अपना सुख-चैन सभी छोड़कर केवल ज्ञानार्जन में लगा रहता है । इसलिये कि उसे यह आशा होती है कि वह पढ़-लिखकर सभ्य, सुशिक्षित नागरिक बनेगा । देश जाति के उत्थान में भागीदार बनेगा । सम्मान पूर्वक जीवन जियेगा । खेत खलिहानों से लेकर कल करखानों तक में जितने भी व्यवसाय फैले हैं उनके मूल में कोई न कोई आशा ही क्रियाशील होती है ।
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