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ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (दयानन्दसरस्वतीविरचिता)/६. ब्रह्मविद्याविषयः

 


अथ ब्रह्मविद्याविषयः

वेदेषु सर्वा विद्याः सन्त्याहोस्विन्नेति ?


अत्रोच्यते। सर्वाः सन्ति मूलोद्देशतः। तत्रादिमा ब्रह्मविद्या संक्षेपतः प्रकाश्यते -


तमीशानं जगतस्तस्थुषस्पतिं


धियञ्जिन्वमवसे हूमहे वयम्।


पूषा नो यथा वेदसामसद्वृधे


रक्षिता पायुरदब्धः स्वस्तये॥1॥


-ऋ॰ अ॰ 1। अ॰ 6। व॰ 15। मं॰ 5॥


तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः।


दिवीव चक्षुराततम्॥2॥


-ऋ॰ अ॰ 1। अ॰ 2। व॰ 7। मं॰ 5॥


अनयोरर्थः - (तमीशानम्) ईष्टेऽसावीशानः सर्वजगत्कर्त्ता (जगतस्तस्थुषस्पतिं) जगतो जङ्गमस्य तस्थुषः स्थावरस्य च पतिः स्वामी (धियञ्जिन्वम्) यो बुद्धेस्तृप्तिकर्त्ता (अवसे हूमहे वयम्) तमवसे रक्षणाय वयं हूमहे आह्वयामः (पूषा) पुष्टिकर्त्ता (नः) स एवास्माकं पुष्टिकारकोऽस्ति (यथा वेदसामसद्वृधे) हे परमेश्वर! यथा येन प्रकारेण वेदसां विद्यासुवर्णादीनां धनानां वृधे वर्धनाय भवानस्ति तथैव कृपया (रक्षिताऽसत्) रक्षकोऽप्यस्तु। एवं (पायुरदब्धः स्वस्तये) अस्माकं रक्षणे स्वस्तये सर्वसुखाय (अदब्धः) अनलसः सन् पालनकर्त्ता सदैवास्तु॥1॥


तद्विष्णोरिति मन्त्रस्यार्थो वेदविषयप्रकरणे विज्ञानकाण्डे गदितस्तत्र द्रष्टव्यः॥2॥


भाषार्थ - प्र॰- वेदों में सब विद्या हैं वा नहीं?


उ॰ - सब हैं। क्योंकि जितनी सत्यविद्या संसार में हैं वे सब वेदों से ही निकली हैं। उन में से पहले ब्रह्मविद्या संक्षेप से लिखते हैं-


(तमीशानं) जो सब जगत् का बनाने वाला है (जगतस्तस्थुषस्पतिं) अर्थात् जगत् जो चेतन और तस्थुष जो जड़, इन दो प्रकार के संसार का जो राजा और पालन करने वाला है (धियञ्जिन्वम्) जो मनुष्यों को बुद्धि और आनन्द से तृप्ति करने वाला है, उस की (अवसे हूमहे वयम्) हम लोग आह्वान अर्थात् अपनी रक्षा के लिए प्रार्थना करते हैं (पूषा नः) क्योंकि वह हम को सब सुखों से पुष्ट करने वाला है (यथा वेदसामसद्वृधे) हे परमेश्वर! जैसे आप अपनी कृपा से हमारे सब पदार्थों और सुखों को बढ़ाने वाले हैं वैसे ही (रक्षिता) सब की रक्षा भी करें। (पायुरदब्धः स्वस्तये) जैसे आप हमारे रक्षक हैं, वैसे ही सब सुख भी दीजिये॥1॥


(तद्विष्णोः॰) इस मन्त्र का अर्थ वेदविषयप्रकरण के विज्ञानकाण्ड में अच्छी प्रकार लिख दिया है, वहां देख लेना॥2॥


परीत्य भूतानि परीत्य लोकान्


परीत्य सर्वाः प्रदिशो दिशश्च।


उपस्थाय प्रथमजामृतस्या-


त्मनाऽऽत्मानम् अभि सं विवेश ॥3॥


-य॰ अ॰ 32। मं॰ 11॥


भाष्यम् - (परीत्य भू॰) यः परमेश्वरो भूतान्याकाशादीनि परीत्य सर्वतोऽभिव्याप्य सूर्य्यादींल्लोकान् परीत्य पूर्वादिदिशः परीत्य आग्नेयादि-प्रदिशश्च परीत्य परितः सर्वतः इत्वा प्राप्य विदित्वा च (उपस्थाय प्र॰) यः स्वसामर्थ्यस्याप्यात्मास्ति यश्च प्रथमानि सूक्ष्मभूतानि जनयति तं परमानन्दस्वरूपं मोक्षाख्यं परमेश्वरं यो जीव आत्मना स्वसामर्थ्येनान्तःकरणेनोपस्थाय तमेवोपगतो भूत्वा विदित्वा चाभि संविवेश आभिमुख्येन सम्यक् प्राप्य स एव मोक्षाख्यं सुखमनुभवतीति॥3॥


भाषार्थ - (परीत्य भू॰) जो परमेश्वर आकाशादि सब भूतों में तथा (परीत्य लोकान्) सूर्य्यादि सब लोकों में व्याप्त हो रहा है, (परीत्य सर्वाः॰) इसी प्रकार जो पूर्वादि सब दिशा और आग्नेयादि उपदिशाओं में भी निरन्तर भरपूर हो रहा है, अर्थात् जिसकी व्यापकता से एक अणु भी खाली नहीं है (ऋतस्या॰) जो अपने भी सामर्थ्य का आत्मा है (प्रथमजां) और जो कल्पादि में सृष्टि की उत्पत्ति करने वाला है, उस आनन्दस्वरूप परमेश्वर को जो जीवात्मा अपने अपने सामर्थ्य अर्थात् मन से यथावत् जानता है वही उसको प्राप्त होके (अभि॰) सदा मोक्षसुख को भोगता है॥3॥


महद्यक्षं भुवनस्य मध्ये


तपसि क्रान्तं सलिलस्य पृष्ठे।


तस्मिञ्छ्रयन्ते य उ के च देवा


वृक्षस्य स्कन्धः परित इव शाखाः॥4॥


-अथर्व॰ कां॰ 10। प्रपा॰ 23। अनु॰ 4। मं॰ 38॥


भाष्यम् - (महद्यक्षं) यन्महत्सर्वेभ्यो महत्तरं यक्षं सर्वमनुष्यैः पूज्यम् (भुवनस्य) सर्वसंसारस्य (मध्ये) परिपूर्णं (तपसि क्रान्तं) विज्ञाने वृद्धं (सलिलस्य) अन्तरिक्षस्य कारणरूपेण कार्यस्य प्रलयानन्तरं (पृष्ठे) पश्चात् स्थितमस्ति, तदेव ब्रह्म विज्ञयेम् (तस्मिञ्छ्रय॰) तस्मिन् ब्रह्मणि ये के चापि देवास्त्रयस्त्रिंशद्वस्वादयस्ते सर्वे तदाधारेणैव तिष्ठन्ति कस्य का इव? (वृक्षस्य स्कन्धः॰) वृक्षस्य स्कन्धे परितः सर्वतो लग्नाः शाखा इव॥4॥


भाषार्थ - (महद्यक्षं) ब्रह्म जो महत् अर्थात् सब से बड़ा और सब का पूज्य है (भुवनस्य मध्ये) जो सब लोकों के बीच में विराजमान और उपासना करने के योग्य है (तपसि क्रान्तं) जो विज्ञानादि गुणों में सब से बड़ा है (सलिलस्य पृष्ठे) सलिल जो अन्तरिक्ष अर्थात् आकाश है, उस का भी आधार और उस में व्यापक तथा जगत् के प्रलय के पीछे भी नित्य निर्विकार रहने वाला है (तस्मिञ्छ्रयन्ते य उ के च देवाः) जिस के आश्रय से वसु आदि पूर्वोक्त तेतीस देव ठहर रहे हैं (वृक्षस्य स्कन्धः परित इव शाखाः) जैसे कि पृथिवी से वृक्ष का प्रथम अंकुर निकल के और वही स्थूल हो के सब डालियों का आधार होता है, इसी प्रकार सब ब्रह्माण्ड का आधार वही एक परमेश्वर है॥4॥


न द्वितीयो न तृतीयश्चतुर्थो नाप्युच्यते॥5॥


न पञ्चमो न षष्ठः सप्तमो नाप्युच्यते॥6॥


नाष्टमो न नवमो दशमो नाप्युच्यते॥7॥


तमिदं निगतं सहः स एष एक एकवृदेक एव॥8॥


सर्वे अस्मिन् देवा एकवृतो भवन्ति॥9॥


-अथर्व॰ कां॰ 13। अनु॰ 4। मं॰ 16।17।18।20।21॥


भाष्यम् - (न द्वितीयो॰) एतैर्मन्त्रैरिदं विज्ञायते परमेश्वर एक एवास्तीति। नैवातो भिन्नः कश्चिदपि द्वितीयः तृतीयः चतुर्थः॥5॥


पञ्चमः षष्ठः सप्तमः॥6॥


अष्टमो नवमो दशमश्चेश्वरो विद्यते॥7॥


यतो नवभिर्नकारैर्द्वित्वसंख्यामारभ्य शून्यपर्य्यन्तेनैकमीश्वरं विधायास्माद्भिन्नेश्वरभावस्यातिशयतया निषेधो वेदेषु कृतोऽस्त्यतो द्वितीयस्योपासनमत्यन्तं निषिध्यते। सर्वानन्तर्यामितया प्राप्तः सन् जडं चेतनं च द्विविधं सर्वं जगत् स एव पश्यति नास्य कश्चिद् द्रष्टास्ति। न चायं कस्यापि दृश्यो भवितुमर्हति।


येनेदं जगद् व्याप्तं तमेव परमेश्वरमिदं सकलं जगदपि (निगतं) निश्चितं प्राप्तमस्ति व्यापकाद् व्याप्यस्य संयोगसम्बन्धत्वात्। (सहः) यतः सर्वं सहते तस्मात्स एवैष सहोऽस्ति। स खल्वेक एव वर्त्तते न कश्चिद् द्वितीयस्तदधिकस्तत्तुल्यो वास्ति। एकशब्दस्य त्रिर्ग्रहणात्। अतः सजातीय-विजातीय-स्वगत-भेदराहित्यमीश्वरे वर्त्तत एव , द्वितीयेश्वरस्यात्यन्तनिषेधात्। कस्मादेकवृदेक एवेत्युक्तत्वात् स एष एक एकवृत्। एकेन चेतनमात्रेण वस्तुनैव वर्तते। पुनरेक एवासहायः सन् य इदं सकलं जगद्रचयित्वा धारयतीत्यादि-विशेषणयुक्तोऽस्ति तस्य सर्वशक्तिमत्त्वात्॥8॥


अस्मिन् सर्वशक्तिमति परमात्मनि सर्वे देवाः पूर्वोक्ता वस्वादय एकवृत एकाधिकरणा एव भवन्त्यर्थात्प्रलयानन्तरमपि तत्सामर्थ्यं प्राप्यैककारणवृत्तयो भवन्ति॥9॥


एवंविधाश्चान्येऽपि ब्रह्मविद्या-प्रतिपादकाः 'स पर्य्यगाच्छुक्रमकायमि'त्यादयो मन्त्रा वेदेषु बहवः सन्ति। ग्रन्थाधिक्यभिया नात्र लिख्यन्ते। किन्तु यत्र यत्र वेदेषु ते मन्त्राः सन्ति, तत्तद्भाष्यकरणावसरे तत्र तत्रार्थानुदाहरिष्याम इति।


भाषार्थ - (न द्वितीयो न॰) इन सब मन्त्रों से यह निश्चय होता है कि परमेश्वर एक ही है, उस से भिन्न कोई न दूसरा, न तीसरा न कोई चौथा परमेश्वर है॥5॥


(न पञ्चमो न॰) न पांचवां, न छठा और न कोई सातवां ईश्वर है॥6॥


(नाष्टमो॰ न॰) न आठवां, न नवमा और न कोई दशमा ईश्वर है॥7॥


(तमिदं॰) किन्तु वह सदा एक अद्वितीय ही है। उस से भिन्न दूसरा ईश्वर कोई भी नहीं।


इन मन्त्रों में जो दो से लेके दश पर्य्यन्त अन्य ईश्वर होने का निषेध किया है, जो इस अभिप्राय से है कि सब संख्या का मूल एक (1) अङ्क ही है। इसी को दो, तीन, चार, पांच, छः, सात, आठ और नव वार गणने से 2।3।4।5।6।7।8 और 9 नव अङ्क बनते हैं और एक पर शून्य देने से 10 का अङ्क होता है। उन से एक ईश्वर का निश्चय कराके वेदों में दूसरे ईश्वर के होने का सर्वथा निषेध ही लिखा है अर्थात् उसके एकपने में भी भेद नहीं और वह शून्य भी नहीं। किन्तु जो सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त एकरस परमात्मा है, वही सदा से सब जगत् में परिपूर्ण होके पृथिवी आदि सब लोकों को रच के अपने सामर्थ्य से धारण कर रहा है। तथा वह अपने काम में किसी का सहाय नहीं लेता क्योंकि वह सर्वशक्तिमान् है॥8॥


(सर्वे अस्मिन्॰) उसी परमात्मा के सामर्थ्य में वसु आदि सब देव अर्थात् पृथिवी आदि लोक ठहर रहे हैं और प्रलय में भी उस के सामर्थ्य में लय होके उसी में बने रहते हैं।


इस प्रकार के मन्त्र वेदों में बहुत हैं। यहां उन सब के लिखने की कुछ आवश्यकता नहीं, क्योंकि जहां जहां वे मन्त्र आवेंगे, वहां वहां उनका अर्थ कर दिया जायगा।


॥इति ब्रह्मविद्याविषयविचारः॥6॥

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