आत्मा अहि= पाप का नाश करता है
' मरुत 'शब्द का मूल अर्थ है मरने मरने वाला। लाक्षणिक अर्थ प्राण ऋत्विक सिपाही, वायु,आदि अनेक हैं। आत्मा को पाप से शुद्ध करना है, उसे सेना चाहिए, वेद कहता है प्राण ही तेरी सेना है व ' तुभ्येदेते मरुत: सुशेवा अर्चन्ति '= यह सुखकारी प्राण तेरी ही पूजा करते हैं। प्राण आत्मा ही की सेवा के लिए हैं। प्राण सारी भोग- सामग्री आत्मा के लिए लाते हैं।अर्कं सुन्वन्त्यन्ध= प्रशंसनीय अन्न भोग-सामग्री को निष्पन्न करते हैं। जो कुछ हम खाते- पीते हैं,उसको शरीर का अंश बनने की योग्यता प्राण उत्पन्न करते हैं। इसी भाव को प्रश्नोंपनिषद मेंन बहुत मनोहारी शब्दों में कहा गया है--तुभ्यं प्राण प्रजास्त्विमा दलित हरन्ति य: प्राणै प्रति तिष्ठति ऋ•५.३०.६
' वयमाध्यस्य दातार: पिता त्वं मातरिश्वन:ऋ•५.३०.११
प्राणाधार आत्मन्! जब तू प्राणों के साथ शरीर में प्रतिष्ठित होता है तब यह सारी प्रजाएं तेरे लिए भेंट लाती हैं। हम तो भोग के देने हारे हैं, जीवन आधार! हमारा पालक पिता तू ही है। जबतक आत्मा और प्राण मिलकर शरीर में रहते हैं, तभी तक उसे भोग- भेंट मिलती है।
प्राणों का साथ छूटने पर प्राण= जड़ प्राण बेकार हो जाते हैं। पाप- भावना प्राय: मनुष्य के कर्मों में घुसी रहती है। हमारी प्रत्येक चाल में कुचाल होती है। संसार का व्यवहार विचित्र है। प्राय: सभी लोग अहिंसा को मुख्य धर्म मानते हैं,किन्तु मारक सामग्री का संग्रह भी करते हैं। पूछने पर कहते हैं --संसार में शान्ति स्थापना के लिए यह अशान्ति का सामान आवश्यक है। अहिंसा की प्रतिष्ठा के लिए हिंसा अनिवार्य है तो अहिंसा परम धर्म कैसे? फिर तो
' हिंसा तु परमो धर्म्म: ' मानना पड़ेगा। पाप भाव मायावी है,ठग है, पुण्य का रूप धरके आता है। इसको आत्मा ही मार सकता है-- अहिमोहानमप आशयानं प्र मायाभिर्मायिन सक्षदिन्द्र'= सुमार्ग को छोड़ने वाले,कर्मों में व्यापक ठग, पाप-भाव को बुद्धियों से ताड़ता है। पाप को हटाने का उपाय योगदर्शन में 'प्रतिपक्षभावना ' कहलाता है। ' वितर्कबाधने प्रतिपक्षभावनम् ' योग दर्शन 2/32
व्यासदेव जी कहते हैं-- इस प्रकार उल्टे मार्ग की ओर ले जानेवाले अत्यन्त तीव्र वितर्कज्वर से पीड़ित होता हुआ उसके प्रतिपक्षों का चिन्तन करे। भयंकर संसार के अंगारों में जलते हुए मैंने सब भूतों को अभय प्रदान करने वाले योगधर्म की शरण ली है। उसको छोड़कर उन वितर्को को फिर ग्रहण करने से मेरा कुत्ते का सा व्यवहार होगा ऐसा विचारें। जैसे कुत्ता वमन( उल्टी) किए पदार्थ को चाटता है, छोड़े हुए को फिर ग्रहण करने वाला भी वैसा ही है। इस तरह हिंसा, असत्य, स्तेय, व्यभिचार,अहंकार, अपवित्रता, असंतोष, विलास, बकवास और नास्तिकता रूपी वितर्कों को लेकर एक-एक के दोष सोचे। विचार से आचार बनता है। आत्मा का काम है विचारना अतएव कुटिल पाप भावना को आत्मा ही ताड़ता है।
वैदिक मन्त्र
तुभ्येदेते मरुत: सुशेवा अर्चन्त्यर्कं सुन्वन्त्यन्ध:।
अहिमोहानमप आशयानं प्र मायाभिर्मायिनं सक्षदिन्द्र':।।
ऋ०५. ३०.६
वैदिक भजन ११६५ वां
राग भीमपलासी
गायन समय दिन का तीसरा प्रहर
ताल कहरवा आठ मात्रा
आत्मोन्नति में भगवन् मुझे प्राण- शक्ति देना
पापों से मुझे बचाना,बने प्राण- रक्ष-सेना।।
आत्मोन्नति में......
हे प्राण ! सुखकारी तू
आत्मा की पूजा करना
आत्मा की भोग- सामग्री
निष्पन्न तू ही करना
जो खाए-पिए उसको
देह- अंग बना लेना
आत्मोन्नति में........
होता प्रतिष्ठित देह में
प्राणों के संग जब होता
तुझे भेंट देतीं प्रजायें
तू ही तो पालक है पिता
हे प्राण ! आत्मा से मिलकर
जीवन में भोग देना
आत्मोन्नति में.........
जीवन सत्कर्मों से
रख दूर पाप- भावना
अहिंसा के नाम पर
ना हिंसा तू करना ऐ मना !
अस्त्र-शस्त्र ना कर संचित
रख ध्यान,पाप ना बढ़ा
आत्मोन्नति में..........
प्रतिपक्ष-भावना जागे
तब ही तो पाप भागे
योगधर्म की ले ले शरण
मन ना वितर्कों में लागे
प्रतिपक्ष के भावों से
जीवन सजा लेना
आत्मोन्नति में...........
हिंसा, असत्य, व्यभिचार
अहंकार असंतोष विलास
नास्तिकता- अपवित्रता-
रूपी वितर्क ना हों पास
भाव कुटिलता के मन में
ना आने देना
आत्मोन्नति में...........
पापों से......
१३.११.२०२३
७.१७ रात्रि
निष्पन्न = भली भान्ति पूरा किया हुआ
प्रतिष्ठित= आदर प्राप्त
वितर्क=कुतर्क, उल्टा तर्क करना
कुटिलता = टेड़ापन
प्रतिपक्ष भावना= पाप कर्मों का पश्चाताप करके,पुनः पापों को ना करना प्रतिपक्ष भावना है।
🕉🧘♂️ द्वितीय श्रृंखला का १५८ वां वैदिक भजन
अबतक का ११६५ वां वैदिक भजन 🎧🙏
🕉🧘♂️वैदिक श्रोताओं को हार्दिक शुभकामनाएं❗🙏
Vaidik mantra
Tubhyedete marutah sushevaa archantyarkam sunvantyandhah l
Ahimohaanmap aashayaanam pra maayaabhirmaayinam sakshdindraha ll
Rigved. 5. 30. 6
Vaidik Bhajan👇
aatmonnati mein bhagavan mujhe praan- shakti denaa
paapon se mujhe bachaana,bane praan- raksha-sena..
aatmonnati mein......
he praan ! sukhakaaree too
aatma kee poojaa karanaa
aatmaa kee bhog- saamagree
nishpanna too hee karanaa
jo khaye-peeye usako
deh- anga banaa lenaa
aatmonnati mein........
hota pratishthit deh mein
praanon ke sang jab hota
tujhe bhent deteen prajaayen
too hee to paalak hai pitaa
he praan ! aatma se milakar
jeevan mein bhog denaa
aatmonnati mein.........
jeevan satkarmon se
rakh door paap- bhaavanaa
ahinsaa ke naam par
na
hinsa too kar na, ai mana !
astra-shastra na kar sanchit
rakh dhyaan,paap na badhaa
aatmonnati mein..........
pratipaksh-bhaavana jaage
tab hee to paap bhaage
yogadharm kee le le sharan
man na vitarkon mein laage
pratipaksha ke bhaavon se
jeevan sajaa lenaa
aatmonnati mein...........
hinsa, asatya, vyabhichaar
ahankaar asantosh vilaas
naastikataa- apavitrataa-
roopee vitark na hon paas
bhaav kutilataa ke man mein
naa aane denaa
aatmonnati mein...........
paapon se......
Vedic hymn 1165th
Raag:- Bhimapalasi
Singing time:-
third quarter of the day
Tala:- Kaharva eight beats
13.11.2023
7.17 night
Nishpanna = well done
Pratishthit = respected
Vitark = fallacious argument, to argue in the opposite direction
Kutilataa= crookedness
Pratipaksha Bhavna = Repenting for sinful deeds, not committing sins again is Pratipaksha Bhavna.
The soul destroys ahi= sin
These Maruts, who are well-sleeping, worship you and listen to the Sun, the blind.
Indra, the king of heaven, was able to deceive the snake and to be deceived by his illusory powers.
Give me life- strength, O Lord, in self-advancement
Save me from sins, become the life-guarding army.
In self-promotion.
O my soul! You are pleasant
Worship of the Spirit
The enjoy- ment of the soul
Executed you do
who eats and drinks
body- parts to be made
In self-promotion.
would be in the prestigious body
When it would be with the souls
The people would present to you
You are the protector, Father
O my soul! together with the soul
To enjoy in life
In self-advancement.
Life by good deeds
Keep away the sin- feeling
In the name of non-violence
Don't do violence, forbid!
Do not accumulate weapons
Keep care, don't increase sin
In self-advancement.
The opposition-feeling awakens
Only then does sin escape
Take refuge in Yoga
The mind does not engage in debates
From the emotions of the opponent
Decorating life
In self-advancement.
Violence, untruth, adultery
Ego dissatisfaction luxury
Atheism- Unholiness-
form arguments do not pass
In the mind of emotional crookedness
Don't let it come
In self-advancement.
From sins.
13.11.2023
7.17 pm
Soul Ahi = destroyer of sins
The original meaning of the word 'Marut' is one who is about to die. Symbolic meanings are Prana, Ritwik, soldier, air, etc. Soul has to be purified from sins, it needs an army, Veda says that Prana is your army and 'Tubhyedete Marut: Susheva Archanti' = These blissful Pranas worship you. Prana is for the service of the soul. Prana brings all the material things for the soul. Arkam Sunvantyandha = produces praiseworthy food and material things. Whatever we eat and drink, Prana creates the ability to make it a part of the body. This feeling has been expressed in very beautiful words in the Prashnupanishad--Tubhyam Prana Prajastvima Dalit Haranti Ya: Pranai Prati Tishthati ऋ•5.30.6
'Vayamadhyasya Datar: Pita Tvam Matarishvan: ऋ•5.30.11
Pranadhar Atman! When you are established in the body along with the life, then all these people bring gifts for you. We are the givers of enjoyment, life support! You are our foster father. As long as the soul and the life live together in the body, only then does it get enjoyment and gifts.
When the life leaves the body, the life = inert life becomes useless. Sin-feelings are usually present in the actions of man. There is evil in our every move. The world's behavior is strange. Almost all people consider non-violence as the main religion, but they also collect deadly materials. On asking, they say -- This thing of unrest is necessary for establishing peace in the world. If violence is necessary for the establishment of non-violence, then how can non-violence be the ultimate religion? Then
we will have to accept 'Hinsa tu paramo dharmah'. The feeling of sin is deceptive, it is a cheat, it comes in the form of virtue. Only the soul can kill it -- ahimohānāmapa aashayānam pra mayābhirmayin sakshadīndra' = Those who leave the right path, are cheats in their deeds, the feeling of sin is detected by the intellect. The remedy for removing sin is called 'pratipakshbhavna' in Yoga Darshan. 'Vitarkabaadhāne pratipakshbhavnam' Yoga Darshan 2/32
Vyasdev ji says -- Thus, while suffering from the very intense fever of vitarka that leads to the wrong path, one should think about its opposites.
While burning in the embers of the dreadful world, I have taken refuge in the Yoga Dharma which gives protection to all beings. Think that if I leave it and accept those arguments again, then my behavior will be like that of a dog. Just as a dog licks the vomited substance, the one who accepts the discarded thing again is also like that. In this way, think about the faults of each of the arguments like violence, untruth, theft, adultery, ego, impurity, discontent, luxury, nonsense and atheism. Conduct is formed by thoughts. Thinking is the work of the soul, hence only the soul can recognize the crooked sinful thoughts.
🕉🧘 ♂️ 158th Vedic Bhajan in the second series
1165th Vedic Bhajan ever 🎧🙏
🕉🧘 ♂️Welcome to the Vedic listeners❗🙏
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