59 1176
परमेश्वर सबका अधिष्ठाता है
भगवान स्थित है,गति रहित है। किसी एक स्थान पर स्थित नहीं वरन् सर्वत्र उपस्थित है। सूर्य चन्द्र आदि देवों की कान्ति और आभा देखने योग्य है। यह सारे आभावान पदार्थ भगवान की शोभा बढ़ा रहे हैं, मानो उसकी महिमा गा रहे हैं । कहीं किसी को भ्रम ना हो जाए कि यह सूर्य चन्द्र आदि से प्रकाशित होता है, इस भ्रम का वर्णन करने के लिए कहा है कि वह 'स्वरोची' स्वप्रकाश है। किसी दूसरे से प्रकाशित नहीं होता। स्वप्रकाश होने के कारण तथा इन सबका मूल प्रकाश होने के कारण सारी शोभाओं को वह धारे हुए है।,अर्थात् संसार में जहां कहीं शोभा कान्ति, तेज, उत्कर्ष है वह वास्तव में परमेश्वर का है। जब सभी प्रकार का उत्कर्ष परमेश्वर का है, तो आनन्द सुख भी उसी का है इसलिए यहां और वेद में अन्यत्र अनेक स्थलों पर उसे ' वृषा ' यानि सुख वर्षक कहा है। जीवन उपयोगी सारी सामग्री का वह स्वामी है, अतः असुर सुर+र = प्राणदाता= जीवन दाता भी वही है।
संसार में जितने रूप है इनका निरूपण करने, चित्रित करने वाला भी वही है, अतः वह विश्वरूप है। जीव के लिए तथा जीव प्रकृति के सहयोग से वह संसार बनाता है। अतः वह इसका अधिष्ठाता भी है। जिस प्रकार सूर्य ऊपर नीचे तिरछी सभी दिशाओं को प्रकाशित करता हुआ चमकता है इसी भान्ति वह सर्वश्रेष्ठ भगवान परमेश्वर अकेला ही कारण तथा स्वभाव का अधिष्ठाता है। जो विश्व यानी विश्व रूप स्वभाव का परिपाक कराता है और पकने योग्य सभी पदार्थ- धर्मों का यथायोग्य विनियोग करता है। वह अकेला ही इन सब शका अधिष्ठाता है।
सूर्य एक स्थान पर रहता हुआ सभी सूर्य आदि सौरमंडल अन्तर्गत ग्रह- उपग्रह नक्षत्र आदि प्रकाश पुञ्जों को अपने आकर्षण- विकर्षण सामर्थ्य से नियन्त्रण में रखता है अतः इसका प्रभाव अति विस्तृत होता हुआ भी संकुचित है, ससीम है। इन सात दिशाओं में अनेक सूर्य है। प्रत्येक सूर्य का प्रभाव परिमित ही रहेगा किन्तु अनन्त सूर्य को प्रकाशित करनेवाले भगवान की महिमा का क्या कहना सूर्य का प्रभाव अनित्य पदार्थों पर है किन्तु भगवान
' विश्वरूपो अमृतानि तस्थौ ' विश्व शरूप सभी अमृतों= अविनाशी जीव तथा प्रकृति का अधिष्ठाता है अर्थात् उनका यथायोग्य विनियोग करने में समर्थ है।
जो प्रत्येक कारण तथा स्थान पर अकेला ही अधिकार रखता है, जिसमें यह सब संयुक्त- वियुक्त होता रहता है, मनुष्य उसे उत्तम दाता पूज्य ईश्वर देव को धारण करके इस शान्ति को पूरी तरह पाता है, अर्थात् भगवान को ही धारण करना चाहिए।
वैदिक मन्त्र
आतिष्ठन्तं परि विश्वेअभूषञ्छ्रियो वसानश्चरतिक्षस्वरोचि:
महत्तद्वृष्णोक्ष असुरस्य नामाऽऽविश्वरूपो अमृतानि तस्थौ
ऋ॰ ३/३८/४
वैदिक भजन ११७६ वां
राग यमन कल्याण
गायन समय रात्रि का प्रथम प्रहर
ताल दादरा ६ मात्रा
ओ३म् ओ३म् जप मना ओ३म् है सर्वोपरि
स्वप्रकाश परमेश्वर जगत् में शोभा भरी ।।
ओ३म्........
सूर्य चन्द्र ग्रह उपग्रह विस्तृत होकर भी ससीम
है प्रकाश पुञ्ज कोटि जीवन के है प्राण प्रतिम
स्वप्रकाश परमेश्वर शोभाओ के हैं अग्रणी
ओ३म्
गति रहित हो कण-कण में सर्वव्यापक अधिपति
सूर्य अनन्त प्रकाश अनन्त आश्रय में तेरे सभी
सर्वप्रकार के हैं उत्कर्ष शोभा तेज, कान्ति कहीं
ओ३म् ............
अनगिनत ललित हैं रूप कहलाते विश्वरूप
अधिष्ठान जीव प्रकृति का सब है प्रणाधार सूच
सुखवर्षक है 'वृषा' जीवन दाता भी वही
ओ३म् ...........
विश्वरूप स्वभाव का वह कर्ता है परिपाक
सभी पदार्थ- धर्मों का करें विनयोग स्वयं ही आप
सर्व शोभायें धारण करता स्वप्रकाश है सुधी
ओ३म्.........
हर कारण और स्थान का है वही तो अधिकारी
होते सब संयुक्त-वियुक्त धारण प्रभु का धर्मधारी
धारण करें प्यारे प्रभु को
रहें समर्पित उसके प्रति
ओ३म्..............
30.4.2024 5.38 pm
शब्दार्थ:-
विस्तृत =विशाल
ससीम= सीमित
प्रतिम=समान,परछाई
उत्कर्ष= उन्नति
कान्ति =चमक, तेज
ललित=सुन्दर, मनमोहक
अधिष्ठान= आधार
सूच= पवित्र
परिपाक= परम पवित्र
विनियोग= नियुक्ति
सुधी= बुद्धिमान, सयाना
संयुक्त= जुड़ना
वियुक्त= अलग होना
वृषा= सुखवर्षक
🕉👏द्वितीय श्रृंखला का १७० वां वैदिक भजन और अब तक का ११७६ वां वैदिक भजन
वैदिक श्रोताओं को हार्दिक शुभकामनाएं🙏🌻
59. 1176
God is the protector of all
Vedic Mantra👇
Aatishtantam Pari Vishve Abhushanchhriyo Vasanascharatikshasvarochi:
Mahattadvrishnoksh Asurasya NaamaऽऽVishwaroopo Amritani Tasthau
Rig 3/38/4
Vedic Hymn 1176th
Raag Yaman Kalyan
Singing Time First quarter of the night
Tala Dadra 6 matra
vaidik bhajan👇
om om jap manaa ! om hai sarvopari
svaprakaash parameshvar jagat mein shobhaa bharee ..
om........
soorya chandra graha upagraha vistrit hokar bhee saseem
hai prakaash punj koti jeevan ke hai praan pratim
svaprakaash parameshvar shobhaon ke hain agranee
om ..........
gati rahit ho kan-kan mein sarvavyaapak adhipati
soorya anant prakaash anant aashray mein tere sabhee
sarvaprakaar ke hain utkarsh shobha tej, kaanti kaheen
om ............
anaginat lalit hain roop kahalaate vishvaroop
adhishthaan jeev prakrti kaa sab hai pranaadhaar sooch
sukhavarshak hai 'vrshaa' jeevan daataa bhee vahee
om ...........
vishvaroop svabhaav ka vah kartaa hai paripaak
sabhee padaarth- dharmon kaa karen vinayog svayam hee aap
sarva shobhaayen dhaaran karataa svaprakaash hai sudhee
om.........
har kaaran aur sthaan kaa hai vahee to adhikaaree
hote sab sanyukta-viyukta dhaaran prabhu kaa dharmadhaaree
dhaaran karen pyaare prabhu ko
rahen samarpit usake prati
om..............
30.4.2024 5.38 pm
Meaning:-
Vistrit = huge
Sasim = limited
Pratim = similar, shadow
Utkarsh = progress
Kanti = shine, brightness
Lalit = beautiful, charming
Adhisthan = base
Such = holy
Paripak = most holy
Viniyog = appointment
Sudhi = intelligent, wise
Sanyukt = to join
Viyukt = to separate
Vrisha = happiness-giving
Meaning of bhajan👇
God is the protector of all
Om Om Chant Om is supreme
Self-illuminating God fills the world with beauty.
Om........
The sun, moon, planets and satellites are vast yet limited
They are beams of light, they are the life force of millions of lives
The self-illuminating God is the leader of all beauty
Om
Be motionless, omnipresent in every particle, the ruler
The Sun is infinite light, infinite shelter, all are in your shelter
All types of excellence, beauty, brilliance, lustre are everywhere
Om.............
There are countless beautiful forms, which are called the world form
The foundation of all living beings and nature is the support
'Vrisha' is the one who bestows happiness and life
Om.............
He is the creator of the world form nature
He himself makes the combination of all objects and qualities
The self-illuminating wise man holds all the beauty
Om..........
He alone is the owner of every cause and place
All are united and separated, the bearer of the religion of the Lord
Wear the beloved Lord
Stay dedicated to him
Om..........
Swaadhyay (self study) 👇
God is the presiding deity of all
God is stable, motionless. He is not situated at any one place but is present everywhere. The radiance and aura of the Sun, Moon and other deities are worth seeing. All these radiant objects are enhancing the beauty of God, as if they are singing His praise. To dispel the illusion that the Sun is illuminated by the Moon etc., it is said that He is 'Swarochi', self-illuminated. He is not illuminated by anything else. Being self-illuminated and being the root light of all these, He holds all the splendors. That is, wherever there is beauty, radiance, brilliance, and prosperity in the world, it actually belongs to God. When all types of prosperity belong to God, then happiness and joy also belong to Him. Therefore, here and at many other places in the Vedas, He is called 'Vrisha', that is, the one who bestows happiness. He is the master of all the material useful for life, hence He is also the one who is the demon, sur+ar = Praandata = life giver.
He is the one who depicts and portrays all the forms in the world, hence he is the form of the world. He creates the world for the living beings and with the help of living beings and nature. Hence he is its presiding deity as well. Just as the sun shines illuminating all the directions, up and down, similarly the Supreme Lord, the Supreme God, alone is the presiding deity of the cause and nature. He gets the world, that is, the form of the world, ripened and appropriately allocates all the ripening substances and qualities. He alone is the presiding deity of all these.
The Sun, while staying at one place, controls all the suns, planets, satellites, stars, etc., light beams in the solar system with its attraction-repulsion power, hence its influence, despite being very wide, is narrow and limited. There are many suns in these seven directions. The effect of each sun will be limited but what can be said about the glory of God who illuminates the infinite sun. The sun's effect is on temporary objects but God is 'Vishwaroopo Amritani Tasthau', the presiding deity of all the nectars = immortal living beings and nature, i.e. He is capable of using them appropriately.
He who alone has authority over every cause and place, in whom all this remains united and separated, man gets this peace completely by adopting that best giver, revered God, i.e. one should adopt only God.
🕉👏170th Vedic Bhajan of the second series and 1176th Vedic Bhajan till now. Hearty congratulations to Vedic listeners🙏
0 Comments
If you have any Misunderstanding Please let me know