Ad Code

कहां जाएं


कहां जाएं

 हमारे शरीर में पांच इन्द्रियां रहती है। यह पक्षियों की तरह बाहर उड़ती फिरती हैं। यह ऋषि इन्द्रियां हैं,ज्ञान लाने वाली इन्द्रियां हैं। इन्हें अपने रूप-रस आदि विषयों से संगमन करना बड़ा प्रिय है। इनका उड़ना (पतन करना) बड़ा सुन्दर है। बाहर से बड़े सुन्दर- सुन्दर रूपों को, रसों को गन्धों को यह कैसी विलक्षणता से ले आती हैं। इनमें क्या ही अद्भुत गुण है। हां खोलो तो सब विविध जगत दिखने लगता है, आंख बन्द करने पर कुछ नहीं। आंख में क्या विलक्षण शक्ति है ! इसी तरह कान को देखो, जीभ को देखो, इनमें क्या विचित्र जादू है कि वह हमारे लिए बड़ी ही आनन्ददायक अनुभूतियों को पैदा करती हैं।
‌पर एक समय आता है जब यह इतनी अद्भुत इन्द्रियां हमारी ज्ञान पिपासा को तृप्त नहीं कर सकतीं। यह बाहर से जो प्रकाश लाती हैं वह सब तुच्छ लगने लगता है। यह तब होता है जब की छठी इन्द्रिय (मन) द्वारा अन्दर के प्रकाश की तरफ हमारा ध्यान जाता है, प्रत्याहार शुरू होता है और इन्द्रियों का उड़ना बन्द हो जाता है। सब इन्द्रियां मन के प्रकाश के मुकाबले मैं बैठकर अपने अंधकार को और अपनी परिमितता के बन्धन को अनुभव करती हैं। ओह! इन्द्रियां कितना थोड़ा ज्ञान दे सकती है और वह ज्ञान भी कितना बंधा हुआ है। अन्दर-बाहर की थोड़ी सी बाधा से उनका ध्यान ग्रहण रुक जाता है। आंख अति दूर अतिसमीप नहीं देख सकती अतिसूक्ष्म को नहीं दे सकती ओट में पार नहीं देख सकती। यह अंधेरा और बन्धन तब अनुभव होता है जबकि मनुष्य के अन्दर के महान सब कुछ जान सकने वाले प्रकाश का पता लगता है। यह इन्द्र का, आत्मा का, प्रकाश है। इस प्रकाश पिपासा से व्याकुल होकर इन्द्रियां आत्मा से उस प्रकाश को पाने के लिए गिड़गिड़ाने लगती हैं, प्रार्थना करने लगती है कि "हमारे अंधकार का पर्दा उठा दो हमारी आंखें प्रकाश से भर दो हम अन्धे हैं, हमें आंखें दे दो हम अपने अपने जरा से क्षेत्र में बंधी पड़ी है हमें देशकालाव्यवहित दर्शन की शक्ति दे दो, हमारे बन्धन काट दो हम जिस देश और जिस काल में जिस वस्तु को देखना चाहे तुम्हारे इस प्रकाश में ( प्रज्ञा लोक में) देख सके"
‌                   मन्त्र
वय:सुपर्णा उप सेदुरिन्द्र प्रियमेधा ऋषयो नाधमाना:
आप ध्वान्तमूर्णुहि पूर्धि चक्षुर्मुग्ध्यमन्निधयेव बद्धान।।
ऋ•१०.७३.११ सा पू१/४/१/३/७
             भजन ७६२ वां
              राग गौड़ सारंग
        गायन समय मध्यान काल
               ताल दीपचंदी
दृष्टि दे दो है आत्मन् 
दर्शन शक्ति आ जाए 
तम का उठा दो पर्दा 
सूक्ष्म दृष्टि पा जाएं 
बन्धन हमारे तुम काटो 
सुप्रकाश अपना हमें बांटो
तव इन्द्र शरण पा जाएं
दृष्टि...... 
पांच इन्द्रियां ज्ञान की
सब के शरीर में रहती हैं 
पंछियों के जैसे इत उत 
बस उड़ती फिरती रहती हैं 
पांच विषय के रसों में उलझी (२)
तृष्णा हमारी पल पल और बढ़ाए ।।
दृष्टि......
कान जीभ आंखें जब खोलें 
जगत विविध दिख जाए 
ऐसा जादू करे हम पे 
इन्द्रियां हमें भरमायें
तृप्त कर सके ना कभी  हमको(२)
मार्ग में देखो खड़ी हैं लाख तृष्णायें
दृष्टि.....
पांच इन्द्रियां बाह्य प्रकाश से 
तृप्त ना कभी कर पाए 
इन्द्रिय छठी इस मन के द्वारा 
प्रत्याहार जगायें
उड़ना इन्द्रियों का थम जाए (२)
परिमितता अन्धकार की मिटती जाए 
दृष्टि.......
देशकालाव्यवहित दर्शन की 
शक्ति हममें जगा दे 
हे आत्मदेव हे इन्द्र ! 
प्रकाश का मार्ग सुझा दो 
तुझ बिन और जाएं कहां हम 
छाए हुए यहां विषय- विश्व के साये 
दृष्टि ......

परिमितता =यथार्थ, परिमाण,  
अव्यवहित= बाधा रहित
          २५.४.२००९
          सायं १७.४५

770

Where to go

Mantra👇

Vaya:Suparna Up Sedurindra Priyamedha Rishiyo Nadhamana:

Aap Dhvantamurnuhi Purdhi Chakshurmugdhyamanidheva Badhana.

 ऋ•10.73.11 Sa Pu1/4/1/3/7

Bhajan 762nd

Raag Gaud Sarang

Singing time Midday

Tala Deepchandi


Drshti de do hai aatman 
darshan shakti aa jaaye 
tam ka utha do pardaa 
sookshma drishti paa jaayen 
bandhan hamaare tum kaato 
suprakaash apanaa hamen baanto
tav indra sharan paa jaayen
drishti...... 
paanch indriyaan gyaan kee
sab ke shareer mein rahatee hain 
panchhiyon ke jaise it- ut 
bas udatee phiratee rahatee hain 
paanch vishaya ke rason mein ulajhee (2)
trishna hamaaree pal-pal aur badhaaye ..
drishti......
kaan jeebh aankhen jab kholen 
jagat vividh dikh jaaye 
aisa jaadoo kare ham pe 
indriyaan hamen bharamaayen
tript kar sake na kabhee  hamako(2)
maarg mein dekho khadee hain laakh trishnaayen
drishti.....
paanch indriyaan baahya prakaash se 
tript na kabhee kar paaye 
indriya chhathee is man ke dvaaraa 
pratyaahaar jagaayen
udanaa indriyon ka tham jaaye (2)
parimitata andhakaar kee mitatee jaaye 
drishti.......
deshakaalaavyavahit darshan kee 
shakti hama mein jaga de 
he aatmadev he indra ! 
prakaash ka maarg sujhaa do 
tujh bin aur jaen kahaan ham 
chhaaye hue yahaan vishay- vishon ke saaye 
drishti ......

770

Where to go

Mantra👇

Vaya:Suparna Up Sedurindra Priyamedha Rishiyo Nadhamana:

Aap Dhvantamurnuhi Purdhi Chakshurmugdhyamanidheva Badhana.

 ऋ•10.73.11 Sa, Pu1/4/1/3/7

Bhajan 762nd

Raag Gaud Sarang

Singing time Midday

Tala Deepchandi

Parimitataa=Limitedness 

Avyavahit = Unobstructed

          25.4.2009
          P.M. 17.45

Meaning of vaidik bhajan👇
Where to go

Give me the vision of the soul

Let me gain the power of seeing

Lift the veil of darkness

Let me gain subtle vision

Cut off our bonds

Distribute your bright light to us

Let the senses take refuge in you

Vision......

The five senses of knowledge

Residing in everyone's body

Like birds

They keep flying here and there

Entangled in the pleasures of the five senses (2)

Let our thirst increase every moment.

 Drishti......
When we open our ears, tongue and eyes

We can see a diverse world

Let the senses cast such a spell on us

They delude us

They can never satisfy us(2)

Look, there are lakhs of desires standing in the way

Drishti.....

The five senses

With external light

Can never satisfy

The sixth sense

Through this mind

Awaken Pratyahara

Let the flying of the senses stop (2)

Let the limitation of darkness vanish

Drishti.....

Awaken the power of seeing space and time in us

Oh soul god, Oh Indra!

Suggest the path of light

Where else can we go

The shadows of the world-objects are looming here

Drishti.....

Swaadhyaay upadesh👇

Where to go

There are five senses in our body. They fly around like birds. These are the Rishi senses, the senses that bring knowledge. They love to unite with objects like form, taste, etc. Their flying (falling) is very beautiful. With what excellence they bring beautiful forms, tastes, smells from outside. What a wonderful quality they have. Yes, if you open your eyes, the whole world becomes visible, if you close your eyes, nothing. What a wonderful power the eyes have! Similarly, look at the ears, look at the tongue, what strange magic is there in them that they create very pleasurable experiences for us.

But a time comes when these so wonderful senses cannot satisfy our thirst for knowledge. The light they bring from outside starts appearing trivial.  It is when our attention is drawn towards the inner light through the sixth sense (mind), that pratyahara begins and the flying of the senses stops. All the senses sit in comparison to the light of the mind and experience their darkness and bondage of their limitation. Oh! How little knowledge the senses can give and how restricted that knowledge is. Their attention stops at the slightest obstacle from within or outside. The eye cannot see very far or very near, cannot see the very subtle, cannot see through the veil. This darkness and bondage is experienced when the great all-knowing light within man is discovered. This is the light of the senses, of the soul.  Being restless with this thirst for light, the senses start pleading the soul to get that light, they start praying that "lift the veil of our darkness, fill our eyes with light, we are blind, give us eyes, we are confined to our small areas, give us the power to see beyond space and time, break our shackles, so that we can see whatever we want to see in this light of yours (in the world of wisdom) in whatever space and time we want to see"

Post a Comment

0 Comments

Ad Code