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स्तुता मया वरदा वेदमाता-5

स्तुता मया वरदा वेदमाता-5

ममेदनुक्रतुंपतिः सेहानाया उपाचरेत्।

     मन्त्र के प्रथम भाग में नारी की घोषणा थी- परिवार में मैं केतु हूँ, मैं मूर्धा हूँ, मैं विवाचनी अर्थात् विवेक पूर्वक बात कहने वाली हूँ। इस प्रकार परिवार के प्रति योग्यता और सामर्थ्य दोनों बातों का उल्लेख आ गया। योग्यता से मनुष्य में सामर्थ्य आता है। मनुष्य ज्ञान से आत्मशक्ति समपन्न बनता है। इसलिये शास्त्र में कहा है- आत्मवत्तेति- आत्मवान तभी बन पाता है, जब उस अन्दर ज्ञान की उपस्थिति होती है।  आगे कहा गया है कि केवल ज्ञान और योग्यता ही नहीं, मेरे अन्दर कर्मनिष्ठा भी है।
       मनुष्य का जीवन चाहे व्यक्तिगत हो, पारिवारिक अथवा सामाजिक, वह जितना कर्मशील होगा, उतना ही लोगों को प्रिय होगा। हम समाज में ऐसे लोगों को बहुशः देखते हैं, जिनके पास ज्ञान है, कर्म करने का सामर्थ्य भी है, परन्तु आलस्य और प्रमाद से जीवन में कुछ भी नहीं कर पाते। जो उत्पन्न हुआ, वह बड़ा भी होगा, वृद्ध भी होगा। उसकी मृत्यु भी होगी, यह किसी मनुष्य के चाहने से न होता है, न हो सकता है। इसी समय को आप सोकर, मनोरञ्जन करके व्यतीत कर सकते हैं, यदि इसी अवधि में मनुष्य कोई सार्थक कार्य करता है, तो वह सफलता को प्राप्त कर लेता है। मनुष्य के पास सफलता अकस्मात, एक बार में नहीं आती, उसे परिश्रम पूर्वक उपार्जित करना पड़ता है। मनुष्य को क्रतु बनना चाहिए, कर्मशील होना चाहिए। वैदिक साहित्य में क्रतु कर्म और बुद्धि दोनों का नाम है। जो कर्म नहीं करते, उन्हें वेद दस्यु कहता है। दस्यु का अर्थ होता है- डाकू। डाकू कहने से हमें लगता है जो शारीरिक बल से दूसरे का धन हरण करता है, वही डाकू है, परन्तु इसका केवल इतना ही अर्थ नहीं, जो व्यक्ति बुद्धि-बल से भी दूसरे के अधिकार का, स्वत्व का हनन करते हैं, अपहरण करते हैं, वे भी डाकू ही हैं।अकर्मण्य बुद्धिमान् लोग दूसरों का धन छल से, ठगी से हर लेते हैं, ऐसे कर्म क्रतु नहीं हैं।
      क्रतु यज्ञ को भी कहा गया है। यज्ञ कर्म है परन्तु किसी के धन अथवा स्वत्व के अपहरण के लिये नहीं किया जाता। यज्ञ परोपकार का ही दूसरा नाम है। बुद्धि का उपयोग परोपकार और उन्नति की भावना से किया जाय तो ऐसा कर्म क्रतु है, यज्ञ है। परिवार का संचालन यज्ञ है। यज्ञ कर्त्ता अपने कर्म नहीं करता, वह सबके लिये यज्ञ करता है। सबका कल्याण करने की भावना से यज्ञ किया जाता है। वैसे तो परिवार में सभी सदस्यों को परस्पर एक-दूसरे के हित की कामना करनी चाहिये, परन्तु वहाँ सब समान रूप से शिक्षित या ज्ञानवान नहीं होते हैं और न ही अनुभवी। अतः मुखय व्यक्ति को ही सबके हित व कल्याण की चिन्ता करनी होती है। परिवार में दो ही व्यक्ति धुरा का वहन करते हैं, जिन्हें हम पति-पत्नि कहते हैं। इन दोनों की योग्यता व विचार समान होने के साथ-साथ गति भी समान होनी चाहिए। सभी परिवार के सदस्यों की चिन्तन की दिशा एक हो तो समायोजन में कोई असुविधा नहीं आती। कठिनाई तब होती है, जब विचारों की भिन्नता के साथ हम परिवार को अपनी-अपनी इच्छानुसार चलाना चाहते हैं।
       वेद कह रहा है- पति केवल सहनशीलन हीं है, वह पत्नी के कार्यों का समर्थन भी करता है, परिवार में उन विचारों को क्रियान्वित करने में प्रयास पूर्वक लगा रहता है। इस सन्दर्भ में दो बातों की ओर संकेत किया गया है, पत्नी के विचार श्रेष्ठ हैं और कार्य उत्तम हैं। इतना पर्याप्त नहीं है, पत्नी के कार्यों के लिये पति का समर्थन भी चाहिए और सहयोग भी। मन्त्र इन्हीं बातों को बता रहा है। मनुष्य का स्वभाव है कि यदि वह कुछ अनुचित करता है, तो वह उसे सबसे अज्ञात रखना चाहता है, परन्तु उससे कुछ अच्छा हुआ है, तो उसकी इच्छा रहती है, सभी लोगों को उसके श्रेष्ठ कार्य का ज्ञान हो। स्वाभाविक है किसी बात का ज्ञान होगा तो उसकी चर्चा भी होगी। यह चर्चा उस कार्य की प्रशंसा है, कार्य करने वाले व्यक्ति की प्रशंसा है। प्रशंसा से व्यक्ति उत्साहित होकर, उस कार्य में अधिक परिश्रम करता है। निन्दा-प्रशंसा का मनुष्य ही नहीं, प्राणियों के जीवन पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है। अनुचित कार्य की निन्दा नहीं होती अथवा प्रशंसा की जाती है तो अनुचित कार्यों को करने में मनुष्य की अधिकाधिक प्रवृत्ति होती है। अतः उचित की प्रशंसा उचित कार्य की वृद्धि का हेतु होता है।
      शास्त्र कहता है- यदि कोई दुष्ट मनुष्य भी यज्ञादि श्रेष्ठ कर्म कर रहा है, तो उस समय उसकी निन्दा नहीं करनी चाहिए, ऐसा कार्य करते हुए मनुष्य की निन्दा करने से श्रेष्ठ कार्य की भी निन्दा हो जाती है। यह मनोविज्ञान की ही बात है।मनुष्य के मन पर आलोचना और प्रशंसा का परोक्ष-प्रत्यक्ष बहुत प्रभाव पड़ता है। हम परिवार में अच्छे कामों के लिये जब बच्चों की प्रशंसा करते हैं, तो उनमें अच्छा कार्य करने का उत्साह बढ़ता है, यह बात बड़ों के लिये भी उतनी ही स्वाभाविक है। हम बड़ों के द्वारा किये कार्यों को पाप-पुण्य से जोड़कर देखते हैं। बच्चों के कार्य का प्रभाव बहुत नहीं होता, परन्तु बड़े व्यक्ति के द्वारा किया गया कार्य परिवार और समाज को गहरा प्रभावित करता है। अतः कहा गया है- पति को प्रशंसक और सहयेागी होना चाहिए।

     अहं केतुरहं मूर्धा अहमुग्राविवाचनी।।
     इस सूक्त का यह दूसरा मन्त्र है। यह एक महिला की घोषणा है, जिसमें आत्मविश्वास और योग्यता का समन्वय है। विवेचन की योग्यता बिना ज्ञान के नहीं आती। आजकल का ज्ञान हमें अर्थोपार्जन की क्षमता देता है, परन्तु अपने आप पर नियन्त्रण करने की क्षमता नहीं उत्पन्न करता। आजकल की शिक्षा उसे स्वार्थी बनाती है, उसका मूल कारण है- मनुष्य का सुविधाजीवी होना, दुःख सहने की इच्छा और सामर्थ्य का अभाव होना। हमारे छोटे-छोटे बच्चों को लगता है, हम साधनों के बिना कैसे जी सकते हैं? समाचार पत्र में पढ़ा- एक सातवीं कक्षा की बच्ची ने आत्महत्या कर ली। कारण ? उसने माता से चल दूरभाष (मोबाइल) माँगा। माँ ने कहा- बेटा, अभी तुम छोटी हो, तुम दसवीं उत्तीर्ण कर लो, तब ले देंगे। बस, लड़की को सहन नहीं हुआ, वह फाँसी लगा के मर गई। विचार करने की बात है, क्या मृत्यु के लिये यह कारण पर्याप्त है? मनुष्य क्या, कोई भी प्राणि मरने की इच्छा नहीं करता, मरने के नाम से भी डरता है, मृत्यु का अवसर आ जाये तो प्राणपण से संघर्ष करता है, संघर्ष में हराकर ही मृत्यु उसे जीतती है। यहाँ बिना लड़े ही हार मान ली है। मृत्यु की कामना वही करता है, जो जीवन में हार जाता है। छोटे-छोटे साधनों के बिना, सुविधाओं के बिना कैसे जीवित रहूँगा- यह भय ही मनुष्य को मारने के लिये आज पर्याप्त हो गया है।
      मनुष्य को साधनों की अधिकता ने उतावला, असहिष्णु और भीरु बना दिया है। पुराने समय में छात्र को असुविधा में रहना सिखाया जाता था। ऐसा नहीं था कि छात्रों को सुविधायें दी नहीं जा सकती थीं, जब घर में, नगर में लोगों के पास सुविधाएँ हों, तो उन्हें क्यों नहीं दी जा सकतीं?  मनुष्य को सुविधा में जीने की शिक्षा नहीं देनी पड़ती। धन-सपत्ति साथ आते ही उनका सुख उठाना आ जाता है। सुविधा में जीना सिखाने से असुविधा में जीना नहीं आता, परन्तु असुविधा में जीना सिखाने से सुविधा न मिलने पर, सुविधा समाप्त होने पर भी वह सरलता से सहज ही जीवन यापन कर सकता है।
      आज कल बड़ी कपनियाँ बहुत सारा वेतन, साधन एवं अनेक सुविधायें दे कर मनुष्य को भीरु बना देती हैं। उनके बिना वह जीवन की कल्पना ही नहीं करता। दुर्भाग्य से कभी साधन न मिले, नौकरी छूट जाये तो ऐसा व्यक्ति अनुचित-अनैतिक माध्यमों से धन कमाने में लग जाता है या आत्महत्या कर लेता है। इसी कारण ऋषि लोग तपस्या और कठिन जीवन की बात करते हैं। सुविधा-भोगी अपने साधनों का बँटवारा नहीं कर पाता, दूसरे को सहयोग करने में उसका विश्वास नहीं होता। सुविधा-भोगी मनुष्य को कभी साधनों से तृप्ति नहीं होती, वह सदा और अधिक के चक्र में उलझ जाता है। उसकी योग्यता उसे अधिक कमाने के लिये प्रेरित करती है। इस दुश्चक्र में वह पराजित हो जाता है, बीमार हो जाता है, अन्ततः मर जाता है।
      आचार्य चाणक्य कहते हैं- शास्त्र मनुष्य को अपने पर नियन्त्रण करने की शिक्षा देता है। शास्त्र का अध्ययन करने से मनुष्य के अन्दर धैर्य उत्पन्न होता है। उसके अन्दर सहन शीलता बढ़ती है। चाहे जय मिले या पराजय, वे उसे विचलित नहीं करते। उसके अन्दर उचित-अनुचित, अच्छे-बुरे, न्याय-अन्याय को समझने का सामर्थ्य आता है। ऐसे व्यक्ति को विचारों की स्पष्टता, निर्णय की क्षमता और कार्य को सपन्न करने की योग्यता प्राप्त होती है। ऐसा व्यक्ति आत्मविश्वास से भरा होता है। उसके अन्दर भय नहीं रहता है। यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है- जिसके अन्दर भय नहीं रहता, उसके अन्दर उदारता, सहिष्णुता, परोपकार आदि गुण सहज ही आ जाते हैं। ऐसा मनुष्य दूसरों के कष्टों को देखकर अपना सुख छोड़ देता है। उसके अन्दर नेतृत्व का गुण पूर्णरूप से विकसित होता है, जो सब उत्तरदायित्व को स्वीकार करने के लिये तैयार रहता है वही घोषणा कर सकता है- मैं सबसे ऊँचा हूँ, मैं सबके लिये उत्तरदायी हूँ।
      मनुष्य का स्वभाव होता है कि वह किसी भी गलती, भूल या अपराध की जिमेदारी दूसरे पर डालने का यत्न करता है। ऐसा व्यक्ति कह नहीं सकता कि मैं सर्वोपरि हूँ। मैं सबका नेता हूँ। उत्तरदायित्व के गुण के बिना नेतृत्व का गुण नहीं आ सकता। स्वार्थी और असहिष्णु व्यक्ति कभी नेता नहीं बन सकता। आजकल की शिक्षा से इन गुणों की आशा नहीं की जा सकती। आज मनुष्य योग्यता के बिना ही अधिकार की आशा करता है। आशा तो की जा सकती है, परन्तु उसका निर्वाहन हीं हो सकता। ज्ञान के बिना योग्यता नहीं आती, परिश्रम के बिना ज्ञान नहीं आता। यही कारण है कि आजकल के युवाओं में सामान्य रूप से इन गुणों की कमी देखी जाती है। योग्यता के बिना विचार में,  वचन में एवं प्रामाणिकता का आभाव रहता है। जब आप किसी को कुछ कहते, बोलते, सुनते हैं, तो जब उससे उलट कर पूछा जाता है- क्या वास्तव में ऐसा है, आपके ऐसा कहने का आधार क्या है? सौ में नबे से अधिक व्यक्ति इधर-उधर झाँकने लगते हैं।
       पुरानी शिक्षा जिसे अनुपयोगी समझते हैं, उसकी विशेषता है- वह शिक्षा मनुष्य को सहनशील, प्रामाणिक और उत्तरदायी बनाती है। आज किसी को कोई काम देकर आप निश्चिंत नहीं हो सकते, न तो कार्य होने का विश्वास है और न कार्य न हो पाने की सूचना। और यह कहा जाता है- तो क्या हो गया? हुआ तो कुछ नहीं, परन्तु उत्तरदायित्व का गुण समाप्त हो जाता है। इस मन्त्र के शबद घोषणा करके कह रहे हैं- घर की गृहिणी योग्य है, समर्थ है, उत्तरदायी है और आत्मविश्वास से परिपूर्ण है। ऐसी नारी की कल्पना करना आज कठिन है, परन्तु वेदों का आदर्श तो यही कहता है।

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