Ad Code

आर्याभिविनयः प्रार्थना-विषय

आर्याभिविनयः प्रार्थना-विषय

 ओ३म् जातवेदसे सुनवाम सोम मरातीयतो नि दहाति वेदः।
स नः पर्षदति दुर्गाणि विश्वा नावेव सिन्धुं दुरितात्यन्गिः।।
ऋगवेद. 1।7।7।1।।
 
  व्याख्यान- (जात वेदः) परब्रह्मन् ! आप जात वेद हो = उत्पन्नमात्र सब जगत् को जानने वाले हो । वह जानता है कि यह जीवन क्या है? जब मानव जन्म लेता है तो अत्यन्त पिड़ा और दुःखों को प्राप्त करता है और जब मृत्यु को प्राप्त होता है तो उससे भी अधीक पिड़ा को प्राप्त करता है जीवन चारों तरफ से दुःखों से बुरी तरह से घीरा है इसलिए वह कभी जन्म नहीं लेता है ना ही वह मृत्यु को ही प्राप्त होता है फिर भी वह सर्वत्र प्राप्त हो। जो विद्वानों से ज्ञात, सबमें विद्यमान, जात अर्थात् प्रादुर्भूत अनन्त धनवान् वा अनन्त ज्ञानवान हो, इससे आपका नाम जातवेद है। उन आपके लिए (वयं सोमं सुनवास) जितने सोम प्रिय गुण विशिष्टादि हमारे पदार्थ हैं, वे सब आपके लिए ही हैँ। सो आप हे कृपालो ! (अरातियतः) दुष्ट शत्रु, जो हम धर्मात्माओं का बिरोधी, उसके (वेदः) धनऐश्वर को (नि दहाति) नित्य दहन करो। जिससे वह दुष्टता को छोड़ कर श्रेष्ठता को स्विकार करें । सो (नः) आप हे हमको (दुर्गाणि विश्वा) सम्पूर्ण दुस्सह दुःखों से (पर्षदति) पार करके आप आप नित्य सुख को प्राप्त करो। (नावेव, सिन्धुम्) जैसे अति कठुन नदी वा समुद्र से पार होने के लिए नौका होती है, (दुरितात्यग्निः) वैसे ही हमको सब पापजनित अत्यन्त पीड़ाओं से पृथक् (= भीन्न) करके संसार में और मुक्ति में परमसुख को शीघ्र प्राप्त करो।
स्तुति- विषय
स वज्र भृद्दस्युहा भीम उग्रः सहस्रचेताः शतनिथ ऋभ्वा ।
चम्रीषो न शवसा पाञ्चजन्यो मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती।।
ऋ.1।7।10।2।।
  व्याख्यान – हे दुष्ट नाशक परमात्मन् ! आप (वज्रभुत्) अच्छेद्य दुष्टों के छेदक सामर्थ्य से सर्वशिष्ट हितकारक दुष्टविनाशक जो न्याय, उसको धारण कर रहे हो, “प्राणो वा वज्रः” इत्यादि शतपथादि का प्रमाण है। अत एव (दस्युहा) दुष्ट पापी लोगों का हनन करने वाले हो। (भिमः) आपकी न्याय - आज्ञा को छोड़ने वालों पर भयंकर भय देने वाले हों। (सहस्रचेताः) सहस्रो विज्ञानादि गुणवाले आप ही हो। (शतनीथः) सैकड़ो असंख्यात पदार्थों की प्राप्ति कराने वाले हो। (ऋभ्वा) अत्यन्त विज्ञानादि प्रकाशवाले हो, और सबके प्रकाशक हो तथा महान और महान् बलवाले हो। (न चम्रीषः) किसी की चमू=सेना में वश को प्राप्त नहीं होते हो। (शवसा) स्वबल से आप (पाञ्चजन्यः) पांच प्राणों के जनक हो। (मरुत्वान्) सब प्रकार के वायुओं के आधार तथा चालक हो। सो आप (इन्द्रः) इन्द्र हमारी रक्षा के लिए प्रवृत हो, जिससे हमारा कि काम ना बिगड़े।             

   मनुष्य इस जीवन में दुःखों से बचने लिए क्या नहीं करता अर्थात वह सब कुछ करता है जो भी यहां पृथ्वी पर स्वयं को बचाए रखने के लिए संभव होता है अर्थात सभी प्रकार के भौतिक सामग्रीयों का संग्रह औषधियों का संग्रह और जब वह सब कुछ करके हार जाता है तो अन्त में परमात्मा के शरण में जाता है परमात्मा का भी संग्रह करता है लेकिन यह कहा संभव है इस नश्वर संसार में इसलिए मनुस्य बहाने बनाता है समय बिताने के लिए बहुत सारें रास्ते निकाल लेता है जिससे झुठ का जन्म होता है, और झुठ ही मृत्यु है जीवन सिर्फ दृष्य मय नहीं है वह अदृश्य भी है जब मनुष्य रगण-रगण कर मृत्यु को उपलब्ध होता है अर्थात जब जीवन के मोह में अत्यधीक लिप्त रहता है और जब मोह से मुक्त रहता है और हस – हस कर मृत्यु को ग्रहण करता है तो मरता नहीं है यद्यपि वह मुक्त मोक्ष को उपलब्ध होता है। लेकिन जब मनुष्य दुखों को झेलते – झेलते बुरी तरह से थक कर परास्थ हो कर बेबस हो कर मृत्यु को बेहोसी में वरण करता है तो उसे पुःन जन्म लेता है और जब होस में रह कर शरिर का त्याग करता है तो उसके साथ जीवन का भयानक और दुःख मय ज्ञान रुप अनुभव साथ रहता है जिससे पुनः शरिर धारण नहीं करता है जब बहुत अधीक समय में धिरें-धिरें भुल जाता है तो फिर आता है अनुभव रुपी ज्ञान को प्रप्त करने के लिए।       

Post a Comment

0 Comments

Ad Code