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सुख दुःख समान है

योगी     गीता के छठे अध्याय का तीसवाँ एवं इकतीसवाँ श्लोक विशेष मनन करने योग्य है। इन्हीं में से तीसवें की विस्तृत व्याख्या विगत अंक में प्रस्तुत की गई थी। ‘‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’’ की पूज्यवर की विस्तृत विवेचना का वर्णन पाठकों ने उनकी ही लेखनी के माध्यम से जाना। स्वयं उनने यह जीवन जिया और ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ की मान्यता को अपने जीवन में विकसित कर इतना विराट गायत्री परिवार वे खड़ा कर गये। ‘‘ईक्षते समदर्शनः’’ योगी को मिलने वाली एक सिद्धि है जिसकी चर्चा गतांक में की गयी थी। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो भी मुझे सर्वत्र देखता है, और सब कुछ मेरे अंदर देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और न ही वह मेरे लिए अदृश्य होता है। ब्राह्मी स्थिति की यह झलक हम कबीर, एकनाथ, रैदास, मीरा, रामकृष्ण, एवं स्वयं पूज्यवर में देखते हैं। इसमें साधक द्वैत से अद्वैत की यात्रा करता है उसके विकास के कई नूतन आयाम खुल जाते हैं जो उसे पूर्णत्व की ओर ले जाते हैं। वे वासुदेव ही संपूर्ण जगत की उत्पत्ति के कारण हैं और उन्हीं के कारण यह जगत चेष्टा करता है यह रहस्य जान लेने वाला मुक्ति को प्राप्त हो जाता है। आगे ३१वें श्लोक में कहते हैं कि जो भी दिव्य कर्मी योगी एकीभाव से समस्त प्राणियों में भगवद्रूप की उपासना करते हैं, वे वर्त्तमान में रहते हुए भी उन्हीं परमेश्वर में निवास करते हैं। एकत्व की प्राप्ति एक सिद्धि है। एवं यह प्राप्त कर लें तो भगवान का आश्वासन मिल जाता है कि साधक उन्हीं में निवास करेगा। इसी व्याख्या को आगे बढ़ाते हैं।
ईश्वर में वास
इकतीसवें श्लोक में भगवान ने जो कहा है, उसे संक्षेप में पुनः देखते हैं- ‘‘जो एकत्व में स्थित होकर सब प्राणियों में स्थित मेरी उपासना करता है वह योगी वर्तमान में रहते हुए (सभी प्रकार का निर्वाह करते हुए) भी मुझमें ही वास करता है।’’ यह एक प्रकार से विविधता में एक उस परमात्मा का ही सतत दर्शन है। ऐसा व्यक्ति शरीर, मन, व बुद्धि से परे मात्र आत्मा रूप में ही वास करता है, उसी की सेवा करता है, सभी ओर उसे परमात्मा की- सद्गुरु की उपस्थिति नजर आती है। इस दिव्य अनुभूति के साथ वह २४ घंटे जीवन जीता है, फिर चाहे उसका बहिरंग स्वरूप कैसा भी हो- जनक, रैदास, कबीर, सदन कसाई या दादू जैसा- वह सदैव उसी परमात्म सत्ता में निवास करता है। (सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयिवर्तते) अब उसके द्वारा कोई गलत कदम नहीं उठ सकता। उसे वह मूल स्त्रोत प्राप्त हो गया है जो परम आनंद से भरा पूरा है। उसकी कामनाएँ निःशेष हो गयी हैं। वह किसी से कुछ अपेक्षा नहीं रखता। वह मुक्त हो जाता है सभी बंधनों से एवं पूर्ण पुरुष बन जाता है। वह संसार को सत्य, न मानकर आत्मजागृति प्राप्त कर अपने अंदर ही सत्य की प्राप्ति ईश्वर रूप में कर लेता है। वह जान जाता है कि वह एक पथिक मात्र है- आत्मारूप में। शरीर एक सराय है, गेस्ट हाऊस है उसे मात्र पथिक की, आत्मिक प्रगति की चिंता करनी है, इस क्षणिक ‘‘हाल्ट’’ शरीर से जुड़े राग- द्वेषों में उलझना नहीं है।
ऐसे दिव्यकर्मी ही एक परिपूर्ण आचरण से शिक्षण देने वाले आचार्य, दूवदूत, महामानव, ईश्वरीय मानव कहलाते हैं। उसे सारा संसार अपना ही एक विराट विस्तार दिखाई देता है। सभी ओर उसे परमात्म सत्ता के दर्शन होते हैं। परमात्म चेतना में सतत जीने का उसे लाभ एक निराले रूप में मिलता है। उसके सभी कार्य सहज रूप में होने लगते हैं। उसके कर्म संस्कार रूप में नहीं पकते, उसके लिए वे प्रारब्ध नहीं बनते। उसके कर्म अकर्म बन जाते हैं। ऐसे व्यक्ति के विषय में गीताकार आगे कहते हैं-
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।
सुखं व यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः॥ ६/३२
शब्दार्थ-
हे अर्जुन (अर्जुन) जो (यः) समस्त भूतों में (सर्वत्र) अपने साथ तुलना करके (आत्मा- उपमन्येन) सुख या दुख, प्रिय और अप्रिय को (सुखं वा यदि वा दुःखं) समान भाव से देखते हैं (समं पश्यति), वही योगी (सःयोगी)श्रेष्ठ होते हैं, ऐसा मेरा मत है (परमः मतः)।
भावार्थ- ‘‘हे अर्जुन! जो योगी अपनी भाँति (अपनी आत्मदृष्टि से) सुख अथवा दुख में सर्वत्र समत्व के ही दर्शन करता है, सभी को समभाव से देखता है, वह योगी परमश्रेष्ठ माना गया है।’’ 

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