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वेद वाणी

१.     ओ३म् भूर्वुवः स्वः….प्रचोदयात्।

भावार्थ-सर्वत्र व्यापक, सबके रक्षक, परमपिता परमात्मा से हम प्रार्थना करते हैं कि वह हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर लगाए अर्थात् हम ऐसा प्रयत्न करें कि जिससे हमारी बुद्धि निर्मल तथा तीव्र बने।

(यजुर्वेद)

२. ओ३म् विश्वानिदेव…आसुव।

अर्थ-हे संसार को उत्पन्न करने वाले सब सुखों के दाता परमेश्वर! आप कृपा करके हमारे सब दुर्गुण, व्यसन और दुःखों को दूर कर दीजिये तथा जो कल्याण कारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं वे सब हम को प्राप्त कीजिए।

(यजुर्वेद)

३.     सं गच्छध्वं….उपासते।

अर्थ-  ऐ ऐश्वर्य के अभिलाषी मनुष्यो! तुम सब आपस में मिलकर चलो, मिलकर रहो, प्रेम से बातचीत करो, तुम सब एक दूसरे से मन मिलाकर ज्ञान प्राप्त करो। जिस प्रकार पहले हुए विद्वान पुरूष मिलकर एक दूसरे के सहयोग से अनेक प्रकार का ज्ञान प्राप्त करते हुए ऐश्वर्य और उन्नति को प्राप्त करते थे वैसे ही तुम भी करो।

(ऋग्वेद)

४. समानो…जुहोमि।

अर्थ-हमारे विचार समान हों, हमारे लक्ष्य समान हों, हमारे संकल्प समान हों, हमारी आकांक्षाएँ समान हों और हम एक जुट होकर आगे बढ़े।

५.     सहृदयं…वाध्न्या।

अर्थ- सभी मनुष्य एक हृदय वाले तथा एक मन वाले हों। कोई भी किसी से द्वेष न करे। सभी एक दूसरे को ऐसे चाहें जैसे गौ अपने नये उत्पन्न हुए बछड़े को चाहती है।

                                                                                (अथर्ववेद)

६. स्वस्ति… गमेमहि।

अर्थ- हम सूर्य और चन्द्र की तरह कल्याणकारी मार्ग पर चलते रहें और परोपकारी, दानशील, वैर भाव विद्वान् मनुष्यों की संगति करते रहें।

(ऋग्वेद)

७.     असतो मा सद्गमय।

तमसो मा ज्योतिर्गमय।

मृत्योर्मा अमृतं गमय।

अर्थ-हे ईश्वर! आप हमको असत् (गलत) मार्ग से हटाकर सन्मार्ग पर ले चलिए। अविद्या अंधकार को छुड़ाकर विद्या रूप सूर्य को प्राप्त कीजिए और मृत्यु रोग से बचा करके मोक्ष के आनन्द रूप अमृत को दीजिए।

(बृहदारण्यक उपनिषद्)

८.     तेजोऽसि…. मयि धेहि।

अर्थ-हे प्रभु! आप प्रकाश स्वरूप हैं कृपा कर मुझ में भी प्रकाश स्थापना कीजिए। आप अनन्त पराक्रमयुक्त है मुझ में भी पराक्रम दीजिए। आप अनन्त बलयुक्त हैं मुझे भी बल प्रदान कीजिए। आप अनन्त सामर्थ्ययुक्त हैं मुझ को भी पूर्ण सामर्थ्य दीजिए। आप दुष्ट काम और दुष्टों पर क्रोधकारी हैं मुझ को भी वैसा ही कीजिए। आप निन्दा, स्तुति और स्वअपराधियों को सहन करने वाले हैं कृपा कर मुझ को भी वैसा ही कीजिए।

९. ईषा…स्विद्धनम्।

अर्थ- इस गतिशील संसार में जो कुछ भी है, ईश्वर उस सब में वसा हुआ है। इसलिए वह हमें सब ओर से देखता है। यह जानकर तथा उससे डर कर दूसरे के पदार्थो को अन्याय से लेने की कभी भी इच्छा मत कर। अन्याय के त्याग और न्यायाचरण रूप धर्म से आनन्द को भोग।

(यजुर्वेद)

१0.   कुर्वन्नेवेह… नरे।

अर्थ- संसार में मनुष्य शुभ कर्म करता हुआ ही सौ वर्ष तक जीने की इच्छा करे। ऐसा करने से वह बुरे कामों में नहीं फंसता। संसार में सुखपूर्वक जीने का यही एक तरीका है, और कोई भी रास्ता ठीक नहीं है।

(यजुर्वेद)

११. असुर्या…जनाः।

अर्थ- जो मनुष्य आत्मा में और, वाणी में और तथा कर्म में कुछ और ही करते हैं वे असुर, दैत्य, राक्षस एवं दुष्ट हैं। वे कभी अविद्या रूप दुख सागर से पार होकर आनन्द को प्राप्त नहीं कर सकते।

(यजुर्वेद)

१२.   हिरण्मयेन…दृष्टये।

अर्थ-चमक दमक वाले ढकने से सत्य का मुख ढका हुआ है। अपना भला चाहने वाले मनुष्य! सत्य धर्म को देखने के लिए तू उस ढकन को हटा दे।

(ईशोपनिषद्)

१३. सत्यमेव…निधनम्।

अर्थ- सत्य की ही जीत होती है, झूठ की नहीं। सत्य पर चलकर ही मनुष्य देवता बनता है। ऋषि लोग सत्य पर चलकर ही परमात्मा को पाकर आनन्द प्राप्त करते हैं।

(मुण्डक उपनिषद्)

१४.   श्रेयश्च…वृणीते।

अर्थ-श्रेय (कल्याणकारी) तथा प्रेय (प्रिय लगने वाला)-ये दोनों भावनाएं मनुष्य के सामने आती हैं। धीर पुरूष इन दोनों की अच्छी तरह मन से विचार कर परीक्षा करता है। वह प्रेय की अपेक्षा श्रेय को ही चुनता है। धीर पुरूष वह है जो कोई काम जल्दी में नहीं करता, तत्काल फल नहीं देखता। मन्द बुद्धि व्यक्ति सुख चैन के लिए, आराम से जीवन बिताने के लिए प्रेय को चुनता है।

(कठ उपनिषद्)

१५. अनुपश्य…पुनः।

अर्थ-जो तुझसे पहले हो चुके है तथा जो तेरे पीछे होंगे उन की बाबत विचार। यह मनुष्य अन्न की तरह पैदा होता है, पकता है, नष्ट हो जाता है, और फिर उत्पन्न हो जाता है।

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