योग हास्यपद बनाया जा रहा है।
आजकल हम आसन को योग और पत्ती को पेड़ कहा करते हैं!
आज योग दिवश है आप सभी को योग दिवश पर शुभ कामना मुझे यह कहते हुये बहुत खुशी महसूस हो रही है, कि हमारे प्रधानमंत्री और योग गुरु बाबा राम देव की योग के प्रति अगाध आस्था और श्रद्धा के कारण आज विश्व पटल पर भारतिय योग का परचम लहरा रहा है। हमें गर्व है की हम भारत के नागरिक हैं। योग के बारे जैसा कि प्रचार बहुत तेजी से हो रहा है और लगभग सभी व्यक्ति इस योग से परिचित हो चुके हैं। यह बहुत सुन्दर और काबिले तारिफ है। जैसा कि बाबा राम देव को विश्व पटल पर योग गुरु पतंजली के बाद परिचय कराया जा रहा है, यह बहुत सुन्दर है। योग का संबन्ध आसन प्राणायाम के रुप में कई प्रकार की बिधीयों का उपयोग करके करा रहे हैं, इसको शारिरीक स्वास्थ और शान्ति से जोड़ा गया है। जिसके कारण बहुत अधिक लोगों का आकर्षण इसके प्रती बढ़ गया है। लोगों का झुकाव अस्वस्थता और अशान्ती के कारण बहुत अधिक है। इसके लिये प्रोटोकाल लगाया गया है । जैसा की पंतजली अपने योग दर्शन में, योग को अपने प्रथम सुत्र के द्वारा अनुशाषन कहते हैं, यह एक प्रकार का कठोर डिसीप्लिन है जो स्वयं की शरीर पर लागु करना पड़ता है। साधक को दूसरे सुत्र में कहते योग चित्त की वृत्तियों का निरोध है, अर्थात योग एक ससक्त मन को वश में करने का साधन है। इस योग को वह अष्टांग योग कहते हैं। अर्थात यम नियम आसन प्राणायाम प्रत्याहार धारणा ध्यान समाधि। इस अष्टांग योग को वह क्रिया योग कहते हैं। और इसको सर्व प्रथम दो भागों में बिभाजित करते हैं। पहला बहिर अंग जिसका उपयोग शरीर और इन्द्रियों को बश में करने के लिये किया जाता है। शरिर इन्द्रियों के सहारे अपने सभी कार्यों को पूर्ण करता है। इन्द्रिया दो प्रकार की है ज्ञान इन्द्रि और कर्म इन्द्री यह दोनों पांच पांच प्रकार की है। ग्यारहवां इन्द्री मन है। ज्ञान इन्द्री में आंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा है। देखना, सुनना, गंध खुशबु, स्वाद, स्पर्श क्रमशः कर्म इन्द्रियां है हाथ, पैर, मुख, लिंग, और गुदा, इनको नियन्त्रित मन करता है। वुद्धि के माध्यम से मन को चार भागों मे विभाजित किया है पहला स्वयं मन है दूसरा चित्त है तीसरा अहंकार और चौथी वुद्धि है। और वुद्धि को भी तिन प्रकार का बताया गया है ईड़ा, सरस्वती, मही। यह मन है जो योग के बहिरंग जिसे यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, के द्वारा वश में नहीं होता है। इसके लिये अंत रंग योग के अंगों का प्रयोग किया जाता है जिसको पंतजली धारणा, ध्यान, समाधि कहते हैं। इन तिनों के लिये वह एक नाम देते है संयम अर्थात जिससे मन सपरिवार इन्द्रियों समेत लम्बे अभ्यास बैराग्य से बश में होता है जिससे आत्मा परमात्मा में लिन हो जाती है। जैसे आग के पास लोहे को रखने से आग के गुण लोहे में आ जाते हैं।
उसी प्रकार से परमात्मा के समिप आत्मा के रहने से परमात्मा के गुण आत्मा में रूपान्तरित हो जाते हैं। यह योग उपासना की एक दुर्लभ और अद्वितिय बिधी है। यम जो योग का पहला चरण है इसको पांच भागों बताया है पहला अहिंशा अर्थात किसी प्रकार की मन वचन कर्म से हिंशा नही करना ही अहिंशा इसको सुक्ष्म रूप से ८४ प्रकार का बताया है। दूसरा यम का अंग सत्य को बताया गया है किसी भी प्रकार का मन वचन कर्म से किसी भी परिस्थिती में झुठ असत्य नहीं बोलना सत्य है। तिसरा यम का चरण है अस्तेय अर्थात किसी प्रकार से मन वचन कर्म से चोरी नही करना ही अस्तेय है। चौथा चरण यम का ब्रह्मचर्य का पालन करना विर्य रक्षा करना जहां तक संभव हो कभी वीर्य को अस्खलित नही होने देना ब्रह्मचर्य है। जो आज के माहौल में अत्यधिक दुस्कर और कठीन है भर सक ससामर्थ वीर्य शरीर में संचित करना ही ब्रह्मचर्य है। यम का अंतिम चरण है अपरिग्रह अर्थात यह योग का मार्ग योगी के लिये है भोगीयों के लिये नहीं है, कम से कम वस्तुओं में जीवको पार्जन करना ज्यादा विषय वस्तुओं का संग्रह नहीं करना ही अपरिग्रह कहलाता है।
योग के अष्टांग योग का दूसरा चरण नियम है और इस नियम का पहला चरण है सौच अर्थात हर प्रकार से मन बचन कर्म से विशेष स्वच्छता को निरन्तर आजीवन योग में आगे बढने के लिये बनाये रखना ही सौच का पालन करना है। दूसरा नियम का चरण है संतोष अर्थात अपने किये हुये कर्म का जो भी फल मिले उसका मन वचन कर्म से स्विकार करना ही संतोष है। तिसरा नियम का चरण है तप अर्थात हर प्रकार का क्लेश मन वचन कर्म से सहना सर्दि, गर्मी, भुख, प्यास, मान, अपमान, दुःख, सुख सहजता से बिना किसी शिकवा शिकायत गीला के स्विकारना ही तप कहा जाता है। नियम का चौथा चरड़ स्वाध्याय अर्थात अपने प्रत्येक मन वचन कर्म से किये कार्य का निरीक्षण करना स्वयं का अध्यन करना स्वाध्याय कहलाता हा। आखिरी चरण नियम का ईश्वरप्रणीधान है अर्थात अपने द्वारा जितना सामर्थ है पुरुषार्थ करना और जो स्वयं से संभव नही है कार्य संपन्न करना उसे ईश्वर को समर्पण कर देना ही ईश्वरप्रणिधान कहलाता है। पंतजली बहुत जोर देकर कहते हैं यम और नियम का शक्ति से पालन करना चाहिये। किसी एक यम या नियम का केवल पालन करने से योग सिद्ध नहीं होगा। इसके विपरीत योग भ्रष्ट हो जायेगा योगी। अष्टांग योग का तिसरा बहिरंग चरण में आसन आता है, इसके लिए वह कहते हैं, ऐसा कोई एक आसन जैसे सिद्धासन, पद्मासन, या सवाशन का उपयोग करके लम्बें समय तक बैठने के लिये उपयोग किया जाता है। जिसमें सुख पुर्वक स्थिरचित्त एकाक दो घंटे तक सुख से बैठ कर ध्यान लगाया जाये, वही आसन है। इसी प्रकार प्राणायाम अर्थात प्राणों को बश में नियंत्रित करने कि जो बिधी है वह प्राणायाम कहलाती है।
आजकल हम आसन को योग और पत्ती को पेड़ कहा करते हैं!
क्या आज वाकई योग दिवस है?
और जिसे योग कहा जा रहा है क्या वह योग है? आप अगर महर्षि पतंजलि मुनि के "योगदर्शन" को देखेंगे तो लगता है, पूरे देश के कुओं में भांग घुली है और योग के बारे में कोई कुछ नहीं जानता। दुनिया में योग के नाम पर भ्रम फैलाए जा रहे हैं।
भारतीय दर्शन के एक विनम्र विद्यार्थी के नाते मैं कुछ तथ्यात्मक बातें आपसे इस मौके पर साझा करना चाहता हूं। हालांकि यह तय कि बहुत से लोग इसे अनावश्यक और सिर्फ़ आलोचना का विषय समझेंगे।
अगर कोई एक पत्ते को पेड़, एक पन्ने को पुस्तक और एक ईंट को मकान कहने लगे तो आप उसे क्या कहेंगे? अज्ञानी या अबोध ही न! अज्ञान किस तरह सिर चढ़कर बोलता है, उसका उदाहरण आज का दिन है। हमने सिर्फ़ आसनों को ही योग का नाम दे दिया है। आसन सिखाने वाला हर व्यक्ति अपने आपको योग गुुरु घोषित कर रहा है और मुझे लगता है कि यह न केवल ग़लत है, बल्कि भारतीय मनीषा की मानव-समाज को सबसे बड़ी देन का यह उपहास और अवमूल्यन है और यह नाक़ाबिले-बर्दाश्त भी।
सच बात ये है कि योगदर्शन में महर्षि पतंजलि ने यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि सहित आठ अंगों की एक व्यापक प्रक्रिया को योग कहा है।
वे योग दर्शन के साधन पाद अध्याय दो में कहते हैं : यमनियमआसनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयो$ष्टावंगानि।।29/80
और इस योग का मतलब उष्ट्रासन या पद्मासन भर नहीं है। न ही आंखें मींचकर उन पर हाथ रख लेना और लंबी-लंबी श्वासें लेना-छोड़ना है, जैसा कि अज्ञान का एक सामूहिक वैश्विक प्रदर्शन इन दिनों हो रहा है।
असल में योग के आठ अंगों की व्याख्या भौत्तिक विज्ञान के किसी गहन अध्याय का सा मामला है। हर चीज़ की एक परिभाषा है और उसे मनमर्जी से नहीं बदला जा सकता।
यम क्या है?
योग का पहला चरण यम हैं। यम जाति, देश, काल और समय से परे हैं। इन्हें सार्वभौम महाव्रत भी कहा गया है। यम यानी आप हिंसा न करने का संकल्प लेंगे। सत्य ही बोलेंगे। अस्तेय यानी चोरी, भ्रष्टाचार या अनैतिकता से कतई दूर रहेंगे। ब्रह्चर्य का पूर्ण पालन करेंगे और अपरिग्रह को अपने जीवन में उतारेंगे। पतंजलि कहते हैं : अहिंसासत्यास्तेयब्रह्चर्यापरिग्रहा यमा:।।30/80
नियम क्या है?
अब योग का दूसरा चरण है नियम। आप शौच का पालन करेंगे यानी शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक रूप से पवित्र रहेंगे। ये शौच वो एफएम वाली विद्या बोलन वाला नहीं है; जो दिन भर ऐसे लोगों में शौचालयों का प्रचार करती है, जिनके घरों में विद्या बालन के दादाजी के पैदा होने से पहले के शौचालय बने हुए हैं। यहां शौच कुछ और है। शौच पोटी नहीं है। शौच यानी पवित्रता। तन, मन और बुद्धि की। हृदय और मस्तिष्क की।
इस शौच के अंग हैं : संतोष, तप, स्वाध्याय और प्रणिधान। यहां संतोष का अर्थ न्यूनतम साधनाें और संसाधनों में जीवन यापन है, न कि जो मिल गया उस पर संतोष कर लेना। तप यानी अपने देश और काल में जो सबसे न्यूनतम सुविधाओं के साथ जीवन यापन कर रहा है, आप सदैव उसके स्तर पर रहने का अभ्यास करें। इसी तरह स्वाध्याय और प्रणिधान के अर्थ हैं।
आसन क्या है?
और आसन ये उलटे-सीधे क्रियाकलाप नहीं हैं। कहा गया है : स्थिरसुखमासनम्।। यानी जिसके स्थिर होने पर सुख का अनुभव होता है यही आसन है। पद्मासन ही नहीं, वीरासन, भद्रासन, दंडासन और स्वस्तिकासन में दिन भर रहना भी आसन है।
प्राणायाम क्या है?
प्राणायाम कुंभक और रेचक ही नहीं है। यह प्राणों पर नियंत्रण की क्रिया है और इसके लिए आपको पर्वतों, नदियों, झीलों, पक्षी कलरव और न जाने कैसे-कैसे प्रकृति की रक्षा करनी होगी। प्राणायाम सांसों को ऊपर नीचे करना या एक समय कपाल-भाति करना और अगले ही क्षण सलवार पहनकर दौड़ पड़ना नहीं है। योग को कारोबार बना देना और उसे मुनि पतंजलि के नाम से बेचना भारतीय मनीषा के आदर्शाें के हिसाब से घनघोर पाप है।
आप अगर योग कर रहे हैं तो आप किसी नीलगाय को मारने, लोगों पर टैक्सों की भरमार करके उनके जीवन को संकटापन्न करने, स्कूलों को पूरे संसाधन मुहैया नहीं करवाने, देश भर के अस्पतालों को बदहाल बनाए रखने और आए दिन सड़कों पर लोगों को कुत्तों की तरह कुचलने की छूट देने जैसे घनघोर अपराध करने पर आपको आत्मग्लानि जरूर होगी; लेकिन आप योग नहीं, आप आसन कर रहे हैं, लेकिन आपकी आत्मा में आम जीवन के प्रति क्षणिक भी संवेदना नहीं रहती। यह आसन और योग का फ़र्क है।
प्रत्याहार क्या है?
मुनि पतंजलि कहते हैं : योग का पांचवां अंग प्रत्याहार है। प्रत्याहार यानी समस्त अंग-प्रत्यंग में ज्ञानवृत्तियों काे चेतनशीलता से नहलाना और उनमें ज्ञानवृत्तियां जगाना। यह बहुत लंबी व्याख्या है, जिसे यहां मुझ अल्पज्ञ व्यक्ति, जो भारतीय योगशास्त्र के बारे में बहुत उथली सी जानकारियां रखता है, बता पाना नामुमकिन है। इसे योगदर्शन का कोई योग्य विद्वान् ही बता सकता है।
धारणा क्या है?
योग के छहवें चरण पर मुनि पतंजलि कहते हैं : धारणासु च योग्यता मनस:।। 53/104 यानी मुनष्य को धारणाओं के अनुष्ठान करने होते हैं। ये कोई कर्मकांड नहीं है। यह शुद्ध रूप से मानसिक क्रियाकलाप है।
ध्यान क्या है?
आचार्य पतंजलि का कहना है : तत्र प्रत्ययैकतानताध्यानम्। 2/10
यानी अपनी स्वयं की काया और चित्त के साथ साथ समूचे देश और काल को ध्यानस्थ कर देने की यह मुद्रा सातवां योगांग है।
समाधि क्या है?
और आठवां योगांग समाधि है : तदेवार्थमात्रनिर्भाससं स्वरूपशून्यमिव समाधि।। लेकिन यह समाधि भी वह समाधि नहीं है, जो प्रचारित की जाती है। यह समाधि बहुत सूक्ष्म क्रिया है और इसके बिना योग कभी भी पूरा नहीं होता। समाधि यानी पूरे वातावरण को चैतन्य से परिपूर्ण करके त्रयमेकत्र संयमों का पालन, प्रज्ञालोक में अवतरण और भूमि विनियोग के निर्वैचार्य से परिपूर्ण होना।
योग का पथ, मानवता का रथ!
मित्रों, योग दया, करुणा और विनम्रता की उपासना का पथ है। घृणाओं और हिंसक प्रवृत्तियों के दमन की राह है। योग रक्त-पिपासा की कल्पना तक से मुक्ति का नाम है। हिंसा, युद्ध, बर्बरता और भीषण अशांति रचने के दुु:स्वप्नों से दूरी बनाने का नाम है। सामाजिक विषमताओं के उन्मूलन करने के राजपथ का नाम योग है। योग दान देने, बांट कर खाने, संचित नहीं करने और विशाल हृदयता का नाम है। योग काया के भीतरी ही नहीं, अपने आसपास के समस्त द्वंद्वाें को मिटाने का नाम है। योग इस काया को ही नहीं, इस समूची धरती को ब्रह्मपुरी बनाने का नाम है।
ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान वैदिक विश्व विद्यालय ब्रह्मपूरा छानबे मिर्जापुर उप्र भारत 9305008616
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