भारतीय कौन है ? भुमिका
दृश्यतेह्यनेनेति दर्शनम् (दृष्यते हि अनेन इति दर्शनम्)
अर्थात् असत् एवं सत् पदार्थों का ज्ञान ही दर्शन है। पाश्चात्य फिलॉस्पी शब्द फिलॉस (प्रेम का)+सोफिया (प्रज्ञा) से मिलकर बना है। इसलिए फिलॉसफी का शाब्दिक अर्थ है बुद्धि प्रेम। पाश्चात्य दार्शनिक (फिलॉसफर) बुद्धिमान या प्रज्ञावान व्यक्ति बनना चाहता है। पाश्चात्य दर्शन के इतिहास से यह बात झलक जाती है कि पाश्चात्य दार्शनिक ने विषय ज्ञान के आधार पर ही बुद्धिमान होना चाहा है। इसके विपरीत कुछ उदाहरण अवश्य मिलेंगें जिसमें आचरण शुद्धि तथा मनस् की परिशुद्धता के आधार पर परमसत्ता के साथ साक्षात्कार करने का भी आदर्श पाया जाता है। परंतु यह आदर्श प्राच्य है न कि पाश्चात्य। पाश्चात्य दार्शनिक अपने ज्ञान पर जोर देता है और अपने ज्ञान के अनुरूप अपने चरित्र का संचालन करना अनिवार्य नहीं समझता। केवल पाश्चात्य रहस्यवादी और समाधीवादी विचारक ही इसके अपवाद हैं।
एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः| स्वं स्वं चरित्रें शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः||
अर्थात् समग्र विश्व भुमंण्डल के मानव भारतवर्ष के लोगों से चरित्र की शिक्षा ग्रहण करके अपने चरित्र को बिशुद्ध बनावें| इसी देश के प्राणायाम विद्युतिय ज्ञान से देश में सब प्रकार की सुख शान्ति थी|
भारतीय दर्शन में परम सत्ता के साथ साक्षात्कार करने का दूसरा नाम ही दर्शन हैं। भारतीय परंपरा के अनुसार मनुष्य को परम सत्ता का साक्षात् ज्ञान हो सकता है। इस प्रकार साक्षात्कार के लिए भक्ति ज्ञान तथा योग के मार्ग बताए गए हैं। परंतु दार्शनिक ज्ञान को वैज्ञानिक ज्ञान से भिन्न कहा गया है। वैज्ञानिक ज्ञान प्राप्त करने में आलोच्य विषय में परिवर्तन करना पड़ता है ताकि उसे अपनी इच्छा के अनुसार वश में किया जा सके और फिर उसका इच्छित उपयोग किया जा सके। परंतु प्राच्य दर्शन के अनुसार दार्शनिक ज्ञान जीवन साधना है। ऐसे दर्शन से स्वयं दार्शनिक में ही परिवर्तन हो जाता है। उसे दिव्य दृष्टि प्राप्त हो जाती है। जिसके द्वारा वह समस्त प्राणियों को अपनी समष्टि दृष्टि से देखता है। समसामयिक विचारधारा में प्राच्य दर्शन को धर्म-दर्शन माना जाता है और पाश्चात्य दर्शन को भाषा सुधार तथा प्रत्ययों का स्पष्टिकरण कहा जाता है।
यह जानने से पहले थोड़ा हमें और समझना होगा कि भारत कैसे, कहां से उपस्थित हुआ? इस भुमंडल पर । इससे पहले हमें यह जानना चाहेंगे की यह पृथीवी कैसे प्रकट हो गई? दृश्य मय इस सौर मंडल में उससे पहले यह सौर्य मंडल सूर्य आदि कैसे आये ? ऐसे बहुत सारे सौर्यमंडल आकाशगंगा में विद्यमान है ऐसी बहुत सारी आकाश गंगाये है जो ब्रह्माण्ड में विद्ययमान है। अब प्रश्न उठता है कि यह आकाशगंगाओं को धारण करने वाला ब्रह्माण्ड कैसे आया ? बहुत सारे लम्बें समय तक कई साल मैन सोध किया इन सारे प्रश्नों के उत्तर को जानने के लिये, जिससे मुझे सबसे श्रेष्ठ प्रमाणिक ज्ञान मिला उसको मै संक्षिप्त रूप से आप सबके सामने आप सब के बाटने के लिये उपस्थित हुआ हुं। इसको मैने बहुत अधिक संघर्ष और अथाह दुःखों के पहड़ो समंदर को रेगिस्तान की यात्रा करने के बाद बहुत सारे दिव्य गुरुओं के सानिध्य में कई सीलें तक बिताने के बाद इसके लिये मुझे संपूर्ण भारत वर्ष का भ्रमण करना पड़ा जिसके उपरान्त यह दिव्य अद्भुत ज्ञान की प्राप्ती हुई यह किसी प्रकार के मुल्य से उपलब्ध होने योग्य नहीं है। इसमे योगियों, विद्वानों वैज्ञानिको और बहुत प्रकार के श्रोतो के माध्यम से प्राप्त हुआ है। जिसमें मैने कुछ अपने वुद्धि से सोध के जरिये अनुभव किया है।
यह सब ज्ञान प्राप्त करने के लिए मैंने बहुत सारे शास्त्रें का बहुत गहराई से व्यक्तिगत रूप से अध्यन, चिन्तन, मनन , स्वाध्याय करके ज्ञान को संश्लेषित किया जिसमें सबसे प्रमुख है । वेद, वैदिक षट् दर्शन, उपनिषद्, १८ पुराण और इसके अतिरिक्त नास्तिक दर्शन बौद्ध, जैन, चार्वाक दर्शन पाश्चात्य दर्शन इत्यादि के साथ आधुनिक साहित्य गद्य, पद्, लगभग हर प्रकार के उन सब श्रोतों का उपयोग किया जिससे मुझे लगा कि मुझे कुछ जानकारी ज्ञान प्रप्त हो सकता है। जिससे अपने ज्ञान को विकषित किया जा सकता है। वह सब साधन मैने उपयोग किया, अपने जो सामर्थ के अनुसार वह सब किया जो मेरे सामर्थ्य का चर्मेत्कर्ष है।
सबसे प्रमुख जो इस भुमंडल का सबसे श्रेष्ठ अद्विति, अजेय, अद्भुत, अलौकिक ज्ञान का श्रोत है जिससे लग- भग हमारे सारे प्रश्न का और समस्या का समाधान मुझको मिला वह एक मुक्त शब्दों में वेद है। तो हम सर्व प्रथम कालजई, अपौरुषेश, ईश्वर कृत वेद के बारे में जानते है। उससे पहले हम हम सर्वप्रथम ईश्वर को पाते है। इसलिये यह ज्ञान के श्रोत को परमेश्वर के ज्ञान से ही सुरु करते है। सर्व प्रथम ईश्वर क्या है कहां है कैसा है? क्योंकि सर्वप्रथम ईश्वर ही था है और वही रहेगा यह शब हमें शब्द के माध्यम से प्राप्त हुआ है यह शब्द ब्रह्म कहा गया। अर्थात ईश्वर शब्द रुप है उसे शब्दों के मीध्यम से जीन सकते है शब्द रहस्य पूर्ण है जो सबसे श्रेष्ठ शब्द है उनसे ही ईश्वर प्रकट होता है। हमारी खोज में जे सबसे श्रेष्ठ शब्द का संकलन है ईश्वर के बारे में वह निसंदेह एक सार्वभौमिक सत्य है की वह वेद ही है इसलिये हम वेद के मंत्रों को समझते है ईश्वर के संबन्ध में है। जो ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव से परीचित कराते है।
ओ३म् तदेवाग्निस्तदादित्ययस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः। तदेव शुक्रं तद् ब्रह्मा ताऽआपः स प्रजापतिः।। यजुर्वेद ३२,१
हे मनुष्यों! वह परमेश्वर सर्वज्ञ सर्वव्यापी सनातन अनादि सर्वाधार सच्चिदानन्दस्वरूप नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्तस्वभाव, न्यायकारी, दयालु जगत विश्व ब्रह्माण्ड का श्रष्टा, धारण करता और सब का अन्तर्यामी है। ज्ञानस्वरूप और स्वयं प्रकाशित होने से वह अग्नि के समान है। वह आदित्य सूर्य के समान बलवान शक्ति का जिसके कोई पार नहीं है प्रलय के समय सब को ग्रहण करने से आदित्य के समान जिस प्रकार सूर्य अपनी गुरुत्वाकर्षण की शक्ती से सम्पूर्ण सौर्य मंडल के ग्रहों को धारण कर रहा है, ठीक ऐसे ही इससे भी बड़े जिसमें अनन्त ब्रह्माण्ड है उसको भी परमेश्वर धारण कर रहा है। वह परमेश्वर वायु के समान अनन्त बलवान् और सबका कर्ता होने से वायु नाम से भी जाना जाता है। जैसा कि ऋगवेद का मंत्र कहता है।
(ओ३म् द्वाविमौ वातौ वात आसिन्धोरा परावतः| दक्षं ते अन्य आवतु परान्यो वातु यद्रपः|| रीग्वेद १० , १३७-२
यहां दो प्रकार के वायु बहते है एक वायु भीतर हृदय तक बहता है दूसरा बाहर वायुमंडल में बहता है| उसमें एक तेरे अन्दर तेरे लिये शक्ती बल को बहा कर लाये दूसरा तेरे से बाहर तेरे रोग बिमारी को बाहर बहा कर ले आवे |) वह परमेश्वर आनन्दस्वरूप और आनन्द कारक होने से चन्द्रमा के समान है। वही परमेश्वर शुक्रम शीघ्रकारी अथवा शुद्ध भाव से शुक्र विर्य के कण के समान है। वह महान होने से ब्रह्मा सर्वत्र व्यापक होने से प्रजापति। भी कहलाता है।
वेद क्या है कितने पुराने है?
अब वेद क्या है? उसको जानते है वेद विद् धातु से वनता है जिसका मतलब शुद्ध ज्ञान होता है। वेद मुख्यतः चार प्रकार के है जो मानव कृत नही है वेदों को परमेमश्वर ने श्रृष्टि के प्रारम्भ चार ऋषियों के हृदय में प्रकट किया था। प्रथम ऋग्वेद का साक्षात्का अग्नि ऋषि ने किया जो ज्ञान काण्ड।के रूप में जगत में विख्यात है, इसमे दस हजार से उपर मंत्र है जिनको ऋचाए कहते है। दूसरा यजुर्वेद है जिसमें १९७५ मंत्र है, जो कर्म काण्ड है जिसका साक्षात्कार वायु ऋषि ने किया था। तिसरा वेद साम वेद है जिसमें १८७५ मंत्र है। जो उपाषना काण्ड है। जिसका साक्षात्का आदित्य ऋषि ने किया था। चौथा वेद अथर्वेद है जिसमें पांच हजार से अधिक मंत्र है इसमें प्राय सभी मंत्र पहले तिन वेदों से ही लिए गये है कुछ ही मंत्र इसके अतिरीक्त है। जो विज्ञान कांड के रूप में जाना जाता है जिसका साक्षात्कार अङ्गिरा ऋषि ने किया था। वेदों को पहले त्रई विद्या के रूप में जानते थे। इनका मुख्य विष्य ज्ञान, कर्म, उपाषना ही है। वेदों को श्रुती भी कहते है क्योंकि लाखों करणों अरबों सालों पहलें से गुरु शिष्य परम्परा से सुरक्षित किये गये है कंठस्त कर करके यहां तक लाये।गये है जिसे ओरल या मौखिक भाषा करते है। वेदो को श्रृष्टि के प्रारम्भ में दिया गया था इसलिये वेद उतने ही प्राचिन है जितना श्रृष्टि है, श्रृष्टि की आयु आज दो हजार सत्तरह में एक अरब छानबें करोण आठ लाख तीरपन हजार एक सौ सत्तरह साल हो गये है। वेदों में किसी प्रकार की कोई मिलावट अब तक नहीं हुई है क्योंकि वेदों के प्रत्येक अकक्षर शब्द मात्राओं को गिनती की गई है इसमें कुछ भी मिलावट नही कि जा सकती है। स्वरों से बाधा गया है हर मंत्र के तिन अर्थ होते है दैविक, दाहिक, आध्यात्मिक यही तिन प्रकार के मुख्य दुःख है जिनसे मुक्त होने का केवल एक मार्ग बताया गया है यह है पुरषार्थ। इसके अतिरिक्त वेदों के छ अंग और छ उपांग है अंगों में क्रमशः शीक्ष, कल्प, निरुक्त, छन्द, व्याकरण और ज्योतिषी आते है। षड् दर्शन में जो वेदों के उपांग है। योग दर्शन, योगी पंतजली ऋषि, सांख्य दर्शन कपिल मुनी द्वारा रचित, न्याय दर्शन गौतम ऋषि द्वारा रचित, वैशेषिक दर्शन कणाद ऋषि द्वारा रचित है। मिमांशा दर्शन जैमिनी ऋषी द्वारा निर्मित है। वेदान्त दर्शन महर्षि व्यास द्वारा रचित है।
ब्रह्माण्ड की उत्पत्ती वेदों के अनुसार-:
दृश्यतेह्यनेनेति दर्शनम् (दृष्यते हि अनेन इति दर्शनम्)
अर्थात् असत् एवं सत् पदार्थों का ज्ञान ही दर्शन है। पाश्चात्य फिलॉस्पी शब्द फिलॉस (प्रेम का)+सोफिया (प्रज्ञा) से मिलकर बना है। इसलिए फिलॉसफी का शाब्दिक अर्थ है बुद्धि प्रेम। पाश्चात्य दार्शनिक (फिलॉसफर) बुद्धिमान या प्रज्ञावान व्यक्ति बनना चाहता है। पाश्चात्य दर्शन के इतिहास से यह बात झलक जाती है कि पाश्चात्य दार्शनिक ने विषय ज्ञान के आधार पर ही बुद्धिमान होना चाहा है। इसके विपरीत कुछ उदाहरण अवश्य मिलेंगें जिसमें आचरण शुद्धि तथा मनस् की परिशुद्धता के आधार पर परमसत्ता के साथ साक्षात्कार करने का भी आदर्श पाया जाता है। परंतु यह आदर्श प्राच्य है न कि पाश्चात्य। पाश्चात्य दार्शनिक अपने ज्ञान पर जोर देता है और अपने ज्ञान के अनुरूप अपने चरित्र का संचालन करना अनिवार्य नहीं समझता। केवल पाश्चात्य रहस्यवादी और समाधीवादी विचारक ही इसके अपवाद हैं।
एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः| स्वं स्वं चरित्रें शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः||
अर्थात् समग्र विश्व भुमंण्डल के मानव भारतवर्ष के लोगों से चरित्र की शिक्षा ग्रहण करके अपने चरित्र को बिशुद्ध बनावें| इसी देश के प्राणायाम विद्युतिय ज्ञान से देश में सब प्रकार की सुख शान्ति थी|
भारतीय दर्शन में परम सत्ता के साथ साक्षात्कार करने का दूसरा नाम ही दर्शन हैं। भारतीय परंपरा के अनुसार मनुष्य को परम सत्ता का साक्षात् ज्ञान हो सकता है। इस प्रकार साक्षात्कार के लिए भक्ति ज्ञान तथा योग के मार्ग बताए गए हैं। परंतु दार्शनिक ज्ञान को वैज्ञानिक ज्ञान से भिन्न कहा गया है। वैज्ञानिक ज्ञान प्राप्त करने में आलोच्य विषय में परिवर्तन करना पड़ता है ताकि उसे अपनी इच्छा के अनुसार वश में किया जा सके और फिर उसका इच्छित उपयोग किया जा सके। परंतु प्राच्य दर्शन के अनुसार दार्शनिक ज्ञान जीवन साधना है। ऐसे दर्शन से स्वयं दार्शनिक में ही परिवर्तन हो जाता है। उसे दिव्य दृष्टि प्राप्त हो जाती है। जिसके द्वारा वह समस्त प्राणियों को अपनी समष्टि दृष्टि से देखता है। समसामयिक विचारधारा में प्राच्य दर्शन को धर्म-दर्शन माना जाता है और पाश्चात्य दर्शन को भाषा सुधार तथा प्रत्ययों का स्पष्टिकरण कहा जाता है।
यह जानने से पहले थोड़ा हमें और समझना होगा कि भारत कैसे, कहां से उपस्थित हुआ? इस भुमंडल पर । इससे पहले हमें यह जानना चाहेंगे की यह पृथीवी कैसे प्रकट हो गई? दृश्य मय इस सौर मंडल में उससे पहले यह सौर्य मंडल सूर्य आदि कैसे आये ? ऐसे बहुत सारे सौर्यमंडल आकाशगंगा में विद्यमान है ऐसी बहुत सारी आकाश गंगाये है जो ब्रह्माण्ड में विद्ययमान है। अब प्रश्न उठता है कि यह आकाशगंगाओं को धारण करने वाला ब्रह्माण्ड कैसे आया ? बहुत सारे लम्बें समय तक कई साल मैन सोध किया इन सारे प्रश्नों के उत्तर को जानने के लिये, जिससे मुझे सबसे श्रेष्ठ प्रमाणिक ज्ञान मिला उसको मै संक्षिप्त रूप से आप सबके सामने आप सब के बाटने के लिये उपस्थित हुआ हुं। इसको मैने बहुत अधिक संघर्ष और अथाह दुःखों के पहड़ो समंदर को रेगिस्तान की यात्रा करने के बाद बहुत सारे दिव्य गुरुओं के सानिध्य में कई सीलें तक बिताने के बाद इसके लिये मुझे संपूर्ण भारत वर्ष का भ्रमण करना पड़ा जिसके उपरान्त यह दिव्य अद्भुत ज्ञान की प्राप्ती हुई यह किसी प्रकार के मुल्य से उपलब्ध होने योग्य नहीं है। इसमे योगियों, विद्वानों वैज्ञानिको और बहुत प्रकार के श्रोतो के माध्यम से प्राप्त हुआ है। जिसमें मैने कुछ अपने वुद्धि से सोध के जरिये अनुभव किया है।
यह सब ज्ञान प्राप्त करने के लिए मैंने बहुत सारे शास्त्रें का बहुत गहराई से व्यक्तिगत रूप से अध्यन, चिन्तन, मनन , स्वाध्याय करके ज्ञान को संश्लेषित किया जिसमें सबसे प्रमुख है । वेद, वैदिक षट् दर्शन, उपनिषद्, १८ पुराण और इसके अतिरिक्त नास्तिक दर्शन बौद्ध, जैन, चार्वाक दर्शन पाश्चात्य दर्शन इत्यादि के साथ आधुनिक साहित्य गद्य, पद्, लगभग हर प्रकार के उन सब श्रोतों का उपयोग किया जिससे मुझे लगा कि मुझे कुछ जानकारी ज्ञान प्रप्त हो सकता है। जिससे अपने ज्ञान को विकषित किया जा सकता है। वह सब साधन मैने उपयोग किया, अपने जो सामर्थ के अनुसार वह सब किया जो मेरे सामर्थ्य का चर्मेत्कर्ष है।
सबसे प्रमुख जो इस भुमंडल का सबसे श्रेष्ठ अद्विति, अजेय, अद्भुत, अलौकिक ज्ञान का श्रोत है जिससे लग- भग हमारे सारे प्रश्न का और समस्या का समाधान मुझको मिला वह एक मुक्त शब्दों में वेद है। तो हम सर्व प्रथम कालजई, अपौरुषेश, ईश्वर कृत वेद के बारे में जानते है। उससे पहले हम हम सर्वप्रथम ईश्वर को पाते है। इसलिये यह ज्ञान के श्रोत को परमेश्वर के ज्ञान से ही सुरु करते है। सर्व प्रथम ईश्वर क्या है कहां है कैसा है? क्योंकि सर्वप्रथम ईश्वर ही था है और वही रहेगा यह शब हमें शब्द के माध्यम से प्राप्त हुआ है यह शब्द ब्रह्म कहा गया। अर्थात ईश्वर शब्द रुप है उसे शब्दों के मीध्यम से जीन सकते है शब्द रहस्य पूर्ण है जो सबसे श्रेष्ठ शब्द है उनसे ही ईश्वर प्रकट होता है। हमारी खोज में जे सबसे श्रेष्ठ शब्द का संकलन है ईश्वर के बारे में वह निसंदेह एक सार्वभौमिक सत्य है की वह वेद ही है इसलिये हम वेद के मंत्रों को समझते है ईश्वर के संबन्ध में है। जो ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव से परीचित कराते है।
ओ३म् तदेवाग्निस्तदादित्ययस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः। तदेव शुक्रं तद् ब्रह्मा ताऽआपः स प्रजापतिः।। यजुर्वेद ३२,१
हे मनुष्यों! वह परमेश्वर सर्वज्ञ सर्वव्यापी सनातन अनादि सर्वाधार सच्चिदानन्दस्वरूप नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्तस्वभाव, न्यायकारी, दयालु जगत विश्व ब्रह्माण्ड का श्रष्टा, धारण करता और सब का अन्तर्यामी है। ज्ञानस्वरूप और स्वयं प्रकाशित होने से वह अग्नि के समान है। वह आदित्य सूर्य के समान बलवान शक्ति का जिसके कोई पार नहीं है प्रलय के समय सब को ग्रहण करने से आदित्य के समान जिस प्रकार सूर्य अपनी गुरुत्वाकर्षण की शक्ती से सम्पूर्ण सौर्य मंडल के ग्रहों को धारण कर रहा है, ठीक ऐसे ही इससे भी बड़े जिसमें अनन्त ब्रह्माण्ड है उसको भी परमेश्वर धारण कर रहा है। वह परमेश्वर वायु के समान अनन्त बलवान् और सबका कर्ता होने से वायु नाम से भी जाना जाता है। जैसा कि ऋगवेद का मंत्र कहता है।
(ओ३म् द्वाविमौ वातौ वात आसिन्धोरा परावतः| दक्षं ते अन्य आवतु परान्यो वातु यद्रपः|| रीग्वेद १० , १३७-२
यहां दो प्रकार के वायु बहते है एक वायु भीतर हृदय तक बहता है दूसरा बाहर वायुमंडल में बहता है| उसमें एक तेरे अन्दर तेरे लिये शक्ती बल को बहा कर लाये दूसरा तेरे से बाहर तेरे रोग बिमारी को बाहर बहा कर ले आवे |) वह परमेश्वर आनन्दस्वरूप और आनन्द कारक होने से चन्द्रमा के समान है। वही परमेश्वर शुक्रम शीघ्रकारी अथवा शुद्ध भाव से शुक्र विर्य के कण के समान है। वह महान होने से ब्रह्मा सर्वत्र व्यापक होने से प्रजापति। भी कहलाता है।
वेद क्या है कितने पुराने है?
अब वेद क्या है? उसको जानते है वेद विद् धातु से वनता है जिसका मतलब शुद्ध ज्ञान होता है। वेद मुख्यतः चार प्रकार के है जो मानव कृत नही है वेदों को परमेमश्वर ने श्रृष्टि के प्रारम्भ चार ऋषियों के हृदय में प्रकट किया था। प्रथम ऋग्वेद का साक्षात्का अग्नि ऋषि ने किया जो ज्ञान काण्ड।के रूप में जगत में विख्यात है, इसमे दस हजार से उपर मंत्र है जिनको ऋचाए कहते है। दूसरा यजुर्वेद है जिसमें १९७५ मंत्र है, जो कर्म काण्ड है जिसका साक्षात्कार वायु ऋषि ने किया था। तिसरा वेद साम वेद है जिसमें १८७५ मंत्र है। जो उपाषना काण्ड है। जिसका साक्षात्का आदित्य ऋषि ने किया था। चौथा वेद अथर्वेद है जिसमें पांच हजार से अधिक मंत्र है इसमें प्राय सभी मंत्र पहले तिन वेदों से ही लिए गये है कुछ ही मंत्र इसके अतिरीक्त है। जो विज्ञान कांड के रूप में जाना जाता है जिसका साक्षात्कार अङ्गिरा ऋषि ने किया था। वेदों को पहले त्रई विद्या के रूप में जानते थे। इनका मुख्य विष्य ज्ञान, कर्म, उपाषना ही है। वेदों को श्रुती भी कहते है क्योंकि लाखों करणों अरबों सालों पहलें से गुरु शिष्य परम्परा से सुरक्षित किये गये है कंठस्त कर करके यहां तक लाये।गये है जिसे ओरल या मौखिक भाषा करते है। वेदो को श्रृष्टि के प्रारम्भ में दिया गया था इसलिये वेद उतने ही प्राचिन है जितना श्रृष्टि है, श्रृष्टि की आयु आज दो हजार सत्तरह में एक अरब छानबें करोण आठ लाख तीरपन हजार एक सौ सत्तरह साल हो गये है। वेदों में किसी प्रकार की कोई मिलावट अब तक नहीं हुई है क्योंकि वेदों के प्रत्येक अकक्षर शब्द मात्राओं को गिनती की गई है इसमें कुछ भी मिलावट नही कि जा सकती है। स्वरों से बाधा गया है हर मंत्र के तिन अर्थ होते है दैविक, दाहिक, आध्यात्मिक यही तिन प्रकार के मुख्य दुःख है जिनसे मुक्त होने का केवल एक मार्ग बताया गया है यह है पुरषार्थ। इसके अतिरिक्त वेदों के छ अंग और छ उपांग है अंगों में क्रमशः शीक्ष, कल्प, निरुक्त, छन्द, व्याकरण और ज्योतिषी आते है। षड् दर्शन में जो वेदों के उपांग है। योग दर्शन, योगी पंतजली ऋषि, सांख्य दर्शन कपिल मुनी द्वारा रचित, न्याय दर्शन गौतम ऋषि द्वारा रचित, वैशेषिक दर्शन कणाद ऋषि द्वारा रचित है। मिमांशा दर्शन जैमिनी ऋषी द्वारा निर्मित है। वेदान्त दर्शन महर्षि व्यास द्वारा रचित है।
ब्रह्माण्ड की उत्पत्ती वेदों के अनुसार-:
कण-कण में भगवान यह घोर है अज्ञान। सब में है भगवान मूर्खतापूर्ण है यह ज्ञान। कण-कण में शक्ति, शरीरों में जीवात्मा, आकाश में आत्मा और परमआकाश रूप परमधाम में सदा रहते हैं परमात्मा, सिवाय अवतार बेला में एकमेव एक अवतारी शरीर मात्र के।
कैसे हुई स्थूल जगत की रचना संसार (WORLD) चेतन (आत्मा) और योग(साधना) गुण और दोष (Merit and Demerit) कर्ता (Doer) शरीर (Body) आत्मा का संघटन रूप शरीर योगी और ज्ञानी आज्ञा-चक्र आज्ञा प्रधान विधान पिण्ड और ब्रह्माण्ड रूप स्वराट और विराट शरीर आत्म-ज्योति का रहस्य सौर मण्डल अथवा सौर परिवार तेज-पुंज से पिण्ड रूप पृथ्वी हिरण्य गर्भ से गर्भ स्थित शरीर तक 'हम' अथवा 'मैं' क्या है ? अज्ञानी सांसारिक व्यक्ति में ‘हम’ A Comparative Study amongst the Self, Soul and GOD... ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और तथाकथित गॉड पार्टिकल नहीं रहता कण-कण में भगवान सभी आध्यात्मिक गुरु शिष्यों के लिए ▼
ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और तथाकथित गॉडपार्टिकल(God Particle)
जेनेवा स्थित यूरोपियन ऑर्गनाइज़ेशन न्यूक्लियर रिसर्च (सर्न) द्वारा दुनिया के सबसे बड़े महाप्रयोग में १०० से ज्यादा देशों के करीब ८००० वैज्ञानिकों ने हिस्सा लिया और इस पर १० अरब अमेरिकी डॉलर से भी ज्यादा खर्च हुये जिसके परिणाम में तथाकथित गॉड पार्टिकल (हिग्स बोसोन) की खोज करने का दावा कर रहे वैज्ञानिकों की यह सारी खोज आधी अधूरी अपूर्ण के साथ-साथ अनुमान पर आधारित है।
वैज्ञानिकों का मानना है कि “हिग्स बोसोन” यानि वस्तु में मिलने वाला वह सूक्ष्म कण जिसके कारण वस्तु में भार है। जिसके कारण ही सभी वस्तुएं आपस में संघठित हैं, जो अरबों साल पहले हुये एक महाविस्फोट के बाद अस्तित्व में आया जिसे ही आज के वैज्ञानिक हिग्स बोसोन, ईश्वरीय कण, ब्रह्म कण (God Particle) को अलग-अलग नामों से सम्बोधित कर रहे हैं। इस वैज्ञानिक खोज को भारतीय धर्म गुरु धर्माचार्य भी यह कहते हैं कि कण-कण में भगवान है जिसको विज्ञान ने भी प्रमाणित कर दिया। वैज्ञानिकों का मानना है कि हिग्स बोसोन (ब्रह्म कण) समझ लेने से ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के रहस्य को जानने में बड़ी मदद मिलेगी, यह पता चल सकेगा कि ब्रह्माण्ड जिससे हमारी धरती, चाँद, सूरज सितारे, आकाश गंगायें हैं, कैसे बना? अभीतक विज्ञान मान रहा है कि अरबों साल पहले हुये एक महाविस्फोट जिसे बिग बैंग कहा जाता है, के बाद पदार्थ बने और फिर हमारा ब्रह्माण्ड, लेकिन यह महाप्रयोग उस राज सेपर्दा उठा देगा कि ऊर्जा से पदार्थ कैसे बनता है।
विज्ञान के इस आधे-अधूरे अप्रमाणित अनुमानित खोज से कई प्रश्न पैदा हो जाते हैं, जैसे कि महाविस्फोट कब और कहाँ हुआ? महाविस्फोट किन-किन पदार्थों के बीच हुआ ? महाविस्फोटमें प्रयोग होने वाले पदार्थों की उत्पत्ति कैसे हुई और कब हुई ?ये हिग्स बोसोन के कारण जो वस्तुओं में भार है इसका ओरिजिन कहाँ से है? फिर इस कण से आगे यह ऊर्जा (Sound and Light) की उत्पत्ति कहाँ से हुई ? फिर यह ब्रह्माण्ड जिस विस्फोट से बना आखिर वह महाविस्फोट क्योंहुआ ? उसका कारण क्या था? महाविस्फोट में कौन कौन से पदार्थ थे और पदार्थों की उत्पत्ति कब और कैसे हुई ? ब्रह्माण्डमें पदार्थों में पायी जाने वाली ऊर्जा शक्ति की उत्पत्ति कहाँ से हुई ? आदि आदि बहुत प्रश्न हैं जिसका जवाब न तो इन वैज्ञानिक के पास है, न इन तथाकथित धर्मगुरूओं के पास है। पदार्थ में पाये जाने वाले सूक्ष्म कण हिग्स बोसोन को ही कण कण में भगवान घोषित करना आधे-अधूरे ज्ञान की पहचान है। कण कण में तो जीव भी नहीं है, चेतन भी नहीं है बल्कि जिस कण में चेतन विहीन शक्ति है, चेतन विहीन शक्ति को ही आजकल के वैज्ञानिक और आध्यात्मिक लोग परमात्मा-परमेश्वर-भगवान कह कर घोषित करने में लगे हैं औरपरमात्मा-परमेश्वर-भगवान-खुदा-गॉड के पृथक अस्तित्व को मिटाने में लगे हैं जो कि घनघोर भगवद्द्रोही कार्य है। जब-जब धरती पर ऐसा असुरता रूप नास्तिकता फैलता है तब-तब इस धरती पर स्वयं परमप्रभु-परमेश्वर-खुदा-गॉड-भगवान सम्पूर्ण सृष्टि ब्रह्माण्ड के रहस्यों को उजागर करने हेतु तथा विज्ञान और अध्यात्म का भी रहस्य उजागर करने के लिए अवतरित होते हैं। वास्तव में इस सृष्टि ब्रह्माण्ड का रहस्य और भगवान का रहस्य इस संसार से लेकर सम्पूर्ण सृष्टि में कोई जानता ही नहीं चाहे वैज्ञानिक लोग महाप्रयोग करें और आध्यात्मिक लोग जितने भी आध्यात्मिक अनुसन्धान करें, पूरा जीवन लगा दें, लाखोंकरोड़ों वर्ष लगा दें तब भी इस सृष्टि का और परमात्मा का रहस्य कोई नहीं जान पाएगा। यह सम्पूर्ण सृष्टि ब्रह्माण्डों का रचनाकार उत्पत्तिकर्ता स्वयं परमात्मा-परमेश्वर-भगवान हैं, इससृष्टि के सम्पूर्ण रहस्य मात्र उसी के पास हैं।
विज्ञान की पहुँच पदार्थ (कण) जड़ तक ही होती है। पदार्थ से पहले शक्ति (Sound and Light) का रहस्य, इसका उत्पत्ति रहस्य विज्ञान से मिलना कदापि सम्भव नहीं है। ठीक उसी प्रकार किसी भी ध्यान-साधना की अवस्था में दिखाई देने वाले आत्मा ज्योति, दिव्य ज्योति, ब्रह्म ज्योति, शिव शक्ति, Soul, Divine Light, Life Light, अलिमे नूर की उत्पत्ति का रहस्य किसी भी योगी यति आध्यात्मिक के पास नहीं होता। अर्थात्वैज्ञानिकों का जड़ पदार्थ और अध्यात्मिकों का चेतन ज्योति का रहस्य केवल अवतार भगवान के तत्त्वज्ञान में होता है।
ऋग्वेद का नासदिय सुक्त इसके संदर्भ कुछ इस तरह से कहता है।-:
ऋग्वेद का नासदिय सुक्त इसके संदर्भ कुछ इस तरह से कहता है।-:
“जब कहीं कुछ भी नहीं था, न यह सृष्टि था, न यह ब्रह्माण्ड, न यह ब्रह्माण्ड में दिखाई देने वाला आकाश, वायु, अग्नि, जल,थल, न सूरज, न चाँद, न तारे, न आकाश गंगायें, न पदार्थ, न चेतन न यह हिग्स बोसोन, न यह ब्रह्म कण अर्थात् जब यह सृष्टि थी ही नहीं तब वह परमात्मा-परमेश्वर-भगवान-खुदा-गॉड‘शब्द रूप’ वचन रूप में परमआकाश रूप परमधाम में था। उसे ही शब्दब्रह्म भी कहा जाता है। जिस शब्द वचन रूपपरमात्मा के अन्दर सृष्टि रचना का संकल्प हुआ। संकल्प यानी कुछ हो, भव, कुन, To Be. यह भाव होते ही उस शब्दरूप परमात्मा से एक शब्द निकलकर अलग हुआ यानी एक शब्द उस परमात्मा से छिटका जो शब्द प्रचण्ड तेज पुञ्ज से युक्त था यानी उस में इतना ज्योति तेज शक्ति से युक्त था। इसको ही आदिशक्ति, मूल प्रकृति, अव्यक्त प्रकृति भी कहा जाता है। उस शब्द रूप परमात्मा से एक शब्द छिटकने के पश्चात्त भी उस परमात्मा वाले शब्द में किसी प्रकार का कोई परिवर्तन नहीं हुआ बल्कि वह एक सम्पूर्ण शब्द ही बना रहा, यही इस परमात्मा की आश्चर्यमय विशेषता थी। शब्दरूप भगवान से जो शब्द निकला, जो प्रचण्ड तेज पुञ्ज अक्षय ज्योति से युक्त था उसको ही सम्पूर्ण सृष्टि का कार्यभार सौपा गया। यानी मूल प्रकृति को ही सृष्टि का कार्यभार परमात्मा ने सौंपा और सृष्टि करने के लिए इच्छा शक्ति (Will Power) दिया। (इसी शब्दरूप भगवान से एक शब्द निकलकर छिटककर प्रचण्डतेज पुञ्ज हुआ इसको विज्ञान अनुमान के आधार पर महाविस्फोट कहता है जिसको परमपूज्य सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस ने अपने ज्ञान में प्रयौगिक करके दिखाया) फिर इस प्रचण्ड तेज पुञ्ज शब्द शक्ति से शक्ति निकलकर पृथक हुई जो चलकर आकाश, वायु, अग्नि, जलऔर थल का रूप लिया यानी पदार्थ का रूप लिया फिर इससृष्टि का संरचना हुआ यानी उस शक्ति से ही पदार्थ बनते हुये इस ब्रह्माण्ड का रचना हुआ। ”
सृष्टि की उत्पत्ति:-
आदि के पूर्व में जब मात्र “परमतत्त्वम् आत्मतत्त्वम् रूप शब्दब्रह्म ही थे। उन्हे संकल्प उत्पन्न हुआ कि कुछ हो। चूँकि वे सत्ता सामर्थ्य से युक्त थे और उनके कार्य करने का माध्यम संकल्प ही है। इसलिए कुछ हो संकल्प करते ही उन्ही शब्दब्रह्म का अंगरूप शब्द शक्ति सः (आत्मा) छिटककर अलग हो गयी,जो संकल्प रूपा आदि शक्ति अथवा मूल प्रकृति कहलायी। तत्त्वज्ञान शब्दब्रह्म के निर्देशन में (सः आत्मा) रूप शब्द शक्ति को सृष्टि उत्पत्ति सम्बन्धी कार्यभार मिला अर्थात् सृष्टि (ब्रह्माण्ड) के सम्बन्ध में निर्देशन, आज्ञा एवं आदेश परमतत्त्वम् आत्मतत्त्वम् रूप शब्दब्रह्म स्वयं अपने पास, उत्पत्ति संचालन और संहार से सम्बंधित क्रिया-कलाप (सः) आत्मा रूप शब्द शक्ति के पास सौंपा परन्तु स्वयं को इन क्रिया कलापों से परे रखा।”
शब्द शक्ति रूप आदि-शक्ति ही मूल प्रकृति भी कहलायी,क्योंकि प्रकृति की उत्पत्ति इसी आदिशक्ति रूप में हुई इसलिए यह मूल प्रकृति भी कहलायी। पुनः आदिशक्ति ने शब्दब्रह्म के निर्देशन एवं सत्ता-सामर्थ्य के अधीन कार्य प्रारम्भ किया। इन्हे कार्य के निष्पादन हेतु इच्छा शक्ति मिला। तत्पश्चात् आदिशक्ति ने सृष्टि उत्पत्ति की इच्छा की तो इच्छा करते ही शब्द शक्ति रूपा आदिशक्ति का तेज दो प्रकार की ज्योतियों में विभाजित हो गया, जिसमें पहली ज्योति तो आत्मा ज्योति अथवा दिव्य ज्योति कहलायी तथा दूसरी ज्योति मात्र ज्योति ही कहलायी अर्थात् पहली ज्योति आत्मा जो चेतनता से युक्त है तथा दूसरी ज्योति शक्ति कहलायी इसी से पदार्थ की उत्पत्ति हुई।
ब्रह्माण्ड की उत्तपत्ति के विषय में वेदों में ऋग्वेद कहता है की सर्व प्रथम कुछ भी नहीं था यहां तक आकाश भी नहीं था केवल परमेश्वर था जो अपनी अद्वितिय अद्भुत सामर्थ से शांसे ले रहा था । सर्व प्रथम उसमें इच्क्षा उत्तपन्न हुई की वह विश्व ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हों, ऐसी इच्छा परमेश्वर के हृदय में आते ही अदृश्य जगत से दृश्य जगत में एक अद्भुत अलौकिक अकल्पनिय अचानक अग्निपिण्ड प्रकट होगया और उसमें निरंन्तर बिस्फोट होने लगा जिसमें अनन्त ब्रह्ममाण्ड, अनन्त आकाश गंगायें, अनन्त सौर्य मंडल के साथ बहुत सारे सूर्य पैदा हो गये जिसमें से सबसे छोट सुर्य हमारे सौर्य मंडल का उत्पन्न हुआ और इसमें भी विस्फोट हुआ जिससे सभी ग्रह उत्तपन्न हुये जिसमें एक हमारी पृथिवी भी है। हमारी पृथिवी लग- चार अरब वर्ष पुरानी हो चुकी है।
क्रमशः
सत्य क्या है ? इसको जानने के लिये मैने बड़े अस्तर पर लग-भग
क्रमशः
सत्य क्या है ? इसको जानने के लिये मैने बड़े अस्तर पर लग-भग
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