ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान वैदिक विश्वविद्याल
ब्रह्मपूरा छानबे मिर्जापुर उत्तर प्रदेश भारत
ब्रह्माण्ड की उत्तपत्ति के विषय में वेदों में ऋग्वेद कहता है की सर्व प्रथम कुछ भी नहीं था यहां तक आकाश भी नहीं था केवल परमेश्वर था जो अपनी अद्वितिय अद्भुत सामर्थ से शांसे ले रहा था । सर्व प्रथम उसमें इच्क्षा उत्तपन्न हुई की वह विश्व ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हों, ऐसी इच्छा परमेश्वर के हृदय में आते ही शब्द रूप ब्रह्म प्रकट हुआ उसके साथ हि भोग और भेक्ता भी शब्द रूप शुन्य उर्जाये प्रकट हुई अदृश्य जगत से दृश्य जगत में, जिससे एक अद्भुत अलौकिक अकल्पनिय अचानक अग्निपिण्ड प्रकट होगया भोग रूप प्रकृति और दूसरा उसका भोग करे वाला जीव उसमें प्रवेश करके उसका विस्तार करने लगा। और उसमें निरंन्तर बिस्फोट होने लगा जिसमें अनन्त ब्रह्ममाण्ड, जिसमें से सबसे छोटा ब्रह्माण्ड हमारा है। उसमें भी सबसे छोटी आकाश गंगा हमारी है। उसमें एक किनारें पर हमारा सूर्य अपने सौर्यमंडल उपस्थित है। जो आकाश गंगा के केन्द्र का अपने सम्पूर्ण ग्रहों के साथ चक्कर लगा रहा है। अनन्त आकाश गंगायें, अनन्त सौर्य मंडल के साथ बहुत सारे सूर्य पैदा हो गये छोटे सुर्य हमारे सौर्य मंडल का उत्पन्न हुआ और इसमें भी विस्फोट हुआ जिससे सभी ग्रह उत्तपन्न हुये जिसमें से ही एक हमारी पृथिवी भी है। हमारी पृथिवी लग- चार अरब वर्ष पुरानी हो चुकी है।
जैसा की पृथवी हमें आज दिखाई देती है वह प्रारम्भ में ऐसा बिल्कुल नहीं थी। यह अपने प्रारम्भीक काल में, सूर्य से निकलने के कारण सूर्य के समान भयंकर ज्वलनशील गैसों का अग्निपिण्ड थी । इसको ठंडा किया गया लगातार अरबों सालों तक बारीष के कारण से, उसके बाद एक बीशाल धुम केतु आकर अंतरीक्ष से हमारी पृथवी से टकरा गया, जिसकी वजह से पृथवी दो टुकड़ों में बिभक्त हो गई, और उसके बाद एक छोटा टुकड़ा जिसे हम चंद्रमा कहते वह पृथवी से चार लाख चोरासी हजार किलोमिटर दूर होकर पृथ्वी का चक्कर लगाने लगा। जैसा की पृथवी सूर्य का चक्र लगाती है । सुर्य आकाशगंगा के केन्द्र का चक्कर लगाता है। आकाशगंगायें ब्रह्माण्ड के केन्द्र का चक्कर लगाती है । और यह सारें ब्रह्माण्ड परमेंश्वर जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों का केन्द्र है अदृश्य केन्द्र बिन्दु ध्वनी रूप शब्द ब्रह्म का चक्कर लगाते है अस्तु। इस ब्रह्माण्ड में तीन प्रकार के मुख्य कार्य हो रहे है पहला कार्य ईश्वर द्रष्टा स्वरूप साक्षी बन कर निष्पक्ष हो कर सभी प्रकार के कृत्यों को देख रहा है जो भोक्ता रूप जीव जिसे आत्मा कहते वह प्रकृती रूप भोग सामग्री का किस प्रकार से उपभोग कर रहा है। दूसरा कार्य जीव नये - नये रूपों में स्वयं को निरंतर बिभक्त कर रहा है। प्रकृती के पदार्थों के आवरण के अन्दर व्यवस्थित होकर । जिसमें से एक सबसे श्रेष्ठ अद्भुत रूप मानव शरीर के रूप में भी विद्यमान है। तीसरा कार्य प्रकृती स्वयं का निष्पक्ष भाव से जीव का हर प्रकार से रक्षात्मक सहोग कवच की भाती बन कर कर रही है।
जब पृथवी के दो टुकड़े हो गये उसके बाद पृथवी पर बहुत सालों तक सूर्य का प्रकाश पृथवी की सतह तक नहीं आसका क्योंकि धुमकेतु के टकराने से इतना भयानक बिस्फोट हुआ जिसकी कल्पना हम नही कर सकते है। चन्द्रमा पृथवी के जिस हिस्से से अलग हुआ वहां पृथवी में बहुत बड़ा गड्ढा बन गया जो करीब बारह किलोमिटर गहरा था। जिसमें पानी जो अन्तरीक्ष से बरसता है धिरे-धिरे अपने मिट्टी के कड़ों को बहाकर ले जा कर उसमें जमा एकत्रीत होने लगा। जो सबसे गहरा महा सागर प्रशान्त के रूप में आज पृथवी पर विद्यमान है। क्योंकि चन्द्रमा के उपर का जो पर्वत है वह ठीक उतना ही उचां है जितना गहरा प्रशान्त महासागर है। अर्थात पृथवी का वही का टुकड़ा चांद है जहां आज प्रशान्त महासागर के रूप में है।
जब पृथवी से चंद्रमा अलग हुआ जिसकी वजह से धुल - धुसर का बवन्डर गुबार पृथवी के वायुमंल में दसों दिशाओं से छा गये, और पृथवी का सतह बहुत तिब्रता ठंडा होने लगा। जिस प्रकार से एक वाल्टी में बहुत सारे पदार्थों के कुछ बहुत हल्के कचरें को पानी घोल कर कुछ समय के लिये किसी ठंडे स्थान पर रख दे तो जो कचरा का भारी हिस्सा होगा वह तलहटी में जम जायेगा और जो हल्का होगा यह सबसे उपर पानी में तैरने लगेगा, ठीक इसी प्रकार से पृथवी के साथ हुआ। एक प्रकार से पृथवी जैसे किसी लिफाफे में बन्द हो गई। और लाखों वर्षों तक सुर्य के प्रकाश से दूर रही। पृथवी में उपस्थित बिभिन्न प्रकार की गैसे पानी को पाकर अपने को वास्पित करके पृथवी की सतह से उपर उठने लगी जो गैस ज्यादा द्रव्यमान वाली थी वह निचे रही, और जो बहुत अधिक हल्की थी वह पृथवी की सतह से बहुत उपर उठकर अपने चर्मोत्कर्ष पर जाकर जमने लगी जैसे ओजोन की परत है। जिसके कारण सूर्य की बैगनी खतरनाक किरणें पृथवी की सतह पर नही आ पाती है वह ओजन की परत से टकरा कर जिस प्रकार सीसा किसी सूर्य के प्रकाश की किरोणों वापिस उसी दिशा में भेज देता है, ठीक इसी प्रकार से यह पारदर्शी ओजोन की परत पृथ्वी के लिये वह अवस्था पैदा करने लगा जिससे कोई जीव यहां पर जीवित रह सके, एक प्रकार से यह ओजोन पर जीवन के लिए पृथवी पर किसी प्राणी के लिये सुरछा कवच का कार्य करती है। ओजोन की परत आक्सिजन के दो कणों से मिल कर बनी है। पानी में आक्सिजन का केवल एक अणु है जो दो अणु हाइड्रोजन का लेकर पानी का एक परमाणु बनाता है। यह ओजोन कि परत बनने के बाद जो पानी अन्तरिक्ष से सिधा पृथवी की सतह पर बरषाता था वह भी बन्द होग इस परत के कारण पानी के कणों में विद्यमान आक्सिजन ओजोन के कणों के साथ रासायनिक अभीक्रिया कर ओजोन की परत को और सक्त करने लगा, जिसके कारण पानी का दूसरा कण हाइड्रोज उससे दूर सूर्य कि कीरणों के साथ मिल कर जाने लगा। इस प्रकार से पृथवी पहले से विद्यमान पानी जब पुनः सुर्य प्रकाश का ताप पृथवी की सतह पर आना प्रारम्भ हुई शुद्ध रूप में तो यह जीवन के लिये सहयोगी बना, और दूसरी तरफ पृथवी पर उपस्थित पानी वास्पित हो कर पृथवी के वायुमंडल में बादल के रूप में एकत्रीत होने लगा और समय - समय पर जैसे पृथ्वी जब सूर्य के करीब से गुजरती तब यह बादल पानी की बुदों के रुप में बरषने लगे, इस प्रकार से पृथवी पर ऋतुए मौसम का प्रारम्भ हे गया। सर्दि, गर्मी, बरसात, बसन्त पतझण इत्यादी।
अभी भी पृथवी काफि गरम थी फर्क सिर्फ यह आया था की लाखों करोंणों सालों तक बारिष हुई, जब पृथवी से चन्द्रमा अलग नहीं हुआ था । वारिष का पृथवि पर यह असर पड़ा कि पृथवी के सम्पर्क में आने से पहले ही पानी की बुदें वास्प में परीवर्तन होती रही, यह प्रकृया लाखों सालों तक चलता रहा। यह वास्प जब पृथवी के सतह पर बहुत सघन हो गये तो स्टिम की एक मोटी परत पृथवी के सतह से कुछ किलोमिटर उपर तक बना लिया। इस वास्प स्टिम के कई किलोमिटर उपर ठिक उससे सट कर झाग फाग कोहरे बादलों का कई एक किलोमिटर मोटाई में चारो तरफ लेयर की परत बन गई। ठीक इसके उपर बर्फ की मोटि परत कई एक किलोमिटर मोटी पर बन गई। जिस प्रकार से पृथवी का उत्तरिय और दक्षिणी ध्रुव है जहां विसों किलोमिटर मोटाई में समन्दर के वर्फ की परत है। यहां फर्क यह है कि यह बर्फ की मोटी परत समन्दर के ठंडे पानी के उपर है । जबकि पहले जो पृथवी के चारों तरफ बर्फ की कई एक कीलोमिटर की जो परत थी वह फाग कोहरें, बादलों और स्टिम, भाप के उपर थी। उसके निचे पृथवी ज्वलन शिल भयंकर गैसों की पिंड थी पृथवी के केन्द्र से सतह के विच में लग- भग तीस से चालिस किलोमिट अन्दर तक कुछ बिल्कुल तरल बिभिन्न प्रकार की गैसे उसके उपर ठोस और सबसे उपर सतह से कुछ किलो मिटर तक भयंकर गैसों की वास्प की परत थी। जब पृथवी से धुमकेतु टकराया उसके परणा स्वरूप पृथवी से चन्द्रमा अलग हुआ। और जब सूर्य कि कीरणों से पृथवी का सिधा सम्पर्क ना होने के कारण । क्योंकि पृथवी से धुमकेतु के टक्कर के बाद धुल -धुसर का बवन्डर कई एक ससालो तक पृथवी के चारों तरफ फैला रहा जिसके परिणाम स्वरूप ही पृथवी का वायुमंड बना और पृथवी पर मौसम ऋतुवों का अभिर्भाव हुआ। अब तक पृथवी पर पानी का बहुत बड़ा भंडार जमा हो चुका था कई लाखों साल अंतिछ से बारीष होने के कारण। जब पृथवी पर सूर्य का प्रकाश नही आरहा था उसम पृथव की सतह ठंडी होने के कारण सारा वास्प जो पृथवी के सतह के ठीक उपर जमा था कई एक किलोमिट वह सब जम कर बर्फ का रूप धारण करने लगे। और पृथवी बहुत अधिक ठंडी होगई कई किलोमिटर अन्दर तक सतह से बिल्कुल ठोस रूप होगई। इस तरह धुमकेतु से जब कई सौ सालों के बाद जब सब धुल - धुसर चन्द्रमा के पृथवी के अलग होने के कारण उठ रहे थे। सब शान्त और व्यवस्तित होगये। और उजोन की परत के कारण वायुमंडल बन गया पृथवी पर, सूर्य का प्रकाश शुद्ध रूप से बिना बैगनी किरणों के पृथवी की सतह तक पुनः आने लगे। तब उसके बाद सिर्फ बारीष चार महिनों तक होने लगी, चार महिने गर्मि और चार महीने सर्दी पड़ने लगी। जब बारीष होती तो वह पानी रूप तरल बन कर बर्फ के निचे बह कर हर तरफ से उस स्थान पर एकत्रीत होने लगा जो बिशाल गड्ढा पृथवी चन्द्रमा के निकलने के कारण बना था। पानी के साथ बहुत सारे रसायन मिट्टि के कण भी बर्फ की परत के निचे उस गड्ढें में जाकर एकत्रीत होने लगे, लाखों सालों तक यह प्रक्रिया चलने के कारण उस गड्ढे में सबसे उपर बर्फ उसके निचे पानी तरल रूप में खारा कई किलो मिटर निचे पृथवी के समकछ सतह तक भर गया जिसमें कोई लहर नहीं थी ना ही उसमें कोई ज्वार भाटा ही आता था। क्योंकि सारा पानी बर्फ के निचे विद्यमान था। उस पानी के निचे जो पृथवी के चारों तरफ से काचड़ा बह कर जाता था वह पानी केनिचे एकत्रीत होने लगा। जो आगे चल कर लाखों सालों में पर्वत बन कर उभर पृथवी कि सतह से उपर, इसके पिछे कारण है कि पृथ्वी दोनों ध्रुओं से बधी एक बिशाल चट्टान रूप है जो फैल तो सकती नहीं, और पान या बर्फ पृथवी की सतह से उपर जा नही सकेत क्योंकि पृथवी इतनी तीब्रता से घुम रही है पुरब से पश्चिम की तरफ इस तरह से एक बैक्युम बन गया है। जो पृथवी को फैलने स रोकता है समन्दर के अन्दर पर्वत बनने का कारण बना। इस तरह से पृथवी पर उपस्थित समन्दर से हिमालय रूपी सर्वप्रथम पर्वत का जन्म हुआ जो समन्दर की सतह से आज लगभग नौ किलोमिटर उचां है और आज भी वह बढ़ रहा है। जहां आज पृथवी पर हिमालय पर्वत है कभी वहां बहुत लाखों करोड़ों साल पहले टेनिथ नामक समन्दर हुआ करता था। आज भी हिमालय पर बहुत बड़ी मात्रा में बर्फ के अतिरीक्त उसकी चोटियां नमक से ढकी है। जो यह सिद्ध करती है की यह समन्दर से आई है।
जैसा की ध्रूओं पर है ऐसा ही पृथवी के चारों तरफ बर्फ था । पहले जब हिमालय नहीं था ना ही कोई समन्दर ही था। जो अभी पृथवी के वायुमंडल गरम होने के कारण बहुत तिब्रता से ध्रुओं की बर्फ गल कर समन्दर के पानी में मिल कर समन्दर की सतह को उचां कर रहा ऐसा ही चलता रहा तो कुछ एक सौ सालों के अन्दर ही समन्दर के किनारे जो बड़े - बडे़ देश बशायें गयें है वह सब समन्दर में डुब जायेगें। ऐसा पहले भी हो चुका है। समन्दर में महाभारत कालिन कृष्ण की द्वारीका नगरी जो अहमदा के पास थी वह समन्दर में समा गई है । समन्दर के एक या दो किलोमिटर अन्दर आज भी कृष्ण की नगरी द्वारीका का अवषेश विद्यमान है।
क्रमशः
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