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यजुर्वेद प्रथम अध्याय छठा मंत्रभाष्यः-

यजुर्वेद प्रथम अध्याय छठा मंत्रभाष्यः-

  
       किसने सत्य और असत्य छोड़ने की आज्ञा दी है यह उपदेश अगले मंत्र में दिया जा रहा है।
         ओ३म् कस्त्वा युनक्ति त्वा युन्क्ति कस्मै त्वा युनक्ति तस्मै त्वा युनक्ति कर्मणे वां वेशाय वाम्।।६।।
           पदार्थः- (कः) कौन सुख स्वरूप (त्वा) तुझको अच्छी-अच्छी क्रियायों के सेवन करने के लिए (युनक्ति) आज्ञा देता है। (सः) वह जगदिश्वर (त्वा) विद्या आदिक शुभ गुणों को प्रकट करने के लिए विद्वान अथवा विद्यार्थि होने की (युनक्ति) आज्ञा देता है। (कस्मै) किस-किस प्रयोजन के लिए (त्वा) मुझको और तुझको (युनक्ति) युक्त करता है (तस्मै) पूर्वोक्त सत्यव्रत के आचरण रूप यज्ञ के लिए (त्वा) धर्म के प्रचार के प्रचार करने में उद्योगी को (युनक्ति) आज्ञा देता है। (सः) वही ईश्वर (कर्म्मणे) उक्त श्रेष्ठ कर्म करने के लिए (वाम्) कर्म करन अथवा कराने वालों को नियुक्त करता है। (वेषाय) शुभ गुण अथवा विद्यायों में व्याप्ति के लिए (वाम्) विद्या पढ़ने और पढ़ाने वाले हम-तुम लोगों को उपदेश करता है।   
   भावार्थः- इस मंत्र में प्रश्न और उत्तर से परमेश्वर जीवों के लिए उपदेश करता है। जब कोई पुछें कि कौन तुम्हें सत्य कर्मों को करने के लिए उपदेश देता है। इसका उत्तर यह है कि प्रजापती परमेंश्वर वेद के द्वारा सभी अच्छेःअच्छे कर्मों को करने का प्रेरणा और उपदेश करता है।
    हमारे जीवन में जो भी अच्छी- बुरी परिस्थितियाँ आती हैं, वे हमारे कर्मों के फल हैं। मानव जीवन के रूप में परमात्मा ने हमें एक सुअवसर प्रदान किया है कि सत्कर्म करते हुए हम अपने जीवन को उन्नति के मार्ग पर ले जाएँ। कुकर्मों द्वारा इसका सर्वनाश न करें। भगवान ने हमें इस संसार में भेजा है, जिससे हम सभी प्राणियों के कल्याण हेतु अपनी प्रतिभा व क्षमता का नियोजन कर सकें। अपने पुरुषार्थ से अपने पाप कर्मों का प्रायश्चित्त भी करें और सत्कर्मों द्वारा पुण्यफल भी प्राप्त करें। हम स्वयं को पहचानें और पूर्ण आस्था व ईश्वर विश्वास के साथ कर्मपथ पर बढ़ते रहें तो हमें पग- पग पर ईश्वरीय सहायता भी मिलती रहेगी। ईश्वर केवल उन्हीं की सहायता करता है, जो अपनी सहायता स्वयं करना चाहते हैं। हमें सतत सतर्क रहकर इसी विश्वास के साथ अपनी जीवनचर्या का निर्धारण करना होगा, तभी हम सफलतापूर्वक वर्तमान जीवन की तमाम चुनौतियों से पार पा सकेंगे। पुरुषार्थ चतुष्टय का ताप्तर्य है कि हमारा पुरुषार्थ चार बिंदुओं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पर आधारित हो। विद्वान मनीषियों ने गहन चिंतन- मनन के बाद हमारे कर्मों के लिए यह चार आधार निश्चित किये थे और इनका क्रम भी। उन्होंने उत्तम, चरित्रवान, सुसंस्कारित और परिष्कृत व्यक्तियों से युक्त समाज का निर्माण करने के लिए धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की नसैनी हमें सौंपी थी।
    धर्म- जियो और जीने दो
      धर्म कोई उपासना पद्धति नहीं है। यह तो एक विराट् एवं विलक्षण जीवनचर्या है, जीवन जीने की कला है। ऋषि परम्परा द्वारा सिंचित, अवतारों और महापुरुषों द्वारा संरक्षित धर्म का महावृक्ष सनातन काल से पल्लवित एवं संवर्द्धित होता चला आ रहा है। इसमें स्वका स्वार्थ नहीं है। इसकी छत्रछाया में समस्त विश्व जीवेत एवं जीवयेत’ (जियो और जीने दो) के सिद्धान्त का पालन करते हुए सुख- शांतिपूर्वक जीवनयापन का आनन्द भोगता है। देश- विदेश में फैले अनेकानेक मत- मतान्तरों, उपासना पद्धतियों, कर्मकाण्डों के सह अस्तित्व के साथ अपने सांस्कृतिक एवं नैतिक मूल्यों में उत्तरोत्तर वृद्धि करना ही धर्म का मूल उद्देश्य है। इसी को हिन्दुत्व भी कहते हैं। धर्म ही मानव के समस्त क्रिया- कलापों को संचालित करके संपुष्ट समाज रचना को आलंबन प्रदान करता है। व्यक्ति, परिवार, समाज या राष्ट्र जब भी धर्म से परे हटकर अधर्म के कार्यों में लिप्त हो जाते हैं, वह अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का कार्य ही करते हैं। धर्म का अर्थ है कर्त्तव्य। मनुष्य का मनुष्य के प्रति कर्त्तव्य, अन्य प्राणियों के प्रति कर्तव्य, पेड़- पौधे व पर्यावरण के प्रति कर्त्तव्य, समाज और राष्ट्र के प्रति कर्त्तव्य। पूरी निष्ठा व ईमानदारी से, निःस्वार्थ भाव से अपने कर्त्तव्य का पालन करना ही सच्चा धर्म है, यही मानव धर्म है। हिंदू हो या मुसलमान, सिख हो या ईसाई, पारसी हो या यहूदी, यह तो सभी के लिए समान है।
     अर्थ उपार्जन यज्ञभाव से हो
      धर्म के बाद दूसरा स्थान अर्थ का है। अर्थ के बिना, धन के बिना संसार का कार्य चल ही नहीं सकता। जीवन की प्रगति का आधार ही धन है। उद्योग- धंधे, व्यापार, कृषि आदि सभी कार्यो के निमित्त धन की आवश्यकता होती है। यही नहीं, धार्मिक कार्यो, प्रचार, अनुष्ठान आदि सभी धन के बल पर ही चलते हैं। अर्थोपार्जन मनुष्य का पवित्र कर्त्तव्य है। इसी से वह प्रकृति की विपुल संपदा का अपने और सारे समाज के लिए प्रयोग भी कर सकता है और उसे संवर्द्धित व संपुष्ट भी। पर इसके लिए धर्माचरण का ठोस आधार आवश्यक है। धर्म से विमुख होकर अर्थोपार्जन में संलग्न मनुष्य एक ओर तो प्राकृतिक संपदा का विवेकहीन दोहन करके संसार के पर्यावरण संतुलत को नष्ट करता है और दूसरी ओर अपने क्षणिक लाभ से दिग्भ्रमित होकर अपने व समाज के लिए अनेकानेक रोगों व कष्टों को जन्म देता है। यही सब तो आजकल हो रहा है। धर्म ने ही हमें यह मार्ग सुझाया है कि प्रकृति से, समाज से हमने जितना लिया है, अर्थोपार्जन करते हुए उससे अधिक वापस करने को सदैव प्रयासरत रहें। हमारी यज्ञ परंपरा भी इसी उत्कृष्ट भावना पर आधारित है।
     काम - त्यागभाव से भोग करो
      धर्म और अर्थ के बाद काम को तीसरा स्थान दिया गया है। काम को धर्म और अर्थ दोनों पर ही आश्रित होना चाहिए। काम तो जीवन की प्राण- शक्ति है। यदि मनुष्य में कामना ही नहीं होगी, कुछ करने व पाने की लालसा नहीं होगी, तो वह मृतप्राय हो जाएगा। प्रगति का चक्र रुक जाएगा। कामेच्छा से प्रेरित होकर ही मनुष्य तरह- तरह के आविष्कार करता है, भौतिक सुख के साधन तैयार करता है और इसी में बहुमुखी प्रगति के दर्शन होते हैं। परन्तु हमारे धर्मग्रंथों ने तेन त्यक्तेन भुंजीथाका मंत्र भी तो हमें दिया है। त्याग भाव से भोग करो। संसार में जो कुछ भी है, समाज के लिए है। धर्मानुसार, विवेकपूर्ण चिंंतन के आधार पर ही उसका उपभोग करो। पहले त्याग करो, अन्य सभी का ध्यान रखो, फिर स्वयं उपभोग करो। दूसरों को खिलाकर तब स्वयं खाओ। काम को, अपनी इच्छाओं व लालसाओं को सबसे ऊपर समझकर उनके भार से समाज को जर्जर मत बनाओ अन्यथा अंततोगत्वा वह तुम्हारे ही संहार का कारण बनेगा।
     मोक्ष - जीवन आनंदमय हो
      मोक्ष का स्थान अंत में आता है। यह हमें तभी प्राप्त हो सकेगा जब हमारा अर्थ व काम दोनों ही धर्म से संचालित होंगे। धर्मानुसार आचरण न करने पर हमें अर्थ- सुख तो मिल सकता है, पर मन के कलुष व अशांति के अतिरेक में मोक्ष कहाँ मिलेगा? बाह्यदृष्टि से हम भले ही धन- धान्य, वैभव व सम्पन्नता से परिपूर्ण दिखाई दें, परन्तु अनगढ़, असभ्य और असंस्कृत होने से हम आर्थिक दृष्टि से भी कहीं अधिक घाटे में रहते हैं। दरिद्रता वस्तुतः असभ्यता की प्रतिक्रिया मात्र ही है। आलसी, प्रमादी, दुर्गुणी, दुर्व्यसनी मनुष्य या तो उचित अर्थोपार्जन कर ही नहीं पाते और यदि कुछ अर्जित भी कर लेते हैं तो उसे नशेबाजी व अन्य फिजूलखर्चियों में नष्ट कर देते हैं। मन में हर समय अशांति व भय बना रहता है। ऐसे में मोक्ष की कल्पना रात्रि में सूरज की खोज के समान है।
       पुरुषार्थ दो शब्दों से बना है- पुरुष तथा अर्थ। पुरुष का अर्थ है विवेकशील प्राणी तथा अर्थ का मतलब है लक्ष्य। इसलिए पुरुषार्थ का अर्थ हुआ विवेकशील प्राणी का लक्ष्य। एक विवेकशील प्राणी का लक्ष्य होता है परमात्मा से मिलन। इसके लिए वह जिन उपायों को अपनाता है वे ही पुरुषार्थ हैं। हिंदू चिंतन के अनुसार इस पुरुषार्थ के चार अंग हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। हमारे महान ऋषियों ने मानव जीवन में इन अंगों को अनिवार्य मानते हुए इन्हें अपनाने का उपदेश दिया है। पुरुषार्थों में पहला स्थान धर्म का है। जीवन में जो भी धारण किया जाता है वही धर्म कहलाता है। धर्म मनुष्य को अच्छे कार्यों की ओर ले जाता है। वह व्यक्ति की विभिन्न रुचियों, इच्छाओं और आवश्यकताओं के बीच एक संतुलन बनाए रखता है। 'महाभारत' के अनुसार धर्म वही है जो किसी को कष्ट नहीं देता। धर्म में लोककल्याण की भावना निहित है। मनु के अनुसार जो व्यक्ति धर्म का सम्मान करता है, धर्म उस व्यक्ति की सदैव रक्षा करता है। धर्म के मार्ग पर चलकर व्यक्ति इस संसार में तथा परलोक में शांति प्राप्त कर सकता है। मनुष्य समाज में रहकर अनेक प्रकार के क्रियाकलाप करता है। धर्म उसके सामाजिक आचरण को एक निश्चित और सकारात्मक रूप देता है। अर्थ का सीधा संबंध जीवनयापन करने में सहायक भौतिक उपादानों से है। अधिकांश लोगों का मानना है कि भारतीय संस्कृति में परलोक एवं मोक्ष को ही प्रमुखता दी गई है, इहलोक (सांसारिक जीवन) वहां उपेक्षित है। यह एक गलत धारणा है। वास्तव में भारतीय संस्कृति में इहलोक एवं परलोक दोनों को समान महत्व दिया गया है। मनुष्य के इहलौकिक एवं पारलौकिक उद्देश्यों के मध्य जितना उदात्त एवं उत्कृष्ट सामंजस्य भारतीय संस्कृति में है उतना किसी अन्य संस्कृति में नहीं। इसी सामंजस्य के कारण ही भारत जहां दर्शन के क्षेत्र में ऊंचाई पर पहुंचा, वहीं उसकी भौतिक उपलब्धियां भी विशिष्ट रहीं। यह सही है कि भारतीय संस्कृति में मनुष्य का अंतिम लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना है, किंतु अर्थ का महत्व भी इस संस्कृति में कम नहीं है। अर्थ को यदि जीवन का अंतिम लक्ष्य माना जाता तो भारत संभवत: अर्थ का दास बनकर ही रह जाता। भारतीय संस्कृति में पुरुषार्थों के अंतर्गत काम की भी गणना की गई है। मनुष्य के जीवन में काम का भी उतना ही महत्व है, जितना धर्म व अर्थ का। मनुष्य की रागात्मक प्रवृत्ति का नाम है- काम। आहार, निदा, भय एवं काम मनुष्य एवं पशुओं में सामान्य रूप से पाए जाते हैं, मगर मनुष्य एक सामाजिक एवं बुद्धिसंपन्न प्राणी है। वह प्रत्येक कार्य बुद्धि की सहायता से करता है। पशुओं में काम स्वाभाविक रूप से होता है। उनमें विचार तथा भावना नहीं होती है। मनुष्य का काम संबंध शिष्ट एवं नियंत्रित होता है। मनुष्य के इस व्यवहार को मर्यादित करने के लिए स्त्री-पुरुष संबंध को स्थायी, सभ्य एवं सुसंस्कृत रूप दिया गया। विवाह द्वारा मनुष्य की उच्छृंखल काम वासना को मर्यादित किया गया। भारतीय परंपरा में काम का उद्देश्य संतानोत्पत्ति माना गया है, काम वासना की पूर्ति नहीं। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन चारों पुरुषार्थों में गहरा संबंध है। मोक्ष से धर्म का प्रत्यक्ष संबंध है। सभी प्राणी केवल धर्म का आश्रय ग्रहण कर तथा उसी के अनुसार आचरण कर मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकते हैं। इसलिए कहा गया है कि मनुष्य अर्थ एवं काम का सेवन करता हुआ मोक्ष को प्राप्त करे। कौटिल्य ने कहा है कि व्यक्ति संसार में रहकर सारे ऐश्वर्य प्राप्त करे, उपभोग करे, धन संचय करे, किंतु सब धर्मानुकूल हो। उनके मूल में धर्म का अनुष्ठान हो। काम के लिए भी वात्स्यायन ने कामसूत्र में कहा है कि वही काम प्रवृत्ति पुरुषार्थ के अंतर्गत आ सकती है जो धर्म के अनुरूप हो। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि धर्मपूर्ण काम में ईश्वर विद्यमान रहता है। इस प्रकार धर्मानुकूल अर्थ व काम का सेवन करने से मनुष्य परम पुरुषार्थ- मोक्ष के समीप पहुंचता है। पुरुषार्थ की अवधारणा भौतिक एवं आध्यात्मिक जगत के बीच संतुलन स्थापित करती है। पुरुषार्थों के माध्यम से ही मनुष्य के जीवन का सर्वांगीण विकास हो पाता है। पुरुषार्थ का सिद्धांत भारतीय संस्कृति की आत्मा है।
     जो ज्ञान वान या विद्यावान है वहीं आत्मवान है इसके विपरित अज्ञानवान जो आत्मा की सत्ता को नकारता है जिसमें अविद्या है जो अज्ञान का प्रचार करता है जैसा की ईश्वर उपदेश करता है की सत्य का ज्ञान का सभी प्रकार की विद्यायों को पहले अर्जन करों फिर उनका प्रचार करों लोगों को उपदेश करों।
   अविद्या शब्द का प्रयोग माया के अर्थ में होता है। भ्रम एवं अज्ञान भी इसके पर्याय है। यह चेतनता की स्थिति तो हो सकती है, लेकिन इसमें जिस वस्तु का ज्ञान होता है, वह मिथ्या होती है। सांसारिक जीव अहंकार अविद्याग्रस्त होने के कारण जगत् को सत्य मान लेता है और अपने वास्तविक रूप, ब्रह्म या आत्मा का अनुभव नहीं कर पाता। एक सत्य को अनेक रूपों में देखना एवं मैं, तू, तेरा, मेरा, यह, वह, इत्यादि का भ्रम उसे अविद्या के कारण होता है। आचार्य शंकर के अनुसार प्रथम देखी हुई वस्तु की स्मृतिछाया को दूसरी वस्तु पर आरोपित करना भ्रम या अध्यास है। रस्सी में साँप का भ्रम इसी अविद्या के कारण होता है। इसी प्रकार माया या अविद्या आत्मा में अनात्म वस्तु का आरोप करती है। आचार्य शंकर के अनुसार इस तरह के अध्यास को अविद्या कहते हैं। संसार के सारा आचार व्यवहार एवं संबंध अविद्याग्रस्त संसार में ही संभव है। अत: संसार व्यवहार रूप से ही सत्य है, परमार्थत: वह मिथ्या है, माया है। माया की कल्पना ऋग्वेद में मिलती है। यह इंद्र की शक्ति मानी गई है, जिससे वह विभिन्न रूपों में प्रकट होती है। उपनिषदों में इन्हें ब्रह्म की शक्ति के रूप में चित्रित किया गया है। किंतु इसे ईश्वर की शक्ति के रूप में अद्वैत वेदांत में भी स्वीकार किया गया है। माया अचितद्य तत्व है, इसलिए ब्रह्म से उसका संबंध नहीं हो सकता। अविद्या भी माया की समानधर्मिणी है। यदि माया सर्वदेशीय भ्रम का कारण है तो अविद्या व्यक्तिगत भ्रम का करण है। दूसरे शब्दों में समष्टि रूप में अविद्या माया है और माय व्यष्टि रूप में अविद्या है। शुक्ति में रजत का आभास या रस्सी में साँप का भ्रम उत्पन्न होने पर हम अधिष्ठान के मूल रूप का नहीं देख पाते। अविद्या दो प्रकार से अधिष्ठान का "आवरण" करती है। इसका अर्थ यह हुआ कि वह अधिष्ठान के वास्तविक रूप को ढँक देती है। द्वितीय, विक्षेप कर देती है, अर्थात् उसपर दूसरी वस्तु का आरोप कर देती है। अविद्या के कारण ही हम एक अद्वैत ब्रह्म के स्थान पर नामरूप से परिपूर्ण जगत् का दर्शन करते हैं। इसीलिए अविद्या को "भावरूप" कहा गया है, क्योंकि वह अपनी विक्षेप शक्ति के कारण ब्रह्म के स्थान पर नानात्य को आभासित करती है। अनिर्वचनीय ख्याति के अनुसार अविद्या न तो सत् है और न असत्। वह सद्सद्विलक्षण है। अविद्या को अनादि तत्व माना गा है। अविद्या ही बंधन का कारण है, क्योंकि इसी के प्रभाव से अहंकार की उत्पत्ति होती है।
      वास्तविकता एवं भ्रम को ठीक ठीक जानना, वेदांत में ज्ञान कहा गया है। फलत: ब्रह्म और अविद्या का ज्ञान ही विद्या कहा जाता है। अद्वैत वेदांत में ज्ञान ही मोक्ष का साधन माना गया है, अतएव विद्या इस साधन का एक अनिवार्य अंग है। विद्या का मूल अर्थ है, सत्य का ज्ञान, परमार्थ तत्व का ज्ञान या आत्मज्ञान। अद्वैत वेदांत में परमार्थ तत्व या सत्य मात्र ब्रह्म को स्वीकार किया गया है। ब्रह्म एव आत्मा में कोई अंतर नहीं है। यह आत्मा ही ब्रह्म है। अस्तु, विद्या को विशिष्ट रूप से आत्मविद्या या ब्रह्मविद्या भी कह सकते हैं। विद्या के दो रूप कहे गए हैं - अपरा विद्या, जो निम्न केटि की विद्या मानी गई है, सगुण ज्ञान से संबंध रखती है। इससे मोक्ष नहीं प्राप्त किया जा सकता। मोक्ष प्राप्त करने का एकमात्र साधन पराविद्या है। इसी को आत्मविद्या या ब्रह्मविद्या भी कहते हैं। अविद्याग्रसत जीवन से मुक्ति पाने के लिए एवं अपने रूप का साक्षात्कार करने के लिए परा विद्या के अंग हैं। यदि अपना विद्या प्रथम सोपान है, तो परा विद्या द्वितीय सोपान है। साधन चतुष्टय से प्रारंभ करके, मुमुक्षु श्रवण, मनन एवं निधिध्यासन, इन त्रिविध मानसिक क्रियाओं का क्रमिक नियमन करता है। वह "तत्वमसि" वाक्य का श्रवण करने के बाद, मनन की प्रक्रिया से गुजरते हुए, ध्यान या समाधि अवस्था में प्रवेश कर जाता है, जहाँ उसे "मैं ही ब्रह्म हूँ" का बोध हो उठता है। यही ज्ञान परा विद्या कहलाता है।
   सुखार्थिनः कुतोविद्या नास्ति विद्यार्थिनः सुखम् । सुखार्थी वा त्यजेद् विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम् ॥
    जिसे सुख की अभिलाषा हो (कष्ट उठाना न हो) उसे विद्या कहाँ से ? और विद्यार्थी को सुख कहाँ से ? सुख की ईच्छा रखनेवाले को विद्या की आशा छोडनी चाहिए, और विद्यार्थी को सुख की ।
    न चोरहार्यं न च राजहार्यंन भ्रातृभाज्यं न च भारकारी । व्यये कृते वर्धते एव नित्यं विद्याधनं सर्वधन प्रधानम् ॥
     विद्यारुपी धन को कोई चुरा नहीं सकता, राजा ले नहीं सकता, भाईयों में उसका भाग नहीं होता, उसका भार नहीं लगता, (और) खर्च करने से बढता है । सचमुच, विद्यारुप धन सर्वश्रेष्ठ है ।
    नास्ति विद्यासमो बन्धुर्नास्ति विद्यासमः सुहृत् । नास्ति विद्यासमं वित्तं नास्ति विद्यासमं सुखम् ॥
    विद्या जैसा बंधु नहीं, विद्या जैसा मित्र नहीं, (और) विद्या जैसा अन्य कोई धन या सुख नहीं ।
ज्ञातिभि र्वण्टयते नैव चोरेणापि न नीयते । दाने नैव क्षयं याति विद्यारत्नं महाधनम् ॥
     यह विद्यारुपी रत्न महान धन है, जिसका वितरण ज्ञातिजनों द्वारा हो नहीं सकता, जिसे चोर ले जा नहीं सकते, और जिसका दान करने से क्षय नहीं होता ।
     सर्वद्रव्येषु विद्यैव द्रव्यमाहुरनुत्तमम् । अहार्यत्वादनर्ध्यत्वादक्षयत्वाच्च सर्वदा ॥
     सब द्रव्यों में विद्यारुपी द्रव्य सर्वोत्तम है, क्यों कि वह किसी से हरा नहीं जा सकता; उसका मूल्य नहीं हो सकता, और उसका कभी नाश नहीं होता ।
      विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनम् विद्या भोगकरी यशः सुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः । विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परं दैवतम् विद्या राजसु पूज्यते न हि धनं विद्याविहीनः पशुः ॥
      विद्या इन्सान का विशिष्ट रुप है, गुप्त धन है । वह भोग देनेवाली, यशदात्री, और सुखकारक है । विद्या गुरुओं का गुरु है, विदेश में वह इन्सान की बंधु है । विद्या बडी देवता है; राजाओं में विद्या की पूजा होती है, धन की नहीं । इसलिए विद्याविहीन पशु हि है ।
     अलसस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम् । अधनस्य कुतो मित्रममित्रस्य कुतः सुखम् ॥
     आलसी इन्सान को विद्या कहाँ ? विद्याविहीन को धन कहाँ ? धनविहीन को मित्र कहाँ ? और मित्रविहीन को सुख कहाँ ?
     रूपयौवनसंपन्ना विशाल कुलसम्भवाः । विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः ॥
    रुपसंपन्न, यौवनसंपन्न, और चाहे विशाल कुल में पैदा क्यों न हुए हों, पर जो विद्याहीन हों, तो वे सुगंधरहित केसुडे के फूल की भाँति शोभा नहीं देते ।
    विद्याभ्यास स्तपो ज्ञानमिन्द्रियाणां च संयमः । अहिंसा गुरुसेवा च निःश्रेयसकरं परम् ॥
    विद्याभ्यास, तप, ज्ञान, इंद्रिय-संयम, अहिंसा और गुरुसेवा ये परम् कल्याणकारक हैं ।
    विद्या ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम्। पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततः सुखम्॥
     विद्या से विनय (नम्रता) आती है, विनय से पात्रता (सजनता) आती है पात्रता से धन की प्राप्ति होती है, धन से धर्म और धर्म से सुख की प्राप्ति होती है ।
     दानानां च समस्तानां चत्वार्येतानि भूतले । श्रेष्ठानि कन्यागोभूमिविद्या दानानि सर्वदा ॥
      सब दानों में कन्यादान, गोदान, भूमिदान, और विद्यादान सर्वश्रेष्ठ है ।
       क्षणशः कणशश्चैव विद्यामर्थं च साधयेत् । क्षणे नष्टे कुतो विद्या कणे नष्टे कुतो धनम् ॥
   एक एक क्षण गवाये बिना विद्या पानी चाहिए; और एक एक कण बचा करके धन ईकट्ठा करना चाहिए । क्षण गवानेवाले को विद्या कहाँ, और कण को क्षुद्र समजनेवाले को धन कहाँ ?
    विद्या नाम नरस्य कीर्तिरतुला भाग्यक्षये चाश्रयो धेनुः कामदुधा रतिश्च विरहे नेत्रं तृतीयं च सा । सत्कारायतनं कुलस्य महिमा रत्नैर्विना भूषणम् तस्मादन्यमुपेक्ष्य सर्वविषयं विद्याधिकारं कुरु ॥

      विद्या अनुपम कीर्ति है; भाग्य का नाश होने पर वह आश्रय देती है, कामधेनु है, विरह में रति समान है, तीसरा नेत्र है, सत्कार का मंदिर है, कुल-महिमा है, बगैर रत्न का आभूषण है; इस लिए अन्य सब विषयों को छोडकर विद्या का अधिकारी बन ।

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