ओ३म् प्रत्युष्टँरक्षः प्रत्युष्टयाअरातयो निष्टप्तँ रक्षो निष्टप्ताअरातयः। उर्वन्तरिक्षमन्वेंमि।।७।।
पदार्थः- मुझको चाहिए कि पुरुषार्थ के साथ (रक्षः) दुष्ट गुण और दुष्ट स्वाभाव वाले मनुष्य को (प्रत्युष्टम्)
निश्चय करके निर्मुल करु (अरातयः) जो राती अर्थात दान आदि धर्म्म से दयाहिन दुष्ट
शत्रु है उनको (प्रयुष्टाः) प्रत्यक्ष निर्मूल करु (रक्षः)अथवा दुष्ट स्वभाव दुष्ट
गुण विद्या विरोधी स्वार्थी मनुष्यों और (निष्टप्तम्) (अरातयः) छल युक्त होके
विद्या को ग्रहण करने अथवा दान से रहित दुष्ट प्राणियों को (निष्टप्तः) निरन्तर
संतापयुक्त करु इस प्रकार करके (अन्तरिक्षम्) सुख को सिद्ध करने वाले उत्तम स्थान
और (उरु) अपार सुख को (अन्वेमि) प्राप्त होऊं।।
भावार्थः- ईश्वर आज्ञा देता है कि सब
मनुष्यों को अपना दुष्ट स्वभाव छोड़ कर विद्या और धर्म के उपदेश से औरों को भी दुष्टता
आदि अधर्म्म के व्यवहारों से अलग करना चाहिए तथा उनको भी बहुत प्रकार के ज्ञान और
सुख देकर सब मनुष्य आदि प्राणणियों को विद्या धर्म्म पुरुषार्थ और नाना प्रकार के
सुखों से युक्त करना चाहिये।
यस्यास्यि वित्तं स नरः कुलीनः स पंण्डितः स
श्रुतिवान गुणज्ञः |स एव
वक्ता स च दर्शनीयः सर्वे गुणाः
काञ्चनमाश्रयन्ति |
यह
मंत्र बहुत सख्त उपदेश दे रहा है कि जो श्रेष्ट मनुष्य है उनको सख्त आदेश है कि की
पहले वब सभी प्रका की दुष्ता को छोड़ कर स्वयं श्रेष्ठता को धारण करें उसके उपरांत
लोगों को भी श्रष्ट बनाने के लिए उद्योग करें और बहुत सख्त हो कर उनका समुल नष्ट
करें। ईस मंत्र में परमेश्वर कई एक बातो का उपदेश दे रहा है।
1 मुझको पुरुषार्थ के साथ
चाहिए की जो दुष्ट स्वभाव के मनुष्य है उनका निश्चय करके निर्मुल करु, इसमें दो
बातें है पहले की यह निश्चय करे कि कौन दुष्ट मनुष्य है? दूसरी बात की उनका निर्मुल सर्वानाश करु यह
करने के लिए स्वय को बहुत ताकत वर बनाना होगा जैसा की राज नेता या प्रधान मंत्री
बनना होगा क्योंकि साधरण मनुष्यों के लिए यह कार्य आसान नहीं है।
2 आगे मंत्र स्पष्ट करते
हुए कहता है कि कौन लोग है जो दुष्टों की श्रेणी में आते है पहले वह जो दया हिन है
दूसरें वह है जो दान नहीं देते है धर्म आदि से शुन्य दुष्टता में प्रवृत्ती है
अर्थात लोगों को बिभीन्न प्रकार से कष्ट देते है इनका नाश या समूल निर्मुल करना
है।
3 दुष्ट गुण स्वभाव वाले
लोग है जो छल कपट युक्त है और ज्ञान और विद्या के प्रचार के विरोधी है इनका भी
कर्व नाश करना है।
4 अपार सुख को पाने के
लिये एकान्त अस्थान रिक्त अस्थान पर अन्तरिक्ष में अपने रहने की वयवस्था करके स्वय
को परम सुखी करु।
दुष्ट
स्वभाव का इंसान संसार के लिए विच्छू के समान है। जो चाहे काटे न लेकिन उसके तीखे
कुटिलता भरे शब्द सिर्फ मस्तिष्क को ही नही उसके साथ साथ उसके साथ जुड़े लोगो और
सम्पर्क में आने वाले लोगो को भी उद्देलित कर देती है। वह परमात्मा जो इतना ताकतवर
है। कि वर्षो से कही कही ज्वालामुखी सुलगाता रहता है। उसने वो ही ज्वालामुखी दुष्ट इंसानों के दिलो और
जुबान में भी जला रखी है। जो खत्म नहीं होती। आँखे भिच जाने जबान लटक जाने तक
दुष्ट अपने को इसी आग के सहारे जीवित रखता है। वजह यही तो उसकी ताकत और ऊर्जा।।
दक्ष प्रजापति ने कहा था। सुख और दुःख जो भी
हम दूसरो को देते है और स्वयं उनका कारणभूत हो जाते है,वह कालांतर में
स्वयं को ही प्राप्त होता है।। दुष्ट इंसानों की प्रजाति है।। दुष्टता एक गुण है
अगर गुण न हो तो दुष्ट इसे छोड़ न दे वो इसे संजोये रहता है क्योंकि वह इसे सच और
गुण ही समझता है।। दूसरो को क्रोध और क्षोभ में डाल कर खुद मीठी नींद सो जाओ।।
जो विन्म्र होते है सहनशीलता दयालुता जिनका
गुण होता है वह अपनी विन्म्रता को सृजनात्मक दिशा देते है। शोभित विचारो को
निरन्तर आगे बढ़ाते हैं। अपनी धीर गंभीर प्रवत्ति से नितांजली सोच को उदयीमान करते
है। लोगो के दिल में वस जाते है। वस् दुष्ट भी जाते है। उनकी कर्कश वाणी दिमाग में
सितार जो वजाती रहती है। हाँ वस् धुन मीठी न होकर कर्कश होती है।।
योगज - योगाभ्यास से
मनुष्य की आत्मा में एक विशिष्ट धर्म का उदय होता है। इस धर्म को ही विषय के साथ
इंद्रिय का योगज सन्निकर्ष कहा जाता है। इससे इंद्रियों का सामथ्र्य बढ़ जाता है, जिसके फलस्वरूप
इंद्रियां दूरस्थ और अविद्यमान पदार्थ का भी प्रत्यक्ष करने लगती हैं। उसके प्रभाव
से ही योगी को सर्वेज्ञता की प्राप्ति होती है। नित्य प्रत्यक्ष - इस सन्दर्भ में
यह बात ध्यान देने योग्य है कि उक्त जन्य प्रत्यक्षों से अतिरिक्त एक नित्य
प्रत्यक्ष भी है, जो अजन्मा एवं अविनाशी है। वह प्रत्यक्ष समग्र संसार को
विषय करता है और उपादानप्रत्यक्ष के रूप में सभी कार्यों का कारण होता है। वह
एकमात्र ईश्वर में ही समवेत रहता है।
अनुमान
अनुमान प्रमाण से उन सभी पदार्थों का ज्ञान
किया जाता है जो इंद्रिय द्वारा ज्ञात होने की योग्यता रखते हुए भी दूरस्थ या
अविद्यमान होने के कारण इंद्रिय से ज्ञात नहीं हेते अथवा जिसमें इंद्रिय से ज्ञात
होने की योग्यता ही नहीं होती। इसके दो भेद होते हैं - स्वार्थानुमान और
परार्थानुमान। जिस अनुमान से अपने संशय का निराकरण या अपने आप को साध्य का निश्चय
होता है, उसे "स्वार्थानुमान" तथा जिस अनुमान से अन्य
व्यक्ति - जिज्ञासु, प्रतिवादी या मध्यस्थ -
के संशय का निराकरण या साध्य का निश्चय होता है, उसे
"परार्थानुमान" कहा जाता है। "स्वार्थानुमान" की निष्पत्ति
अन्य पुरुष के वचन की अपेक्षा न कर अपने प्रयास से हेतु में साध्य की व्याप्ति का
ज्ञान अर्जित कर की जाती है और "परार्थानुमान" की निष्पत्ति अन्य पुरुष
के वचन से अर्थात् पंचावयवात्मक न्याय के प्रयोग से व्याप्तिज्ञान प्राप्त कर की
जाती है। इसीलिए गंगेशोपाध्याय ने तत्वचिंतामणि (अनुमान खंड) के अवयवप्रकरण में
स्पष्ट कहा है-
तच्चानुमानं परार्थं न्यायसाध्यमिति
न्यायस्तदवयवाश्च प्रतिज्ञा हेतूदाहरणोपनय निगमनानि निरूप्यन्ते।
न्याय - इसकी परिभाषा आरंभ में बताई गई है।
न्यायशास्त्र में इसके पाँच अवयव माने गए हैं - प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और गिमन।
जिस वाक्य से पक्ष के साथ साध्य के संबंध का ज्ञान हो उसे "प्रतिज्ञा", जिस वाक्य से
हेतु में साध्य की ज्ञापकता अवगत हो उसे "हेतु", जिस वाक्य से
हेतु में साध्य की व्याप्ति बताई जाए उसे "उदाहरण", जिस वाक्य से
पक्ष में साध्यवाक्य हेतु का संबंध बोधित हो उसे "उपनय" और जिस वाक्य के
हेतु का अबाधितत्व एवं असत्प्रतिपक्षितत्व बताते हुए हेतु के सामर्थ्य से पक्ष में
साध्य के संबंध का उपसंहार किया जाए उसे "निगमन" कहा जाता है। उनके
उदाहरण क्रम में इस प्रकार हैं :
1. "पर्वतो
वह्रिमान्" – प्रतिज्ञा 2. "धूमात्" – हेतु 3. "यो यो धूमवान्
स स वह्रिमानं" – उदाहरण 4. तथा चायम् - उपनय' 5. तस्माद्
वह्रिमान् - निगमन
इसी पंचावयवात्मक वाक्य
को वात्स्यायन ने "परम न्याय" कहा है।
अनुमान का स्वरूप
हेतु, व्याप्तिज्ञान या
व्याप्ति ज्ञानसहकृत मन को अनुमान कह जाता है। इनमें तीसरा पक्ष बहुत ही कम
प्रसिद्ध है पर प्रथम दो पक्ष अधिक प्रसिद्ध हैं। उदयनाचार्य तथा उनके अनुयायी
"हेतु" को और गंगेशोपाध्याय तथा उनके अनुयायी व्याप्तिज्ञान को अनुमान
कहते हैं।
अनुमान के भेद
न्याय दर्शन में अनुमान के तीन भेद बताए गए
हैं- पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट। वात्स्यायन ने इन अनुमानों की
निम्नलिखित रूप से दो प्रकार की व्याख्याएँ की हैं :
1. पूर्ववत् = कारण से
कार्य अनुमान जैसे- मेध से भावी वृष्टि का।
2. शेषवत् = कार्य से
कारण का अनुमान जैसे- प्रवाह की पूर्णता, द्रुतगामिता, तृणादियुक्तता से
भूत वृष्टि का।
3. सामन्यतोदृष्ट =
कार्य-कारणभाव का नियमन होने पर भी जैसे- "एक स्थान में देखे गए पदार्थ की
अन्य स्थान में सामान्यता एक सहचरित पदार्थ से अन्य उपलब्धि उस पदार्थ के अन्य
स्थान में जाने से सहचरित पदार्थ का अनुमान ही संभव है"- इस सहचार नियम के
आधार पर प्रात: पूर्व में देखे गए सूर्य को सायंकाल पश्चिम में देखकर सूर्य के
पूर्व से पश्चिम जाने का अनुमान होता है।
1. पूर्ववत् = एक आश्रय
में एक साथ प्रत्यक्ष दो पदार्थों में जैसे- पाकशाला में एक प्रत्यक्ष देखे गए धूम
और एक से दूसरे का पूर्व की भाँति साथ होने का अनुमान वह्रि में धूम से पर्वत
वह्नि का अनुमान
2. शेषवत् = प्रसक्त का
प्रतिषेध और अन्यत्र प्रसक्ति के अभाव से जैसे- भावात्मक होने के कारण द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य शेष
बचनेवाले पदार्थ का अनुमान। विशेष और समवाय में शब्द के अंतर्भाव की प्रसक्ति
होनेपर सत्ता जाति का आश्रय होने से सामान्य, (2) विशेष और
समवाय में एक द्रव्यमात्र में समवेत होने से द्रव्य में और शब्दांतर का कारण होने
से कर्म में अंतर्भाव का निषेध तथा अभाव में भावात्मक शब्द के अंतर्भाव की
अप्रसक्ति से शेष बचने वाले गुण में शब्द के अंतर्भाव का अनुमान।
3. सामान्यतोदृष्ट = जिन
दो पदार्थों में व्याप्यव्यापक भाव संबंध जैसे- इच्छा आदि गुण और आत्मा का परस्पर
संबंध प्रत्यक्ष विदित न हो, किंतु प्रत्यक्ष विदित
संबंध जब प्रत्यक्षविदित नहीं है, किंतु सामान्य
रूप से वाले पदार्थों का सामान्य सादृश्य हो, उनमें गुण और
द्रव्य का संबंध प्रत्यक्षविदित है, इच्छा एक दूसरे
का अनुमान आदि में गुण का एवं आत्मा में द्रव्यत्व रूप से अन्य द्रव्य का सादृश्य
होने के कारण इच्छा आदि गुणों से उनके आश्रय रूप में आत्मस्वरूप द्रव्य का अनुमान।
उक्त तीनों अनुमानों में प्रत्येक के तीन भेद माने जाते हैं-
"केवलान्वयी", "केवलव्यतिरेकी"
और अन्वयव्यतिरेकी। इन भेदों का आधार रघुनाथ शिरोमणि ने साध्य को, उदयानाचार्य ने
व्याप्तिग्राहक सहचार को और गंगेशोपाध्याय ने व्याप्ति को माना है।
रघुनाथ का तात्पर्य यह है कि जिस साध्य का
विपक्ष नहीं होता उस साध्य का अनुमान "केवलान्वयी" अनुमान कहा जाता है, जैसे वाच्यत्व, ज्ञेयत्व आदि
सार्वत्रिक धर्मों का अनुमान; एवं जिस साध्य का
सपक्ष नहीं होता उस साध्य का अनुमान "केवल व्यतिरेकी" अनुमान कहा जाता
है, जैसे गंध से पृथिवी में पृथिवीतरभेद का अनुमान; तथा जिस साध्य
में सपक्ष, विपक्ष दोनों होते हैं उस साध्य का अनुमान
"अन्वयव्यतिरेकी" अनुमान कहा जाता है, जैस घूम से वह्रि
का अनुमान। उदयनाचार्य का आशय यह है कि "अन्वयसहचार" = हेतु में साध्य
का सहचार और "व्यतिरेकसहचार" = साध्याभाव में हेत्वभाव का सहचार, इन दोनों सहचारों
से अन्वयव्याप्ति का ही ज्ञान होता है और उसी से अनुमिति होती है, अत: जिस अनुमिति
के उत्पादक व्याप्तिज्ञान का उदय केवल अन्वयसहचार के ज्ञान से होता है उस अनुमिति
का कारण "केवलान्वयी" अनुमान, एवं जिस अनुमिति
के उत्पादक व्याप्तिज्ञान का जन्म केवल व्यतिरेकसहचार से होता है उस अनुमिति का
कारण "केवल व्यतिरेकी" तथा जिस अनुमिति के उत्पादक व्याप्तिज्ञान का उदय
अन्वयसहचार और व्यतिरेक सहचार दोनों के ज्ञान से होता है उस अनुमिति का कारण
"अन्वयव्यतिरेकी" अनुमान कहा जाता है। गंगेशोपाध्याय का अभिप्राय यह है
कि अनुमिति की उत्पत्ति केवल अन्वयव्याप्तिज्ञान से ही नहीं होती, किंतु
व्यतिरेकव्याप्तिज्ञान से भी होती है, अत: जिस अनुमिति
का जन्म केवल अन्वयव्याप्तिज्ञान से होता है उस अनुमिति का कारण
"केवलान्वयी", एवं जिस अनुमिति का जन्म
केवल व्यतिरेकव्याप्ति के ज्ञान से होता है उस अनुमिति का कारण
"केवलव्यतिरेकी" तथा जिस अनुमिति का जन्म अन्वय और व्यतिरेक दोनों
व्याप्तियों के ज्ञान से होता है उस अनुमिति का कारण "अन्वयव्यतिरेकी"
अनुमान कहा जाता है।
हेतु
जिस पदार्थ में साध्य की व्याप्ति और
पक्षधर्मता के ज्ञान से अनुमिति की उत्पत्ति होती है उसे "हेतु" या लिंग
कहा जाता है। उसके दो भेद होते हैं - "सद्धेतु" और हेत्वाभास (दुष्ट
हेतु)। सद्धेतु में निम्नलिखित पाँच रूप अवश्य होने चाहिए :
1. पक्षसत्व = पक्ष में
रहना 2. सपक्षसत्तव = साध्य के निश्चित आश्रय में रहना 3. विपक्षासत्व = साध्याभाव
के निश्चित आश्रय में न रहना
4. अबाधिकत्व = पक्ष में
साध्य का बाधित न होना। 5. असत्प्रतिपक्षितत्व = पक्ष में साध्याभाव के साधनार्थ
अन्य हेतु के ज्ञान या प्रयोग का न होना । यहाँ उक्त पाँचों के रूपों से संपन्न
होना केवल अन्वयव्यतिरेकी सद्धेतु के लिए ही आवश्यक है। केवलान्वयी सद्धेतु के लिए
"विपक्षसात्व" से अतिरिक्त चार रूपों से ही संपन्न होना अपेक्षित होता
है।
हेत्वाभास - जिसके ज्ञान से अनुमिति उसके
कारणभूत व्याप्तिज्ञान या पक्षधर्मताज्ञान का प्रतिबंध होता है उसे - हेतुगत दोष
अर्थ में - "हेत्वाभास" कहा जाता है और ये दोष जिन हेतुओं में होते हैं
उन्हें- "दुष्ट हेतु अर्थ में"- "हेत्वाभास" कहा जाता है।
हेतुगत दोष के पाँच भेद माने जाते हैं। निम्नलिखित तालिका से यह समझा जा सकता है
कि वे भेद कौन हैं, उनके द्वारा क्या
प्रतिबध्य होता है, तथा उनसे युक्त दुष्ट
हेतुओं के क्या नाम हैं?
क्रमांक हेतुदोष प्रतिबध्य दुष्ट हेतु
1 सव्यभिचार व्याप्तिज्ञान विरुद्ध (अनैकांतिक) 2 विरुद्ध व्याप्तिज्ञान विरुद्ध
3 सत्प्रतिपक्ष अनुमिति सत्यप्रतिपक्षित
(प्रकरणसम) 4 असिद्धि प्राय: अनुमिति व्याप्ति असिद्ध ज्ञान, पक्षधर्मताज्ञान 5 बाध अनुमिति बाधित (कालातीत)
अनुमिति के कारण - लिंग - हेतु का
त्रिविध परामर्श अनुमिति का कारण होता है। "पक्ष हेतु के संबंध का
ज्ञान" प्रथम लिंग परामर्श कहा जाता है- जैसे पर्वत में धूम के संबंध का
"पर्वतो धूमवान्" इस प्रकार का ज्ञान। "हेतु में साध्य की व्याप्ति
का ज्ञान" द्वितीय लिंग परामर्श कहा जाता है - जैसे धूम में, वह्रिव्याप्ति का
"धूमो वह्रि व्याप्य:" इस प्रकार का ज्ञान। पक्ष में साध्यव्याप्य हेतु
के संबंध का ज्ञान" तृतीय या चरम लिंग परामर्श कहा जाता है - जैसे पर्वत में
वह्रिव्याप्य धूम के संबंध का "पर्वतो वह्रिव्याप्य धूमवान्" इस प्रकार
का ज्ञान।
पक्षता - "पक्षता" भी अनुमिति का
एक कारण है। पक्ष में साध्य का निश्चय रहने की दशा में अनुमिति की उत्पत्ति को
रोकने के लिए इसे अनुमिति का कारण माना जाता है। चिर प्राचीन नैयायिकों ने
"साध्यसंशय" को, उदयनाचार्य ने
"अनुमिति विषयक इच्छा" को, पक्षधर मिश्र ने
अनुमितिजनक इच्छा के रूप में "अनुमाता की अनुमिति - इच्छा" को तथा उसके
अभाव में "ईश्वर की इच्छा" को और गंगेशोपाध्याय ने
"सिषाधयिषाविरहविशिष्टसिद्ध्यभाव" को "पक्षता" माना है। गंगेशोपाध्याय
का मंतव्य यह है कि जब पक्ष में साध्य सिद्धि होती है और उस साध्य को अनुमान से
जानने की इच्छा नहीं होती, उसी समय अनुमिति की
उत्पत्ति नहीं होती है; किंतु साध्य को अनुमान से
जानने की इच्छा होने पर पक्ष में साध्यनिश्चय की दशा में भी अनुमिति की उत्पत्ति
होती है। उसके लिए साध्यसंशय या अनुमितता की नियत अपेक्षा नहीं होती।
प्रतिबंध का भाव - यह भी अनुमिति का कारण
है। इसे निम्नलिखित तालिका के अनुसार चार रूप में विभक्त किया जा सकता है।
1 आश्रयासिद्धि पक्ष
में पक्षतावच्छेदक का अभाव; जैसे-आकाशपुष्प को पक्ष
बनाने पर पुरुपरूप पक्ष में आकाशीयत्व रूप पक्षतावच्छेदक का अभाव।
2 साध्याप्रसिद्धि साध्य
में साध्यतावच्छेदक का अभाव; जैसे-आकाशपुष्प को साध्य
बनाने पर पुष्प रूपसाध्य में आकाशीयत्व रूप साध्यताकच्छेदक का अभाव।
3 सत्प्रतिपक्ष पक्ष
में साध्याभावव्याप्य हेतु का संबंध; जैसे-शब्द में
नित्यत्व रूप साध्य के अभाव अनित्य के व्याप्य "जन्यत्व" का संबंध।
4 बाध पक्ष
में साध्य का अभाव जैसे-शब्द रूप पक्ष में नित्यत्व रूप साध्य का अभाव।
इन चारों निश्चयों से
अनुमिति का प्रतिबंध होता है; अत: इन चारों
निश्चयों का अभाव "प्रतिबंधकाभाव" के रूप में अनुमिति का कारण होता है।
व्याप्ति - व्याप्ति ज्ञान को द्वितीय
लिंगपरामर्श के रूप में अनुमिति का कारण कहा गया है। इस व्याप्ति के निर्वचन में
नैयायिकों ने बड़ा पुरुषार्थ प्रदर्शित किया है; क्योंक यही
अनुमान के प्रमाणत्व की आधारशिला है। व्याप्ति मुख्य रूप से दो प्रकार की मानी गई
है - "अन्वयव्याप्ति" और "व्यतिरेकव्याप्ति"। जिस व्याप्ति के
शरीर में - साध्य में हेतु व्यापकत्व - प्रवेश हो उसे सिद्धांतभत अन्वयव्याप्ति
कहा जाता है - जैसे "हेतुव्यापकसाध्यसामानाधिकरण्य"। और जिस व्याप्ति के
शरीर में - हेत्वभाव में साध्याभावव्यापकत्व- का प्रवेश हो उसे
"व्यतिरेकव्याप्ति" कहा जाता हैं - साध्याभावव्यापकाभाव
प्रतियोगित्व"। अन्वयव्याप्ति का तात्पर्य यह है कि हेतु का ऐसे साध्य के
आश्रय में रहना, जिसका हेतु के किसी आश्रय में अभाव न हो। और
व्यतिरेकव्याप्ति का तात्पर्य यह है कि साध्याभाव के आश्रयों में हेत्वभाव का
होना। जैसे - धूमकेतु किसी आश्रय में वह्रि का अभाव न होने से वह्रि धूम का व्यापक
है और उस वह्रि के आश्रय महानस आदि में धूम रहता है; इसी प्रकार
वह्न्यभाव के आश्रयों में धूम का अभाव रहता है; इसलिए धूम में
वह्नि की "अन्वय" और "व्यतिरेक" दोनों व्याप्तियाँ रहती हैं।
व्याप्तिज्ञान के उपाय - व्यातिज्ञान के
तीन साधक माने जाते हैं- "व्यभिचार का अज्ञान," "हेतु में
साध्यसहचार या साध्याभाव में हेत्वभावसहचार" का ज्ञान और "तर्क"।
इनमें प्रथम दो व्याप्तिज्ञान के सार्वत्रिक साधन हैं; पर तर्क सर्वत्र
नहीं क्वचित् ही अपेक्षित होता है। जैसा कि विश्वनाथ ने अपने भाषा परिच्छेद
(कारिकावली) नामक ग्रंथ के गुण प्रकरण में कहा है :
श्रेष्ट मनुष्य समझ बूझकर चलता है”
एक श्रेष्ट इंसान काम-काज में कुशल और मुश्किलों
का हल करने में माहिर होता है। उसमें सही फैसले करने और हर बात को फौरन समजने की
काबिलीयत होती है। साथ ही, वह समझदार, होशियार और अक्लमंद वुद्धिमान होता है। वह
मक्कार या छली नहीं होता। जो इसके विपरीत होते है वह दुष्ट प्रकृति के मुर्ख किश्म
के लोग होते है अपने अज्ञान पूर्ण कर्म के कारण दूसरे सज्जन लोगों को मुसिबत मे
डाल कर स्वंय को आन्नदित महशुस करते है। सब वुद्धिमान समझदार श्रेषेट पुरुष तो
ज्ञान से काम करते हैं।” जी हाँ, चतुराई या होशियारी एक मनभावना गुण है, जिसे अपने अंदर पैदा करने की हमें ज़रूरत है।
हम रोज़मर्रा ज़िंदगी में चतुराई समझदारी से
कैसे काम कर सकते हैं? हम ज़िंदगी के
फैसले करने में, दूसरों के साथ पेश आने
में और अलग-अलग हालात से निपटने में चतुर कैसे हो सकते हैं? होशियार लोगों को क्या प्रतिफल मिलता है? वे किन-किन मुसीबतों से बचते हैं? इन सवालों के जवाब प्राचीन मंत्रों में परमेश्वर
ने उपदेश के रूप में दिए हैं। इनकी जाँच और समझने से हमें बहुत फायदा हो सकता है।
अपना रास्ता वुद्धि से विचार करके चुनिए
ज़िंदगी के फैसले बुद्धिमानी से करने और
कामयाब होने के लिए ज़रूरी है कि हमारे अंदर सही-गलत के बीच फर्क करने की काबिलीयत
हो। मगर इस बारे में वेद मंत्र हमें आगाह एक चेतावनी देती है: “ऐसा मार्ग है, जो मनुष्य को ठीक देख पड़ता है, परन्तु उसके अन्त में एक भयानक और कष्ट पूर्ण मृत्यु
मिलती है। इसलिए हमें यह फर्क करना सीखना चाहिए कि कौन-सी बात वाकई सही है और कौन-सी
बात सिर्फ देखने में सही लगती है, मगर होती नहीं। वेद
मंत्रो और उनके शब्दों से पता
चलता है कि ऐसे कई गलत रास्ते हैं जिन्हें इख्तियार करने से हम धोखा खा सकते हैं।
आइए ऐसे कुछ रास्तों पर गौर करें जिनके बारे में हमें पता होना चाहिए और जिनसे
हमें दूर रहना चाहिए। आम तौर पर दुनिया के दौलतमंदों और नामी-गिरामी लोगों को बहुत
इज़्ज़तदार माना जाता है और उनकी खूब तारीफ की जाती है। समाज में उनके ओहदे और
उनकी दौलत को देखकर लग सकता है कि वे जिस रास्ते पर हैं या उनके जीने का तरीका
बिलकुल सही है। लेकिन वे दौलत या शोहरत कमाने के लिए जो रास्ते अपनाते हैं, उनके बारे में क्या? क्या वे ईमानदारी और सच्चाई के रास्ते पर चलकर
इस मुकाम तक पहुँचे हैं? और अगर धर्म की
बात करें, तो वहाँ भी ऐसे रास्ते
हैं जो सिर्फ दिखने में सही लगते हैं और कुछ लोग अपने धर्म को सही मानकर उसके लिए
काफी जोश दिखाते हैं। मगर क्या उनकी नेक-नीयत से यह साबित होता है कि वे जिस
रास्ते पर हैं, वह सही है? कोई रास्ता शायद हमें इसलिए भी सही जान पड़े
क्योंकि हमने खुद को धोखे में रखा है। जो हमें सही लगता है उसकी बिना पर फैसला
करना, अपने दिल पर भरोसा करना
है। और हमारा दिल हमें गलत राह दिखा सकता है। अगर हमारे विवेक को सही-गलत की अच्छी
समझ नहीं है और उसे सही तालीम न दी गयी हो, तो हम इसके
बहकावे में आकर गलत रास्ते को भी सही मान बैठेंगे। इसलिए सही रास्ता चुनने में
क्या बात हमारी मदद कर सकती है? परमेश्वर के के
वेद वचन की गूढ़ सच्चाइयों का मन लगाकर अध्ययन करना निहायत ज़रूरी है। तभी हम ‘अपनी ज्ञानेंद्रियों को भले बुरे में भेद करने
के लिये पक्का’ कर सकेंगे। इतना ही नहीं, हमें इन ज्ञानेंद्रियों का “अभ्यास” भी करना चाहिए
यानी की वेद मंत्रों के सिद्धांतों को अपने जीवन में लागू करना चाहिए। हमें चौकन्ना
रहना है कि जो डगर सिर्फ देखने में सही लगती है, कहीं उसकी तरफ कदम बढ़ाकर हम ‘जीवन को पहुंचानेवाले सकरे मार्ग’ से भटक न भटक जाए।
क्या यह मुमकिन है कि हमारा मन दुःख से दबा
हो, फिर भी हम
हँसते-मुस्कराते रहें? क्या खिलखिलाकर
हँसने और मौज-मस्ती करने से दिल का दर्द कम हो सकता है? क्या अपनी मायूसी से उबरने के लिए शराब का
सहारा लेना, ड्रग्स का नशा या अपना गम
भुलाने के लिए बदचलन ज़िंदगी जीना चतुराई है? जवाब है नहीं।
बुद्धिमान पुरुष कहता है: “हंसी के समय भी
मन उदास होता है। हँसने से दिल का दर्द छिप सकता है, मगर यह मिटता नहीं। वेद मंत्र कहते पुर्षाथ करों और यह
निश्चय करों क्या श्रेष्ठ है और क्या मिकृष्ट है श्रेष्ठ को जीवन में अस्थान दो और
निकृष्टता का दुष्टता का समुल नाश करें ‘हर एक बात का एक
अवसर होता है।’ यहाँ तक कि “रोने का समय, और हंसने का भी समय; छाती पीटने का
समय, और नाचने का भी समय है।
इसलिए अगर हम किसी वजह से मायूस हैं, तो अपनी भावनाओं
पर काबू पाने के लिए हमें कुछ कदम उठाने चाहिए, और ज़रूरत पड़ने
पर दूसरों से “बुद्धि की सलाह” लेनी चाहिए। हँसने और मन बहलाने से अपना दर्द सहने में
थोड़ी-बहुत मदद मिल सकती है, मगर इनसे ज़्यादा
फायदा नहीं होता। मंत्र हमें खबरदार करता है कि हम गलत किस्म के मन-बहलाव से और
हद-से-ज़्यादा मनोरंजन करने से दुष्टतापूर्ण कर्मों से दूर रहें। मंत्र कहता है: “कि जो निकृष्ट कर्मों और दुष्ट कर्मों के आनन्द
के अन्त में शोक होता है।
परमेश्वर मंत्र के माध्यम से आगे कहता
है: “जिसका मन ईश्वर की ओर से
हट जाता है, वह अपनी चालचलन का फल
भोगता है, परन्तु भला मनुष्य आप ही
आप सन्तुष्ट होता है। जिनका मन परमेश्वर से हट जाता है, ऐसे अविश्वासी लोग, साथ ही भले इंसान, दोनों अपनी-अपनी करनी के फल से कैसे संतुष्ट
होते हैं? अविश्वासी को इस बात की
फिक्र नहीं रहती कि उसे परमेश्वर को लेखा देना पड़ेगा। इसलिए उसे कोई फर्क नहीं
पड़ता कि वह जो कर रहा है, वह परमेश्वर की
नज़र में सही है या गलत। वह बस अपनी
ऐशो-आराम की ज़िंदगी से संतुष्ट रहता है। दूसरी तरफ, एक भला इंसान
हमेशा ऐसे काम करने की कोशिश करता है जो परमेश्वर की नज़रों में सही हैं। वह अपने
हर काम में परमेश्वर के धर्मी स्तरों को मानने की भरसक कोशिश करता है। और इससे
मिलने वाले अच्छे नतीजों से वह संतुष्ट होता है, क्योंकि परमेश्वर का आदेश सर्वोपरि है। वह परमप्रधान परमेश्वर
की सेवा से बेइंतिहा खुशी पाता है। मंत्र बताता है कि एक अनाड़ी और होशियार इंसान
में क्या फर्क होता है, भोला तो हर एक बात को सच मानता है, परन्तु वुद्धिमान मनुष्य समझ बूझकर चलता है। एक
समझदार वुद्धिमान इंसान को आसानी से बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता। वह देखी-सुनी हर
बात पर यकीन नहीं कर लेता, ना ही आँख मूँदकर
दूसरों की राय अपना लेता है। इसके बजाय, वह फूँक-फूँककर
कदम रखता है। वह पहले पूरी जानकारी हासिल करता है और फिर उसके मुताबिक सोच-समझकर
कदम उठाता है। जैसे, इस सवाल को लीजिए
क्या कोई परमेश्वर है? इस बारे में एक
अनाड़ी वही धारणाएँ अपनाता है जो दुनिया में मशहूर हैं या जो बड़े-बड़े लोग मानते
हैं। लेकिन चतुर इंसान समय निकालकर सबूतों को जाँचता है। वह वेद मंत्रों पर गहराई से सोचता विचार करता है।
एक होशियार इंसान आध्यात्मिक मामलों में धर्म-गुरुओं की बात को आँख बंद करके नहीं
मान लेता। वह ‘आध्यात्मिक संदेशों को
परखता है कि वे परमेश्वर की ओर से हैं कि नहीं। वेद मंत्रो की इस सलाह को मानना
कितनी अक्लमंदी है कि हम ‘हर एक बात को सच
मानने’ की गलती न करें पहले
विचार करके यह निश्चय करें क्या गलत है और क्या सही है इस बात पर खासकर उन लोगों को
ध्यान देना चाहिए जिन्हें मंत्रो कोसमझने और में दूसरों को सलाह देने की
ज़िम्मेदारी सौंपी गयी है। किसी को सलाह देने से पहले एक व्यक्ति को मामले की
पूरी-पूरी जानकारी होनी चाहिए। उसे सामने वाले की बात ध्यान से सुननी चाहिए और हर
जगह से सबूत इकट्ठे करने चाहिए ताकि उसकी सलाह गलत या एकतरफा न हो।
वेद मंत्र बुद्धिमान और मूर्ख के बीच एक और
फर्क बताता है: वह कहता है कि जो दुष्ट है दया हिन है छल कपट पूर्ण कर्म करते है
और सत्य ज्ञान विद्या के विरोधी है। “बुद्धिमान डरकर
बुराई से हटता है, परन्तु मूर्ख दुष्ट
ढीठ होकर निडर रहता है। जो झट क्रोध करे, वह मूढ़ता का काम
भी करेगा, और जो बुरी युक्तियां
निकालता है जो सोचने-समझने की काबिलीयत रखत है वुद्धिमान जन उस से दुष्ट लोग बैर रखते हैं।
बुद्धिमान को इस बात का डर रहता है कि गलत
रास्ते पर चलने से उसे बुरे अंजाम भुगतने पड़ेंगे। इसलिए वह एहतियात बरतता है और
उसे बुराई से दूर रहने की जो भी सलाह दी जाती है, उसकी वह कदर करता है। मगर एक बेवकूफ को ऐसा डर नहीं रहता।
उसे अपने ऊपर कुछ ज़्यादा ही भरोसा होता है, इसलिए वह मगरूर
होकर दूसरों की सलाह को अनसुना कर देता है। वह गरम-मिज़ाज होता है, इसलिए वह मूर्खता के ही काम करता है। लेकिन परमेश्वर
ने यह क्यों कहा कि सोचने-समझने की काबिलीयत रखनेवाले इंसान से लोग नफरत करते हैं? मूल मंत्र के जिस शब्द का अनुवाद “सोचने-समझने की काबिलीयत” किया गया है, उसके दो मतलब हैं। एक का इस्तेमाल परख-शक्ति या चतुराई के
लिए हो सकता है, जो कि एक अच्छा गुण है।
दूसरा, दुष्ट विचारों या मंसूबों
के लिए इस्तेमाल हो सकता है। “सोचने-समझने की
काबिलीयत रखनेवाले,” ये शब्द अगर बुरे
मंसूबे रखनेवाले दुष्ट के लिए इस्तेमाल किए गए हैं, तो यह समझना आसान है कि उससे नफरत क्यों की जाती है। लेकिन
यह भी सच है कि जिस इंसान में परख-शक्ति होती है, वह ऐसे लोगों की नफरत का शिकार बनता है जिनमें परख-शक्ति
नहीं होती। उदाहरण के लिए, जो अपनी दिमागी
काबिलीयत का सही इस्तेमाल करके संसार को सुधारने सही मार्ग पर चलने का चुनाव करते
हैं। उनसे संसार बैर करता है।
जब महर्षि स्वामी दयान्नद जवान थे अपनी सोचने-समझने की काबिलीयत का अच्छा इस्तेमाल
करने की वजह से साथियों के दबाव में नहीं आते और गलत चालचलन से दूर रहते हैं, तो उनका मज़ाक उड़ाया जाता है। हकीकत तो यह है
कि जो सच्ची उपासना करते हैं, उनसे पूरी दुनिया
नफरत करती है, क्योंकि यह दुनिया दष्ट शैतान
किस्म के लोगों से भरी है। वुद्धिमान होशियार
या चतुर इंसान और अनाड़ी के बीच एक और फर्क है। “भोलों का भाग मूढ़ता ही होता है, परन्तु चतुरों को ज्ञानरूपी मुकुट बान्धा जाता
है। अनाड़ी लोगों में समझ नहीं होती, इसलिए वे मूर्खता
के काम करना पसंद करते हैं। ऐसे ही काम करना उनकी आदत बन जाती है। दूसरी तरफ, एक चतुर इंसान को ज्ञान होता है और यह ज्ञान
उसकी शोभा बढ़ाता है, ठीक जैसे एक
मुकुट, राजा का सम्मान बढ़ाता
है। इसलिए परमेश्वर उन श्रेष्ट लोगों को आदेश मंत्रो के माध्यम से देता है और कहता
है कि दुष्टों का समुल नाश अपनी वुद्धिमत्ता से करों। क्योंकि कहा गया है कि
वुद्धि यस्य बलम् तस्य जहा वुद्धि है बल वही है वुद्धि हिनस्य कुतस्य बल् आर्थात
वुद्धिहिन के पास कैसा बल।
बुद्धिमान परमेश्वर कहता है: “दुष्ट, भले लोगों के
सम्मुख, और कुटिल, धर्मियों के फाटकों पर सिर झुकाएंगे। दूसरे शब्दों में, आखिरकार दुष्टों पर भले लोगों की ही जीत होगी।
ज़रा गौर कीजिए कि आज परमेश्वर की आशीष से उसके लोगों की गिनती में कितनी बढ़ोतरी
हो रही है, और वे दुनिया के मुकाबले
कितनी बेहतरीन और कामयाब ज़िंदगी जी रहे हैं। हमें मिलने वाली ये आशीषें देखकर
हमारे कुछ विरोधियों को परमेश्वर की लाक्षणिक स्वर्गीय ज्ञान के सामने ‘झुकना’ पड़ेगा, जिसके प्रतिनिधि आज धरती पर बचे हुए अभिषिक्त
जन हैं। उन्हें कैसे झुकना पड़ेगा? चाहे अब नहीं तो भविष्य
में ही सही, इन विरोधियों को कबूल
करना पड़ेगा कि परमेश्वर के संगठन का जो हिस्सा धरती पर है, वह सचमुच स्वर्गीय संगठन का ही प्रतिनिधित्व
करता है। परमेश्वर इंसान की एक फितरत के बारे में कहता है निर्धन का पड़ोसी भी उस
से घृणा करता है, परन्तु धनी के बहु तेरे
प्रेमी होते हैं।” इसलिये परमेश्वर
कहता है कि अपार सुख की कामना करों यह बात असिद्ध इंसानों के मामले में कितनी सच
है! उनके अंदर स्वार्थ भरा होता है, इसलिए वे गरीबों
के बजाय हमेशा अमीरों के साथ होना पसंद करते हैं। मगर एक अमीर इंसान के पास चाहे
कितने ही दोस्त हों, पैसे की तरह वे
भी कुछ समय बाद पंख लगाकर उड़ जाते हैं। इसलिए हमें न तो दूसरों पर पैसे लुटाकर, ना ही अमीरों की चापलूसी करके उन्हें दोस्त
बनाना चाहिए।
अगर यदि ईमानदारी से खुद की जाँच करें तो
हम पाते हैं कि हमें अमीरों की खुशामद करने और गरीबों को नीचा दिखाने की आदत है, तो हमें क्या करना चाहिए? हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि वेद मंत्र ऐसी
तरफदारी की निंदा करती है। यह बताता है जो अपने पड़ोसी को तुच्छ जानता, वह पाप करता है, परन्तु जो दीन लोगों पर अनुग्रह करता, वह धन्य होता है। वह सब को श्रेष्ठ वनाने कि
बात करता है। हमें ऐसे लोगों का लिहाज़ करना चाहिए जो मुश्किल हालात से गुज़र रहे
हैं। यह हम कैसे कर सकते हैं? उन्हें “संसार की संपत्ति” देकर, जिसमें खाना, कपड़ा, पैसा या सिर
छिपाने की जगह देना और उनकी देखभाल करना शामिल है। जो मुसीबत के मारों की मदद करता है उसे खुशी
मिलती है, क्योंकि “लेने से देने में अधिक सुख है। मनुष्य जो कुछ
बोता है, वही काटेगा यह सिद्धांत वुद्धिमान चतुर और मूर्ख दोनों पर
लागू होता है। चतुर इंसान भले काम करता है, जबकि मूर्ख बुरे
काम करने की साज़िश रचता है। बुद्धिमान राजा पूछता है: “जो बुरी युक्ति निकालते हैं, क्या वे भ्रम में नहीं पड़ते?” जवाब है, हाँ; वे ‘भटक जाते हैं। परन्तु भली युक्ति निकालनेवालों
से करुणा और सच्चाई का व्यवहार किया जाता है। भले काम करनेवाले दूसरों की नज़रों
में अच्छा नाम कमाते हैं, साथ ही परमेश्वर
की करुणा भी पाते हैं। कड़ी मेहनत से सफलता मिलती है, जबकि लंबी-चौड़ी बातें करने और काम न करने से
नाकामी हाथ लगती है। इस सच्चाई को वेद मंत्र पुरुषार्थ के इन शब्दों में बताता है:
“परिश्रम से सदा लाभ होता है, परन्तु बकवाद करने से केवल घटी होती है।” बेशक यह
सिद्धांत आध्यात्मिक मामलों पर भी लागू होता है। जब हम परमेश्वर सेवा में कड़ी
मेहनत करते हैं, तो हमें अच्छे नतीजे
मिलते हैं। हम परमेश्वर के वचन की जीवन देनेवाली सच्चाई बहुत-से लोगों को सिखा
पाते हैं। परमेश्वर के संगठन में जो भी काम हमें सौंपा जाता है, उसे बेहतर ढंग से पूरा करने से हमें खुशी और
संतोष मिलता है। बुद्धिमानों का धन उनका मुकुट ठहरता है, परन्तु मूर्खों की मूढ़ता निरी मूढ़ता है।” इसका यह मतलब हो सकता है कि बुद्धिमानों को
अपनी मेहनत से जो बुद्धि हासिल होती है, वह उनके लिए धन
के बराबर अनमोल है। बुद्धि एक मुकुट की तरह उन्हें सम्मानित करती है। दूसरी तरफ, एक मूर्ख को सिर्फ मूर्खता ही हासिल होती है।
एक किताब के मुताबिक, इस मंत्र वचन का
यह मतलब भी हो सकता है कि जो धन का सही इस्तेमाल करते हैं अर्थात दान करते है उनका धन एक गहने की तरह उनका रूप निखारता है जबकि
मूर्खों के हिस्से में सिर्फ मूर्खता होती है। इस मंत्र का अर्थ चाहे जो भी मतलब हो, मगर यह तय है कि एक बुद्धिमान, मूर्ख के मुकाबले ज़्यादा कामयाब होता है। मंत्र आगे कहता है: “सच्चा साक्षी बहुतों के प्राण बचाता है, परन्तु जो झूठी बातें उड़ाया करता है उस से
धोखा ही होता है। हालाँकि यह बात अदालती मामलों में सोलह आने सच है, मगर ध्यान दीजिए कि यह हमारी सेवा पर कैसे लागू
होती है। वेद मंत्रो के प्रचार शिष्य बनाने के काम में हम परमेश्वर के वचन की
सच्चाई की साक्षी देते हैं। हमारा साक्षी, नेकदिल लोगों को
झूठे धर्म के चंगुल से छुटकारा दिलाकर उनकी जान बचाती है। अगर हम खुद पर और अपने
सिखाने के तरीके पर हमेशा ध्यान देते रहें, तो हम अपनी और
अपने सुननेवालों की जान बचा पाएँगे। इसलिए
आइए हम यह काम जारी रखें, साथ ही ज़िंदगी
के हर दायरे में चतुराई से काम लें।
मनुष्य अपने बहुत कर्म लोभ के वशी भुत हो कर
करता है जिसका कारण उसका अज्ञान होता है, जैसा कि यह काल्पनिक कहानी कहती है।
एक समय दक्षिण दिशा में एक वृद्ध बाघ
स्नान करके कुशों को हाथ में लिए हुए कह रहा था- वो मार्ग के चलने वाले पथिकों !
मेरे हाथ में रखे हुए इस सुवर्ण के कड्कण (कड़ा) को ले लो, इसे सुनकर लालच
के वशीभूत होकर किसी बटोही ने (मन में) विचारा -- ऐसी वस्तु, (सुवर्ण कड्क)
भाग्य से उपलब्ध होती है। परंतु इसे लेने के लिये, बाघ के पास जाना
उचित नहीं, क्योंकि इसमें प्राणों का संदेह है। अनिष्ट स्थान बाघ
इत्यादि से सुवर्ण, कड्क सदृश अभीष्ट वस्तु
के लाभ की संभावना होते हुए भी कल्याण होना न नहीं आता, क्योंकि जिस अमृत
में जहर का संपर्क है, वह अमृत भी मौत का कारण
है, न कि अमरता का। किंतु धन पैदा करने की सभी क्रियाओं में
संदेह की संभावना रहती ही है।
कोई भी व्यक्ति संदेहपूर्ण कार्य में बिना
पग बढ़ाये कल्याण के दर्शन में असमर्थ ही रहता है। हाँ, फिर संदेहपूर्ण
कार्य करने पर यदि वह जीता रहता है, तो कल्याण का
दर्शन करता है। इस कारण से सर्वप्रथम मैं इसके वाक्य के तथ्य सत्य, अतथ्य असत्य का
परीक्षण करता हूँ। वह उच्चस्वर में बोलता है -- कहाँ है तुम्हारा कंगन ? बाघ हाथ फैला कर
देखाता है। पथिक बोला मारने वाले तुम में कैसे विश्वास करु ?
मुझे इतना भी लोभ नहीं है, जिससे मैं अपने
हाथ में रखे हुए सुवर्ण कंगन को जिस किसी रास्ता चलता अपरिचित व्यक्ति को दे देना
चाहता हूँ। परंतु बाघ मनुष्य को भक्षक है, इस लोकापवाद को
हटाया नहीं जा सकता। अंधपरंपरा पर चलने वाला लोक धर्म के विषय में गोवध करने वाले
ब्राह्मण को जैसे प्रमाण मानता है, वैसे उपदेश
देनेवाली कुट्ठिनी को प्रमाणता से स्वीकार नहीं करता। अर्थात संसार कुट्ठिनी के
वाक्य को धर्म के विषय में प्रमाण नहीं मानता।
हे युधिष्ठिर ! जिस प्रकार मरुप्रदेश में
वृष्टि सफल होती है, जिस प्रकार भूख से पीड़ित
को भोजन देना सफल होता है, उसी तरह दरिद्र को दिया
गया दान सफल होता है। प्राणा यथात्मनोभीष्टा भूतानामपि ते तथा। आत्मौपम्येन
भूतानां दयां कुर्वन्ति साधवः। प्राण जैसे अपने लिए प्रिय हैं, उसी तरह अन्य
प्राणियों को भी अपने प्राण प्रिय होंगे। इस कारण से सज्जन जीवनमात्र पर दया करते
हैं। निषेध में तथा दान में, सुख अथवा दु:ख में, प्रिय एवं अप्रिय
में सज्जन पुरुष अपनी तुलना से अनुभव करता है, अर्थात मुझे किसी
ने कुछ दिया तो हर्ष होता है, यदि अनादर किया
तो दुख होता है। इस तरह मैं भी किसी को कुछ दूँगा तो हर्ष होगा, निषेध कर्रूँगा
तो दुख होगा।
मातृवत्परदारेषु, परद्रव्येषु
लोष्टवत्। आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्चति स पण्डितः।।
जो पुरुष दूसरे की स्रियों को अपनी माता
की तरह एवं अन्य के धन को मिट्टी के ढेले के समान तथा प्राणिमात्र को अपने समान
देखता है, वह पंडित है, अर्थात सत असत के
विवेक करने वाली बुद्धि वाला है। और चंद्रमा जो आकाश में विचरता है, अंधकार दूर करता
है, सहस्त्र किरणों को धारण करता है और नक्षत्रों में बीच में
चलता है उस चंद्रमा को भी भाग्य से राहु ग्रस्त होता है, इसलिए जो कुछ
भाग्य (ललाट) में विधाता ने लिख दिया है उसे कौन मिटा सकता है। यह बात वह सोच ही
रहा था जब उसको बाघ ने मार डाला और खा गया। इसी से कहा जाता है कंगन के लोभ से
इत्यादि बिना विचारे काम कभी नहीं करना चाहिए।
0 Comments
If you have any Misunderstanding Please let me know