ओ३म् अग्निर्होता कविक्रतुः
सत्यश्चित्रश्रवस्तमः।
देवो देवेभिरा गमत्।। ऋग्वेद 1.5
जैसा कि परमेश्वर अपने साधक को उपदेश कर रहा है ऋग्वेद के
प्रथम मंत्र से इस पाँचवें मंत्र तक परमेश्वर ने उसने जो उपदेश किया उसी को आगे
बढ़ाते हुए कहते हैं। जैसा कि प्रथम मंत्र अग्नि से प्रारम्भ होता है जिसका भाव यह
है कि वह परमेश्वर अग्नि वत है जिसकी कामना साधक करता है। और उस प्रभु प्यारे
परमेश्वर से याचना करता है जिसके उत्तर में परमेश्वर कहते है कि यह अग्नि जो तुम
में विद्यमान है। जो तुम्हारी शरीर को चलाने के लिये प्रथम श्रोत ऊर्जा का प्रमुख
साधन जिसके द्वारा ही तुम्हारे शरीर रूपी देश राष्ट्र का कल्याण संभव है। यदि तुम
सब ऐसा करने में समर्थ होते हो तुम दिव्य सद्गुणों को प्राप्त करोगे जो रत्नों के
समान है। दूसरे मंत्र में आगे परमेश्वर उपदेश देते हुए कहते है कि वही सभी ऋषियों
के पूर्वज है उसी अग्नि से तुम सब का भी सृजन हुआ है। तीसरे मंत्र में परमेश्वर
कहते है कि वही सभी ऐश्वर्यों का प्रमुख श्रोत है। चौथे मंत्र में प्रभु कहते है कि
वह इस सब विश्व ब्रह्माण्ड के सत्य के रक्षक है। और अब पाँचवें मंत्र में परमेश्वर
जो अग्निमय है कि वह सब को गति देने वाले सब के जीवन के मुख्य आधार है, और वहीं सबसे श्रेष्ठ कार्य जो यज्ञ के समान है उसको संपादित या करने वाले
है कवि के समान सब के भावों को जानने वाले क्रान्ति दर्शी क्रान्ति द्रष्टा
क्रान्तकारी है। जिसके कारण ही इस विश्वब्रह्माण्ड के किसी कार्य में कोई अपूर्णता
नहीं है। अर्थात उस परमेश्वर के द्वारा किया जाने वाला हर कार्य पूर्ण और सबसे
श्रेष्ठ है। वह ही परमेश्वर सत्य और सत्य का प्रमुख श्रोत चैतन्यता का प्रथम अनादि
कारण है। जिससे ही सभी के चित्त जुड़ें हुए है।
जिस
प्रकार से एक सुपर कम्प्यूटर से बहुत सारें यंत्र और कम्प्यूटर जुड़े होते है और
वह सुपर कम्प्यूटर सब को एक साथ अकेले ही संचालित करता है। वे ही प्रभु सृष्टि के प्रारम्भ
में वेदों का सत्य ज्ञान देने वाले है। ज्ञान देने का तरीका भी उनका अद्भुत है
क्योंकि वह सब के हृदयस्थ उपस्थित है, जिससे बिना किसी प्रयास के
अपने पवित्र ज्ञान से हृदय को अपने ज्ञान से प्रकाशित कर देते हैं। जिससे वह
अत्यन्त कीर्तिमान और यश वान होते हैं। अथवा वह प्रभु अत्यन्त ज्ञान वाला है
निरितशय ज्ञान का अधिष्ठाता ब्रह्म ही तो है। वहीं सभी देवे देव दिव्य गुणों के
पुंज जो देवताओं के साथ आते है। जब हम सब में दिव्य गुणों का उदय होता है, अर्थात जो प्रभु प्राप्ति का मार्ग है उस मार्ग पर चल कर हम सब स्वयं को
उस प्रभु प्राप्ति के योग्य बनाये। हम सब के आचरण में जितना अधिक दिव्यता होगी
उतने ही हम सब प्रभु के समीप होगे और जितना अधिक दैत्यता होगी उतने ही उस प्रभु से
हम सब दूर होगे।
प्रभु से दूर या प्रभु से पास होने का मतलब
क्या है?,
आखिर हम प्रभु के पास क्यों जाना चाहेंगे? यद्यपि
हम सब जानते हैं कि इस संसार में जो भी जन्म लेता है, उसका एक दिन मरना निश्चित ही
है। चाहे वह प्रभु के पास हो या फिर वह प्रभु से दूर हो, दोनों
का अन्त एक समान होना निश्चित है। इस संसार में और हर प्राणी का यहां जीने का समय
भी निश्चित है, कम अवश्य हो सकता है ज्यादा होने का सवाल ही
नहीं पैदा हो सकता है। जब यह सब निश्चित है तो फिर उस परमेश्वर क्या जरूरत है?
हर प्राणी का एक निश्चित समय है कोई पचास साल तो कोई सत्तर साल तो
कोई सौ साल तक जी सकता है। इस मंत्र में जो कुछ समझने योग्य तथ्य है, वह यह है कि यह अग्नि स्वरूप जो पुरुष परमात्मा है वह होता के समान है।
यहां होता मतलब है जो यज्ञ करने होता है। जो यज्ञ में आहुति डालता है। यहां परमेश्वर
स्वयं को अग्निहोर्ता कहते हैं। इसका कहने का तात्पर्य यह विश्व ब्रह्माण्ड का जो
यज्ञ के समान है। और इसको करने वाला वह स्वयं है। इस विश्व में सब कुछ छोड़ दे शीवाय
मानव को पकड़े, यह मानव जो भी कर रहा है क्या उसका कार्य इस
विश्व ब्रह्माण्ड को ध्यान में रख कर रहा है। यह विश्व ब्रह्माण्ड स्वरूप स्वयं और
कोई नहीं मानव ही है। यहां सब कुछ मानव को समर्पित कर दिया है परमेश्वर जब कहते हैं,
कि वह अग्निहोर्ता कि तरह से हैं। इसका कार्य कैसा है? इसके
लिये आगे का वाक्य कहता है कि कविक्रतु अर्थात यह यज्ञ जो हो रहा है, कही बाहर
नहीं हो रहा उसको करने वाला कही बाहर हमारी तरह से नहीं रह रहा है। वह कवि के समान
कार्य कर रहा है, कवि वहां तक पहुंचता है जहां रवि अर्थात
सूर्य भी नहीं पहुंच सकता है। जहां सूर्य का प्रकाश भी नहीं पहुंच सकता वहां कवि
अपने भाव से पहुंच जाता है और उनको विचारों का रूप दे कर हम सब साधारण लोगों के
लिये प्रकाशित करता है। वह परमेश्वर यहां स्वयं कवि के समान है। उसका कार्य भी कवि
के जैसा है। अर्थात वह हम सब के हृदय में विद्यमान हम सब का भाव है अहसास है वह सब
में सांसें ले रहा है। वही सत्य चित्त श्रुति के समान हमारे अन्तर तम में विद्यमान
है। देवों का भी देव जिसके साथ गमन करने वाले है। अर्थात यहां पर वह परमेश्वर हम
सब में ही विद्यमान है वह कवि के समान अन्तर जगत में रमण करने वाला है अन्तर्यामी
है और वहीं सत्य चित्त क्रान्तिदर्शि के समान है।
इस मंत्र में बहुत स्पष्ट वक्तव्य दिया जा
रहा है और एक ऐसे मार्ग का संकेत किया जा
रहा है जो सब के लिये बहुत आसान है। यहां पर यह नहीं कहा जा रहा है कि मैं तुमसे
अलग हूं यद्यपि यह कहा जा रहा है मैं ही तुम में विद्यमान हूं अर्थात तू ही अपने
परमेश्वर हो। इस तरह से परमेश्वर ने हम सब को यहां पर पूर्णरूप से मुक्त कर दिया
है। यह परमेश्वर बनने कि यात्रा का प्रथम सोपान है। हम सब को अपना परमेश्वर बनना
है और हम सब को इसके लिये अपनी मृत्यु से अज्ञान से अंधकार से असत्य से लड़ना
होगा। जिसके लिये ही वह परमेश्वर कह रहा है कि अग्निर्होता के समान हम सब को बनना
होगा। अपना सब कुछ जो भी है अपने पास सब की आहुति बना कर इस संसार रूपी यज्ञ शाला
में डाल देना है। और स्वयं के व्यर्थ के भार से मुक्त हो जाना है। इतना मुक्त और
इतना हल्का जितना कि यज्ञ कि खुशबु के समान हो कर चारों तरफ अपनी सुगन्ध के साथ
खाली आकाश में उड़ जाना है। जैसे कि हवा उड़ती है सारी बंधनों को तोड़ कर, जिन
बंधनों को तुमने हजारों सालों में तैयार किया है। जो अदृश्य साकलों कि तरह तुम्हें
बांध रखा है। यहां पर हमें अग्नि के गुणों को स्वयं में धारण करना है, अग्नि का प्रथम गुण है कि वह सब कुछ भस्म कर देती है सिवाय पारे के जो हम
सब पारे के समान है। जिसको यहां पर होता कहा गया है। हम अग्नि के समान हमेशा ऊपर
ही ऊपर उड़ने वाले या चलने वाले हो। जिस प्रकार से सूर्य कि किरणें चलती है जिस
प्रकार से अग्नि की ज्वाला ऊपर कि तरफ ही उठती हैं। उसी प्रकार से हम सब को भी ऊपर
की तरफ उठना है और जो हमारे बंधन है या जो हम पर बोझ को समान है भार है जिनके भार
से हम सब बोझिल हो चुके है। उसन सब को यहां पर इस संसार की यज्ञशाला की वेदी में आहुति
डाल देना है। जैसे रिश्तों का भार समाज का भार, देश का भार
स्वयं कि वासनावों का भार स्वयं कि शिक्षाओं भार यह सब झुठा और असत्य है। जब यह
सत्य है कि यहां सब कुछ मरने वाला ही तो फिर हम इस मरने वालें कि चिन्ता में अपनी
समय शक्ति को व्यर्थ में क्यों खर्च करें? जो इससे अलग है उस
पर ध्यान क्यों ना दे?
अग्नि होर्ता का मतलब यह भी हुआ कि इस संसार
रूप शरीर को भस्म कर दो। और स्वयं को अग्निर्होता बना लो, अग्नि मतलब ज्वलनशील भस्म
बनाने का साधन, होता का मतलब इसको जो भस्म करने वाला है। इस तरह से अग्निहोर्ता का
मतलब हुआ वह पुरुष जो सब को भस्म करने वाला है भस्माशुर के समान है अर्थात जो सब
कुछ भस्म कर सकता है। ऐसा एक पौराणिक आख्यान आता है कि एक राजा था जो परमेश्वर कि
उपासना कर्ता था। जिससे भगवान शिव उसकी साधना पर प्रसन्न हो गये। और उसके कहने पर
ऐसा वर दे दिया कि वह भस्मासुर जिस किसी के सर पर हाथ रख देगा वह भस्म हो जायेगा।
इस वरदान की परीक्षा करने के लिये, वह शिव के सर पर हाथ रखने के लिये दोड़ा, जिससे
शिव को वहां से भागना पड़ा। वहां से शिव भाग कर भगवान विष्णु के पास गये, और उन्होंने
अपनी जान बचाने का आग्रह किया। तब विष्णु ने एक स्त्री का रूप पकड़ कर भस्मासुर के
सामने प्रकट हुए और उसे अपने सामने नाचने के लिये मना लिया। और जब विष्णु के समान
नाचने लगा भस्मासुर तो विष्णु ने अपने हाथ स्वयं के सर पर ही रख लिया। जिसको देखकर
भस्मासुर ने भी अपना हाथ अपने सर पर रख लिया जिससे वह स्वयं ही भस्म हो गया। यह कहानी
कुछ और कहना चाहती है। जिसको किसी और तरह से कहा गया है। इसका भाव यही है कि उसने
स्वयं कि शरीर को भस्म कर लिया था अपनी तपस्या से इसका मतलब सिर्फ इतना है कि वह
अपने शरीर से पूर्णतः मुक्त हो चुका था। और उसनें अपने अन्दर से उस कवि क्रतु
अर्थात उस कवि के समान कर्ता बन गया था। जिसके कारण ही वह सत्य का द्रष्टा स्वयं
के चित्त पर पूर्णतः अधिकार कर लिया था। जिसके कारण उसमें अपने अन्तर तम में
विद्यमान शिव जो कल्याण कर्ता है विष्णु जो पालन पोषण करता है ब्रह्मा जो सृष्टि
करता है। इनका साक्षात्कार कर लिया था। जिससे ही यह सब श्रुति वेदादि का उद्भव हुआ
है। और जो देवों का देव है।
सब से बड़ी मूर्खता इस संसार में यह है कि यहां पर हर व्यक्ति को सत्य तक
पहुंचने से रोका जा रहा है। जिसके लिये जो लगे है वहीं राक्षस है जो सत्य को भस्म
करने का प्रयास किया जा रहा है। जिसके कारण ही यहां संसार में भस्मासुर को एक
राक्षस कि तरह से प्रस्तुत किया गया है। यद्यपि वह एक साधक था जिसने साधना के
द्वारा यह शक्ति उपलब्ध कर लिया था, जिसकी बात यहां पर मंत्र कह रहा है। इन
मंत्रों तक पहुंचने के लिये भी लोगों को रोका जा रहा है। और लोगों को बहुत ही
भयंकर तरह से गुमराह किया जा रहा है। कहीं पर शिक्षा के नाम पर, तो कही धर्म के
नाम पर, तो कही सत्य के नाम पर, इसी कड़ी को आगे बढ़ाने के लिये ही इतने अधिक देवी
देवताओं कि कल्पना किया गया। और इनको समाज में साधारण लोगों को गुमराह करने के
लिये आज भी प्रचारित किया जा रहा है। जब कि सत्य यह है कि सब के केन्द्र परमेश्वर
स्वयं है और हमारे अन्दर ही वह सब का स्वामी विद्यमान है, उसके लिये हमें स्वयं के
बनायें संसार को भस्म करना होगा। यहां भस्म करने का तात्पर्य है कि ज्ञान से जब
किसी वस्तु को जान लिया जाता है तो उसका रहस्य खत्म हो जाता है। उस विषय का आकर्षण
भी खत्म हो जाता है। यहां पर हमारी शरीर ही संसार है और यह हम सब जानते है, कि यह भस्मों
से निर्मित है, और भस्म में मिलने के लिये अग्रसर है। उससे पहले जो कविक्रतुः कवि
के समान कर्ता स्वयं की जो चेतना है जो शुद्ध रूप से जीवन का परम सत्य चित्त आनन्द
है। उसको उपलब्ध होना ही अर्थ पूर्ण है, जो इसको जान लेता है तो वह कुछ सिद्ध हुआ
अन्यथा सब कुछ भस्म के समान है। जिस प्रकार से बहुत बड़ा राख का भंडार है उसी
प्रकार से यह संसार है रूपी शरीर है। यहां उसी का जीवन सफल है जिसने इस राख के भंडार
में से उस चिनगारी की खोज कर लेता है। जिसकी बात यहां पर मंत्र रहा है।
manoj pandey founder of gvb the university of veda
0 Comments
If you have any Misunderstanding Please let me know