ओ३म् राजन्तमध्वराणां गोमृतस्य दिदीविम्। वर्धमानं स्वे दमे। ऋग्वेदे 1.8
जैसा कि परमेश्वर मंत्रों के माध्यम से उपदेस दे रहे है। राजंतम अर्थात राज्य का अंत जिस प्रकार से कोई राजा राज्य करता है। अपने सामराज्य पर जिस प्रकार से सूर्य राज्य करता है सम्पूर्ण भुमंडल पर, या जिस प्रकार से पृथ्वी पर वायु राज्य करती है, या जिस प्रकार से जलो का सागर राज्य करता है इस पृथ्वी पर, या जिस प्रकार से आकाश राज्य करता है इस ब्रह्माण्ड पर यह सब राज्य जहां पर समाप्त हो जाते है। इनकी सबकि सिमा है इनपर भी कोई शासन करने वाला है। जो यह कह रहा है कि राजंतम इसका मतलब एक और भी हुआ कि इन राज्यों में किसी प्रकार का ज्ञान का प्रकाश नहीं है सब अज्ञान के भयंकर वातावरण से आच्छादित है। और इस सबके मध्य में जो बिभत्सक युद्ध हो रहा है जीने मरने के लिये। सूर्य कि किरणों के व्याप्त होने पर भी जहां इतने प्रकाश में भी अंधकार का बृहंगम सामाराज्य स्थापित हो रहा है। जिस पर साक्षात मृत्यु अपना एक रस शास्वत सामराज्य स्थापित कर रखा है। एक भी पल यहां पर ऐसा नहीं गुजरता है कि जिसमें कि लोगों को मृत्यु का संदेशा जीवन में नहीं मिलता है। अर्थात हर समय उसके होने का अहशास यह सूर्य पृथ्वी वायु जल और आकाश कराते रहते है। फिर भी आश्चर्य है कि इस मानव कि प्रगाढ़ अज्ञान कि निद्रा से निद नहीं खुलती है। यद्यपि जितना ज्यादा ही मृत्यु का आतंक व्याप्त होता है ।उतना ही अधिक गहरी तन्द्रा में यह मानव जाने लगता है। और इसको अपने नस्वर शरीर का मोह पकड़ लेता है। यह पृथ्वी आसमान एक कर देता है इस नस्वर और घोर नरक का कारण शरीर को बचाने के लिये।
केवल एक ही रास्ता है जो मृत्यु से पहले किया जा सकता है वह है स्वयं स्मरण का स्वयं को जानने का जिसके लिये जीवन के सत्य को स्विकारना होगा। स्वयं को कभी मरने नहीं देना है। स्वयं को जो हम सब समझे है वह हम नहीं है। जो हम है। उसे हम सब जानते ही नहीं है। हमेशा अंधों कि तरफ दूसरों कि उगंली को पकड़ कर चलने कि जरुरत नहीं है। अपनी आत्मा कि आवाज को सुनों और उसके मार्ग पर ही चलों यदि वह मृत्यु की तरफ ले जारही है तो सहर्ष स्विकारोक्ति के साथ आगे बढ़ों। योग का मतलब गलत निकाला जा रहा है यह क्रान्ती नहीं है यद्यपी इसको द्वारा जो एक संभावना है जिस प्रकार से सभी दरवाजे जब बंद होगे, तो कुछ खिड़की और रोशन दान घर में पहले बनाये जाते थे। जिससे इस घर के रहने वाला प्राणि दरवाजा बन्द होने कि स्थिति मे जीवित रह सके। इसी प्रकार से इस योग को भी केवल इस लिये आविस्कृत किया गया कि आदमी जिन्दा रह सके। लेकिन जब स्वयं आदमी ही अपने सारे दरवाजे बन्द कर के अपनी आत्महत्या करने के लिये उतवला है। तो यह खिड़ती दरवाजे क्या कर सकते है?
यह बहुत बड़ा सणयंन्त्र चलाया जा रहा है सरकार और व्यापीरीयों के द्वारा जिससे यह सामुहिक रूप से सिद्ध हो सके कि यह सब झुठ है। इसलिये इसको भिड़ का विषय बना दिया गया है। और भिड़ किसी विषय का निर्णय करने में सक्षम नहीं है। आत्मा परमात्मा दो नहीं है वह दो रूप से जब से व्यक्त किये गये है। तबसे परमात्मा और आत्मा में दूरी आ चुकी है। जिसके कारण ही यह मानव स्वयं को उस परम सत्य से दूर करने का बहाना तलासने लगा है। आज वह उससे बहुत दूर हो चुका है। वह स्वयं को स्विकार नहीं पारहा है। योग का सिधा सा मतलब है स्वयं को स्विकारना, आज के समय में सभी ने यह स्विकार कर लिया है कि वह सब शरीर है। जबकि योग शरीर कि शून्यता कि बात करता है और कौन शून्य होने के लिये तैयार है? यह योग साक्षात मृत्यु का नाम है। और अपनी आत्मा के उत्थान के लिये कुछ भी नहीं करता है। जबकि आत्मा के उत्थान का मार्ग स्वयं के दमन का कारण ही विकसित होता है। अर्थात जिसने अपनी शरीर और मन इन्द्रियों कि इच्छाओं को मार कर इनको जित लिया वहीं इन्द्रजित अर्थात देवों का राजा बन जाता है और जिसने अपना सामराज्य मृत्यु लोक से उपर उठा कर इसका विस्तार करके स्वर्ग पर अधिकार कर लेता है।
हम सब ऐसे समाज में रहते है जहां पर सभी कि आखें बन्द है सभी अंधे के समान है हमे एक कदम भी चलना नहीं आता है हम सब हर कदम पुंछ पुछ कर चलते है। फिर भी अपने जीवन में कभी मजिल पर नहीं पहुंचते है। हमारी मंजिल क्या है?
जहां तक आध्यात्म का सवाल है,
सत्य का सवाल है, ज्ञान का सवाल है इसके बारे में भी हम लोगों से पुछते है। और इस क्षेत्र के कई विशेषज्ञ भी है। कुछ मर चुके है उनके विचार को उनके अनुयायी आज भि मुर्दे कि तरह से ढोये जा रहे है। जिसे हम सब समाज कहते है इसमें तो सायद हि कभी कोई आंख वाला पैदा होता हो। मैंने अभी तक ऐसा कोई भी एक आदमी को नहीं देखा। जिसकी आखें खुली हो हर व्यक्ती उसी पुराने बताये गये मार्ग पर चला जा रहा है। सभी लकिर के फकिर हो चुके है। हर धर्म में यही हो रहा है सारे धर्म शास्त्रों का सृजन इसलिये किया गया है। कि वह मानव के सहायक बन सके यद्यपि यह हो रहा है। कि मानव उनका शिकार बनता जा रहा है। उनको अपने हिसाब से भाष्य किये जा रहा है। जो सरलता के नाम पर किये जा रहे है। लेकिन इतना अधिक सरल करदिया गया कि उसका मुल भाव ही खो गया है। आध्यात्म का अर्थ इतना है कि अपने आत्मा के अध्याय को पढ़ा जाये। अपने ज्ञान चक्षु को खोल कर संसार मे चला जाये। यह विषय इतना अधिक सरल है कि इसको पढ़ने के लिये किसी भी ना गुरु कि जरुरत है, ना ही किसी सहायक कि जरुरत है। जरुरत है तो केवल क्रान्ति कि इस मार्ग पर चलने का मतलब है कि मैं अब अपने लिये नया मार्ग बना रहा हूं। यह मार्ग किसी के द्वारा आज तक नहीं बनाया गया है। सारे मार्ग जो भी बनाये गये है वह किसी निश्चित अवधारणा को ध्यान में रख कर बनाये गये है। जब कि सत्य और ज्ञान के लिये किसी की जरुरत नहीं है। सत्य तो स्वयं में से पैदा किया जाता है, उसके लिये तो बिद्रोह करना पड़ता है। जिसने इस संसार के असत्य अज्ञान नस्वरता पर सवाल उठाय वहीं यहां पर इन सबका शिकार बना।
मानव जीवन का लक्ष्य कुछ नहीं है जीवन अपने आप में स्वयं लक्ष्य है जीवन का होना बहुत बड़ी बात है यद्यपी संसार में बृहंगम दृष्टि डालने पर पता चलता है। कि यहां सब कुछ है शिवाय जीवन के, इसके कारण ही जीवन में कष्ट है, क्योंकि कोई जीवन को पहचानने वाला नहीं है। यहां सब का परिचय मृत्यु से रोज हो रहा है, और लोग मृत्यु से बचने का रास्ता तलास रहें है। इस तरह से मानव कुल मिला कर मरना नहीं चाहता है। इस लिये वह सारे प्रक्रम को अपने जीवन में करता है। जीवन से अपरिचित है इसका जीवन से परिचय कैसे हो? यह मुख्य समस्या यहा पर है, यह जिसके लिये कहते है यत्ते यम वैवस्वतम् मनोजगामदूरकम्। तत्ते वर्तयामसि क्षयाय जीवसे ।। हमारा मन हमारे वश में नही है कही दूर चला गया है किसी और में जा कर भटक गया है उसको पास लाने के लिये मंत्र कहता है। हम सब यहां जीवन के लिये ही आये है जीवन ही हमारे लिये सब कुछ है, जिसको जीवन मिल गया, वह सब कुछ पालिया है। इस जगत में।
यह सत्य है कि मरना कोई नहीं चाहता है, यह भी सत्य है कि यहां सब को मरना है और आज ही मरना है, क्योंकि आज के शिवाय मनुष्य के हाथ में कुछ नहीं आता है। मरने से पहले कुछ कार्य है उसको कर लेने में ही जीवन कि सार्थकता है। वह कार्य क्या है? जिसकी बात मंत्र करता है, मरने से बचने का कोई रास्ता नहीं है, जो मरने से बचने का प्रयाश करते है, वहीं यहां पर विद्वानो कि दृष्टि में मुर्ख कि संज्ञा से नवाजे गये है। जो मुख्य कार्य करना है वह एक है कि मरने कि तैयारी करो, और रोज थोड़ा थोड़ा कर मरते जाओ एक दिन ऐसा तभी जीवन में आयेगा जब सब कुछ मर जायेगा कुछ भि नहीं बचेगा। ना कोई रिस्ता बचेगा ना ही कोई संबंध ही बचेगा और ना ही कोई समाज या संसार ही बचेगा। जब तक कुछ बचता है। जिसका केवल एक ही मतलब है। कि अभी तक तुमने वह मुख्य विषय नहीं प्राप्त किया है। जिसके लिये वास्तव में इस संसार में आना हुआ है। संबंधों के इस संसार में हर रोज एक नया संबंध बनता है। हर रोज तुमको अपने जीवन से एक संबंध को खत्म भी करना होगा। अन्यथा इस संसार में संबंधों के चक्कर में पड़कर स्वयं से बहुत दूर निकल जाओगे। और तुम को स्वयं के पास आने का समय ही नहीं मिलेगा। क्योंकि तुमको आज ही मरना ही है। रोज तुम एक नया रास्ता और एक नये विचारक से प्रभावित होते हो। क्या तुम जानते हो? कि जिस विचारक ने तुमको जीवन को जीतने के लिये और जीवन में संघर्ष करने के लिये लड़ने कि प्रेरणा देता है। क्या वह इस संसार में संघर्ष और अपने विचार के आधार पर इस संसार में जीन्दा एक दिन भी रह पाया है। वास्तव में यदि जब तुम निस्पक्ष हो कर विचार करोगे। तो यह सत्य पाओगे कि वह आदमी झुठा था जिसने हमें सच्चे होने का पाठ पढ़ाया है। हम सब अक्सर संसार में देखते है, कि सारा साहित्य और सारें महापुरुष यहां पर हम सब को केवल एक बात ही कहते है। कि अन्याय के खिलाफ, असत्य के खिलाफ, दरिद्रा के खिलाफ संघर्ष करों लड़ों । आज तक लड़ते हुये यह मानव कहां तक पहुंच पाया है? क्या आज तक किसी को परास्त कर पाया है? यहां पर सभी झुठे और हारे हुये ही लोगों कि भिड़ है । लेकिन यहां पर कोई यह स्विकारने के लिये तैयार नहीं है। कि मैं हार चुका हूं या लड़ लड़ कर मैने सत्य को नहीं प्राप्त कर पाया हुं। मै वास्तव में एक झुठ का पुतला हूं। क्या हमारी दरिद्रा का अन्त हमने कर लिया है? क्या हमने इस संसार में न्याय का सामराज्य स्थापित करने में सफलता प्राप्त कर लिया है? क्या हमने अपने सभी शत्रुओं को समाप्त कर लिया है? इन सब का केवल एक जबाब ही मिलेगा नहीं। हमने कुछ भि करने में सफलता को नहीं प्राप्त कर पायें है। हां यह हमने अवश्य कर लिया है कि स्वयं को समस्या से दूर कर लिया है स्वयं को छुपा लिया है या उसको कुछ समय के लिये पिछे धकेल दिया है। किसी का भी अन्त करनें में हम सफल नहीं हुये है। हां यह अवश्य सत्य हैं कि हम स्वयं को अपने अन्त के करिब और एक कदम बढ़ा लिया है।
जैसा कि राज भ्रत्रिहृ कह रहे है।
भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः । कालो न यातो वयमेव याताः तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ॥
हमने भोग नहीं भुगते, बल्कि भोगने ही हमें भुगता है; हमने तप नहीं किया, बल्कि हम स्वयं ही तप्त हो गये हैं; काल पसार नहीं हुआ,
हम ही पसार हुए हैं;
तृष्णा जीर्ण नहीं हुई,
पर हम ही जीर्ण हुए हैं !
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