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वेदखण्ड वेदमाता


स्तुता मया वरदा वेदमाता प्रचोदयन्तां पावमानी द्विजानाम्

आयुः प्राणं प्रजां पशु कोति द्रविणं ब्रह्मवर्चसम्

मह्यं दत्त्वा व्रजत ब्रह्मलोकम् (अथर्व० १६ ७१ )

 

 

वेदमाता

 

 

 

स्तुता मया वरदा वेदमाता प्रचोदयन्तां पावमानी द्विजानाम् ।

 

आयुः प्राणं प्रजां पशु कोति द्रविणं ब्रह्मवर्चसम् ।

 

मह्यं दत्त्वा व्रजत ब्रह्मलोकम् ॥ (अथर्व० १६ । ७१ । १)

 

 मंत्र का प्रारंभ ही स्तुती से किया जा रहा है, जैसा की हम सब साधारण रूप से  जानते हैं, स्तुती का मतलब होता की देवी या देवता की आराधना करना या फिर यह कह सकते हैं, कि हम किसी की प्रशंसा करते हैं, और ऐसा ही अकसर लोग समझते हैं। यहां पर मंत्र में स्तुती का मतलब ऐसा नहीं है, यहां स्तुती का मतलब है कि आप स्वयं का स्मरण और अंतर जागरण की जो प्रेरणा का स्पंदन हो रहा है आपके हृदय में उसका विस्मरण ना करें, अपने अतंरआत्मा की ज्योती को जलने दे और उसके प्रकाश को अपने जीवन में प्रथम स्थान दे, क्योंकि इसके द्वारा ही आपको बहुत बड़ा अकल्पनिय जो अभी तक लग- भग मानव जाती के लिए जो दुर्लभ ऐश्वर्य और संपदा है वह आपके हिस्से में आ सकती है जिसका आप उपभोग कर सकते हैं। यहां एक संभावना है, यहां आपके अंदर की उस अद्वितिय दिव्य सामर्थ को जगाने के लिए प्रेरणा की तरफ इंगीत किया जारहा है, इसी की प्रसन्ता से ही आपका सभी जो दुर्भभ और अकल्पनिय कामना है वह सिद्ध हो सकती है। क्योंकि यह आपके ज्ञान की जननी आपकी मां है। यहां पर इस बात पर आपको विषेश ध्यान देना होगा। जननी और मां एक अर्थ को प्रकट करतेे है, यहां आपकी भौतीक शरीर को जन्म देने वाली मां की बात नहीं हो रही है। क्योंकि भौतिक शरीर को जन्म देने के लिए एक स्त्री पुरुष को आपस में मिल कर संभोग की क्रिया को संपन्न करना पड़ता है। जिससे एक नये लड़के या लड़की का जन्म होता है। यहां पर इस स्त्री पुरुष के द्वारा किसी आत्मा का जन्म नहीं होता है। क्योंकि आत्मा का ना कभी जन्म होता है, और ना ही उसकी कभी मृत्यु ही होती है, यह जगत विदित सिद्धांत है। तीन प्रकार की जो मुख्य शास्वत सत्ता है, उसमें प्रथम ईश्वर, दूसरा प्रकृत तीसरा जीव अर्थात (आत्मा) जिसको कहते हैं। यहां पर जो सबसे बड़ी अज्ञानता जो आपकी भौतीक शरीर के साथ जो आपके माता पिता के द्वारा मिलता उपहार में उसी को आप अपना स्वयं का सब कुछ समझते हैं, अर्थात शरीर,मन, और इन्द्रियां, जबकि यह सार्भौमिक ज्ञान नहीं है, जब मंत्र में ज्ञान की जननी आत्मा को कहा गया है। क्योंकि आत्मा ही कामना करती ही मांगती जिससे उसको शरीर,मन और इन्द्रियों की प्राप्त होती है। यह कामना मांग आत्मा की है की उसको शरीर, मन, इन्द्रियां मिले जिससे वह अदृश्य जगत से निकल कर इस भौतीक दृश्य मय जगत के क्षणिक ऐश्वर्यों का भोग और जन कल्याण सेवा का कार्य सिद्ध कर सकें। इसी को यहां मंत्र अलंकारिक रूप से आत्मा को मन, शरी और इन्द्रियों की जननी अथवा मां कह कर संबोधित किया है। बिना इस शरीर, मन, इन्द्रियों के आत्मा परमेश्वर के साथ मुक्त अवस्था में रह कर केवल आनंद का उपभोग ही करता है, लेकिन जब उसका मुक्ति का समय समाप्त हो जाता है। तो वह फिर अपने आपको मुक्ति के आनंद के उपभोग के योग्य बनाने के लिए ही, इस शरीर, मन, इ्न्द्रियों को अपनी स्वेच्छा से जन्म देता है। सर्व प्रथम आत्मा को शरीर धारण करने के लिए  किसी आत्मा को शरीर धारण करने के लिए किसी माता पिता की आवश्यक्ता नहीं पड़ती है। इस संसार को निरंतर चलाये रखने के लिए संभोग के कार्य को करना पडता है जिससे उसके पवित्रता और शुद्धता में कमी आती है, और उसकी शक्ति का हरास हो जाता है, उसको अपनी शक्ति को पुनः प्राप्त करने के लिए ही इस संसार के कार्य को करने से उस जीव पर परमेश्वर अर्थात जगत के पिता की अनुकंपा हमेशा बनी रहती है। जिससे वह आम और साधरण जीवों की श्रेणी से निकल कर परमेश्वर का विशिष्ठ भक्त या शिष्य बन जाता है। और परमेश्वर का प्रिय बनने के लिए परमेंश्वर के द्वारा सृजित इस संसार के कार्यों में उस जीव को अपने जीवन का सबसे श्रेष्ठ पुरुषार्थ करके परमेश्वर के कार्य को अर्थात संसार को उसकी पूर्णता की उपलब्धी में सहयोग और समर्थन करना होता है। और वह कार्य है इस संसार का निरंतर चलते रहना। जिसके लिए इस आत्मा को और थोड़ा निचे उतर कर कुछ ऐसे भी कार्य करने पड जाते हैं जिससे उसको स्वंय का विस्मरण हो जाता है। जिसको याद दिलाने के लिए परमेश्वर उस आत्मा को  उपदेश करता है, और कहता है की तुम अपने आपको याद करो की तुम कौन हो? अपनी स्तुती करो अपने आपको प्राप्त करो जो तुम्हारी वास्तविक स्वरूप है यह तुम्हारा ही है और यह तुमको प्राप्त ही होगा जिसके लिए मैं तुमको प्रेरित करता हूं, क्योंकि मैं तुम्हारें अंदर ही विद्यमान हो कर तुमको प्रेरणा करता हूं, उसके लिए तुम्हें चेष्टाशील सतर्क होना होगा। इस माध्यम से एक बार तुम फिर से द्विज तुम्हारा दोबारा जन्म हो जायेगा। इसके साथ ही तुम्हारे पास पर्याप्त मात्रा में आयु, प्राण, प्रजा, पशु, किर्ति, धन, ब्रह्मज्ञान जो तुमसे तुम्हारे सामर्थ से बाहर है वह फिर से तुम्हें प्राप्त हो जायेगा। मेरे द्वारा तुमको फिर से ब्रह्मलोक में रहने को अवसर प्राप्त होगा अर्थात मुक्ति इस शरीर रूपी संसार से निकल कर मुझको सिद्ध कर पाओंगे।                

 

शब्दार्थ-परमात्मा उपदेश देते हैं- हे मनुष्यों! (वरदा) वरदान देनेवाली (वेदमाता) वेदमाता (मया स्तुता) मेरे द्वारा उपदेश कर दी गई। यह वेदवाणी (प्रचोदयन्ताम, द्विजानाम्) चेष्टाशील द्विजों को, मनुष्यों को (पावमानी) पवित्र करनेवाली है। यह वेदमाता (आयुः) दीर्घायु (प्राणम्) जीवनशक्ति (प्रजाम्) सुसन्तान (पशुम्) पशुधन (कीर्तिम्) यश (द्रविणम्) धन-धान्य और (ब्रह्मवर्चसम्) ब्रह्मतेज प्रदान करनेवाली है। वेद के स्वाध्याय से प्राप्त इन पदार्थों को (मह्यम्, दत्त्वा) मेरे अर्पण करके (ब्रह्मलोकम्) मोक्ष को (व्रजत) प्राप्त करो।

 

भावार्थ- प्रभु उपदेश देते हैं- कि हे मनुष्यों! मैंने तुम्हारे कल्याण के लिए वेदमाता का उपदेश कर दिया है। यह वेदवाणी कर्मशील "मनुष्यों को पवित्र करनेवाली है। जो वेद का अध्ययन कर तदनुसार आचरण करेगा उसका जीवन पवित्र, निर्दोष और निष्पाप तो बनेगा ही, साथ ही उसे- . दीर्घायु की प्राप्ति होगी। . जीवनशक्ति मिलेगी। . सुसन्तान की प्राप्ति होगी। . पशुओं की कमी नहीं रहेगी। . चहुँ दिशाओं में उसकी कीर्ति-चन्द्रिका छिटकेगी। . धन-धान्य, ऐश्वर्य और वैभव की उसे न्यूनता नहीं रहेगी। . ब्रह्मतेज, ज्ञान-बल निरन्तर बढ़ता रहेगा। वेदाध्ययन द्वारा प्राप्त इन सभी वस्तुओं का अपने स्वार्थ के लिए भोग मत करो। इन सभी वस्तुओं को प्रभु-अर्पण कर दो, प्रजा-हित में लगा दो, मानव-कल्याण मे लगा दो तो तुम्हें जीवन के चरम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति हो जाएगा।

The mantra is being started with praise, as we all know, praise means worshiping a goddess or deity or saying that we praise someone, and so on. Often people understand. Here in the mantra, praise does not mean this, here praise means that you do not forget the inspiration of your own remembrance and the inner awakening that is in your heart, let the light of your soul burn and its light Give the first place in your life, because only by this you can get a very big dream which is a rare opulence and wealth for the human race which you can consume. There is a possibility here, here you have to look for inspiration in order to awaken that unique divine power in you, and only by this pleasure can all your wretched and unimaginable wishes be proved. Because this mother of your knowledge is your mother. Here you have to pay special attention to this matter. The mother and mother reveal a meaning; there is no talk of the mother giving birth to your body. Because in order to give birth to a physical body, a woman and man have to perform sexual intercourse together. From which a new boy or girl is born. Here no soul is born by this female man. Because the soul is never born, nor does it ever die, this is the world known principle. The main eternal power of three types, the first God, the second nature, the third living being (the soul). Here the greatest ignorance that you receive in your gifted body with the gift of your parents, that you consider everything as your own, that is, body, mind, and senses, while it is not universal knowledge, when in mantra The mother of knowledge has been called the soul. Because it is the soul that wishes to be wished, so that it receives its body, mind and senses. It is the desire of the soul to demand that he gets body, mind, senses so that he can come out of the invisible world and enjoy the service of the transient gods of this worldly world and prove the work of public welfare service. This is the mantra here which is addressed to the soul as a mother or mother of the mind, body and senses. Without this body, mind, sense of the senses, being in a free state with God only consumes pleasure, but when its time of liberation ends. So he then gives birth to this body, mind, senses voluntarily, in order to make himself worthy of the enjoyment of liberation. First of all, a soul does not need a parent to hold a body to hold a body. In order to keep this world running continuously, one has to do the work of sexual intercourse which reduces its purity and purity, and loses its power, it is necessary to do the work of this world only to regain its power. From that, God always remains the compassion of God i.e. the father of the world. From which he moves out of the category of common and simple creatures to become a special devotee or disciple of God. And to become the beloved of God, the works of this world created by God have to support and support the work of God, that is, the attainment of his perfection to the world by making the best efforts of his life in that world. And that task is to keep this world going. For which this soul has to descend a little further and do some such work which causes him to forget himself. To remind whom, God preaches that soul, and says that you remember yourself who you are? Praise Yourself Receive Yourself That Is Your True Self It Is Yours And It Will Be Received By You, For Which I Motivate You, Because I Motivate You By Being Inside You, For That You Have To Be Conscious Alert . Through this medium you will be born again once again. With this, you will have enough age, soul, people, animals, fame, wealth, brahmagyan which is beyond your power, you will get it again. Through me you will get an opportunity to live in Brahmlok again, that is, liberation will be able to come out of this world like body and prove me.

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