प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवित-ण्डाहेत्वाभासच्छलजातिनिग्रहस्थानानां
तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसाधिगमः II1/1/1
प्रश्न-न्याय किसे कहते हैं? उत्तर-प्रमाणों
से किसी वस्तु का निर्णय करना न्याय कहलाता है। प्रश्न-प्रमाण किसे कहते है?
उत्तर-अर्थ के यथार्थ ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। और प्रमाण के
वास्ते आत्मा को जिन कारणों की आवश्यकता होती है वह प्रमाण कहलाते हैं। प्रश्न-प्रमाण
के क्या लाभ है? उत्तर-बिना प्रमाण के किसी वस्तु का ज्ञान
नहीं हो सकता और बिना ज्ञान के किसी काम करने और छोडने में मनुष्य परिश्रम नहीं कर
सकता, इस कारण कार्य में प्रवृति कराने वाला प्रमाण है।
प्रश्न-प्रमाण से ज्ञान प्राप्त करने के वास्ते किन वस्तुओं की आवश्यकता है?
उत्तर-प्रत्येक अर्थ के जानने के वास्ते चार वस्तु होती हैं प्रथम
प्रमाता अर्थात वस्तु को जानने वाला दूसरा प्रमाण जिसके द्वारा वस्तु को जान सकें।
तीसरा प्रमेय अर्थात वह वस्तु तो प्रमाण के द्वारा जानी जावे। चौथे प्रमिति
अर्थात् वह ज्ञान जो प्रमाता प्रमाण और प्रमेय के सम्बन्ध से उत्पन्न हो।
प्रश्न-अर्थ किसे कहते हैं। उत्तर-जो सुख में सुख का कारण और दुःख में दुःख का
कारण हो उसे अर्थ कहते हैं। प्रश्न-प्रवृत्ति किसे कहते हैं? उत्तर-जब प्रमाता अर्थात् जानने वाला किसी को जान लेता है तो उसके त्यागने
या प्राप्त करने के वास्ते जो परिश्रम करता है उस परिश्रम को प्रवृत्ति कहते हैं।
प्रश्न-प्रमाण से चीजों की सत्ता का ज्ञान होता है, उसके
अभाव के ज्ञान का क्या कारण है? उत्तर-जो प्रमाण विद्यमान
वस्तुओं के अस्तीत्व को प्रकट प्रत्यक्ष करता है वही प्रमाण वस्तुओं के अभाव का
ज्ञान कराता है। प्रश्न-न्याय दर्शन में कितने पदार्थ माने जाते हैं? प्रमाण, संशय प्रयोजन, दृष्टान्त
सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, जल्प, वह बाद जो हार
जीत के लिये युक्ति शून्य हो, वितन्डा वह बहस जिसमें एक पक्ष
वाला अपना कोई सिद्धान्त न रखता हो केवल दूसरों के सिद्धान्तों का खण्डन करे,
हेत्वा भास छल अर्थात् धोखा, जाती अर्थात्
निग्रह स्थान हारने का चिन्ह इन सोलह पदार्थों के तत्व ज्ञान से मनुष्य मुक्ति को
प्राप्त कर लेता हैं।
व्याख्या :प्रश्न-ज्ञान सदा प्रमेय का
होगा और उसी से मुक्ति होगी शेष सब कारण उसके साधन हैं इस वास्ते सब से पीछे
प्रमेय का वर्णन करना चाहिए था कि जिसके ज्ञान से मुक्ति प्राप्त हो प्रमाण का
पहिले वर्णन करना हमारी सम्मति में ठीक नहीं है। उत्तर-क्योंकि सदा सोना खरीदने से
पहिले कसोटी का पास होना आवश्यक है और बिना कसोटी के सोने के खरे, खोटे होने
का ज्ञान नहीं हो सकता। इसी प्रकार प्रमाण के बिना प्रमेय का ज्ञान नहीं हो सकता
ऐसे ही प्रमाण के बिना यह ज्ञान नहीं हो सकता और न यह ज्ञान है कि ये प्रमेय आत्मा
के लिये लाभदायक है अथवा हानिकारक है।इस कारण सबसे पूर्व प्रमाण का वर्णन किया है।
प्रश्न-प्रमाण और प्रमेय के बिना अन्य पदार्थों के मानने की कोई आवश्यकता नहीं।
क्योंकि सम्पूर्ण पदार्थ जो संसार में विद्यमान हैं वे सब प्रमेय के अन्तर्गत आ
जाते हैं। उत्तर-क्योंकि संसार में दुःख और सुख का अनुभव मन को होता है।इसलिये
किसी वस्तु के देखने से पहले यह ज्ञान उत्पन्न होता है कि यह वस्तु सुख अथवा दुःख
का कारण है और ऐसा ही ज्ञान संशयक होता है अतएव संशय का वर्णन आवश्यक है उसके
निवृत्यर्थ निर्णय की आवश्यकता है। प्रश्न-पुनः प्रयोजन क्यों कहा ! उत्तर-यदि
निर्णय करने का कोई प्रयोजन नहीं हो तो कोई बुद्धिमान तो क्या कोई मूर्ख भी इतना
परिश्रम नहीं करेगा। मनुष्य से प्रत्येक कर्म कराने वाला प्रयोजन ही सबसे मुख्य है
जब मनुष्य दुःख से छुटना और सुख को प्राप्त करना अपना प्रयोजन नियत कर लेता है तब
उसके कारण की खोज करता है जब प्रयोजन ही न तो किसके पूर्ण करने के लिये
विद्यार्थीपन का कष्ट सहन किया जाय। इसी प्रकार प्रत्येक वस्तु निर्णयार्थ आवश्यक
थी उसका वर्णन महात्मा गौतम जी ने न्याय दर्शन में कर दिया है। इन पदार्थों का
विभाग और वर्णन भली प्रकार इस ग्रन्थ में आ जाएगा महात्मा गौतम जी के न्याय दर्शन
का प्रथम सूत्र मूल और शेष सब सूत्र उसकी व्याख्या हैं जो मनुष्य इस दर्शन को
पढ़ना चाहें उनको इन तीन बातों का ध्यान करना उचित है। प्रथम तो उद्धेश्य, अर्थात किसी वस्तु को बतलाया जाता है तरनन्तर उसका लक्षण किया जाता है
पुनः लक्षण की परीक्षा करी जाती है, अर्थात लक्ष्य में लक्षण
घटता है अथवा नहीं। और यह भी ध्यान रखना चाहिए कि जब परीक्षा की जाती है तब उसमें
तीन प्रकार के सूत्र आते हैं। 1. पूर्वपक्ष, 2. उत्तर पक्ष, 3. सिद्धान्त। प्रश्न-उद्धेश्य किसे
कहते हैं। उत्तर-जब किसी वस्तु का नाम बतलाया जाए उसे उद्धेश्य कहते हैं, जैसे किसी ने कहा कि पृथ्वी है ? प्रश्न-लक्षण किसको
कहते हैं। उत्तर-जो गुण एक वस्तु दूसरी वस्तु से पृथक कर दे अथवा दूसरों को इससे
विभिन्न कर दे वह लक्षण कहाता है। प्रश्न-परीक्षा किसे कहते हैं। उत्तर-किसी वस्तु
का लक्षण उस वस्तु में विद्यमानता कि लिये (जांच) की जाती है और यह देखा जाता है कि
इस लक्षण में कोई दोष तो नहीं ? उसे परीक्षा कहते हैं।
प्रश्न- लक्षण में जो दोष होते हैं वे कितने प्रकार के होते हैं। उत्तर-तीन प्रकार
के , प्रथम 1 अतिव्याप्ति अर्थात् वह
गुण जो कि अन्य वस्तुओं मे भी देखा जाय। जैसे किसी से कहा गौ किसे कहते हैं दूसरे
ने कहा-सींग वाले व्यक्ति में वर्तमान हैं। अतः यह लक्षण अति व्याप्ति हो गया
अर्थात् लक्ष व्यक्ति से अन्यों में भी चला गया। द्वितीय अव्यप्ति अर्थात् वह गुण
जो गुणी में विद्यमान न हो, जैसे कोई मनुष्य पूछे अग्नि किसे
कहते हैं, उत्तर मिले कि जो भारी गुरू हो क्यांकि अग्नि में
गुरूत्व नहीं, अतः यह लक्षण भी उचित नहीं ! तृतीय(3) असम्भव जैसे किसी ने पूछा कि अग्नि किसे कहते हैं तो दूसरे ने कहा कि
जिसमें शीतलता हो क्योंकि अग्नि में शैत्य नहीं होता अतः यह लक्षण भी युक्त नहीं।
इन तीन(3) प्रकार के दोषों में कोई भी लक्षण में हो तो वह
लक्षण ठीक नहीं होगा। प्रश्न-तत्व ज्ञान और दुःख में कोई विपरीतता नहीं तो तत्व
ज्ञान से मुक्ति किस प्रकार से हो सकती है और तत्व ज्ञान के होते ही मुक्ति हो
जाती है अथवा कुछ काल के पश्चात्-
दुः-खजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये
तदनन्तरापायादपवर्गः II1/1/2
अर्थ : तत्वज्ञान से मिथ्या ज्ञान का नाश
हो जाता है और मिथ्या ज्ञान के नाश से राग द्वेषादि दोषों का नाश हो जाता है, दोषों
के नाश से प्रवृत्ति का नाश हो जाता है। प्रवृत्ति के नाश होने से कर्म बन्द हो
जाते हैं। कर्म के न होने से प्रारम्भ का बनना बन्द हो जाता है, प्रारम्भ के न होने से जन्म-मरण नहीं होते और जन्म मरण ही न हुए तो
दुःख-सुख किस प्रकार हो सकता है। क्योंकि दुःख तब ही तक रह सकता है जब तक मन है।
और मन में जब तक राग-द्वेष रहते हैं तब तक ही सम्पूर्ण काम चलते रहते हैं। क्योंकि
जिन अवस्थाओं में मन हीन विद्यमान हो उनमें दुःख सुख हो ही नहीं सकते । क्योंकि
दुःख के रहने का स्थान मन है। मन जिस वस्तु को आत्मा के अनुकूल समझता है उसके
प्राप्त करने की इच्छा करता है। इसी का नाम राग है। यदि वह जिस वस्तु से प्यार
करता है यदि मिल जाती है तो वह सुख मानता है। यदि नहीं मिलती तो दुःख मानता है।
जिस वस्तु की मन इच्छा करता है उसके प्राप्त करने के लिए दो प्रकार के कर्म होते
हैं। या तो हिंसा व चोरी करता है या दूसरों का उपकार व दान आदि सुकर्म करता है।
सुकर्म का फल सुख और दुष्कर्मों का फल दुःख होता है परन्तु जब तक दुःख सुख दोनों
का भोग न हो तब तक मनुष्य शरीर नहीं मिल सकता !
व्याख्या :प्रश्न-इसमें क्या प्रमाण है
कि जीवात्मा किसी समय में दुःख से मुक्त हो सकता है हम दुःख को जीवात्मा का
स्वाभाविक धर्म नहीं । अतः जो स्वाभाविक धर्म नहीं उसका नाश होना सम्भव है।
प्रश्न-जीव का स्वाभाविक धर्म दुःख क्यों नहीं।‘आत्मा’ के लक्षण क्या हैं ? उत्तर-इसलिए कि वह प्रति क्षण
वर्तमान नहीं रहता क्योंकि जो स्वाभाविक है वह कभी भी दूर नहीं हो सकता है।
प्रश्न-प्रमाण कितने प्रकार के होते हैं।
प्र-त्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि II1/1/3
अर्थ : प्रत्यक्ष, अर्थात
जो इन्द्रियों के द्वारा अनुभव हो दूसरा अनुमान जो उपमान व सम्बन्ध से जाना जाय,
तीसरा उपमान जो (मिसाल) दिखाकर सदृश्यता बताई जाय और चतुर्थ शब्द जो
विद्वान (आप्त) मनुष्य के उपदेश से जाना जाय।
व्याख्या :प्रश्न-हम प्रत्यक्ष के
अतिरिक्त किसी दूसरे प्रमाण को नहीं मानते, क्योंकि प्रत्यक्ष के बिना और
प्रमाण ठीक नहीं मिलते, प्रायः (भ्रांति) भूल हो जाती है।
यदि प्रत्यक्ष के अतिरिक्त किसी दूसरे प्रमाण को स्वीकार करोगे तो बहुत से
पदार्थों का ज्ञान न हो सकेगा। यथा-वे पदार्थ जो कि अत्यन्त समीपहै जैसे आंख में
सुर्मा और बहुत दूर के पदार्थों का ज्ञान नहीं हो सकता, इसलिए
अन्य प्रमाणों का मानना आवश्यक है। यदि प्रत्यक्ष और अनुमान दो ही प्रमाण मान लिए
जाएं तो क्या हानि है। उत्तर-अनुमान भी प्रत्यक्ष पदार्थों का होता है। अनुमान से
साधारण मनुष्य कार्य कर सकते हैं। प्रत्यक्ष मनुष्य व पशुओं के लिए एक तुल्य समान
है, इसलिए जो मनुष्य धर्म का निर्णय करना चाहते हैं उनके लिए
तो यह दोनों प्रमाण व्यर्थ हैं, क्योंकि जीवात्मा मन,
बुद्धि आदि इन्द्रियों से अनुभव न होने के कारण प्रत्यक्ष से नहीं
माना जा सकता और प्रत्यक्ष न होने पर अनुमान भी नहीं हो सकता, इसलिए शब्द प्रमाण की आवश्यकता है। प्रश्न-’प्रत्यक्ष
प्रमाण किसे कहते हैं और उनका क्या लक्षण है।
इन्द्रियार्थसंनिकर्षोत्पन्नं
ज्ञानमव्यप-देश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम् II1/1/4
व्याख्या :प्रश्न-इतना पर्याप्त है कि जो
ज्ञान पदार्थ और इन्द्रियों के सम्बन्धी पैदा हो वह प्रत्यक्ष है, इसमें
लक्षण को अधिक बढ़ाने की कोई आवश्यकता नहीं है ? उत्तर-यदि
इतना कहा जावे कि जो ज्ञान इन्द्रिय और अर्थ के सम्बन्ध से पैदा हो वह प्रत्यक्ष
है तो भ्रांति को भी प्रत्यक्ष मानना पड़ेगा जैसे कि दूर से बालू को पानी जान लेने
में बालु और आंख का सम्बन्ध है दूर से आंख उसको पानी अनुभव करती है,किन्तु निकट जाने पर बालु ज्ञात होता है तो उस अनिश्चित ज्ञान(भ्रांति) को
प्रत्यक्ष मानना पड़ेगा इस वास्ते बतला दिया कि वह ज्ञान व्यभि-चारादि दोष रहित
हो। प्रश्न-इन्द्रिय और अर्थ के सम्बन्ध से जो ज्ञान पैदा होगा वह तो प्रमति
कहलाएगा, प्रमाण कैसे हो सकता है ? उत्तर-इन्द्रिय
और अर्थ के सम्बन्ध से जो ज्ञान पैदा होगा वह प्रत्यक्ष ज्ञान है और उसका कारण
अर्थात् उसके होने का साधन इन्द्रियां प्रत्यक्ष प्रमाण है। पश्न-प्रत्यक्ष कितने
प्रकार का होता है ? उत्तर-पांच ज्ञान इन्द्रियों के कारण से
पांच प्रकार का प्रत्यक्ष होता है। चक्ष से होने वाला, प्रत्यक्ष
जिससे वस्तु का आकार लम्बाई-चौड़ाई इत्यादि का ज्ञान होता है। द्वितीय क्षेत्र
प्रत्यक्ष कानों के द्वारा होता है। जिसमें शब्द के अच्छे-बुरे और उसके भाव का
ज्ञान होता है। तृतीय-घ्राण प्रत्यक्ष जो नासिका द्वारा होता है, इससे सुगन्ध-दुर्गन्ध का ज्ञान होता है। चतुर्थ रसना, जिहृा से जो प्रत्यक्ष होता है, जिसके द्वारा
कड़वे-मीठे कटु इत्यादिक रसों का ज्ञान होता है। पंचम(त्वचा) जो प्रत्यक्ष खाल के
द्वारा होता है, जिसे छूना कहते हैं, उससे
गर्मी-सर्दी-नर्मी इत्यादिक का ज्ञान होता है। प्रश्न-क्या प्रत्यक्ष प्रमाण से जो
ज्ञान होता है वह संदिग्ध भी होता है। जिससे यह लक्षण सिद्ध हो कि यह ज्ञान
निश्चित है। उत्तर-दूर से किसी वृक्ष के ठुन्ट को देखकर बहुधा विचार होता है कि वह
मनुष्य है या ठूँठ ? इसी प्रकार भ्रांति भी इन्द्रियों के
सम्बन्ध ही से होती है, इसलिए जो ज्ञान निश्चित अर्थात निभ्रन्ति
जिसमें भ्रांत का लेश न हो इन्द्रियों के द्वारा किसी वस्तु का होता है और उसमें
फर्क नहीं पाया जाय और वह नाम सुनकर स्मृति सरीखा न हो तो उसे प्रत्यक्ष ज्ञान
कहते हैं और इन्द्रियें प्रत्यक्ष प्रमाण कहलाती हैं। प्रश्न-अनुमान किसे कहते हैं,
उसका लक्षण क्या है ?
अथ तत्पूर्वकं त्रिविधमनुमानं
पूर्ववच्छेषवत्सामान्यतो दृष्टं च II1/1/5
जिस ज्ञान की वास्तविक दशा प्रत्यक्ष
द्वारा परस्पर सम्बन्ध को जानकर, एक को देख कर दूसरे से जानी जाती है वह
अनुमान कहलाता है।
व्याख्या :प्रश्न-अनुमान कितनी प्रकार का
है ? उत्तर-अनुमान तीन प्रकार का होता है, पहला “पूर्ववत” जहां कारण द्वारा कार्य का ज्ञान प्राप्त
किया जाय जैसे घनघोर मेधों को देखकर वृष्टि के होने का ज्ञान होता है अर्थात् “पहले जब इस प्रकार का मेघ आया था तो वृष्टि हुई थी; अब
फिर वैसा ही बादल आया है अतः अब भी वर्षा होगी” यह जो वृष्टि
होने का ज्ञान है यह पहले के बादल को देखकर किया गया था। अतएव ”पूर्ववत्-अनुमान” कहलाता है। द्वितीय ”शेषवत्” जहां कार्य को देखकर कारण का अनुमान किया
जाय तथा नदी को बहुत वेग से तथा मटीले जल से बहती हुई को देखकर ज्ञान होता है कि
ऊपर पर्वत में वर्षा हुई है। तृतीय ”सामान्यतो दृष्टम्“
किसी स्थान में दो वस्तुओं के सम्बन्ध को देखकर दूसरे स्थान पर
उनमें से एक को देखकर दूसरे का अनुमान करना जैसे घर में आग से धुआं निकलता देखा
है। वन में दूर से धुएं को निकलते देखकर यह जान लेना कि वहां आग है-इसी प्रकार ऐसी
वस्तुएं जिनका कभी प्रत्यक्ष नहीं हुआ किन्तु सम्बन्ध द्वारा जानी जाती है,
जैसे जो जो वस्तु संसार में परिणाम वाली (अर्थात् बदलने वाली) देखी
जाती हैं, वे सब उत्पन्न हुई हैं यथा एक बालक उत्पन्न हुआ और
वह पढ़ने लगा । तदन्तर मर गया । इससे पता लग गया कि जो वस्तु परिणामी है वह नाशवान
है। अब इसी ज्ञान से संसार (जगत) के उत्पन्न होने और नाशवान् होने का अनुमान किया।
यद्यपि जगत की उत्पत्ति को कहीं प्रत्यक्ष नहीं देखा तथापि यावत् वस्तु संसार में
परिवर्तनशील हैं वे उत्पत्तिमान होती हैं, यह ज्ञान उत्पन्न
वस्तुओं के परिवर्तन से कर लेते हैं और जगत् को परिवर्तन स्वभाव वाला देखकर इसी
अनुमान से उत्पन्न और नाश वाला (नश्वर) मानते हैं अनुमान के सम्बन्ध में बहुत विवाद
हो सकता है किन्तु ग्रन्थ विस्तार के भय से इतना ही पर्याप्त है। प्रश्न- उपमान
किसे कहते हैं ?
प्रसिद्धसाधर्म्यात्साध्यसाधनमुपमानम् II1/1/6
अर्थ : स्पष्ट गुणों के मिलाने से जो एक
वस्तु का ज्ञान प्राप्त होता है उसे ‘उपमान’ अर्थात्
सादृश्य कहते हैं यथा किसी ने कहा कि गौ के तुल्य “नील गाय”
होती है। जब वह पुरूष जंगल में गया तो नील गाय को गौ के सदृश देखकर
जान लिया कि यह ‘नील गाय’ है। इस
प्रकार बाह्य स्पष्ट गुणों की तुलना करना उपमान कहलाता है।
व्याख्या :प्रश्न-‘उपमान’
प्रमाण से क्या लाभ है ? उत्तर-संज्ञी
(नामवाला) और संज्ञा (नाम) का सम्बन्ध इसी से पैदा होता है क्योंकि गाय के सदृश
होने से नील गाय और माष के से पत्तों वाली होने से ‘माषपर्णी’
आदि सैकड़ो औषधियां ‘उपमान से ही जानी जाती
हैं, इसी प्रकार और अवसरों पर भी उपमान से काम निकलता है।
प्रश्न-शब्द किसे कहते हैं ?
आप्तोपदेशः शब्दः II1/1/7
अर्थ : ‘आप्त’ उस विद्वान् तथा सत्यवक्ता को कहते हैं जो पदार्थों के गुणों को जानकर और
उनके रूप को यथावत् जानकर उसकी सत्ता और लाभों को वर्णन करे। अर्थात् जिस वस्तु को
बुद्धि तथा विद्या सम्बन्धी अन्वीक्षण से जैसा जाना हैं। उसको वैसा ही बतलाने वाले
का नाम ‘आप्त’ हैं। यह लक्षण ऋषि आर्य,
म्लेच्छादि सबके लिए संगत हो सकता है। और सब उसी के अनुकूल आचरण
करते हैं और संसार के हर एक पदार्थ की इन प्रमाणों से जानकर काम करना चाहिए । आप्त
के उपदेश को शब्द प्रमाण कहते हैं।
प्रश्न-शब्द कितने प्रकार का है
स द्विविधो दृष्टादृष्टार्थत्वात् II1/1/8
अर्थ : शब्द दो प्रकार का है। प्रथम वह
जिसका अभिप्राय संसार में इन्द्रियों द्वारा जाना जा सकता है। द्वितीय वह जिसका
अर्थ इन्द्रियों से नहीं जाना जा सकता । यह दोनों प्रकार के ‘शब्द’
प्रमाण कहलाते हैं। यथा किसी ने कहा कि जिसकी पुत्र की इच्छा हो वह
यज्ञ करे। यहां यज्ञ द्वारा पुत्र का उत्पन्न होना या न होना इन्द्रियों के द्वारा
ग्रहण हो सकता है। दूसरे किसी ने कहा कि जिसको स्वर्ग की कामना हो तो वह यज्ञ
करे-सो स्वर्ग की प्राप्ति इन्द्रियों से नहीं जानी जा सकती । क्योंकि स्वर्ग सुख
का नाम है और सुख किसी इन्द्रिय का विषय नहीं।
प्रश्न- इन प्रमाणों से कौन -2 सी
वस्तुएं जानी जा सकती हैं ?
आत्मशरीरेन्द्रिया-र्थबुद्धिमनःप्रवृत्तिदोषप्रेत्यभावफलदुःखापवर्गास्तु
प्रमेयम् II1/1/9
अर्थ : यह बारह वस्तु ‘प्राप्य’
अर्थात् प्रमाणों से जानी जानी जा सकती हैं, प्रथम
‘आत्मा’ दो प्रकार का है एक तो वह जो
सारे संसार में व्याप्त है और सर्वज्ञ है, दूसरे वह जो
कर्मों का फल भोगने वाला है। जिसके भोग का आयतन (मकान) यह शरीर है और भोग के साधन
रूप ‘इन्द्रियें हैं, और भोग्य पदार्थ’
अर्थात जो इन्द्रियों के विषय हैं, वे हैं जो
इन्द्रियों द्वारा अनुभव किये जाते हैं और भोग (बुद्धि अर्थात्) ‘ज्ञान’ है। सब पदार्थ इन्द्रियों से नहीं जाने जा
सकते अतः परोक्ष पदार्थों का अनुभव कराने वाला ‘मन’ है और मन में राग-द्वेष दो प्रकार के द्वेष उत्पन्न होते हैं, जिनसे प्रवृत्ति अर्थात् किसी पदार्थ के त्याग वा अंगीकार करने का प्रयत्न
उत्पन्न होता है। ‘प्रेत्य भाव’ जन्म
मरण को कहते हैं, अच्छे बुरे कर्मों का उपभोग ‘फल’ कहलाता है। फल दो प्रकार का होता है, एक ‘दुख’ जिसे बन्धन कहते हैं
द्वितीय ‘अपवर्ग’ जिसे मुक्ति कहते हैं,
इन पर अधिक वाद-विवाद आगे सूत्रों में आयेगी। प्रश्न- ‘आत्मा’ के लक्षण क्या हैं ?
इच्छाद्वेषप्रयत्न-सुखदुःखज्ञानान्यात्मनो
लिङ्गम् II1/1/10
अर्थ : आत्मा के यह लिंग (चिन्ह) हैं, इच्छा,
द्वेष, सुख-दुःख प्रयत्न और ज्ञान यह
छः(आत्मा) के लिंग अर्थात् प्रत्यापक हैं।
व्याख्या :प्रश्न-‘इच्छा’
किसे कहते हैं। उत्तर-जिस प्रकार की वस्तु से पहले सुख मिला था,
उसी प्रकार की वस्तु को देखकर प्राप्त करने के विचार को ‘इच्छा’ कहते हैं। प्रश्न-द्वेष किसे कहते हैं ?
उत्तर-जिस प्रकार की वस्तु से पहले कष्ट हुआ था उसी प्रकार की वस्तु
को देखकर , दूर ही से अपनयन का विचार द्वेष कहलाता हैं।
प्रश्न-प्रयत्न किसे कहते हैं ? उत्तर-दुःख के कारणों को दूर
और सुख के कारणों को प्राप्त करने की क्रिया को प्रयत्न कहते हैं। प्रश्न-ज्ञान
किसे कहते हैं ? उत्तर-आत्मा के अनुकूल और प्रतिकूल पदार्थों
को पृथक-पृथक जानना ज्ञान कहलाता है। शेष सुख, दुःख का कारण
लक्षण तत्त सूत्रों में ही वर्णन करेंगे। प्रश्न-शरीर किसे कहते हैं ?
चेष्टेन्द्रियार्थाश्रयः शरीरम् II1/1/11
अर्थ : हां बैठकर इन्द्रिय पदार्थ के लिए
चेष्ट करते हैं,
उसे शरीर कहते हैं।
व्याख्या :प्रश्न- ‘चेष्टा’
किसे कहते हैं ? उत्तर- इष्ट या अनिष्ट वस्तु
की प्राप्ति व त्याग के प्रयत्न का नाम ‘चेष्टा’ हैं। प्रश्न-इन्द्रियों को आश्रम क्यों कहा ? उत्तर-जिसके
कृपाकटाक्ष से अनुगृहीत होकर अपने विषयों को इन्द्रियां प्राप्त करती हैं वह उनका ‘आश्रय अर्थात् अवलम्ब है और वही शरीर है। प्रश्न-आश्रय या अवलम्ब किसे
कहते हैं ? उत्तर-इन्द्रिय और पदार्थ के सम्बन्ध से उत्पन्न
हुआ सुख और सुख का जो ज्ञान परस्पर सम्बन्ध है उनका वही सहारा है और वही शरीर है।
प्रश्न-इन्द्रिय किसे कहते हैं ?
घ्राण-रसनचक्षुस्त्वक्श्रोत्राणीन्द्रियाणि
भूतेभ्यः II1/1/12
जिससे गन्ध, रूप,
रस, स्पर्श और शब्द का ज्ञान होता है, वे क्रमशः घ्राण (कान) कहलाते हैं।
व्याख्या :प्रश्न-इन्द्रिय का लक्षण कहो ? उत्तर-जो
अपने विषय को ग्रहण कर सके। प्रश्न - यह इन्द्रियां किन से उत्पन्न होती हैं ?
उत्तर-पच्च भूत से अर्थात् अग्नि से आंख, पृथ्वी
से नाक, वायु से खाल, पानी से रसना और
आकाश से कान उत्पन्न हैं और यह पांचो इन्द्रियां अपने-अपने विषय ग्रहण करते हैं।
प्रश्न-भूत किसे कहते हैं या कौन से हैं ?
पृथिव्यापस्तेजो वायुराका-शमिति भूतानि II1/1/13
भूमि, जल, अग्नि,
वायु और आकाश यह पांच भूत हैं। प्रश्न-इन भूतों के कौन से गुण हैं,
जिनको इन्द्रियां ग्रहण करती हैं ?
गन्धरसरूपस्पर्शशब्दाः
पृथिव्यादिगुणास्तदर्थाः II1/1/14
अर्थ : पृथिव्यादि के गुण इन्द्रियों के
अर्थ कहलाते हैं,
पृथ्वी का गुण गन्ध है, वह (गन्ध)
पार्थिवेन्द्रिय, घ्राण(नाक) का अर्थ है, जल का गुण रस है, वह जलेन्द्रिय, रसना(जिह्य) का अर्थ है, तेज अर्थात् वायु अग्नि का
गुण रूप है वह तेज इन्द्रिय, नेत्र का अर्थ है।
वायु-वीयेन्द्रिय त्वचा अर्थ स्पर्श है जो कि वायु का गुण है। शब्द आकाश का गुण है
अतः आकाश के इन्द्रिय श्रोत्र(कान) का अर्थ है। (यहां ‘अर्थ’
का अर्थ ‘विषय’ है)।
प्रश्न-बुद्धि किसे कहते हैं ?
बुद्धिरुपलब्धिर्ज्ञानमित्यनर्थान्तरम् II1/1/15
अर्थ-बुद्धि, उपलब्धि
और ज्ञान यह अलग-अलग वस्तु नहीं है किन्तु यह एक ही हैं।
व्याख्या :प्रश्न-क्या बुद्धि भूतों से
बनी हुई नहीं ?
उत्तर-यदि भूतों से उत्पन्न होती तो जड़ और आत्मा का कारण (साधन
होती और जड़ रूप कारण को ज्ञान होना असम्भव है यदि कहा जाय कि द्वितीय चेतन वस्तु
है तो भी युक्त नहीं क्योंकि शरीर त्वचादि इन्द्रिय के संधात् (समुदाय) से एक ही
चेतन है(?) यदि बुद्धि चेतन के गुण अर्थात् ज्ञान ही का नाम
है। प्रश्न-मन किसे कहते हैं ?
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