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आदमी की औकात

सा विद्या या विमुक्तये
      आदमी अपने आप को ईश्वर बनाने के लिए पैदा हुआ है, यद्यपि भौतिकता की चकाचौंध में अंधा होकर यह आदमी अपने आपको दैत्य बनाने के लिए ही पुरुषार्थ कर रहा है, क्योंकि आज के समय की शिक्षा और लोगों की मानसिकता कुछ इस प्रकार की ही है। आप स्वयं देख सकते हैं, कि लोग सोसल मिडीया पर किसी तरह की पोस्ट करते हैं। जिस को देख कर समाज की गति को आसानी से समझा या देखा जा सकता है, अधिकतर पोस्ट राजनीतिक विषय पर केन्द्रीत होती हैं, दुसरी मनोरंजन को केन्द्र में रख कर की जाती है, तीसरी वह पोस्ट होती हैं जो धार्मिक पाखंड को प्रोत्साहित करने के लिए की जाती है, बहुत मुश्किल से आपको हज़ारों पोस्ट में से एकाक पोस्ट यथार्थता को प्रकट करती हुई मिल सकती है। इसके अतिरिक्त और जो पोस्ट होती हैं उनमें विज्ञापन धनार्जन और शिक्षा का उद्देश्य होता है यद्यपि यह शिक्षा केवल धनार्जन के लिए ही दी जाती है। गहराई से देखने पर इनमें कोई समझ या बुद्धि की झलक नहीं दिखती है। इसके बारे में की हमारे भारत के महर्षियों को बहुत पहले ही यह पता चल गया था, कि मानव मस्तिष्क का पतन हो रहा है, इसलिए उन्होंने अपने पुरुषार्थ से मनुष्यों के जीवन को उचा उठाने के लिए जो दिव्य साधन थे, उन को विचार रूप में संकलित करके संरक्षित कर दिया। लेकिन जो मनुष्य दैत्य के स्वभाव के हैं, जब उनकी दृष्टि में वह सब आया तो उन लोगों ने उसको भी अशुद्ध कर दिया। यहीं बात उपनिषद में आती है की मानव की इन्द्रियां जिस आँख से श्रेष्ठ वस्तुओं को देखती है, उसी दृष्टि से वह निकृष्ट वस्तु को भी देखती है, इस लिए यह इन्द्रि अपने लक्ष्य से पथ भ्रष्ट हो जाती हैं। ऐसा ही मानव की और दूसरी इन्द्रियों के साथ भी होता है, वह सब भी श्रेष्ठ के साथ निकृष्ट वस्तुओं को भी देखती समझती और महसूस करती हैं। ऐसा ही हमारे मन के साथ भी है हमारा मन भी श्रेष्ठ विचार भी कर सकता है, और निकृष्ट विचार भी कर सकता है। जिसकी अधिकता अधिक होगी उसी तरफ हमारी इन्द्रियां और मन जाते हैं। अर्थात उसी तरफ झुक जाते हैं। जैसा की औरत, राजा, और लताएं इनके समीप जो भी होता है वह इसी को अपना बना लेते हैं। 
     भारतीयों का प्राचीनतम सबसे श्रेष्ठ ज्ञान का स्रोत वेदों को माना जाता है, इसको दो प्रकार के लोग मानने और समझाने वाले हैं, पहले वह हैं जो यह कहते हैं कि वेदों में मूर्ति पूजा है, दूसरे वह हैं जो कहते हैं, कि मूर्ति पूजा नहीं है, मूर्ति पूजा करने वालों की संख्या बहुत अधिक है। इसका ही फायदा उठा कर आज की भारत सरकार राजनीतिक करण कर रही है, पहले राम मंदिर के लिए सैकड़ों सालों तक विवाद चला, फिर राम मंदिर बन रहा है, अब काशी की विश्वनाथ मंदिर और  विंध्याचल की मंदिर मथुरा की कृष्ण मंदिर इत्यादि पर भी कार्य चल रहा है। क्योंकि मुसलमान शासक जब भारत में आए तो उन्होंने भारतीयों को खत्म करने के साथ उनकी संस्कृत सभ्यता को नष्ट करने का बहुत बड़ा प्रयास युद्ध स्तर पर किया था। जिसमें उन्होंने बहुत बड़े - बड़े मंदिरों को तोड़ कर मस्जिद बना दिया और मंदिर को लूट लिया। क्योंकि पहले राजा भी मंदिरों के सुरक्षा और आस्था पर अपने राज्य की शक्ति से भी बड़ा मानते थे, इसलिए अपने राज्य की भारी मात्रा में धन संपत्ती को मंदिरों में छिपा कर रखते थे, क्योंकि लोगों की अगाध मंदिर और देवी देवता के प्रति अगाध श्रद्धा थी जिसके कारण वहां पर रखी संपत्ती को अपने राज्य के किसी भी व्यक्त से कोई खतरा नहीं था इसलिए वहां पर राजा बहुत अधिक मात्रा में धन को रखा करते थे और वहां सुरक्षित रहता था। दक्षिण भारत के राजा तो स्वयं को देवता के समान समझते थे, इसलिए बड़े - बड़े मंदिर को बना कर स्वयं देवता के समान रहते थे। उदाहरण के लिए केरल कर्नाटका तमीलनाडु इत्यादि की मंदिरों में आज भी बहुत अधिक धन है, जिस धन को सरकार आज भी लेती है, अभी हाल में ही केरल की पद्मनाभ मंदिर में से बहुत अधिक धन भारत सरकार ने प्राप्त किया है। मुसलमानी लुटेरा मोहम्दगोरी सत्रह बार गुजरात के मंदिर सोमनाथ और पशुपतिनाथ मंदिरों पर आक्रमण करके उसके कई बार लूटा था, जहां से हजारों टन सोना चाँदी और हीरा मोती ले गया था। और यहीं कार्य देख कर अंग्रेज भी भारत में आए पहले मुसलमानी लुटेरे भयंकर अत्याचार का सहारा लेने के बावजूद भी वह सब भारत को अपने पूर्ण अधिकार में ज्यादा समय तक नहीं रख सके, उनसे यह अधिकार अँग्रेज़ों ने छिन लिया। क्योंकि अंग्रेज मुसलमानों से ज्यादा खतरनाक और भौतिक वादी हैं, उनके पास भौतिक साम्राज्य को स्थापित करने और इसको चलाने के लिए मुसलमानों से ज्यादा शक्तिशाली तंत्र था। लेकिन वह भी सफल नहीं हो सके। क्योंकि जिनके कारण इस भारत देश पर मुसलमानों और अँग्रेज़ों ने अपना अधिकार किया था, वह सभी मूर्ति पूजक ही थे। इन्हीं को उन्होंने अपना शिकार बनाया था, लेकिन भारत में जो मूर्ति पूजा नहीं करते थे। जो वास्तव में वेदों मूर्ति पूजा नहीं मानते थे, वह मुसलमान और अँग्रेज़ों से लड़ कर इन को यहां भारत से बाहर जाने के लिए विवश किया। जिसमें महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती और उनके शिष्यों की बहुत बड़ी भूमिका थी। अंग्रेज भारत से बाहर तो गए, लेकिन अपने तंत्र अर्थात संविधान को यहां भारत देश के उपर हमेशा के लिए स्थापित कर दिया। जिसका परिणाम आज का प्रत्येक मानव भोग रहा है। आज की सरकार की मान्यता उसी प्रकार से है। जैसी मान्यता बाहरी विदेशी आताताईयों की थी। क्योंकि यह सब भी उसी विचारधारा में पले बढ़े हैं। यह सब निष्पक्ष भारतीय विचारधारा का पालन या उसका अनुमोदन नहीं कर सकते हैं। क्योंकि इनका कार्य सिर्फ राजनीतिक है। इनका संबंध भारत की आत्मा या भारती जनता के आध्यात्मिक उत्थान परक नहीं है। और दूसरी बात इन को भारतीयता का पूर्ण ज्ञान भी नहीं है। क्योंकि भारतीय मानस की झलक तो वेदों को पढ़ने से मिलती है। जो सर्व सुलभ नहीं, यदि सुलभ है भी, तो लोगों को उन्हें समझने का सामर्थ्य नहीं है। क्योंकि समझने का सामर्थ्य तप से उत्पन्न होता है, यदपि आज का मानव तप से तो उसी प्रकार से भागता है। जैसे मछली आकाश से दूर भागती है क्योंकि वह पानी में ही अपने को जीवित रख सकती है। तप का मतलब है अपनी आत्मा को बलवान बनाना जिससे वह बड़े से बड़े भौतिक क्लेश को आसानी से झेल सके, आज यही सबसे बड़ी कमजोरी है इस आधुनिक मानव की वह अपने सभी समस्या का समाधान भौतिक वस्तुओं से करना चाहते हैं। जब वास्तविकता तो यह है की मानव के पास सिर्फ भौतिक समस्या नहीं है, मानव के पास मानसिक समस्या और आध्यात्मिक समस्या भी है। जिसका समाधान जैसा की सांख्य दर्शन कार कपिल कहते हैं-   अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्तपुरुषार्थः II1/1   तीन प्रकार के दुःखों का अत्यन्ताभाव हो जाना प्राणी मात्र का मुख्य उद्देश्य है। इसका समाधान वह अगले सूत्र में करते हुए कहते हैं- न दृष्टात्तत्सिद्धिर्निवृत्तेरप्य-नुवृत्तिदर्शनात् II1/2  दुष्ट पदार्थों अर्थात् औषधादि द्वारा दुःख का अत्यन्ताभाव हो जाना सम्भव नही, क्योकि जिस पदार्थ के संयोग से दुःख दूर होता है, असके वियोग से वही दुःख फिर उपस्थित हो जाता है, जैसे अग्नि के निकट बैठने या कपड़े के संसर्ग से शीत दूर हो जाता है, और अग्नि या कपड़े के अलग होने से फिर वही शीत उपस्थित हो जाता है, अतएव दृष्ट पदार्थ अनागत दुःख की औषध नहीं। प्रश्न- क्या दृष्ट पदार्थ दुःख की अत्यन्त निवृत्ति का कारण नहीं? उत्तर- नहीं। प्रात्यहिकक्षुत्प्रतीकारवत्तत्प्रतीकारचेष्टनात्पुरुषार्थत्वम् II1/3 नित्यप्रति क्षुधा लगती है उसकी निवृत्ति भोजन से हो जाती है। इसी प्रकार और दुःख भी प्राकृतिक वस्तुओं से दूर हो सकते हैं, अर्थात् जैसे औषध से रोग की निवृत्ति हो जाती है अतएव वर्तमान काल के दुःख दृष्ट पदार्थों से दूर हो जाते है, इसी को पुरुषार्थ मानना चाहिए। सर्वासम्भवात्सम्भवेऽपि सत्त्वासम्भवाद्धेयः प्रमाणकुशलैः II1/4 प्रथम तो प्रत्येक दुःख दृष्ट पदार्थों से दूर ही नहीं होता, क्योकि सर्व वस्तु प्रत्येक देश और काल में प्राप्त नहीं हो सकती। यदि मान भी लें कि प्रत्येक आवश्यकीय वस्तुयें सुलभ भी हों तथापि उन पदार्थों से दुःख का अभाव नहीं हो सकता, केवल दुःख का तिरो-भाव कुछ काल के लिये हो जायेगा, अतएव बुद्धिमान को चाहिए कि दृष्ट पदार्थों से दुःख दूर करने का प्रयत्न न करै, दुःख के मूलोच्छेद करने का प्रयत्न करे, जैसा कि लिखा है- उत्कर्षादपि मोक्षस्य सर्वोत्कर्षश्रुतेः II1/5 मोक्ष सब सुखों से परे है और प्रत्येक बुद्धिमान् सबसे परे पदार्थ की ही इच्छा करता है। इस हेतू से दृष्ट पदार्थों को छोड़कर मोक्ष के लिए प्रयत्न करें, यही प्राणियों का मुख्य उद्देश्य है।
   जबकि आज का पश्चिमी जगत जिस विज्ञान को आधार बना कर आगे बढ़ रहा है, जिसका अंधानुकरण हमारी भारतीय शिक्षक मंडल और शिक्षा मंत्रालय अनुसरण कर रहा है, उसमें आध्यात्मिक ज्ञान नहीं है, पश्चिम का आध्यात्मिक ज्ञान का मुख्य केन्द्र केवल ईशा मसीह और उनके उपदेशों का संकलन बाईबील है, दूसरी तरफ मुसलमान हैं, जो मुहम्मद शाहब के द्वारा रचित कुरान है, इसी प्रकार से पारसी है, सिख हैं। यह सब अपनी - अपनी बात करते हैं, और उसके लिए सब कुछ करने के लिए तैयार हैं। और यह सब बहुत अधिक पुराना नहीं है, पारसी धर्म जो लगभग समाप्त हो चुका है, वह चार हजार साल पुराना है, जिसका संस्थापक जरथ्रुस्त हुए और इनका मुख्य ग्रन्थ जिन्दावस्ता है, जिसमें वेद के कुछ मंत्रों का अनुवाद मिलता है। इसके बाद यहुदि धर्म हुआ, जो तीन हजार साल पुराना है, इसके बाद माहात्मा बुद्ध का आगमन हुआ, ढाई हजार साल पहले, जिनके द्वारा बौद्ध धर्म की स्थापना की गई, इनके साथ ही जैन धर्म के संस्थापक हुए महावीर, फिर 2 हजार साल पहले ईशाइ धर्म ईशा मसीह के द्वारा बनाया गया, इसके बाद मुसलमानों के स्थापक मोहम्द साहब के द्वारा ईश्लाम की स्थापना की गई, इससे पहले मुसलमान और ईसाई सभी यहूदी धर्म का पालन करते थे। यहूदी धर्म भी लगभग समाप्त हो चुका है, अब ईसाई और इस्लाम धर्म को ज्यादा मानने वाले हैं। और इन दोनों में भयंकर संघर्ष चल रहा है, एक दूसरे को मरने मारने के लिए तैयार है। क्योंकि इन दोनों की मान्यता अलग- अलग है। ईसाई संपूर्ण विश्व को ईशाई बनाना चाहते हैं, क्योंकि उनका मानना है कि उनका धर्म ही सबसे अधिक श्रेष्ठ है। ईश्लाम को मानने वाले मानते हैं कि उनका धर्म सबसे अधिक पाक साफ है, जिससे वह सभी धर्म के मानने वालों को समाप्त करके वह अपना धर्म पूरे विश्व पर लागू करना चाहते हैं। एक धर्म और है, जिस को सिख कहते है, यह हिन्दू भारतीयों से ही निकल कर बना है, और भारतीय है, यह अपने गुरु गुरुनानक को मानते हैं, और इनका धार्मिक ग्रंथ गुरुग्रन्थ शाहब है। इन सब से पुराना भारतीय वैदिक धर्म है।  जिसके पालन कर्ता श्री राम और कृष्ण नामक दो महापुरुष हुए हैं। इन्होंने संपूर्ण पृथ्वी पर अपना अधिकार किया था। और कृष्ण आज से पांच साल पहले हुए थे, जिनके द्वारा गीता का उपदेश दिया गया है, जो महाभारत में पाई जाती है। राम आज से सात हजार साल पहले हुए थे, जिनके बारे में जानकारी देने के लिए ही रामायण बाल्मिकी द्वारा लिखा गया हैं, जिसका हिन्दी भाषा में राम चरित मानस तुलसीदास ने तैयार किया है। मूर्ति पूजक इन को अपना भगवान मानते हैं, और भी हिन्दू धर्म में बहुत से देवी देवता की उपासना की जाती है, जिनकी मूर्ति को बना कर मंदिरों में स्थापित कि गया है, जहां पर उनका पूजा पाठ किया जाता है। मंदिरों का विषय वैज्ञानिक सिद्ध करने के लिए लोग लगे हैं। यद्यपि वेदों में मूर्ति पूजा को अस्वीकार किया गया है।  
      यह सब जानकारी देने का मतलब सिर्फ इतना है की वास्तविकता जो है, वह प्रकट हो सके, यह सब महापुरुष मिल कर संपूर्ण विश्व की मानवता को दुःखों के मुक्त करने के लिए पुरुषार्थ किया था। लेकिन यहां की मूर्ख जनता ने इन को ही अपना सब कुछ बना कर इनका राजनीतिक करण कर दिया और आपस में इस विषय पर लड़ने के लिए बहुत सारे धर्म युद्ध करने लगी और यह युद्ध आज भी चल रहा है। लेकिन यह प्रशासन और दण्ड के डर से खुल कर सामने नहीं आते जहां तक इनका वश चलता है यह सब धर्मांतरण कर रहें हैं। जबकि मानवता के रक्षकों का कथन था की मानव अपने आप को जाने, लगभग सभी में यहीं एक ही उपदेश है, की मानव अपने आपको जाने और अपने को अपने ज्ञान से इस भौतिक जगत की समस्यायों और दुखों से मुक्त करने का प्रयास करें, इसके बजाय यह हुआ की इस मूर्ख अज्ञानी जनता और इसके नेताओं और धर्माधिकारियों ने अपने आपको ही भूल गए। की वह कौन है? जिसकी याद दिलाने के लिए ही हमारे ऋषि महर्षियों ने ज्ञान को संरक्षित किया था। और वह शुद्ध ज्ञान का कोश वेद हैं जो संपूर्ण विश्व की मानवता के लिए है। समस्या तो यह की जो साधारण जनता है, वह सबसे अधिक दुःख ग्रस्त और समस्या ग्रस्त है, वह उन तक पहुंच ही नहीं पा रहा है। क्योंकि आज वह महर्षि हैं, नहीं है, और वह राजा भी नहीं है, और जिन को राजा कहा जाता है वह मूर्ति पूजक है, और जिन को महर्षि कहा जाता है वह व्यापारी है। जिसके कारण लोगों के पास शुद्ध ज्ञान का श्रोत वेद, लोगों के घरों में मिलना लगभग असंभव हो चुका है, जिन को हम भारतीय कहते है, वह सभी भारतीय मान्यता या वेदों को मानने वाले नहीं हैं, हिन्दू स्वयं वेदों से परिचित नहीं है, जितनी शक्ति से अपनी बात यहूदी मुसलमान और ईशाई संसार के सामने रखते हैं, ऐसा हिन्दू नहीं करते है, राम और कृष्ण महापुरुष हैं, इनके द्वारा कहा गया और इनके द्वारा आचरण किया गया, जो भी कार्य है। इनका पालन नाम मात्र कहने को सभी लोग करते हैं, जो हिन्दू हैं, यद्यपि वेदों में जो  ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान है, उसको ना प्राप्त करने के कारण से संपूर्ण मानवता आज त्राहि -त्राहि कर रही है। ज्ञान अर्थात जानकारी और विज्ञान अर्थात उस जानकारी का परिणाम है, यह जगत है। जिसका साक्षात्कार आप रोज अपने जीवन में रोज करते हैं। ब्रह्मज्ञान अर्थात अपने आपको ही संपूर्ण जगत की प्रत्येक वस्तु में देखना यह कला ही इस संसार से लुप्त हो रही है। जिसके कारण संपूर्ण मानवता ही जगत से लुप्त होने के कगार पर आकर खड़ी हो चुकी है। और ऐसा ही चलता रहा तो इसको समाप्त होने में बहुत अधिक समय नहीं लगेगा। क्योंकि जिस वृक्ष की जड़ जमीन से कट जाती है, वह ज्यादा समय तक पृथ्वी पर खड़ा नहीं रहता है। भले ही वह कुछ समय तक खड़ा रह सकता है, या फिर उसके खड़े होने का भ्रम हो सकता है। लेकिन वह जल्दी ही सुख कर गीर जाएगा। आज यहां पृथ्वी पर संपूर्ण मानवता ही मनुष्य सुख रही है, जिससे इसका अंदाज लगाना बहुत आसान है, की यह जल्दी ही गिर जाएगी। और इसके बाद जो होगा वह आप स्वयं कल्पना कर सकते है। आप और आपकी स्वतंत्रता नहीं होगी आप एक वस्तु कि तरह से एक चलती फिरती लाश और  एक गुलाम से अधिक नहीं होगें। और आप पर मशीनों का पूर्ण अधिकार होगा। बिना मशीनों के जीना मुश्किल ही नहीं होगा। आज जीवन के हर क्षेत्र के कार्य करने के लिए मशीन बन चुकी हैं, जिन्होंने इन मशीनों को बनाया है, वह सब इन मशीनों के दाश बन चुके हैं, और वह चाहते हैं की संपूर्ण मानवता इसका दाश बन जाए जिसके लिए वह अपनी पुरी शक्ति को लगा कर उन मशीनों का प्रचार कर रहें हैं। इन मशीनों को खरीदने के लिए धन चाहिए, और धन सभी के पास पर्याप्त नहीं है, धन को प्राप्त करने के जो सबसे सरल रास्ता है, वह नौकरी करने का है, और नौकरी के लिए योग्यता चाहिए जिसके लिए सरकारें विश्व विद्यालय और तमाम तरह की शैक्षणिक प्रशिक्षणिक संस्थान चला रहें हैं। वहां पर यह सिखाया जाता है आपको मशीनों को चलना सिखाना चाहिए। उदाहरण के लिए एक आदमी कम्प्युटर चलाता है, एक आदमी हवाई जहाज चलाता है, एक आदमी ट्रेन चलाता है, एक आदमी विश्व विद्यालय चलाता है, और एक ही आदमी पूरे देश को चलाता है। और यह सब एक सिद्धांत पर कार्य करते हैं वह सिद्धांत ही इन सभी को मशीन बनाता है। एक कम्प्युटर लगभग दुनिया को चलाता है, यदि वह फेल हो गया तो संपूर्ण दुनिया समाप्त हो सकती है, क्योंकि आदमी स्वयं को मशीन का मालिक नहीं बना रहा है। क्योंकि जो मालिक बनाने का ज्ञान है, वह तो सरकार के पास नहीं है वह सर्वसुलभ है, लेकिन साधारण भोला भाला मानव जिस को प्रचार दिखा कर उसके इसलिए तैयार किया जा रहा है कि वह बाजार में उपलब्ध वस्तु का उपयोग करें और उसकी खरीद करें, यहीं सरकार और देश के संचालन करने वाले व्यापारी चाहते हैं और कर भी रहें है। सभी मनुष्यों को एक श्रेणी में रख कर उन को केवल ग्राहक समझा जाता है। जितना बड़ा ग्राहक है उतना ही समाज में उसकी अधिक प्रतिष्ठा है। उदाहरण के लिए एक आदमी आपके पड़ोस में रहता है और वह हर महीने एक नई मिल को खरीदता है, और दूसरा आदमी अपनी रोटी को भी नहीं खरीद पाता उसके लिए उसको दिन रात धूप में पसीना बहाता है। जिसे हम मजदूर कहते हैं, और जो मिल खरीदता है वह व्यापारी है, और एक तीसरा आदमी है जिस को राजा कह सकते हैं, सरकार का प्रतिनिधित्व करता है, वह सारी योजना इसको ध्यान में रख करबनाता है की व्यापारी को जो एक महीने में एक मील को खरीदता है वह रोज एक मिल को खरीदे, और जो मजदूर है, उसके लिए ऐसी व्यवस्था करता है, कि वह मजदूर जो एक दिन में यदि एक किलो खाता हैं तो उसको केवल आधा किलो खाना चाहिए जिससे उसका आधा किलो खाना बचेगा और वह उससे वह अपने मरने के बाद अपने पीछे बचे हुए घर के सदस्यों के लिए कुछ राशि अपने बीमा के रूप में देकर मरे, अर्थात जब तक वह जिंदा था रोज परिश्रम करके मरता रहा और मरने के बाद भी उसका उपयोग सरकार कर सके जिससे आगे कोई उसके परिवार में बुद्धिमान ना पैदा हो सके, क्योंकि उसको सरकारी विद्यालय में मुफ्त शिक्षा दिया गया है, सरकारी विद्यालय में खाना दिया गया है, सरकारी विद्यालय में कपड़ा दिया गया, सरकारी घर दिया गया, सरकारी गैस चूल्हा दिया गया है, भोजन बनाने के लिए, और सरकार की तरफ से घर के प्रत्येक आदमी को पाँच किलो गेहूँ, पाँच किलो चावल दिया जाता है। इस प्रकार से उसको जब सब कुछ सरकार की तरफ से दिया जाता है तो वह स्वयं को सरकार के संस्कार से कैसे मुक्त पाएगा। अर्थात वह सरकार का गुलाम पैदासी हुआ। दूसरी तरफ जो व्यक्ति व्यापार करता है वह सरकार को चलाता है सरकार उसकी सुविधा के लिए नित नये -नये कानून बनाता है। दोनों आदमी ही हैं, लेकिन दोनों को सरकार अलग - अलग दृष्टि से देखती है। एक सरकार भी इन धनियों के अन्तर गत ही चलती है। किसी देश की सरकार और व्यापारी ही उस देश को चलाते हैं, मजदूर हमेशा मजदूर ही होता है, बहुत सारे खानदानी मजदूर हैं, जबकि उद्योगपति का कोई खानदान नहीं होता उसका तो केवल एक तंत्र है, कि किसी प्रकार से वह मजदूरों से उनकी शक्ति शोषण कर सके उसको केवल इतना दिया जाए की जिससे उसका केवल जीविकोपार्जन हो सके, उसके बाद भी अब स्वचालित मशीनों ने अपना कार्य शुरु कर दिया है। आगे वाले समय में लगभग सभी कार्य मशीनें करेगी और आदमी स्वतंत्र हो जाएगा। जैसा की पहले आदमी के पास इतना अधिक पैसा नहीं था, जितना आज है, और इतना अधिक भौतिक सामग्री भी नहीं थी, फिर भी लोगों के जीवन में बड़ा सुख था लोगों के पास बहुत समय भी था, और लोग बहुत मजबूत हुआ करते थे। आज लोगों के पास बहुत कुछ है बहुत प्रकार की भौतिक सामग्री है, लेकिन उसके पास अपने लिए समय नहीं है। क्योंकि मनुष्य भौतिक वस्तुओं का गुलाम बन चुका है। उसकी मालिकीयत समाप्त हो चुकी है। वह दाश बन चुका है। किसी मनुष्य में संतोष नहीं हैं कोई भी तृप्त नहीं है, अतृप्ति स्वाभाविक गुण बन चुका है। यह सब दोष मानव के पास उपलब्ध ज्ञान के कारण के कारण ही है। पहले एक परिवार में सैकड़ों लोग रहते थे, एक आदमी को दर्जनों पुत्र और पुत्री हुआ करते थे। और सभी मजबूत और समझदार होते थे। और आज ज्यादातर एकल परिवार में पति पत्नी और कुछ एक छोटे बच्चे होते हैं, फिर भी पति पत्नी संतुष्ट नहीं रहते हैं, वह भी नशे का शिकार और तनाव ग्रस्त होकर आत्महत्या कर रहें हैं। इतने अधिक विद्यालय हैं, इतने अधिक अस्पताल हैं, इतनी अच्छी संचार व्यवस्था है, फिर भी मानव मन में एक दूसरे के प्रति बहुत अधिक दूरी बढ़ती जा रही है। आदमी लाखों के बीच में रहता है, लेकिन वह अकेला है, उसका मानसिक बीमारी हो जाती है और अपना इलाज कराने के लिए चिकित्सक की जेब भरता है।                                            
       हमारा समाज आज बहुत तीव्रता से माया की तरफ बढ़ रहा है, अर्थात जो नहीं है वह सिद्ध करने का प्रयास हर तरफ से हो रहा है, की वह है, उदाहरण के लिए आज के दौर में एनीमेसन 3 डी का तो आपने नाम सुना ही होगा इसमें जो वस्तु वास्तव में नहीं होती है, उसको भी आप अपनी कल्पना से बना कर संसार को दिखा सकते हैं। अर्थात नकली संसार का निर्वाण कर सकते हैं, हमारे सभी महा पुरुष पहले यह मानते थे कि यह संसार ईश्वर ने बनाया है, इसलिए वह अपने हर सिद्धांत को ईश्वर को केन्द्रित रख कर रचते थे। लेकिन आज ऐसा नहीं है, आज सभी कुछ मनुष्य की कल्पना को आधार बना कर बनाया जा रहा है, एक काल्पनिक संसार वास्तव में जिसका सत्यता से कोई संबंध नहीं है, आज का मानव किसी भी प्रकार से अपना उल्लू सीधा करना चाहता है। मानव कहने के लिए मानव स्त्री पुरुष है, वास्तव में यह सब पशुओं से भी आज निकृष्ट स्थिति में स्वयं को पहुंचा दिया है, इसलिए ही धीरे - धीरे सभी पशु इस पृथ्वी पर से लुप्त हो रहें हैं, आने वाले समय में लगभग सभी पशु समाप्त हो जाएगें, पशु केवल चिड़ीयां घर में ही देखने के लिए कुछ एक बचेगें। मानव स्वयं जब पशु का स्थान ले लिया, तो पशु को स्थान हमारे समाज में कहा रहा, आज मानव अपने जीवन को ले कर बहुत अधिक परेशान है, उसको एक नहीं एक हजार तरह की परेशानी है, उसके पास मानव के बारे में सोचने के लिए समय नहीं है। तो वह पशु के बारे में कैसे विचार कर सकता है? अविद्या से मृत्यु को पार करके और विद्या से मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है। यह जगत अविद्या ग्रस्त है, इसके ज्ञान से कोई भी मृत्यु से पार हो सकता है, अर्थात जिसको पास पर्याप्त मात्रा में भौतिक सुख सुविधा की वस्तु का संग्रह है, वह इस संसार में भूख बीमारी से अकाल नहीं मरेगा, वह मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता है, क्योंकि उसके पास विद्या नहीं है। इसके विपरीत जिसके पास बहुत अधिक मात्रा में भौतिक धन संपत्तियों का संग्रह नहीं है, फिर भी वह संयम पूर्वक अपने जीवन को जीते हुए अपने आत्मज्ञान अर्थात ब्रह्मज्ञान के संरक्षण से मोक्ष को उपलब्ध हो सकता है। अर्थात वह सदा के लिए दुखों से मुक्त हो सकता है। और विद्वानों के मतों इसी विषय को और अधिक स्पष्ट रूप से समझते हैं।  
जैसा एक श्लोक कहता - 
येशा न विद्या तपो न ज्ञानमं शिलं गुणों न धर्मं। 
ते मृत्यु लोका भूइ भार भूता मनुष्य रूपेण मृगाश्च चरंती।  
श्लोक को समझते हैं, जिसमें विद्या नहीं हैं, उन मनुष्यों के लिए यहां उपदेश दिया जा रहा है, अर्थात जिसके पास विद्या है, उसके लिए यहां पर उपदेश नहीं दिया जा रहा है, इसलिए हमें यह समझना होगा कि विद्या और अविद्या क्या है?  इसके लिए हम यजुर्वेद का मंत्र ले सकते हैं, जिसमें विद्या और अविद्या क्या है? उसके बारे में उपदेश दिया जा रहा है।
 अन्धं तमः प्रविशन्ति ये अविद्यामुपासते । ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां रताः ॥ ९ ॥ 
 अंधकार से आच्छदित जो लोग हैं जिनके अंदर अपने आत्मा का ज्ञान या प्रकाश नहीं है, वह अविद्या को धारण करने वाले अज्ञानी मनुष्य कहें गये हैं, अर्थात जो भौतिक वस्तुओं को ही सब कुछ मानते हैं, उसके लिए ही अपना सारा जीवन व्यतीत करते हैं, दूसरे वह हैं, जो शिक्षित हैं, फिर भी वह भौतिक वस्तु के लिए प्रयास रत हैं, और अधिक विलास का संसाधन एकत्रित करने में लगे हैं। वह तो और अधिक  भ्रष्ट हैं। इस मंत्र में कहा जा रहा है कि जो शिक्षित नहीं हैं वह यदि अज्ञान पूर्ण कर्म करते हैं, तो ठीक है लेकिन जो लोग शिक्षित हैं यदि वह भी ऐसा कार्य करते हैं तो बहुत बड़ी विपत्ति संसार के लिए उपस्थित होने वाली है। फिर यह संसार होने का कोई मतलब सिद्ध नहीं होगा क्योंकि संसार तो पहले से मृत्युलोक है, यहां सब कुछ मरा पहले से ही है। यदि अज्ञानी इसको सत्य मानता है, और इसमें स्वयं के अस्तित्व को भूल जाता है, तो उसको शिक्षित किया जा सकता है, लेकिन जब एक शिक्षित व्यक्ति जो अपने अस्तित्व को ही नहीं स्वीकारता हैं तो बहुत बड़ा संकट उपस्थित होता है।  
      आज जिस समाज में रहते हैं वहां पर अधिकतर लोग शिक्षित है, लेकिन समाज की स्थिति बहुत ही भयंकर है, क्योंकि आज जो वृद्ध हैं वह युवा की तरह से भोग विलास के लिए अपने युवा पुत्र और पुत्री की हत्या की योजना बना रहे हैं, और आज की युवा पीढ़ी नपुंसकता का शिकार हो रही है। यह सब क्या है? यह सब इसलिए है क्योंकि हमारे समाज में शिक्षित व्यक्ति बहुत अधिक बढ़ चुके हैं, यदि हमारी आधुनिक शिक्षा और आधुनिक विकास वाद हमारी आने वाली पीढ़ी को कमजोर दाश और नपुंसक बनाती है तो वह गलत है, क्योंकि इन की शिक्षा का केन्द्र केवल शरीर की भौतिक इच्छाओं की तृप्ति ही उद्देश्य में रख कर दी गई है।    
यह सभी लोग घोर अन्धकार की तरफ बढ़ हैं । इसलिए यह सभी लोग अविद्या की उपासना करते हैं । इस प्रकार से  यह सभी लोग एक अज्ञानि मनुष्य जो अशिक्षित है उससे भी अधिक अंधकार और अज्ञान के गर्त में प्रवेश कर रहें हैं। अर्थात अज्ञानी को ज्ञान दिया जा सकता है, लेकिन जो स्वयं को ज्ञानी समझते हैं उन को ज्ञान देना असंभव है उन को अज्ञानी बनाया जा सकता है, आज यहीं हो रहा है कि ज्ञानियों को अज्ञानी बनाने की सारी तैयारी हो रही है, या फिर यह कहे की अज्ञानी बनाए जा रहें है, तो गलत नहीं होगा। जो  विद्या ग्रहण करने  में  लगे हुए हैं । वह वास्तव में अविद्या को ही ग्रहण कर रहें हैं। क्योंकि इनकी शिक्षा इन को मुक्त नहीं करती है, इन की शिक्षा इन को और अधिक भौतिक वादी बनाती है, और इन की मान्यता है कि जिनके पास भौतिक सामग्री की पर्याप्त मात्रा नहीं हैं वह अज्ञानी है उन को भी भौतिक संपत्ति का संग्रह करने के लिए संग्राम या संघर्ष करना चाहिए। जबकि मंत्र का भाव ऐसा नहीं है मंत्र में तो बहुत सरल बात कही जा रही है कि जो व्यक्ति अपनी आत्मा को जानता है, वह ज्ञानी है और जो व्यक्ति अपनी आत्मा को नहीं जानता है वह अज्ञानी है, इसलिए वह कहते हैं कि जो व्यक्ति अपनी आत्मा को नहीं जानता है वह अपनी आत्मा को जान कर ज्ञानी बन कर अज्ञान दुःख अंधकार से मुक्त हो जाए। यह तो वैचारिक सिद्धांत है, यद्यपि जब हम समाज में देखते हैं, तो वहां पर इसका उलटा दिखाई देता है, जो व्यक्ति अपनी आत्मा को जानते है, वह बहुत अधिक दुःखी हैं, जो अपने शरीर को जानते हैं, वह बहुत अधिक सुखी समझे और देखे जाते हैं, आज के समय में भौतिक सुख सुविधा का चरम पश्चिम जगत के पास है, जिसका अंधानुकरण भारत भी कर रहा है।    
      प्रश्न- जो मनुष्य अज्ञानी है, वह अज्ञान के कारण जीवात्मा के प्राकृतिक ज्ञान के विरुद्ध है । यदि वे गिरी हुई दशा को प्राप्त हो, तो ठीक ही है; परन्तु विद्या में लगे हुए मनुष्य उससे भी नीची अर्थात् गिरी हुई अवस्था को प्राप्त हो तो यह नितान्त अंधेरनगरी है । उत्तर- पहले इस बात को सोचना चाहिये कि गिरी हुई अवस्था क्या है ? जहाँ तक खोज से पता लगा है, यही प्रतीत होता है कि जितना अधिक दुःख होगा उतनी ही गिरी हुई अवस्था भी होगी । अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि दुःख क्या वस्तु है ? उत्तर यह मिलता है कि स्वतंत्रता का न होना या आवश्यकता का होना और उसके हटाने की सामग्री का न होना ही दुःख है । अब जितनी आवश्यकता बढ़ती जायगी; उतनी ही उसके पूरा करने की सामग्री होगी, तो सुख होगा और यदि पूरा करने की सामग्री न होगी, तो भारी दुःख होगा ; क्योंकि अज्ञानी मनुष्य आवश्यकता रखते है, परन्तु पूरा करने की सामग्री नहीं रखते । इसलिये उनको दुःख होता है । जो मनुष्य प्राकृतिक विद्या उपार्जन करते हैं, उनकी आवश्यकतायें बहुत बढ जाती है, इसलिये न तो वह कभी पूरी हो सकती है और न उनका दुःख दूर हो सकता है । यदि इसकी तुलना करे कि अज्ञानी अधिक दुखी होते है या प्राकृत-विद्या के विद्वान, तो किसी गाँव के निवासी और किसी नगर के निवासी के जीवन से परिणाम निकल आवेगा । गाँव का निवासी स्वस्थ और नगर का निवासी रोग-ग्रस्त होगा । गाँव वाला जिस निश्चिन्तता से खेत में सोता है, नगर वालों को वह निद्रा कभी स्वप्न में भी प्राप्त नहीं होती । प्रश्न- सब मनुष्य तो अविद्या का अर्थ कर्म-काण्ड और विद्या का अर्थ ज्ञान-काण्ड लेते हैं, तुमने यह मनमाने अर्थ कहाँ से निकाल लिये ? क्योंकि विद्या का अर्थ प्राकृतिक विद्या करना किसी प्रकार ठीक नहीं हो सकता । उत्तर- जिन मनुष्यों ने स्वयं कुछ नहीं विचारा, केवल वेदान्तियों के अर्थों को लेकर कर्म-कांड को अविद्या बता दिया और संसार से विरक्त, सांसारिक कर्मों को छोड़, समाधि करने वालों के विद्या के उपासक, दुःख अविद्या के उपासकों से भी नीचे गिरा दिया, यह उनके विचार का ही फल है । संसार में विद्या तीन प्रकार की होती हैं— अविद्या, विद्या, सत् विद्या, मिथ्या ज्ञान, व्यावहारिक ज्ञान और पारमार्थिक ज्ञान । इसी के अनुसार मनुष्य भी तीन ही प्रकार के होते है- पामर, विषयी, मुमुक्षु । अविद्या की उपासना करने वाले विषयी और सत् विद्या की उपासना करने वाले मुमुक्षु कहलाते है । परमात्मा ने इस वेद-मन्त्र द्वारा बताया है कि जो ऋषि लोग अपने आपकों पामरों से अच्छा समझते हो तो यह उनकी भूल है । कि यदि वह विद्या से बढ़कर सत्-विद्या को न प्राप्त करेंगे, तो उनको अविद्या के उपासको से भी अधिक दुःख होगा ।
      जो लोग सकल जड़ जगत् के अनादि नित्य कारण प्रकृति को समझते हैं, वे अविद्या को प्राप्त करके सदा दुःखी रहते हैं। और जो उस कारण प्रकृति से उत्पन्न हुए पृथिव्यादि स्थूल, कार्यकारण रूप सूक्ष्म अनित्य संयोग से उत्पन्न कार्य जगत् को अपना इष्ट उपास्य देव मानते हैं; वे गाढ़ अविद्या को प्राप्त करके उस से अधिक दुःखी रहते हैं । इसलिए सच्चिदानन्द स्वरूप परमात्मा की सदा उपासना करें,  कौन मनुष्य घोर अन्धकार को प्राप्त होते हैं—जो मनुष्य परमेश्वर को छोड़कर असम्भूति अर्थात् अनादि, अनुत्पन्न, प्रकृति नामक सत्त्व, रज, तमगुणमय जड़वस्तु को उपास्य मानते हैं, वे घोर अन्धकार को प्राप्त होते हैं अर्थात् अविद्या को प्राप्त होकर सदा दुःखी रहते हैं । और जो सम्भूति अर्थात् उस कारण प्रकृति से उत्पन्न, महदादि स्वरूप में परिणत हुई सृष्टि अर्थात् पृथिव्यादि स्थूल जगत्, कार्य-कारण रूप सूक्ष्म, अनित्य संयोगजन्य कार्य जगत् को उपास्य मानते हैं; उसमें रमण करते हैं वे उससे भी कहीं अधिक गाढ़ अविद्या- अन्धकार को प्राप्त होकर दुःखी रहते हैं । अतः सब मनुष्य सच्चिदानन्द स्वरूप परमात्मा की ही सदा उपासना करें ॥ जो असम्भूति अर्थात् अनुत्पन्न, अनादि, प्रकृति कारण की ब्रह्म के स्थान में उपासना करते हैं, वे अन्धकार अर्थात् अज्ञान और दुःखसाङ्गार में डूबते हैं और सम्भूति जो कारण से उत्पन्न हुए कार्यरूपी पृथिवी आदि भूत, पाषाण और वृक्षादि अवयव और मनुष्यादि के शरीर की उपासना ब्रह्म के स्थान में करते हैं; वे महामूर्ख उस अन्धकार से भी अधिक अन्धकार अर्थात् चिरकाल घोर दुःखरूप नरक में गिरके महाक्लेश भोगते हैं ॥ (सत्यार्थप्रकाश एकादश समुल्लास) पुनर्मनुष्याः किं कुर्य्युरित्याह ॥ फिर मनुष्य क्या करें, यह उपदेश किया है ॥
   अन्यदेवाहुर्विद्यया अन्यदाहुरविद्यया । इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे ॥ १० ॥ 
स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
       प० क्र० – (अन्यत्) और । (एव) ही । (आहु) बताते है । (विद्या) विद्या से । (अन्यत्) और । (आहुः) बताते है । (अविद्या) अविद्या से । (इति) यही । (शुश्रुम) सुनते हैं । (धीराणाम्) धीरो को । (ये) जो । (नः) हमारे लिये । (तत्) उसे । (विचचक्षिरे) निर्णयपूर्वक उपदेश करते हैं । अर्थ- सर्व साधारण मनुष्य अविद्या की उपासना अर्थात् अज्ञानता का परिणाम और ही बतलाते हैं और प्रकृति-विद्या अर्थात् व्यावहारिक ज्ञान का और ही फल कहते है अर्थात् जो काम पामर मनुष्य करते हैं, उनका परिणाम और होता है और जो कर्म मनुष्य करते है, उनका फल दूसरा होता है । इस प्रकार हम सब अपने पूर्वजो से उपदेश लेकर जानते चले आये हैं इस मंत्र का अर्थ यह है कि प्रत्येक उपदेष्टा का कर्तव्य है कि वह अपने शिष्यों को विद्या अविद्या और सत्-विद्या का पृथक्-पृथक् फल बता दे, जिससे शिष्य धोके से दुःख न उठायें ।
आचार्य राजवीर शास्त्री
  
     मनुष्य क्या करें—विद्वान् मनुष्य धीर अर्थात् मेधावी विद्वान् योगी जनों से जिन सम्भूति विषयक वचनों का श्रवण करें उनका विवेचन करके सब मनुष्यों को समझावें । सम्भव (सम्भूति) अर्थात् संयोग से उत्पन्न कार्य जगत् से उक्त विद्वान् अन्य फल बतलाते हैं और असम्भव (असम्भूति) अर्थात् अनुत्पन्न कारण जगत् से अन्य फल बतलाते हैं । उक्त विद्वान् मनुष्य सम्भव (कार्यवस्तु), असम्भव (कारण वस्तु) से भिन्न-भिन्न वक्ष्यमाण उपकार ग्रहण करते और कराते हैं । कार्य वस्तु और कारण वस्तु के गुणों को स्वयं जान कर उनका उपदेश करते हैं । अतः सब मनुष्य कार्य और कारण वस्तु को जानें ॥४०।१०॥ 
विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह । अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते ॥ ११ ॥ 
स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
. क्र० – (विद्याम्) विद्या को । (च) और । (अविद्याम्) अविद्या को । (यः) जो । (तत्) वह । (वेद) जानना है । (उभयम्) दोनो को । (सह) साथ । (अविद्या) अविद्या से । (मृत्युम्) मृत्यु को । (तीर्त्वा) पार करके । (विद्या) विद्या से । (अमृतम्) मोक्ष को । (अश्नुते) प्राप्त होता है । अर्थ- जो मनुष्य विद्या अर्थात् व्यावहारिक ज्ञान या अनुभूत विद्या को, और अविद्या अर्थात् मिथ्या ज्ञान या विपरीत ज्ञान को एक साथ अर्थात् दोनों को सतुल्य समझते है अथवा जिस प्रकार अविद्या दुःख का कारण है उसी प्रकार अनुभूत विद्या भी दुःख का कारण ही है, ऐसा जानते हैं, वह अविद्या के परित्याग से मृत्यु अर्थात् अज्ञान से बच जाते है ओर अनुभूत-विद्या के त्याग देने से इन्द्रियों के विकारों से बचकर समाधि या मुक्ति-रूप अमृत को लाभ करते हैं । प्रश्न- अविद्या परित्याग को मृत्यु से तरना क्यो कहा ? उत्तर- जीवन की विरुद्ध अवस्था का नाम मृत्यु है और जीवात्मा चैतन्य अर्थात् ज्ञानवाला और कर्म करने में स्वतंत्र है । जब अविद्या के कारण जीव का ज्ञान दब जाता है और वह अपने आपको स्वतंत्रता के स्थान में प्रत्येक वस्तु के अधीन अनुभव करना है, तो उसकी वह दशा मृत्यु प्रतीत होती है; और मृत्यु भी उसी दशा का ही नाम है जब जीव कर्म करने में असमर्थ हो जाता है । परन्तु जब जीव अविद्या से पृथक् हो जाता है, तो वह किसी के अधीन नही रहता, इस कारण वह मृत्यु ने छूट जाता है । प्रश्न- विद्या से छूटने का उपदेश क्यों किया है ? उत्तर-विद्या (व्यावहारिक ज्ञान)तभी तक रहता है, जब तक इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयो के भोगने का कर्म करती है । अथवा जब तक इन्द्रियाँ विषयों में फँसी है, तब तक मुक्ति हो ही नही सकती । अतः बिना विद्या (सांसारिक ज्ञान) के झूठे मुक्ति का आनन्द मिलना असम्भव है । प्रश्न- यदि हम विद्या का अर्थ व्यावहारिक ज्ञान न लें, तो बिना विद्या के मुक्ति किस प्रकार प्राप्त होगी ? इस दशा मे विद्या और अविद्या को एक मानना सर्वथा अनचित होगा । उत्तर- विद्या को कोई अर्थ न लिया जाय, तो भी विद्या को पृथक् करने से ही मुक्ति होगी । जिस प्रकार एक मनुष्य नदी के पार जाना चाहता है, तो नदी से पार जाने का साधन नाव होती है; परन्तु जब तक मनुष्य नाव मे बैठा है, तब तक नदी के बीच में है, पार नही और जिस समय नाव को भी छोड़ देगा, तब पार होगा । इस प्रकार विद्या भी मुक्ति का साधन है, परन्तु जब तक इस साधन से पृथक् न हो जाय, तब तक मुक्ति-सुख का मिलना असम्भव है । इसी प्रकार विद्या और अविद्या दोनों प्रकार के ज्ञान से पृथक् होने पर मुक्ति मिलती है । इस कारण मोक्ष के चाहने वालों को संसार के प्रत्येक पदार्थ को त्याज्य समझना चाहिये । किसी वस्तु मे आत्मा को फँसाना नहीं चाहिये ।
आचार्य राजवीर शास्त्री
      मनुष्य कार्य और कारण वस्तु से क्या-क्या सिद्ध करें—विद्वान् मनुष्य सम्भूति अर्थात् कार्य नामक सृष्टि और उसके गुण, कर्म, स्वभाव, विनाश (असम्भूति) अर्थात् जिसमें सब पदार्थ विनष्ट=अदृश्य हो जाते हैं । उस कारण रूप प्रकृति और उसके गुण, कर्म, स्वभाव को साथ-साथ जानें । विनाश (असम्भूति) नित्य प्रकृति को जानकर मृत्यु अर्थात् शरीर के वियोग से उत्पन्न दुःख को पार करें। सम्भूति अर्थात् शरीर, इन्द्रिय और अन्तःकरण रूप उत्पन्न कार्य जगत् तथा धर्म में प्रवृत्त करने वाली सृष्टि को जानकर, इसका सदुपयोग करके मोक्ष-फल को प्राप्त करें । इस प्रकार कारण वस्तु से मृत्यु-भय का त्याग और कार्य वस्तु से मोक्ष-फल की सिद्धि रूप भिन्न-भिन्न फल की प्राप्ति करें । कारण और कार्य वस्तु का परमेश्वर के स्थान में उपासना करने का निषेध है; इनसे यथायोग्य उपयोग लेने का नहीं ॥४०।११॥ समीक्षा—ईशावास्योपनिषत् के १२, १३ तथा १४वें मन्त्रों (यजुर्वेद में ९, १० व ११वें मन्त्र) में सम्भूति और असम्भूति के उपयोग को समझाया गया है । इनमें प्रथम मन्त्र में कहा गया है कि जो असम्भूति की उपासना करते हैं, वे घोर अन्धकार में प्रविष्ट होते हैं और जो मनुष्य सम्भूति में ही रत हैं, वे उससे भी अधिक घोर अन्धकार में प्रविष्ट होते हैं । और दूसरे मन्त्र में कहा है कि जिन मेधावी विद्वान् योगी जनों ने हमारे लिए सम्भूति और असम्भूति का उपदेश किया है, उनसे हमने ऐसा सुना है कि सम्भूति का फल अन्य है और असम्भूति का फल दूसरा है। और तीसरे मन्त्र में सम्भूति और असम्भूति को जो साथ-साथ जान लेता है, वह असम्भूति से मृत्यु के भय को पार कर लेता है तथा सम्भूति से अमृत=मोक्ष को प्राप्त कर सकता है । इस प्रकार इस मन्त्र में सम्भूति और असम्भूति के फलों का वर्णन किया गया है— अब यहां प्रश्न उत्पन्न होता है कि असम्भूति और सम्भूति क्या वस्तु हैं ? भाष्यकारों ने इनकी जो व्याख्याएं की हैं, उनमें पर्याप्त भिन्नता है । महर्षि दयानन्द के भाष्य के अनुसार असम्भूति का अर्थ प्रकृति है, जो कभी उत्पन्न न होने से अनादि है । यह जड़ वस्तु है । इस प्रकृति से जो महत्तत्वादि उत्पन्न होते हैं, उन्हें ‘सम्भूति’ कहते हैं । ये महत्तत्त्वादि प्रकृति से सम्भूत=उत्पन्न होने के कारण सम्भूति कहलाते हैं। उक्त असम्भूति और सम्भूति का आत्मा के लिए क्या उपयोग है, यहां प्रथम मन्त्र में कहा गया है कि जो असम्भूति=प्रकृति की उपासना करते हैं, वे घोर अन्धकार में प्रविष्ट होते हैं, अर्थात् वे सदा अविद्याग्रस्त होने से सदा दुःखी रहते हैं, और जो सम्भूति=प्रकृति के कार्य पृथिवी आदि जड़ वस्तुओं से लगे रहते हैं वे उनसे भी घोर अन्धकार में प्रविष्ट होते हैं। अतः आत्मा के लिए असम्भूति और सम्भूति दोनों ही उपासनीय वस्तु नहीं हैं किन्तु एक चेतन परमात्मा ही उपासना के योग्य है । दूसरे मन्त्र में असम्भूति और सम्भूति का भिन्न-भिन्न फल बताकर उनका उपयोग बताया गया है । तीसरे मन्त्र में उन फलों का वर्णन करके बताया गया कि असम्भूति और सम्भूति आत्मा के लिए उपासनीय तो नहीं हैं, किन्तु अत्यन्त उपयोगी हैं । आत्मा को इन दोनों का साथ-साथ ज्ञान प्राप्त करके इनका उपयोग लेना चाहिए । तीसरे मन्त्र में असम्भूति के स्थान पर ‘विनाश’ शब्द का पाठ है । क्योंकि सब उत्पन्न हुए पदार्थ प्रलय में प्रकृति में विनाश=लय को प्राप्त होते हैं । जो इस विनाश के विज्ञान अर्थात् सृष्टि के कारण-कार्य भाव को समझ लेता है, वह अविद्यादि क्लेशों से बचने के कारण मृत्यु को पार कर जाता है । और सम्भूति=प्रकृति के कार्यपदार्थों का आत्मा विद्वानों की संगति में रहकर वेदोक्तविधि से ठीक-ठीक उपयोग करे तो वह अमृत= मोक्ष को प्राप्त कर सकता है । इन तीनों मन्त्रों से स्पष्ट है कि ये असम्भूति और सम्भूति आत्मा के लिए उपासनीय वस्तु तो नहीं हैं, किन्तु उपयोगी अवश्य हैं । श्री शङ्कराचार्य जी ने इन मन्त्रों के पूर्वोक्त रहस्य को नहीं समझकर विपरीत ही व्याख्या की है । इन मन्त्रों में से प्रथम मन्त्र की व्याख्या में श्री शङ्कराचार्य जी लिखते हैं—असम्भूतिम्=सम्भवनं सम्भूतिः सा यस्य कार्यस्य सा सम्भूतिः, तस्या अन्या असम्भूतिः प्रकृतिः कारणम् ..सम्भूत्यां कार्यब्रह्मणि हिरण्यगर्भाख्ये ।” अर्थात् सम्भवन=उत्पन्न होने का नाम सम्भूति है । वह जिस कार्य का धर्म है उसे सम्भूति कहते हैं । उससे भिन्न को असम्भूति=प्रकृति या कारण कहते हैं । सम्भूति का अर्थ है कार्यब्रह्म हिरण्यगर्भनामक । यहां शाङ्कर-भाष्य में ‘असम्भूति’ का अर्थ तो ठीक किया है, किन्तु सम्भूति का अर्थ पूर्वाग्रह वश कल्पित कर गए । जब ‘असम्भूति’ के अर्थ में ‘सम्भूति’ का अर्थ भी स्पष्ट कर आए हैं तो उससे भिन्नता क्यों ? यदि ‘असम्भूति’ का अर्थ प्रकृति या कारण है तो सम्भूति का अर्थ प्रकृति से उत्पन्न कार्य-जगत् होना चाहिए अथवा शाङ्करभाष्य के अनुसार यदि सम्भूति का अर्थ ‘कार्य-ब्रह्म’ है तो असम्भूति का अर्थ ‘कारण ब्रह्म’ होना चाहिए । अतः शाङ्करभाष्य में किया सम्भूति का अर्थ काल्पनिक है । और हिरण्यगर्भाख्य कार्य-ब्रह्म क्या वस्तु है ? और असम्भूति=प्रकृति क्या है ? क्योंकि अद्वैतवाद में तो ब्रह्म से भिन्न-दूसरी वस्तु होनी ही नहीं चाहिए । यहां श्री शङ्कराचार्य जी ने जगत् के कारण भूत प्रकृति की सत्ता को तो स्वीकार कर लिया किन्तु हिरण्यगर्भाख्य कार्य-ब्रह्म और मान-बैठे । जब ‘स पर्यगात्’ मन्त्र में ब्रह्म को व्यापक सर्वविधशरीरों से रहित, अविनश्वरादि कहा गया है, तब कारण ब्रह्म से कार्यब्रह्म की उत्पत्ति कैसे हो गई ? जब इन मन्त्रों से स्पष्टरूप से जड़-पदार्थों की उपासना-प्रतिषेध किया है, तब इस कार्यब्रह्म=हिरण्यगर्भ का वर्णन यहां कैसे हो सकता है ? अतः यह अर्थ काल्पनिक ही है। दूसरे व तीसरे मन्त्र में असम्भूति व सम्भूति का फल बताया गया है । किन्तु तीसरे मूल मन्त्र में कथित फल की उपेक्षा करके शाङ्कर-भाष्य में लिखा है— “सम्भूतेः कार्यब्रह्मोपासनाद् अणिमाद्यैश्वर्यलक्षणं व्याख्यातवन्त इत्यर्थः। ... असम्भवाद्=असम्भूतेरव्याकृताद् अव्याकृतोपासनात् । यदुक्तमन्धन्तमः प्रविशन्तीति प्रकृतिलय इति च पौराणिकैरुच्यते ।” अर्थात् सम्भूति=कार्यब्रह्म की उपासना से अणिमादि ऐश्वर्यरूप फल प्राप्त होता है और असम्भूति= अव्याकृत (प्रकृति) की उपासना से, जिसे ‘अन्धन्तमः प्रविशन्ति’ इस वाक्य से कह चुके हैं तथा पौराणिक उसे प्रकृतिलय कहते हैं । इस मन्त्र की व्याख्या में श्री शङ्कराचार्य जी ने सम्भूति और असम्भूति की उपासना का फल अणिमादि ऐश्वर्य-प्राप्ति आदि बतलाया है । जब कि इससे पहले मन्त्र में सम्भूति की उपासना करने वालों को घोरतम अन्धकार में प्रविष्ट होना लिखा है । यहां उन्होंने इतना भी विचार नहीं किया कि जिन असम्भूति व सम्भूति की उपासना की प्रथम निन्दा की गई है और जिस से स्पष्ट है कि वे उपासनीय नहीं हैं, तब उनका ऐश्वर्य-प्राप्ति रूप फल कैसे सम्भव है ? और इस मन्त्र में ‘उपासना’ शब्द भी नहीं है । मन्त्र में जिस उपयोगरूप फल का सटेत किया गया है, उसका वर्णन तो अगले मन्त्र में किया गया है । क्या आपके फल में और मन्त्र-प्रोक्त फल में समता है ? यदि नहीं, तो आपकी व्याख्या मूल मन्त्र से विरुद्ध है और तृतीय मन्त्र में उपासना का फल नहीं, प्रत्युत उसकी उपयोगिता का वर्णन ही किया गया है अर्थात् असम्भूति विज्ञान से मृत्यु को पार करता, और सम्भूति विज्ञान से मोक्ष को प्राप्त कर सकता है । मन्त्र में ‘वेद=जानना’ क्रिया है, उपासना नहीं। इनमें से तीसरे मन्त्र की व्याख्या में श्री शङ्कराचार्य जी लिखते हैं—“सम्भूतिं च विनाशं च यस्तद् वेदोभयं सह विनाशो धर्मो यस्य कार्यस्य स तेन धर्मिणा अभेदेन उच्यते विनाश इति, तेन तदुपासनेनानैश्वर्यम- धर्मकामादिदोषजातं च मृत्युं तीर्त्वा हिरण्यगर्भोपासनेन ह्यणिमादिप्राप्तिः फलम्, तेनानैश्वर्यादि मृत्युमतीत्य असम्भूत्या अव्याकृतोपासनया अमृतं प्रकृतिलयलक्षणमश्नुते ।” अर्थात् जो पुरुष सम्भूति और विनाश इन दोनों को साथ-साथ जानता है, वह—जिसके कार्य का धर्म विनाश है और उस धर्मी से अभेद होने के कारण जो स्वयं भी विनाश कहा जाता है, उस विनाश की उपासना से अनैश्वर्य, अधर्म तथा कामनादि दोषों से उत्पन्न मृत्यु को पार करके हिरण्यगर्भ (सम्भूति) की उपासना से अणिमादि ऐश्वर्य प्राप्ति रूप फल मिलता है । उससे अनैश्वर्यादि तथा मृत्यु को लांघता है और असम्भूति=अव्याकृत (प्रकृति) की उपासना से अमृत=प्रकृतिलयत्व को प्राप्त होता है । यहां श्री शङ्कराचार्य जी मन्त्रपठित ‘विनाश’ पद के अर्थ को नहीं समझ सके । आपने ‘विनाश’ का अर्थ विनाश होने वाला कार्य पदार्थ किया है । मन्त्र में कार्य-पदार्थ के लिए ‘सम्भूति’ पद जब पढ़ा हुआ है, जिसका उन्होंने स्वयं ‘कार्य-ब्रह्म’ अर्थ किया है । यदि मन्त्र में ‘सम्भूति’ और ‘विनाश’ पदों का एक ही अर्थ है तो मन्त्र में पुनरुक्ति दोष है । यथार्थ में मन्त्र में यह दोष नहीं है, यह व्याख्याकार का दोष है, जो उसको न समझकर अन्यथा व्याख्यान कर गए । ‘नैष स्था- णोरपराधो यदेनमन्धो न पश्यति ।’ मन्त्र के पूर्वार्द्ध में जब श्री शङ्कराचार्य जी गलत व्याख्या कर गए, फिर मन्त्र के उत्तरार्द्ध की सङ्गति कैसे लगती? अब चक्र में पड़ गए और मन्त्र में ही परिवर्तन करने का दुस्साहस कर बैठे । और यह व्याख्या में लिख दिया— “सम्भूतिं विनाशं चेत्यत्रावर्णलोपेन निर्देशो द्रष्टव्यः ।” अर्थात् ‘विनाश’ का अर्थ तो ठीक है, किन्तु ‘सम्भूति’ से पूर्व अवर्णलोप मानना चाहिए । अर्थात् ‘सम्भूति’ को ‘असम्भूति’ करके व्याख्या करनी चाहिए । यहां मन्त्र में परिवर्तन करने का दुस्साहस तो श्री शङ्कराचार्य जी ने किया, परन्तु अपने दोष को न समझ सके । महर्षि दयानन्द ने इस रहस्य को भलीभांति समझा और मन्त्र में विना किसी परिवर्तन के मन्त्रार्थ की सङ्गति लगा दी, यह था मन्त्रद्रष्टा महर्षि का ऋषित्व । महर्षि लिखते हैं कि इस मन्त्र में ‘सम्भूति’ का अर्थ तो ‘कार्य-पदार्थ’ ही है किन्तु ‘विनाश’ का अर्थ कारणरूप प्रकृति है । महर्षि लिखते हैं—‘विनश्यन्त्यदृश्याः पदार्था भवन्ति यस्मिन्’ अर्थात् जिसमें सब कार्यपदार्थ विनष्ट=अदृश्य हो जाते हैं, उसे विनाश=प्रकृति कहते हैं । देखिए कैसी सुन्दर तथा व्याकरणसम्मत व्याख्या है । श्री शङ्कराचार्य जी जो प्रकृति की सत्ता को नहीं मानते, प्रकृति को नित्य मानना तो दूर की बात है, वे इस बात से असमञ्जस में पड़ गये कि ‘विनाश’ का अर्थ प्रकृति कैसे किया जाए ? और इस रहस्य को न समझकर मन्त्र में परिवर्तन कर दिया । धन्य है, श्री शङ्कराचार्य जी की दिव्य बुद्धि को । यदि किसी स्थल पर कोई बात समझ में नहीं आई थी, तो मन्त्र में परिवर्तन की अपेक्षा यही लिख देते कि विद्वान् इस पर विचार कर लेवें । इससे व्याख्याकार का गौरव बढ़ता ही है, घटता नहीं। यह तो प्रथम बतलाया जा चुका है कि इन मन्त्रों में सम्भूति और असम्भूति की उपासना की निन्दा तो की है, किन्तु विधान नहीं । पुनरपि श्री शङ्कराचार्य जी मन्त्रों के रहस्य को न समझकर ‘उपासना’ शब्द का प्रयोग करते रहे हैं । मन्त्रों में सम्भूति तथा असम्भूति के विज्ञान की आत्मा के लिए उपयोगिता ही बतलाई गई है । इस तीसरे मन्त्र में ‘उपासते’ क्रिया नहीं है, अपितु ‘वेद’=जानता क्रिया है । अतः मन्त्र में इनके विज्ञान का ही निर्देश है । पुनरपि श्री शङ्कराचार्य जी विनाश=कार्य पदार्थ की उपासना से अनैश्वर्य अधर्म तथा कामनादि दोषों से उत्पन्न मृत्यु को पार करने का वर्णन कर रहे हैं । मन्त्र में केवल विनाश के विज्ञान से मृत्यु को पार करना एक फल का निर्देश है । श्री शङ्कराचार्य जी अनेक फलों का निर्देश कर रहे हैं अर्थात् आत्मा विनाश से अनैश्वर्य को पार करता है, और अधर्मादि से उत्पन्न मृत्यु को पार करता है । शाङ्कर-भाष्य की अनैश्वर्य को पार करना तथा विनाश के विज्ञान के स्थान पर विनाशोपासना बताना कल्पना ही नहीं, प्रत्युत मूलमन्त्र से विरुद्ध व्याख्या है । इन मन्त्रों में दूसरे व तीसरे मन्त्रों की व्याख्या में शाङ्कर-भाष्य में असम्भूति की उपासना का फल प्रकृतिलय रूप अमृत प्राप्ति बताया है। दूसरे मन्त्र की व्याख्या में अन्धन्तमः=घोर अन्धकार में प्रवेश तथा प्रकृतिलय को स्वयं समान माना है और अब (तीन मन्त्रों में) प्रकृतिलय को ही अमृत कह दिया । क्या प्रकृतिलय और अमृत एक हो सकते हैं? कहां प्रकृतिलय=महादुःखार्णव में डूबना और कहां अमृत=मोक्ष प्राप्ति जिसमें लेशमात्र भी दुःख नहीं है, इन दोनों में आकाश-पातालवत् अन्तर है । इन्हें एक मान कर वेदार्थ करना बहुत ही अविवेकपूर्ण तथा वेद-विरुद्ध कार्य है । मृत्यु को पार करके ‘अमृतम्’ क्या हो सकता है ? ‘अमृतम्’ शब्द स्वयं किस अर्थ को बता रहा है जिसमें मृत्यु आदि का दुःख न हो । क्या उसे प्रकृतिलय=घोर अन्धकारावस्था कहा जा सकता है ? श्री शङ्कराचार्य जी ने अन्यत्र ‘अमृतम्’ शब्द का अर्थ ‘अमरणधर्मकं ब्रह्म’ अर्थात् मोक्ष अथवा ‘अमृतम्=सुखरूपम्’ किया है । देखिए— (१) परामृताः परिमुच्यन्ति सर्वे ॥ (मुण्डको० ३।२।६) ‘परामृताः=परममृतम्=अमरणधर्मकं ब्रह्म आत्मभूतं येषां ते ।’ यहां ‘अमृत’ का अर्थ ‘अमरणधर्मक ब्रह्म’ किया है । (२) आनन्दरूपममृतं यद् विभाति ॥ (मुण्डको० २।२।७) “आनन्दरूपं सर्वानर्थदुःखायासप्रहीणं सुखरूपम् अमृतं यद् विभाति।” अर्थात् ‘अमृतम्’ का अर्थ सुखरूप है और वह आनन्दरूप अर्थात् समस्त अनर्थ व दुःखों से रहित है । अतः ‘अमृतम्’ का अर्थ मोक्ष है। इसलिए ‘सम्भूत्यामृतमश्नुते’ की व्याख्या में ‘अमृतम्’ को प्रकृति-लयरूप कहना उनकी व्याख्या से भी विरुद्ध होने से कैसे विद्वदभिनन्दनीय हो सकता है ? (३) ईशावास्योपनिषत् के मन्त्रों में ‘अमृत’ शब्द का पाठ अनेक स्थानों पर आया है । उन स्थानों पर दोनों भाष्यकारों के अर्थ-भेद भी द्रष्टव्य हैं— (क) विद्ययामृतमश्नुते । (११वां मन्त्र) देवताज्ञानेनामृतम्=देवतात्मभावमश्नुते प्राप्नोति । (शा० भा०) अर्थात् देवताज्ञान से “देवत्वभाव” को प्राप्त हो जाता है । विद्यया=आत्मशुद्धान्तःकरणसंयोगधर्मजनितेन यथार्थदर्शनेन अमृतम्= नाशरहितं स्वस्वरूपं परमात्मानं वा अश्नुते ॥ (महर्षिदया० भा०) अर्थात् आत्मा और शुद्ध अन्तःकरण के संयोगरूपधर्म से उत्पन्न यथार्थ ज्ञान से अमृतम्=अविनाशी आत्मस्वरूप या परमात्मा को प्राप्त करता है । (ख) सम्भूत्यामृतमश्नुते ॥ (१४ वां मन्त्र) सम्भूत्या (असम्भूत्या) अव्याकृतोपासनया अमृतम्=प्रकृतिलय- लक्षणमश्नुते । (शा० भा०) अर्थात् अव्यक्तोपासना से “अमृतम्=प्रकृतिलय” रूप अमृत को प्राप्त कर लेता है । सम्भूत्या=शरीरेन्द्रियान्तःकरणरूपयोत्पन्नया कार्यरूपया धर्म्ये प्रवर्त्तयित्र्या सृष्ट्या अमृतम्=मोक्षमश्नुते । (महर्षिदया० भा०) अर्थात् शरीर-इन्द्रिय-अन्तःकरण रूप उत्पन्न होने वाली कार्यरूप, धर्मकार्य में प्रवृत्त कराने वाली सृष्टि के सहयोग से “अमृतम्=मोक्षसुख” को प्राप्त करता है । (ग) वायुरनिलममृतम्० ॥ (१७ वां मन्त्र) वायुः=प्राणोऽध्यात्मपरिच्छेदं हित्वाधिदैवतात्मानं सर्वात्मकमनिल- ममृतं=सूत्रात्मानं प्रतिपद्यताम् ॥ (शा० भा०) अर्थात् मरने वाले का वायु (प्राण) अपने अध्यात्म परिच्छेद को त्यागकर अधिदैवरूप सर्वात्मक वायुरूप “अमृत=सूत्रात्मा” को प्राप्त हो। अत्रस्थो वायुः धनञ्जयादिरूपः अनिलं कारणरूपं वायुम् अनिलेऽमृतं नाशरहितं कारणं धरति । (महर्षिदया० भा०) अर्थात् यहां विद्यमान धनञ्जयादि रूप वायु कारणरूप वायु को और “अमृतं=नाशरहितकारणं” को धारण करता है । उपर्युक्त तीनों उद्धरणों में शाङ्कर-भाष्य के अनुसार ‘अमृतं’ शब्द का अर्थ है—“देवत्व-भाव” “प्रकृतिलय” और “सूत्रात्मा वायु” । और महर्षि दयानन्द के अनुसार “अविनाशी आत्मस्वरूप या परमात्मा” “मोक्षसुख” और “नाशरहित कारण” अर्थ हैं । दोनों भाष्यकारों के अर्थों में सब से महान् अन्तर यह है कि शाङ्कर-भाष्य में शाब्दिक अर्थ (यौगिक) पर कोई ध्यान नहीं दिया है, किन्तु महर्षि ने प्रकरणानुसार जो भी अर्थ किए हैं, उन सब में ‘अमृतम्’ शब्द का यौगिकार्थ का परित्याग कहीं भी नहीं हुआ है । अतः उनके अर्थ में जो अर्थ-गाम्भीर्य तथा सङ्गति है, वह शाङ्कर-भाष्य में नहीं है । शाङ्कर-भाष्य में ‘अमृतम्’ पद का अर्थ अमृतत्व=मोक्ष क्यों नहीं किया, यह श्री शङ्कराचार्य जी ने स्वयं लिखा भी है— ‘‘विद्याशब्देन मुख्या परमात्मविद्यैव कस्मान्न गृह्यतेऽमृतत्वञ्च । ननूक्तायाः परमात्मविद्यायाः कर्मणश्च विरोधात् समुच्चयानुपपत्तिः ।” (ईशावास्यो० १८वां मन्त्र) अर्थात् विद्या शब्द से परमात्म-विद्या का और ‘अमृत’ शब्द से “अमृतत्व” (मोक्ष) का ग्रहण क्यों नहीं करते ? परमात्मविद्या और कर्म का विरोध होने से उनका समुच्चय नहीं हो सकता । इससे स्पष्ट है कि एक मत में पूर्वनिर्धारित धारणा के अनुसार ‘विद्या’ तथा ‘अमृतादि’ शब्दों के अर्थों को जानते हुए भी मिथ्या अर्थ किए गए हैं । क्या ऐसा करना विद्वानों को शोभा दे सकता है ? श्री उव्वट ने यहां प्रथम मन्त्र की व्याख्या में ‘असम्भूति’ पद का अर्थ अपुनर्जन्म, और सम्भूति का अर्थ आत्मज्ञान किया है । वे लिखते हैं—येऽसम्भूतिमुपासते, मृतस्य सतः पुनः सम्भवो नास्ति, अतः शरीरग्रहणाद- स्माकं मुक्तिरेव । न हि विज्ञानात्मा कश्चिदनुच्छित्तिधर्माऽस्ति यो यमनियमैः सम्बध्यते ..। ये सम्भूत्यामेव रताः ..आत्मज्ञान एव रताः । (उव्वटभाष्य) समीक्षा—ये तीन मन्त्र इस प्रकार के हैं कि असम्भूति और सम्भूति का जो भी कोई अर्थ स्वीकार किया जाए, वह सर्वत्र घटना चाहिए । यदि स्वीकृत अर्थ कहीं घटता है और कहीं नहीं तो यह समझ लेना चाहिए कि अर्थ में अवश्य कोई दोष है । यहां प्रथम मन्त्र में असम्भूति और सम्भूति पद हैं । द्वितीय मन्त्र में इन्हीं के पर्यायवाची असम्भव और सम्भव पद हैं । तृतीय मन्त्र में असम्भूति का पर्यायवाची ‘विनाश’ पद है । सम्भूति शब्द प्रथम मन्त्र के तुल्य वही है । श्री उव्वट ने द्वितीय मन्त्र में असम्भव और सम्भव पद का कोई अर्थ नहीं किया। तृतीय मन्त्र में सम्भूति का अर्थ परब्रह्म और विनाश का अर्थ विनाशी शरीर किया है । यहां तृतीय मन्त्र में सम्भूति का एक नया अर्थ और कर डाला—परब्रह्म । और विनाश पद का भी विनाशी शरीर प्रथम मन्त्र के अर्थ से भिन्न अर्थ किया है । । असम्भूति पद का प्रथम मन्त्र में अपुनर्जन्म तथा तृतीय मन्त्र में विनाशी शरीर । श्री उव्वट स्थान स्थान पर असम्भूति और सम्भूति का अर्थ बदल रहे हैं । अतः उनके किए पदार्थों पर स्वयम् उन्हें सन्तोष नहीं । श्री उव्वट ने सम्भूति पद का अर्थ प्रथम मन्त्र में आत्मज्ञान तथा तृतीय मन्त्र में परब्रह्म किया है । प्रथम मन्त्र में सम्भूति=आत्मज्ञान से घोर अन्धकार की प्राप्ति का वर्णन किया जा रहा है और तृतीय मन्त्र में सम्भूति=परब्रह्म के ज्ञान से अमृत की प्राप्ति बतलाई जा रही है । यह अर्थ परस्पर विरोधी होने से अशुद्ध है । और विनाश पद का जो शरीरग्रहण अर्थ किया है सो भी तर्कसंगत नहीं । शरीरग्रहण से मृत्यु का भय दूर नहीं होता, अपितु भय उत्पन्न होता है । अतः उव्वट के सम्भूति और असम्भूति पदों के अर्थ मिथ्या हैं । दीर्घतमाः । आत्मा =स्पष्टम् । निचृदनुष्टुप् । गान्धारः ॥ अथ विद्याऽविद्योपासनफलमाह ॥ अब विद्या और अविद्या की उपासना के फल का उपदेश किया जाता है ॥

तत्कर्म यन्न बन्धाय सा विद्या या विमुक्तये।
आयासायापरं कर्म विद्यान्या शिल्पनैपुणम्॥
–श्रीविष्णुपुराण १-१९-४१
कर्म वही है जो बन्धनका कारण न हो और विद्या भी वही है जो मुक्तिकी साधिका हो। इसके अतिरिक्त और कर्म तो परिश्रमरुप तथा अन्य विद्याएँ कला-कौशलमात्र ही हैं॥

       
मनोज पाण्डेय अध्यक्ष ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान वैदिक विद्यालय ब्रह्मपुरा छानवे मिर्जापुर उत्तर प्रदेश 9305008616 

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