भारत की प्राकृतिक विशेषताएँ
भारत उत्तर में हिमालय तथा दक्षिण, पूरब और पश्चिम में समुद्र से घिरा हुआ है और उत्तर–पश्चिम में पर्वत–बाहु हिमालय की मुख्य–श्रंखला को समुद्र के साथ जोड़ता है।
भारत की प्राकृतिक सीमाएँ: इस प्रकार भारत प्रकृत्या चारों और से सुरक्षित है। किन्तु यह नहीं समझना चाहिये कि कठिन अवरोधों के कारण भारत संसार के अन्य देशों से एकदम अलग था। यद्यपि हिमालय जैसी सदृश अभेद्य सीमा, प्रकृति ने किसी भी अन्य देश को प्रदान नहीं की है तथापि उसमें तिब्बत से नेपाल आने के लिये ऐसी सड़के हैं जिनसे हो कर युगों तक संस्कृति और धर्म के शान्तिदूत ही नहीं आते जाते रहे लेकिन कुछ अवसरों पर तो दुर्घर्ष सेनाएँ भी गुज़री हैं। इसके अतिरिक्त उत्तर पश्चिम के पहाड़ी दर्रें हैं, जो युगों से भारत और बाहर के देशों के बीच यातायात के मार्ग रहे हैं।
हिन्दुकुश के परे अनेक दर्रे हैं। इस पर्वतश्रृंखला के इस ओर से होकर जाने वाला अति प्रचलित मार्ग काबुल घाटी से होकर जाता है और खैबर दर्रे से होता हुआ पेशावर में पहुँचता है। यह एक टेढ़ा–मेढ़ा और तंग २० मील लम्बा रास्ता है। दूसरा सुप्रसिद्ध मार्ग हेरात से कंधार तक आता है, फिर बोलन दर्रे से होकर सिन्धु घाटी में निकलता है। पश्चिम से एक अन्य मार्ग मकरान के दुर्गम तट से निकलता है। इन मार्गों से भारत पर अनेक ऐसे आक्रमण हुए हैं। तथापि आज से करीब तीन हज़ार साल पहले जब आर्य हिंदुकुश पारकर भारत में आये, तब से अब तक औपनिवेशिकों, व्यापारियों और विजेता शत्रुओं के असंख्य समूह इन दर्रों से आये और गये। उत्तर–पूर्वी श्रृंखला में उल्लेखनीय दरार वह है जिससे ब्रह्मपुत्र भारत में प्रवेश करता है। उनसे दक्षिण की पहाड़ियाँ घने जंगलों से ढकी हैं और उन्हे पार करना कठिन है तथापि व्यापारी,धर्मदूत और शत्रु भी उनसे गुज़रे हैं। प्राकृतिक सीमाओं ने शेष एशिया से भारत को पृथक कर यहाँ के निवासियों को अपना एक निश्चित निजत्व प्रदान किया तथापि उनके कारण भारत शेष संसार से अलग न था।
क्षेत्रफल: इन सीमाओं के भीतर भारत का क्षेत्रफल लगभग डेढ़ लाख वर्गमील है, जो रूस को छोड़कर सारे यूरोप के बराबर है। इसके तट की लम्बाई ३००० मील से अधिक तथा उसके पर्वतीय अवरोधों की लम्बाई उसकी आधी है। उसकी जनसंख्या लगभग ५० करोड़ से अधिक है।
देश के प्राकृतिक स्वरूप में काफ़ी भिन्नतायें पायी जाती हैं। यहाँ ऊँची से ऊँची दुर्गम पर्वत–चोटियाँ हैं — संसार की सब से ऊँची चोटी यहीं है,तो निम्न जलोढ़ मैदान भी हैं और ऊँचे पठार,गहन कांतार,एकान्त घाटियाँ और सूखे रेगिस्तान हैं। एक ओर अत्यन्त गर्म मैदान हैं तो अत्यंत ठंडे पर्वतीय आश्रय भी हैं। प्राकृतिक विशेषताओं की इन भिन्नताओं की तुलना जाति,धर्म और भाषा की भिन्नताओं से ही हो सकती है। इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं कि अकेले भारत में इन विशेषताओं के जितने प्रकार हैं उतने समूचे यूरोप में भी नहीं हैं। इस प्रकार भारत को उस अर्थ में एक देश नहीं कह सकते — उसे एक महाद्वीप और उसके विभिन्न प्रान्तों को अलग–अलग देश मानना अधिक तर्कसंगत होगा। इधर कुछ दिनों से भारत के लिये उपप्रायद्वीप शब्द का जो प्रयोग होने लगा है वह एक अच्छा नामकरण है और भारत के इतिहास के अध्ययन में इस बात को ध्यान में रखना लाभकर होगा। उदाहरणत: भारतीय इतिहास में उस एकता को खोजना अनुचित होगा जो फ़्रांस अथवा इटली जैसे देशों के इतिहास में पाई जाती है। उसी प्रकार की एकता मगध, गौड़, कौशल, शूरसेन (मथुरा), अवन्ति और कर्णांट सदृश राज्यों में ही पाई जा सकती है, जिनका प्रत्येक क्षेत्रफल एवं जनसंख्या अनेक यूरोपीय देशों के बराबर हैं।
आधुनिक विज्ञान के अविष्कारों के कारण देश और काल का भेद मिटा नहीं था। इतिहास पर भौतिक परिस्थितियों का प्रभाव किस प्रकार पड़ता है,इसका स्पष्टीकरण एक उदाहरण से ही हो जाएगा। आज दक्षिण भारत में होने वाले किसी दंगे की सूचना दिल्ली स्थित सरकार के पास दो सेकण्ड से कम समय में पहुँच जायेगी और तीन दिनों के भीतर पर्याप्त सेना भी वहाँ पहुँचाई जा सकती है। किन्तु यदि वही उपद्रव अशोक के समय में हुआ होता तो उसकी सूचना पाटलिपुत्र में तीन मास से कम समय में न पहुँच पाती और कम से कम उसका दूना समय आवश्यक सेना भेजने में भी लगता।
उपरोक्त की महत्ता: भारतीय इतिहास को समझने के लिये इन तथ्यों को अच्छी तरह ध्यान में रखना बहुत आवश्यक है। ऐसा न करने से ही इतिहासकारों ने बहुधा निर्णय सम्बन्धी भूलें की हैं। उदाहरणत:भारत के बाहर अभियान का कोई लिखित प्रमाण न मिलने के कारण उन्होंने यह मान लिया कि भारतीय साहसी नहीं थे और उनमें सैनिक योग्यता का अभाव था। पर यह बात भुला दी जाती है कि भारत के सैनिक अभियानों के लिये उसका अपना उपमहाद्वीप तथा बृहत्तर भारत हिन्द–चीन तथा प्रशान्त द्वीपसमूह ही इतना विस्तृत क्षेत्र था कि उसके बाहर जाने का लोभ उन्हें हो ही नहीं सकता था। मिस्रियों, असीरियों, अथवा बाबुल निवासियों द्वारा शासित बड़े से बड़े साम्राज्य भी प्राचीन काल में हिन्दुकुश और हलमूद तक ही फैले थे और वे भारत और उसके पूर्व के औपनिवेशिक साम्राज्य के विस्तार से कहीं कम ही थे। ईरानी और रोमन साम्राज्य एवं स्वल्प काल के लिये सिकन्दर द्वारा विजित प्रदेश इस बृहत्तर भारत के बराबर अथवा उससे कुछ ही बड़े थे। चौदहवें लुई और नेपोलियन के साम्राज्य तो उसकी विशालता की तुलना में नगण्य ही थे।
आन्तरिक प्राकृतिक स्वरूप: आन्तरिक प्राकृतिक स्वरूप के सम्बन्ध में सबसे उल्लेखनीय उसके मध्य में स्थित पर्वतमालायें हैं। वे ऐसी दुर्लध्य सीमाएँ हैं जो उत्तर भारत और दक्षिण को अलग करती हैं। उसमें दो समानान्तर पर्वत–श्रृंखलाएँ हैं—उत्तर में विन्ध्य,जिनमें भनरेर और कैमूर पर्वत श्रृंखलाएँ सम्मिलित हैं,तथा दक्षिण में सतपुड़ा जिसके साथ महोदय और मेकल पर्वत सम्मिलित हैं। इन दोनों के बीच एक संकीर्ण घाटी है जिसमें से होकर नर्मदा बहती है। इस नदी और इस प्रदेश के पहाड़ों तथा छोटा नागपुर के घने जंगलों ने यातायात इतना कठिन बना दिया कि उत्तर और दक्षिण के निवासियों में सदैव एक स्पष्ट भेद रहा और दोनों भागों का इतिहास प्राय:स्वतंत्र रूप में ही विकसित हुआ पर समय–समय पर दोनों के बीच सम्पर्क भी होते रहे।
उत्तरी भारत: विन्ध्य के उत्तर भाग में जो प्रदेश है उसके पूर्व और पश्चिम दोनों में उपजाऊ मैदान हैं, जिनके बीच राजपूताना का रेगिस्तान है। रेगिस्तान के पश्चिम के मैदान में सिन्धु और पूरब के मैदान में गंगा की सहायक नदियों द्वारा सिंचाई होती है। सिन्धु और गंगा और उनकी सहायक नदियों ने यातायात के लिये सुगम मार्ग का काम किया है और इसी कारण अति प्राचीन काल से ही उनके किनारों पर सभ्यता के फलते–फूलते केन्द्र रहे हैं। राजस्थान के रेगिस्तान और हिमालय की श्रृंखला के बीच एक पतली सी पट्टी है,जो इन दोनों मैदानों को मिलाती है। पश्चिम से आक्रमण करती जो भी सेना हिन्दुस्तान में घुसना चाहती थीं यही पट्टी उनको रोकने का श्लाध्य स्थल रही है। यह कोई आकस्मिक बात नहीं थी कि इस प्रदेश में पानीपत और तलवाड़ी के सुप्रसिद्ध मैदानों में भारत की अनेक भाग्य–विधायक लड़ाइयां लड़ी गयीं।
दकन और दक्षिण भारत: भारत का जो भाग मध्यवर्त्ती पर्वतों के दक्षिण में है वह एक त्रिभुजाकार प्रायद्वीप है जो धीरे–धीरे नीचे की ओर इतना संकीर्ण होता गया है कि भारत के दक्षिणी छोर – कन्याकुमारी के पास प्राय: एक बिन्दु जैसा बन गया है। उत्तर–पश्चिम और उत्तर–पूर्व से दक्षिण की ओर जाती,समुद्रतटीय मैदानों की जो पतली पट्टियाँ हैं वे यहाँ पहुँच कर एक हो जाती हैं इसमें पश्चिमी पट्टी को मलाबार और पूर्वी पट्टी को चोर–मंडल कहते हैं। यद्यपि दोनों किनारों पर आधुनिक जहाजरानी के उपयुक्त बहुत ही कम बन्दरगाह हैं तथापि पश्चिमी किनारे पर जहाजों के लंगर डालने लायक ऐसे सुरक्षित स्थान हैं जो भारत के भीतरी और बाहरी व्यापार के अच्छे द्वार रहे हैं।
पश्चिम का समुद्रतटीय प्रदेश एक ऐसी नम निचली भूमि है, जिसके किनारों पर अनेक सीधी, सपाट और ऊँची पहाड़ियों से निर्मित पश्चिमी घाट हैं। उत्तर में पश्चिमि घाट दो हज़ार फुट की ऊँचाई से उठते हैं और दक्षिण की ओर बढ़ते बढ़ते उन की ऊँचाई इतनी बढ़ जाती है कि नीलगिरी में एक चोटी आठ हज़ार सात सौ फुट से भी अधिक की है। वहाँ उनमें पूर्वी घाट भी मिल जाते हैं जिनके कुछ पहाड़ों की चोटियों की ऊँचाई कम है। वहाँ से वे तुरंत दक्षिण में एक अन्तराल छोड़ते हुए कन्याकुमारी तक जाते हैं तथा अन्नमुही पहाड़ी पर उनकी ऊँचाई ८८०० फुट से भी अधिक हो जाती है। उपर्युक्त अन्तराल उत्तर से दक्षिण लगभग २० मील चौड़ा और समुद्र की सतह से लगभग एक हज़ार फुट ऊँचाई पर है एवं एक किनारे से दूसरे किनारे तक जाने के लिये एक सुगम मार्ग निकालता है।
पश्चिमी और पूर्वी घाटों के बीच दक्षिण का वह चौड़ा पठार है जो पश्चिम से पूर्व की ओर क्रमश: नीचा होता गया है। पश्चिमी घाटों से बना हुआ पश्चिमी छोर एक ऐसी ऊँची दीवार की तरह दिखता है जो अरब सागार के अभिमुख उसके ही समानान्तर चलता है। ये पहाड़ समुद्र से कभी तो लगभग ५० और १०० मील दूर हैं परन्तु कहीं–कहीं यह दूरी पाँच अथवा उससे भी कम हो जाती है। परन्तु पूर्वी घाट पूर्वी समुद्र की ओर धीरे–धीरे गिरते जाते हैं और पूर्वी घाट तथा समुद्र के बीच का मैदान पश्चिम की अपेक्षा अधिक चौड़ा होता जाता है। कृष्णा और उसकी सहायक तुंगभद्रा उस पठार को ऐसे दो भागों – दक्षिणपथ और सुदूरदक्षिण में बाँटती हैं जिन्होंने इतिहास में भिन्न–भिन्न परन्तु महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। उस प्रदेश में अन्य दो नदी–समूह हैं—उत्तर में गोदावरी और दक्षिण में कृष्णा के।
सिंचाई के सुगम साधनों से युक्त उपजाऊ मैदानों के कारण भारत संसार का सबसे धनिक कृषक देश बन गया। लकड़ी के घने जंगलों और भूगर्भ में छिपी खानों से उद्योग और उत्पादन को प्रोत्साहन मिला। यातायात के लिये बड़ी नदियों एवं विस्तृत समुद्र तट पर अच्छे बन्दरगाहों के फलस्वरूप आन्तरिक और विदेशी व्यापार का विस्तार हुआ और भारत में बनी वस्तुएँ सारे संसार में पहुँचीं। सर्वोपरि सोना,मणि एवं मोती तथा अन्य बहुमूल्य पत्थरों का यहाँ की भूमि में बाहुल्य है। भारत का धन संसार में कहावतों का विषय बन गया ।
प्राकृतिक विशेषताओं का देश की सभ्यता पर प्रभाव – भारत को प्रकृति ने अमित मनोरम सौंदर्य दिया। उसने भारतीय मस्तिष्क को एक ऐसा दार्शनिक और कवित्वमय मोड़ दिया कि धर्म,दर्शन,कला और साहित्य में यहाँ उल्लेखनीय उन्नति हुई। परन्तु जहाँ जीवन–यापन के सुगम साधनों के फलस्वरूप इनका विकास हुआ वहीं प्रकृति के साथ कठिन संघर्ष का अभाव प्रकृति के रहस्यों की खोज की भावना के विकास में बाधक सिद्ध हुआ। अत: यहाँ व्यावहारिक विज्ञान की उन्नति नहीं हुई। संक्षेप में भारत के बौद्धिक विकास की सभी विशिष्टताओं तथा उसके प्राकृतिक वातावरण को ध्यान में रखते हुए ही इसका खुलासा किया जा सकता है।
0 Comments
If you have any Misunderstanding Please let me know