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प्रागैतिहासिक युग

 प्रागैतिहासिक युग


जाति तत्त्व: अभी तक किसी भी संस्कृति के साथ किसी जाति या समाज-विशेष के लोगों का सम्बन्ध जोड़ना सम्भव नहीं हो सका है।  मनुष्य की जातियों अथवा रूपों का पता लगा कर प्रत्येक जातीय रूप का विभिन्न सांस्कृतिक युगों के साथ सम्बन्ध जोड़ने का प्रयत्न नहीं किया जा सकता है।  


भाषा-भाषी तत्त्व: भारत के निवासियों का काफ़ी मिश्रण हुआ है और इस  के फलस्वरूप चार भाषा-समूह विकसित हुए हैं — आस्ट्रिक, तिब्बती-चीनी, द्रविड़ और आर्य। इसी बात से सिद्ध होता है कि यह आवश्यक नहीं है कि एक भाषा-भाषी एक ही जाति के हों, अथवा एक जाति के लोग एक ही भाषा बोलते हों, यद्यपि सामान्यत: भाषा सम्बन्धी एकता प्राय: समान जातिमूल के परिणामस्वरूप ही है।


आद्य आस्ट्रोलॉयड लोगों का तो उत्तर पाषाण-युग में होना निश्चित सा है। उनकी भाषा के अध्ययन से ज्ञात होता है कि भारत की भौतिक सभ्यता के विकास में उनका बहुत बड़ा योग था। चावल और कुछ महत्त्वपूर्ण तरकारियों की खेती, ईख से चीनी का उत्पादन, सूती कपड़ों की बुनाई, पान का उपयोग, दैनिक जीवन औत सम्भवतः धार्मिक कृत्यों में हल्दी और कुमकुम का प्रयोग तथा कौड़ी (बीसी) के आधार पर गिनती उन्हीं की देनें हैं। यह भी सुझाव है कि इन्हीं लोगों ने पहले-पहल हाथी को पालतू बनाया। परलोक और पुनर्जन्म की कल्पना अनेक दैवानुश्रुतियाँ और धार्मिक कहानियाँ एवं धारणाएँ बहुत-कुछ इन्हीं से प्राप्त हुई हैं।


 द्रविड़: द्रविड़ लोग बोलचाल की भाषा में द्रविड़ नाम से पुकारे जाते हैं, यद्यपि द्रविड़ उनकी भाषा का नाम है और उसका कोई नृतात्त्विक महत्त्व नहीं है। आज द्रविड़ भाषाएँ केवल दकन और दक्षिणी भारत के ही बड़े अंश में बोली जाती है, किन्तु किसी समय वे  उत्तर भारत में प्रचलित है।


मध्य पाषाण-युग: पुरा पाषाण युग के बाद की संस्कृति को मध्य पाषाण-युग (मैसोलिथिक एज) कहा गया है। पाषाण युग के लोग क्वार्टजाइट के हथियार बनाते थे। इस युग के लोगों के हथियार कैल्सेडोनी और सिलिकेट पत्थरों; जैसे जैस्पर, चर्ट और पितोनिया (ब्लड स्टोन) के बने होते थे। ये पत्थर के औज़ार अत्यन्त छोटे — लम्बाई में केवल एक इन्च के बराबर — हैं और उनके बनाने का ढंग भी एकदम भिन्न है। इन औज़ारों को सूक्ष्म पाषाण-औज़ार (माइक्रोलिथिक इम्पलीमेण्ट्स) कहा गया है और ये सारे भारत में पाये जाते हैं। इन औज़ारों का उपयोग करने वाले मनुष्य भी अपने पूर्वजों की भाँति मुख्यतः शिकारी थे और जंगली जानवरों के शिकार पर निर्वाह करते थे। वे जंगली फल और कन्दमूल भी खाते थे। सम्भवतः आगे चलकर मिट्टी के बर्तन बनाने की कला भी उन्हें मालूम हो गयी थी।


नव पाषाण-युग: मध्य पाषाण-युग अपने नाम के अनुरूप ही संस्कृति के अगले युग — नव पाषाण युग (नियोलिथिक एज) — एवं पुरा पाषाण-युग के बीच की कड़ी था। इसमें पूर्व युगों की तुलना में औज़ारों की संख्या बढ़ गई जिनमें सेल्ट, बसूले, कुल्हाड़ियाँ, छेनियाँ, गदाएँ, मूसल, बाणाग्र, श्ल्कक, आरियाँ, तक्षणियाँ आदि मुख्य थीं। पत्थर के औज़ारों में मुख्य रूप से महीन दानेदार गहरे हरे रंग के ट्रैप का इस्तेमाल मिलता है। यदा कदा डायोराइट, बैसाल्ट, स्लेट, क्लोराइट, शिस्ट, नाइस, बलुए पत्थर और स्फटिक पत्थरों का भी इस्तेमाल हुआ है। इस युग के हथियारों के समूचे भागों अथवा किनारों पर पालिश के स्पष्ट चिन्ह पाए जाते हैं, यह बात पूर्ववर्ती औज़ारों में नहीं पायी जाती। पत्थर के ये औज़ार घिसे हुए, दाँतेदार और पालिशदार होते थे। जैसी आवश्यकता होती वैसा रूप इन्हें घिसकर या दूसरी तरह से दे देते थे। ये औज़ार देखने में काफ़ी सुघड़ लगते हैं। इन्हें बनाने वाले लोगों की सभ्यता काफ़ी विकसित हो चुकी थी। उन्होंने घर बनाए, पशुओं को पालतू किया और भूमि पर खेती की। वे आग उत्पन्न करना जानते थे। उन्होंने मिट्टी के बर्तन गढ़े और अपने मुर्दों के लिये समाधियाँ बनायीं, जिनमें से कुछ की खोज तो हमारे जीवन-काल में हुई है। सम्भवतः चित्रकारी का भी कुछ ज्ञान उन्हें था।१


ताम्र एवं कांस्य युग: संसार के अन्य देशों की ही भाँति भारत में भी नव पाषाण-युग के बाद धातु का उपयोग करने वाली संस्कृति का युग आया। सबसे पहले ताँबा या काँसे का ज्ञान हुआ। काँसा, ताँबा और टिन के मिलाने से बनता था। ताँबा और काँसा ही सर्वप्रथम ज्ञात होने वाली धातुएँ हैं। इनकी बनी कुल्हाड़ियाँ, तलवारें, कटारें, हारपून और अँगूठियों के ढेर गंगा-यमुना के दोआबे में मुख्य रूप से पाए गए हैं। यह संस्कृति मुख्यत: उत्तर भारत में पनपी। दक्षिण भारत में अब तक ताँबे या काँसे के इनेगिने ही हथियार, औज़ार और बर्तन पाए जाते हैं। सामान्य मान्यता यह है कि लोहे का ज्ञान इस संस्कृति के बाद के युग की बात है। फलतः उसे लौह युग के नाम से पुकारते हैं। यह युग-परिवर्तन बड़े-बड़े प्रस्तर-खंडों के बने हथियारों से ज्ञात होता है जो सारे भारत में छिटके हुए पाये गए हैं। इनमें कुछ ऐसे मिले-जुले संग्रह हैं जिनमें पालिशदार पत्थर के औज़ार, कार्नेली के मनके, चाक से बने मिट्टी के बर्तन, ताँबे, काँसे और सोने की बनी वस्तुएँ और लोहे की मैल के ढोके पाये गए हैं। इससे ज्ञात होता है कि एक सांस्कृतिक चरण का दूसरे सांस्कृतिक चरण में परिवर्तन, अत्यन्त मन्द गति से हुआ और नयी वस्तुओं की जानकारी के बावजूद उन्होंने पुरानी वस्तुओं को एकदम त्याग नहीं दिया।


लौह युग: लौह युग के साथ हम ऐतिहासिक काल में पहुँच जाते हैं। अभी ४० वर्ष पूर्व तक ताम्र या कांस्य युग की संस्कृति के सम्बन्ध में हमारी जानकारी हथियारों, औज़ारों और गहनों के माध्यम से ही थी, किन्तु सिन्ध, पंजाब और बलूचिस्तान के अनेक स्थानों में हुई पुरातात्त्विक खुदाइयों के फलस्वरूप उस युग के नगरों के विस्तृत ध्वंसावशेष प्रकाश में आए हैं। उनसे इस युग की संस्कृति का विस्तृत ज्ञान प्राप्त हुआ है। इनकी चर्चा सिन्धु घाटी की सभ्यता के वर्णन के प्रसंग में की जाएगी। यह समान्य धारणा है, किन्तु कुछ विद्वानों को संदेह है कि नव पाषाणयुगीन स्थानों में प्राप्त सभी प्रस्तर-चिन्ह इतने पुराने होंगे।

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