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श्रीभक्तमाला श्रीनामभागोस्वामीकृत

 श्रीभक्तमाल श्रीनाभागोस्वामीकृत 


भक्त भक्ति भगवंत गुरु चतुर नाम बपु एक ।

इनके पद बंदन किए नासहिं बिघ्न अनेक ॥ १॥


मंगल आदि बिचारि रह बस्तु न और अनूप ।

हरिजन के जस गावते हरिजन मंगलरूप ॥ २॥


संतन निर्नय कियो मथि श्रुति पुरान इतिहास ।

भजिबे को दोई सुघर कै हरि कै हरिदास ॥ ३॥


(श्री)अग्रदेव आज्ञा दई भक्तन के जस गाउ ।

भवसागर के तरन को नाहिन और उपाउ ॥ ४॥


चौबीस रूप लीला रुचिर (श्री)अग्रदास उर पद धरौ ॥


जय जय मीन बराह कमठ नरहरि बलि बावन ।

परशुराम रघुबीर कृष्ण कीरति जगपावन ॥


बुद्ध कलक्की ब्यास पृथू हरि हँस मन्वंतर ।

जग्य ऋषभ हयग्रीव ध्रुव बरदेन धन्वन्तर ॥


बदरीपति दत कपिलदेव सनकादिक करुणा करौ ।

चौबीस रूप लीला रुचिर (श्री)अग्रदास उर पद धरौ ॥ ५॥


चरन चिन्ह रघुबीर के संतन सदा सहायका ॥


अंकुश अंबर कुलिश कमल जव ध्वजा धेनुपद ।

शंख चक्र स्वस्तीक जम्बुफल कलस सुधाह्रद ॥


अर्धचंद्र षटकोन मीन बिँदु ऊरधरेषा ।

अष्टकोन त्रयकोन इंद्र धनु पुरुष बिशेषा ॥


सीतापतिपद नित बसत एते मंगलदायका ।

चरन चिन्ह रघुबीर के संतन सदा सहायका ॥ ६॥


इनकी कृपा और पुनि समुझे द्वादस भक्त प्रधान ॥


बिधि नारद शंकर सनकादिक कपिलदेव मनु भूप ।

नरहरिदास जनक भीषम बलि शुकमुनि धर्मस्वरूप ॥


अन्तरंग अनुचर हरिजू के जो इनको जस गावै ।

आदि अंतलौं मंगल तिनको श्रोता बक्ता पावै ॥


अजामेल परसंग यह निर्णय परम धर्म के जान ।

इनकी कृपा और पुनि समुझे द्वादस भक्त प्रधान ॥ ७॥


मो चित्तबृत्ति नित तहँ रहो जहँ नारायण पारषद ॥


बिष्वक्सेन जय बिजय प्रबल बल मंगलकारी ।

नंद सुनंद सुभद्र भद्र जग आमयहारी ॥


चंड प्रचंड बिनीत कुमुद कुमुदाच्छ करुणालय ।

शील सुशील सुषेण भाव भक्तन प्रतिपालय ॥


लक्ष्मीपति प्रीणन प्रबीन भजनानँद भक्तन सुहृद ।


॥  अथ नाभागोस्वामीकृत श्रीभक्तमाल ॥


मो चित्तबृत्ति नित तहँ रहो जहँ नारायण पारषद ॥ ८॥


हरिबल्लभ सब प्रारथों (जिन) चरनरेनु आशा धरी ॥


कमला गरुड सुनंद आदि षोडस प्रभुपदरति ।

(हनुमंत) जामवंत सुग्रीव विभीषण शबरी खगपति ॥


ध्रुव उद्धव अँबरीष बिदुर अक्रूर सुदामा ।

चंद्रहास चित्रकेतु ग्राह गज पांडव नामा ॥


कौषारव कुंतीबधू पट ऐंचत लज्जाहरी ।

हरिबल्लभ सब प्रारथों (जिन) चरनरेनु आशा धरी ॥ ९॥


पदपंकज बाँछौं सदा जिनके हरि उर नित बसैं ॥


योगेश्वर श्रुतदेव अंग मुचु(कुंद) प्रियब्रत जेता ।

पृथू परीक्षित शेष सूत शौनक परचेता ॥


शतरूपा त्रय सुता सुनीति सति सबहि मँदालस ।

जग्यपत्नि ब्रजनारि किये केशव अपने बस ॥


ऐसे नर नारी जिते तिनही के गाऊँ जसैं ।

पदपंकज बाँछौं सदा जिनके हरि उर नित बसैं ॥ १०॥


अंघ्री अम्बुज पांसु को जन्म जन्म हौं जाचिहौं ॥


प्राचीनबर्हि सत्यब्रत रहूगण सगर भगीरथ ।

बाल्मीकि मिथिलेस गए जे जे गोबिँद पथ ॥


रुक्मांगद हरिचंद भरत दधीचि उदारा ।

सुरथ सुधन्वा शिबिर सुमति अति बलिकी दारा ॥


नील मोरध्वज ताम्रध्वज अलरक कीरति राचिहौं ।

अंघ्री अम्बुज पांसु को जन्म जन्म हौं जाचिहौं ॥ ११॥


तिन चरन धूरी मो भूरि सिर जे जे हरिमाया तरे ॥


रिभु इक्ष्वाकु अरु ऐल गाधि रघु रै गै सुचि शतधन्वा ।

अमूरति अरु रन्ति उतंक भूरि देवल वैवस्वतमन्वा ॥


नहुष जजाति दिलीप पुरु जदु गुह मान्धाता ।

पिप्पल निमि भरद्वाज दच्छ सरभंग सँघाता ॥


संजय समीक उत्तानपाद जाग्यबल्क्य जस जग भरे ।

तिन चरन धूरी मो भूरि सिर जे जे हरिमाया तरे ॥ १२॥


निमि अरु नव योगेश्वरा पादत्रान की हौं सरन ॥


कबि हरि करभाजन भक्तिरत्नाकर भारी ।

अन्तरिच्छ अरु चमस अनन्यता पधति उधारी ॥


प्रबुध प्रेम की रासि भूरिदा आबिरहोता ।

पिप्पल द्रुमिल प्रसिद्ध भवाब्धि पार के पोता ॥


जयंतीनंदन जगत के त्रिबिध ताप आमयहरन ।

निमि अरु नव योगेश्वरा पादत्रान की हौं सरन ॥ १३॥


पदपराग करुना करौ जे नेता नवधा भक्ति के ॥


श्रवन परीच्छित सुमति व्याससावक कीरंतन ।

सुठि सुमिरन प्रहलाद पृथु पूजा कमला चरननि मन ॥


बंदन सुफलक सुबन दास दीपत्ति कपीश्वर ।

सख्यत्वे पारथ समर्पन आतम बलिधर ॥


उपजीवी इन नाम के एते त्राता अगतिके ।

पदपराग करुना करौ जे नेता नवधा भक्ति के ॥ १४॥


हरिप्रसाद रस स्वाद के भक्त इते परमान ॥


शंकर शुक सनकादि कपिल नारद हनुमाना ।

बिष्वक्सेन प्रह्लाद बली भीषम जग जाना ॥


अर्जुन ध्रुव अँबरीष विभीषण महिमा भारी ।

अनुरागी अक्रूर सदा उद्धव अधिकारी ॥


भगवंत भुक्त अवशिष्ट की कीरति कहत सुजान ।

हरिप्रसाद रस स्वाद के भक्त इते परमान ॥ १५॥


ध्यान चतुर्भुज चित धर्यो तिनहिं सरन हौं अनुसरौं ॥


अगस्त्य पुलस्त्य पुलह च्यबन बसिष्ठ सौभरि ऋषि ।

कर्दम अत्रि ऋचीक गर्ग गौतम ब्यासशिषि ॥


लोमस भृगु दालभ्य अंगिरा श‍ृंगि प्रकासी ।

मांडव्य बिश्वामित्र दुर्बासा सहस अठासी ॥


जाबालि जमदग्नि मायादर्श कश्यप परबत पाराशर पदरज धरौं ।

ध्यान चतुर्भुज चित धर्यो तिनहिं सरन हौं अनुसरौं ॥ १६॥


साधन साध्य सत्रह पुराण फलरूपी श्रीभागवत ॥


ब्रह्म विष्णु शिव लिंग पदम अस्कँद बिस्तारा ।

बामन मीन बराह अग्नि कूरम ऊदारा ॥


गरुड नारदी भविष्य ब्रह्मबैबर्त श्रवण शुचि ।

मार्कंडेय ब्रह्मांड कथा नाना उपजे रुचि ॥


परम धर्म श्रीमुखकथित चतुःश्लोकी निगम शत ।

साधन साध्य सत्रह पुराण फलरूपी श्रीभागवत ॥ १७॥


दस आठ स्मृति जिन उच्चरी तिन पद सरसिज भाल मो ॥


मनुस्मृति आत्रेय वैष्णवी हारीतक जामी ।

जाग्यबल्क्य अंगिरा शनैश्चर सांवर्तक नामी ॥


कात्यायनि शांडिल्य गौतमी बासिष्ठी दाषी ।

सुरगुरु शातातापि पराशर क्रतु मुनि भाषी ॥


आशा पास उदारधी परलोक लोक साधन सो ।

दस आठ स्मृति जिन उच्चरी तिन पद सरसिज भाल मो ॥ १८॥


पावैं भक्ति अनपायिनी जे रामसचिव सुमिरन करैं ॥


धृष्टी बिजय जयंत नीतिपर सुचि सुबिनीता ।

राष्टरबर्धन निपुण सुराष्टर परम पुनीता ॥


अशोक सदा आनंद धर्मपालक तत्ववेता ।

मंत्रीवर्य सुमंत्र चतुर्जुग मंत्री जेता ॥


अनायास रघुपति प्रसन्न भवसागर दुस्तर तरैं ।

पावैं भक्ति अनपायिनी जे रामसचिव सुमिरन करैं ॥ १९॥


शुभ दृष्टि वृष्टि मोपर करौ जे सहचर रघुवीर के ॥


दिनकरसुत हरिराज बालिबछ केसरि औरस ।

दधिमुख द्विबिद मयंद रीछपति सम को पौरस ॥


उल्कासुभट सुषेन दरीमुख कुमुद नील नल ।

शरभर गवय गवाच्छ पनस गँधमादन अतिबल ॥


पद्म अठारह यूथपति रामकाज भट भीर के ।

शुभ दृष्टि वृष्टि मोपर करौ जे सहचर रघुवीर के ॥ २०॥


ब्रज बडए गोप पर्जन्य के सुत नीके नव नंद ॥


धरानंद ध्रुवनंद तृतिय उपनंद सुनागर ।

चतुर्थ तहाँ अभिनंद नंद सुखसिंधु उजागर ॥


सुठि सुनंद पशुपाल निर्मल निश्चय अभिनंदन ।

कर्मा धर्मानंद अनुज बल्लभ जगबंदन ॥


आसपास वा बगर के जहँ बिहरत पसुप स्वछंद ।

ब्रज बडे गोप पर्जन्य के सुत नीके नव नंद ॥ २१॥


बाल बृद्ध नर नारि गोप हौं अर्थी उन पाद रज ॥


नंदगोप उपनंद ध्रुव धरानंद महरि जसोदा ।

कीरतिदा वृषभानु कुँवरि सहचरि मन मोदा ॥


मधुमंगल सुबल सुबाहु भोज अर्जुन श्रीदामा ।

मंडलि ग्वाल अनेक श्याम संगी बहु नामा ॥


घोष निवासिनि की कृपा सुर नर बाँछित आदि अज ।

बाल बृद्ध नर नारि गोप हौं अर्थी उन पाद रज ॥ २२॥


ब्रजराजसुवन सँग सदन मन अनुग सदा तत्पर रहैं ॥


रक्तक पत्रक और पत्रि सबही मन भावैं ।

मधुकंठी मधुवर्त रसाल बिसाल सुहावैं ॥


प्रेमकंद मकरंद सदा आनँद चँदहासा ।

पयद बकुल रसदान सारदा बुद्धि प्रकासा ॥


सेवा समय बिचारिकै चारु चतुर चित की लहैं ।

ब्रजराजसुवन सँग सदन मन अनुग सदा तत्पर रहैं ॥ २३॥


सप्त द्वीप में दास जे ते मेरे सिरताज ॥


जम्बुद्वीप अरु प्लच्छ सालमलि बहुत राजरिषि ।

कुस पबित्र पुनि क्रौंच कौन महिमा जाने लिखि ॥


साक बिपुल बिस्तार प्रसिद्ध नामी अति पुहकर ।

पर्बत लोकालोक ओक टापू कंचनघर ॥


हरिभृत्य बसत जे जे जहाँ तिन सन नित प्रति काज ।

सप्त द्वीप में दास जे ते मेरे सिरताज ॥ २४॥


मध्यदीप नवखंड में भक्त जिते मम भूप ॥


इलाबर्त आधीस संकरषन अनुग सदाशिव ।

रमनक मछ मनु दास हिरन्य कूर्म अर्जम इव ॥


कुरु बराह भूभृत्य बर्ष हरिसिंह प्रहलादा ।

किंपुरुष राम कपि भरत नरायन बीनानादा ॥


भद्राश्व ग्रीवहय भद्रश्रव केतु काम कमला अनूप ।

मध्यदीप नवखंड में भक्त जिते मम भूप ॥ २५॥


श्वेतद्वीप के दास जे श्रवन सुनो तिनकी कथा ॥


श्रीनारायन बदन निरंतर ताही देखैं ।

पलक परै जो बीच कोटि जमजातन लेखैं ॥


तिनके दरसन काज गए तहँ बीनाधारी ।

श्याम दई कर सैन उलटि अब नहिं अधिकारी ॥


नारायन आख्यान दृढ तहँ प्रसंग नाहिन तथा ।

श्वेतद्वीप के दास जे श्रवन सुनो तिनकी कथा ॥ २६॥


उरग अष्टकुल द्वारपति सावधान हरिधाम थिति ॥


इलापत्र मुख अनँत अनँत कीरति बिस्तारत ।

पद्म संकु पन प्रगट ध्यान उरते नहीं टारत ॥


अँशुकंबल बासुकी अजित आग्या अनुबरती ।

करकोटक तच्छक सुभट्ट सेवा सिर धरती ॥


आगमोक्त शिवसंहिता अगर एकरस भजन रति ।

उरग अष्टकुल द्वारपति सावधान हरिधाम थिति ॥ २७॥


चौबीस प्रथम हरि बपु धरे त्यों चतुर्व्यूह कलिजुग प्रगट ॥


(श्री)रामानुज उदार सुधानिधि अवनि कल्पतरु ।

(श्रीरामानन्द उदार सुधानिधि अवनि कल्पतरु ।)

विष्णुस्वामी बोहित्थ सिन्धु संसार पार करु ॥


मध्वाचारज मेघ भक्ति सर ऊसर भरिया ।

निम्बादित्य आदित्य कुहर अज्ञान जु हरिया ॥


जनम करम भागवत धरम संप्रदाय थापी अघट ।

चौबीस प्रथम हरि बपु धरे त्यों चतुर्व्यूह कलिजुग प्रगट ॥ २८॥


रमा पद्धति रामानुज विष्णुस्वामि त्रिपुरारी ।

निम्बादित्य सनकादिका मधु कर गुरु मुख चारि ॥ २९॥


सँप्रदाय सिरोमनि सिंधुजा रच्यो भक्ति बित्तान ॥


बिष्वकसेन मुनिवर्य सुपुनि शठकोप प्रनीता ।

बोपदेव भागवत लुप्त उधर्यो नवनीता ॥


मंगल मुनि श्रीनाथ पुंडरीकाच्छ परमजस ।

राममिश्र रसरासि प्रगट परताप परांकुस ॥


यामुन मुनि रामानुज तिमिरहरन उदय भान ।

सँप्रदाय सिरोमनि सिंधुजा रच्यो भक्ति बित्तान ॥ ३०॥


सहस आस्य उपदेस करि जगत उद्धरन जतन कियो ॥


गोपुर ह्वै आरूढ उच्च स्वर मंत्र उचार्यो ।

सूते नर परे जागि बहत्तरि श्रवननि धार्यो ॥


तितनेई गुरुदेव पधति भई न्यारी न्यारी ।

कुर तारक सिष प्रथम भक्ति बपु मंगलकारी ॥


कृपनपाल करुणा समुद्र रामानुज सम नहीं बियो ।

सहस आस्य उपदेस करि जगत उद्धरन जतन कियो ॥ ३१॥


चतुर महंत दिग्गज चतुर भक्ति भूमि दाबे रहैं ॥


श्रुतिप्रज्ञा श्रुतिदेव ऋषभ पुहकर इभ ऐसे ।

श्रुतिधामा श्रुतिउदधि पराजित बामन जैसे ॥


रामानुज गुरुबंधु बिदित जग मंगलकारी ।

शिवसंहिता प्रनीत ग्यान सनकादिक सारी ॥


इँदिरा पधति उदारधी सभा साखि सारँग कहैं ।

चतुर महंत दिग्गज चतुर भक्ति भूमि दाबे रहैं ॥ ३२॥


आचारज जामात की कथा सुनत हरि होइ रति ॥


मालाधारी मृतक बह्यो सरिता में आयो ।

दाहकृत्य ज्यों बंधु न्यौति सब कुटुँब बुलायो ॥


नाक सँकोचहिं बिप्र तबहिं हरिपुर जन आए ।

जेंवत देखे सबनि जात काहू नहिं पाए ॥


लालाचारज लक्षधा प्रचुर भई महिमा जगति ।

आचारज जामात की कथा सुनत हरि होइ रति ॥ ३३॥


श्रीमारग उपदेश कृत श्रवन सुनौ आख्यान सुचि ॥


गुरू गमन (कियो) परदेश सिष्य सुरधुनी दृढआई ।

एक मज्जन एक पान हृदय बंदना कराई ॥


गुरु गंगा में प्रबिसि सिष्य को बेगि बुलायो ।

विष्णुपदी भय मानि कमलपत्रन पर धायो ॥


पादपद्म ता दिन प्रगट सब प्रसन्न मुनि परम रुचि ।

श्रीमारग उपदेश कृत श्रवन सुनौ आख्यान सुचि ॥ ३४॥


(श्री)रामानंद पद्धति प्रताप अवनि अमृत ह्वै अवतर्यो ॥


देवाचारज दुतिय महामहिमा हरियानँद ।

तस्य राघवानंद भये भक्तन को मानद ॥


पृथ्वी पत्रावलम्ब करी कासी अस्थायी ।

चारि बरन आश्रम सबही को भक्ति दृढआई ॥


तिन के रामानंद प्रगट बिश्वमंगल जिन बपु धर्यो ।

(श्री)रामानंद पद्धति प्रताप अवनि अमृत ह्वै अवतर्यो ॥ ३५॥


(श्री)रामानँद रघुनाथ ज्यों दुतिय सेतु जगतरन कियो ॥


अनंतानंद कबीर सुखा सुरसुरा पद्मावती नरहरी ।

पीपा भावानंद रैदास धना सेन सुरसुर की घरहरी ॥


औरो सिष्य प्रसिष्य एक ते एक उजागर ।

जगमंगल आधार भक्ति दसधा के आगर ॥


बहुत काल बपु धारी के प्रनत जनन को पार दियो ।

(श्री)रामानँद रघुनाथ ज्यों दुतिय सेतु जगतरन कियो ॥ ३६॥


अनंतानंद पद परसि कै लोकपाल से ते भये ॥


जोगानंद गयेस करमचँद अल्ह पैहारी ।

सारिरामदास श्रीरंग अवधि गुन महिमा भारी ॥


तिनके नरहरि उदित मुदित मेघा मंगलतन ।

रघुबर जदुबर गाइ विमल कीरति संच्यो धन ॥


हरिभक्ति सिन्धुबेला रचे पानि पद्मजा सिर दये ।

अनंतानंद पद परसि कै लोकपाल से ते भये ॥ ३७॥


निर्वेद अवधि कलि कृष्णदास अन परिहरि पय पान कियो ॥


जाके सिर कर धर्यो तासु कर तर नहीं आड्यो ।

अर्प्यो पद निर्बान सोक निर्भय करि छाड्यो ॥


तेजपुंज बल भजन महामुनि ऊरधरेता ।

सेवत चरनसरोज राय राना भुवि जेता ॥


दाहिमा बंस दिनकर उदय संत कमल हिय सुख दियो ।

निर्वेद अवधि कलि कृष्णदास अन परिहरी पय पान कियो ॥ ३८॥


पैहारी परसाद तें सिष्य सबै भए पारकर ॥


कील्ह अगर केवल्ल चरनब्रत हठी नरायन ।

सूरज पुरुषा पृथू त्रिपुर हरिभक्ति परायन ॥


पद्मनाभ गोपाल टेक टीला गदाधारी ।

देवा हेम कल्यान गंग गंगासम नारी ॥


विष्णुदास कन्हर रँगा चाँदन सबिरी गोबिँद पर ।

पैहारी परसाद तें सिष्य सबै भए पारकर ॥ ३९॥


गांगेय मृत्यु गंज्यो नहीं त्यों कील्ह करन नहिं काल बस ॥


राम चरन चिंतवनि रहति निसि दिन लौ लागी ।

सर्वभूत सिर नमित सूर भजनानँद भागी ॥


सांख्य जोग मत सुदृढ कियो अनुभव हस्तामल ।

ब्रह्मरंध्र करि गमन भए हरितन करनी बल ॥


सुमेरदेवसुत जगबिदित भू बिस्तार्यो बिमल जस ।

गांगेय मृत्यु गंज्यो नहीं त्यों कील्ह करन नहिं काल बस ॥ ४०॥


(श्री)अग्रदास हरिभजन बिन काल बृथा नहिं बित्तयो ॥


सदाचार ज्यों संत प्राप्त जैसे करि आये ।

सेवा सुमिरन सावधान (चरन) राघव चित लाये ॥


प्रसिध बाग सों प्रीति स्वहथ कृत करत निरंतर ।

रसना निर्मल नाम मनहु बरषत धाराधर ।

(श्री)कृष्णदास कृपा करि भक्ति दत मन बच क्रम करि अटल दयो ।

(श्री)अग्रदास हरिभजन बिन काल वृथा नहिं बित्तयो ॥ ४१॥


कलिजुग धर्मपालक प्रगट आचारज शंकर सुभट ॥


उच्छृंखल अग्यान जिते अनईश्वरवादी ।

बौद्ध कुतर्की जैन और पाखंडहि आदि ॥


बिमुखन को दियो दंड ऐंचि सन्मारग आने ।

सदाचार की सींव बिश्व कीरतिहिं बखाने ॥


ईश्वरांस अवतार महि मर्यादा माँडी अघट ।

कलिजुग धर्मपालक प्रगट आचारज शंकर सुभट ॥ ४२॥


नामदेव प्रतिग्या निर्बही (ज्यों) त्रेता नरहरिदास की ॥


बालदसा बिट्ठल पानि जाके पय पीयो ।

मृतक गऊ जिवाय परचौ असुरन को दीयो ॥


सेज सलिल ते काढै पहिले जैसी ही होती ।

देवल उल्ट्यो देखि सकुचि रहे सबही सोती ॥


पँडुरनाथ कृत अनुग ज्यों छानि स्वकर छै घास की ।

नामदेव प्रतिग्या निर्बही (ज्यों) त्रेता नरहरिदास की ॥ ४३॥


जयदेव कबी नृपचक्कवै खँडमँडलेश्वर आन कबि ॥


प्रचुर भयो तिहुँ लोक गीतगोविन्द उजागर ।

कोक काव्य नवरस सरस श‍ृंगार को सागर ॥


अष्टपदी अभ्यास करै तेहि बुद्धि बढावै ।

राधारमन प्रसन्न सुनत तहँ निश्चय आवै ॥


संत सरोरुह खंड को पद्मापति सुखजनक रबि ।

जयदेव कबी नृपचक्कवै खँडमँडलेश्वर आन कबि ॥ ४४॥


श्रीधर श्रीभागवत में परम धरम निरनय कियो ॥


तीनि कांड एकत्व सानि कोउ अग्य बखानत ।

कर्मठ ज्ञानी ऐंचि अर्थ को अनरथ बानत ॥


परमहंस संहिता बिदित टीका बिस्तार्यो ।

षट सास्त्र अविरुद्ध वेद संमत हि बिचार्यो ॥


परमानन्द प्रसाद ते माधो स्वकर सुधार दियो ।

श्रीधर श्रीभागवत में परम धरम निरनय कियो ॥ ४५॥


कृष्ण कृपा कोपर प्रगट बिल्वमंगल मंगलस्वरूप ॥


करुनामृत सुकबित्त जुक्ति अनुछिष्ट उचारी ।

रसिक जनन जीवन जु हृदय हारावलि धारी ॥


हरि पकरायो हाथ बहुरि तहँ लियो छुटाई ।

कहा भयो कर छुटैं बदौं जो हियतें जाई ॥


चिंतामनि सँग पाइ कै ब्रजबधु केली बरनि अनूप ।

कृष्ण कृपा कोपर प्रगट बिल्वमंगल मंगलस्वरूप ॥ ४६॥


कलिजीव जँजाली कारने विष्णुपुरी बडै निधि सची ॥


भगवत धर्म उतंग आन धर्म आन न देखा ।

पीतर पटतर बिगत निकष ज्यों कुंदनरेखा ॥


कृष्णकृपा कहि बेलि फलित सत्संग दिखायो ।

कोटि ग्रंथ को अर्थ तेरह बिरचन में गायो ॥


महासमुद्र भागवत तें भक्ति रत्न राजी रची ।

कलिजीव जँजाली कारने विष्णुपुरी बडै निधि सची ॥ ४७॥


विष्णुस्वामि सँप्रदाय दृढ ज्ञानदेव गंभीरमति ॥


नाम त्रिलोचन सिष्य सूर ससि सदृस उजागर ।

गिरा गंग उन्हारि काब्य रचना प्रेमाकर ॥


आचारज हरिदास अतुल बल आनँददायन ।

तेहिं मारग बल्लभ बिदित पृथु पधति परायन ॥


नवधा प्रधान सेवा सुदृढ मन बच क्रम हरिचरन रति ।

विष्णुस्वामि सँप्रदाय दृढ ज्ञानदेव गंभीरमति ॥ ४८॥


संतसाखि जानत सबै प्रगट प्रेम कलिजुग प्रधान ॥


भक्तदास इक भूप श्रवन सीता हर कीनो ।

मार मार करि खड्ग बाजि सागर मँह दीनो ॥


नरसिँह को अनुकरन होइ हिरनाकुस मार्यो ।

वहै भयो दसरथहि राम बिछुरत तन छार्यो ॥


कृष्ण दाम बांधे सुने तेहि छन दीयो प्रान ।

संतसाखि जानत सबै प्रगट प्रेम कलिजुग प्रधान ॥ ४९॥


प्रसाद अवग्या जानि कै पानि तज्यो एकै नृपति ॥


हौं का कहौं बनाइ बात सबही जग जाने ।

करते दौना भयो स्याम सौरभ सुख माने ॥


छपन भोगतें पहिल खीच करमा की भावे ।

सिलपिल्ले के कहत कुँअरि पै हरि चलि आवे ॥


भक्तन हित सुत विष दियो भूपनारि प्रभु राखि पति ।

प्रसाद अवग्या जानि कै पानि तज्यो एकै नृपति ॥ ५०॥


आसय अगाध दुहुँ भक्त को हरितोषन अतिसय कियो ॥


रंगनाथ को सदन करन बहु बुद्धि बिचारी ।

कपट धर्म रचि जैन द्रव्य हित देह बिसारी ॥


हंस पकरने काज बधिक बानौं धरि आए ।

तिलक दाम की सकुच जानि तिहिं आप बँधाए ॥


सुतबध हरिजन देखि कै दै कन्या आदर दियो ।

आसय अगाध दुहुँ भक्त को हरितोषन अतिसय कियो ॥ ५१॥


चारों जुग चतुर्भुज सदा भक्त गिरा साँची करन ॥


दारुमयी तरवार सारमय रची भुवन की ।

देवा हित सित केस प्रतिग्या राखी जन की ॥


कमधुज के कपि चारु चिता पर काष्ठ जु ल्याए ।

जैमल के जुध माहिं अश्व चढै आपुन धाए ॥


घृत सहित भैंस चौगुनी श्रीधर सँग सायक धरन ।

चारों जुग चतुर्भुज सदा भक्तगिरा साँची करन ॥ ५२॥


भक्तन सँग भगवान नित ज्यों गौ बछ गोहन फिरैं ॥


निहिकिंचन इक दास तासु के हरिजन आये ।

बिदित बटोही रूप भये हरि आप लुटाये ॥


साखि देन को स्याम खुरदहा प्रभुहि पधारे ।

रामदास के सदन राय रनछोर सिधारे ॥


आयुध छत तन अनुग के बलि बंधन अपबपु धरैं ।

भक्तन सँग भगवान नित ज्यों गौ बछ गोहन फिरैं ॥ ५३॥


बच्छहरन पाछें बिदित सुनो संत अचरज भयो ॥


जसू स्वामि के वृषभ चोरि ब्रजबासी ल्याये ।

तैसेई दिए स्याम बरष दिन खेत जुताये ॥


नामा ज्यों नँददास मुई इक बच्छि जिवाई ।

अंब अल्ह को नये प्रसिध जग गाथा गाई ॥


बारमुखी के मुकुट को रंगनाथ को सिर नयो ।

बच्छहरन पाछें बिदित सुनो संत अचरज भयो ॥ ५४॥


और जुगन ते कमलनयन कलिजुग बहुत कृपा करी ॥


बीच दिए रघुनाथ भक्त सँग ठगिया लागे ।

निर्जन बन में जाय दुष्ट क्रम किये अभागे ॥


बीच दियो सो कहाँ राम कहि नारि पुकारी ।

आए सारँगपानि सोकसागर ते तारी ॥


दुष्ट किये निर्जीव सब दासप्रान संज्ञा धरी ।

और जुगन ते कमलनयन कलिजुग बहुत कृपा करी ॥ ५५॥


एक भूप भागवत की कथा सुनत हरि होय रति ॥


तिलक दाम धरि कोइ ताहि गुरु गोबिँद जानै ।

षटदर्शनी अभाव सर्वथा घटि करि मानै ॥


भाँड भक्त को भेष हाँसि हित भँडकुट ल्याये ।

नरपति के दृढ नेम ताहि ये पाँव धुवाये ॥


भाँड भेष गाढओ गह्यो दरस परस उपजी भगति ।

एक भूप भागवत की कथा सुनत हरि होय रति ॥ ५६॥


अंतरनिष्ठ नृपाल इक परम धरम नाहिन धुजी ॥


हरि सुमिरन हरि ध्यान आन काहू न जनावै ।

अलग न इहि बिधि रहै अंगना मरम न पावै ॥


निद्राबस सो भूप बदन तें नाम उचार्यो ।

रानी पति पै रीझि बहुत बसु तापर वार्यो ॥


ऋषिराज सोचि कह्यो नारि सों आजु भगति मोरी कुजी ।

अंतरनिष्ठ नृपाल इक परम धरम नाहिन धुजी ॥ ५७॥


गुरु गदित बचन सिष सत्य अति दृढ प्रतीति गाढओ गह्यो ॥


अनुचर आग्या माँगि कह्यो कारज को जैहों ।

आचारज इक बात तोहिं आए ते कहिहौं ॥


स्वामी रह्यो समाय दास दरसन को आयो ।

गुरु गिरा मान बिस्वास फेरि सब घर को ल्यायो ॥


सिषपन साँचो करन हित बिभु सबै सुनत सोई कह्यो ।

गुरु गदित बचन सिष सत्य अति दृढ प्रतीति गाढओ गह्यो ॥ ५८॥


संदेह ग्रंथि खंडन निपुन बानि बिमल रैदास की ॥


सदाचार श्रुति सास्त्र बचन अविरुद्ध उचार्यो ।

नीर क्षीर बिबरन परमहंसनि उर धार्यो ॥


भगवत कृपा प्रसाद परम गति इहि तन पाई ।

राजसिंहासन बैठि ग्याति परतीति दिखाई ॥


बरनाश्रम अभिमान तजि पद रज बंदहिं जास की ।

संदेह ग्रंथि खंडन निपुन बानि बिमल रैदास की ॥ ५९॥


कबीर कानि राखी नहीं बरनाश्रम षटदरसनी ॥


भक्ति बिमुख जो धर्म सोइ अधरम करि गायो ।

जोग जग्य ब्रत दान भजन बिन तुच्छ दिखायो ॥


हिन्दू तुरुक प्रमान रमैनी सबदी साखी ।

पच्छपात नहिं बचन सबन के हित की भाखी ॥


आरूढ दसा ह्वै जगत पर मुखदेखी नाहिंन भनी ।

कबीर कानि राखी नहीं बरनाश्रम षटदरसनी ॥ ६०॥


पीपा प्रताप जग बासना नाहर को उपदेस दियो ॥


प्रथम भवानी भगत मुक्ति माँगन को धायो ।

सत्य कह्यो तिहिं सक्ति सुदृढ हरि सरन बतायो ॥


(श्री)रामानँद पद पाइ भयो अति भक्ति की सीवाँ ।

गुन असंख्य निर्मोल संत राखत धरि ग्रीवाँ ॥


परस प्रनाली सरस भै सकल बिस्व मंगल कियो ।

पीपा प्रताप जग बासना नाहर को उपदेस दियो ॥ ६१॥


धन्य धना के भजन को बिनहि बीज अंकुर भयो ॥


घर आये हरिदास तिनहिं गोधूम खवाए ।

तात मात डर खेत थोथ लांगलहिं चलाए ॥


आस पास कृषिकार खेत की करत बड़ाई ।

भक्त भजे की रीति प्रगट परतीति जु पाई ॥


अचरज मानत जगत में कहुँ निपज्यो कहुँ वै बयो ।

धन्य धना के भजन को बिनहि बीज अंकुर भयो ॥ ६२॥


बिदित बात जन जानिये हरि भए सहायक सेन के ॥


प्रभू दास के काज रूप नापित को कीनो ।

छिप्र छुरहरी गही पानि दर्पन तहँ लीनो ॥


तादृस ह्वै तिहिं काल भूप के तेल लगायो ।

उलटि राव भयो सिष्य प्रगट परचो जब पायो ।

स्याम रहत सनमुख सदा ज्यों बच्छा हित धेन के ।

बिदित बात जग जानिये हरि भए सहायक सेन के ॥ ६३॥


भक्ति दान भय हरन भुज सुखानंद पारस परस ॥


सुखसागर की छाप राग गौरी रुचि न्यारी ।

पद रचना गुरु मंत्र गिरा आगम अनुहारी ॥


निसि दिन प्रेम प्रवाह द्रवत भूधर ज्यों निर्झर ।

हरि गुन कथा अगाध भाल राजत लीला भर ॥


संत कंज पोषन बिमल अति पियूष सरसी सरस ।

भक्ति दान भय हरन भुज सुखानंद पारस परस ॥ ६४॥


महिमा महाप्रसाद की सुरसुरानंद साँची करी ॥


एक समै अध्वा चलत वाक छल बरा सुपाये ।

देखा देखी सिष्य तिनहूँ पीछे ते खाये ॥


तिन पर स्वामी खिजे बमन करि बिन बिस्वासी ।

तिन तैसे प्रत्यच्छ भूमि पर कीनी रासी ॥


सुरसुरी सुबर पुनि उदगले पुहुप रेनु तुलसी हरी ।

महिमा महाप्रसाद की सुरसुरानंद साँची करी ॥ ६५॥


महासती सत ऊपमा त्यों सत सुरसरि को रह्यो ॥


अति उदार दंपती त्यागि गृह बन को गवने ।

अचरज भयो तहँ एक संत सुन जिन हो बिमने ॥


बैठे हुते एकांत आय असुरनि दुख दीयो ।

सुमिरे सारँगपानि रूप नरहरि को कीयो ॥


सुरसुरानंद की घरनि को सत राख्यो नरसिंह जह्यो ।

महासती सत ऊपमा त्यों सत सुरसरि को रह्यो ॥ ६६॥


निपट नरहरियानन्द को कर दाता दुर्गा भई ॥


झर घर लकरी नाहिं सक्ति को सदन बिदारैं ।

सक्ति भक्त सों बोलि दिनहिं प्रति बरही डारैं ॥


लगी परोसिन हौंस भवानी भ्वै सो मारैं ।

बदले की बेगारि मूँड़् वाके सिर डारैं ॥


भरत प्रसँग ज्यों कालिका लडू देखि तन में तई ।

निपट नरहरियानन्द को कर दाता दुर्गा भई ॥ ६७॥


कबीर कृपा तें परमतत्त्व पद्मनाभ परचै लह्यो ॥


नाम महा निधि मंत्र नाम ही सेवा पूजा ।

जप तप तीरथ नाम नाम बिन और न दूजा ॥


नाम प्रीति नाम बैर नाम कहि नामी बोले ।

नाम अजामिल साखि नाम बंधन तें खोले ॥


नाम अधिक रघुनाथ तें राम निकट हनुमत कह्यो ।

कबीर कृपा तें परमतत्त्व पद्मनाभ परचै लह्यो ॥ ६८॥


तत्त्वा जीवा दच्छिन देस बंसोद्धर राजत बिदित ॥


भक्ति सुधा जल समुद भए बेलावलि गाढई ।

पूरबजा ज्यों रीति प्रीति उतरोतर बाढई ॥


रघुकुल सदृस स्वभाव सिष्ट गुन सदा धर्मरत ।

सूर धीर ऊदार दयापर दच्छ अननिब्रत ॥


पद्मखंड पद्मा पधति प्रफुलित कर सबिता उदित ।

तत्त्वा जीवा दच्छिन देस बंसोद्धर राजत बिदित ॥ ६९॥


बिनय ब्यास मनो प्रगट ह्वै जग को हित माधव कियो ॥


पहिले बेद बिभाग कथित पूरान अष्टदस ।

भारतादि भागवत मथित उद्धार्यो हरिजस ॥


अब सोधे सब ग्रंथ अर्थ भाषा बिस्तार्यो ।

लीला जय जय जयति गाय भवपार उतार्यो ॥


जगन्नाथ इष्ट वैराग्य सींव करुनारस भीज्यो हियो ।

बिनय ब्यास मनो प्रगट ह्वै जग को हित माधव कियो ॥ ७०॥


रघुनाथ गुसाईं गरुड ज्यों सिंहपौरि ठाढए रहैं ॥


सीत लगत सकलात बिदित पुरुषोत्तम दीनी ।

सौच गए हरि संग कृत्य सेवक की कीनी ॥


जगन्नाथ पद प्रीति निरंतर करत खवासी ।

भगवत धर्म प्रधान प्रसन नीलाचल वासी ॥


उत्कल देस उड़ीसा नगर बैनतेय सब कोउ कहै ।

रघुनाथ गुसाईं गरुड़् ज्यों सिंहपौरि ठाढए रहैं ॥ ७१॥


नित्यानन्द कृष्ण चैतन्य की भक्ति दसों दिसि बिस्तरी ॥


गौडदेस पाखंड मेटि कियो भजन परायन ।

करुनासिंधु कृतग्य भये अगतिन गति दायन ॥


दसधा रस आक्रांत महत जन चरन उपासे ।

नाम लेत निष्पाप दुरित तिहि नर के नासे ॥


अवतार बिदित पूरब मही उभय महत देही धरी ।

नित्यानन्द कृष्ण चैतन्य की भक्ति दसों दिसि बिस्तरी ॥ ७२॥


सूर कबित सुनि कौन कबि जो नहिं सिरचालन करैं ॥


उक्ति चोज अनुप्रास बरन अस्थिति अति भारी ।

बचन प्रीति निर्बाह अर्थ अद्भुत तुक धारी ॥


प्रतिबिंबित दिवि दृष्टि हृदय हरिलीला भासी ।

जनम करम गुन रूप सबै रसना परकासी ॥


बिमल बुद्धि गुन और की जो यह गुन श्रवननि धरैं ।

सूर कबित सुनि कौन कबि जो नहिं सिरचालन करैं ॥ ७३॥


ब्रजबधू रीति कलिजुग बिषे परमानँद भयो प्रेम केत ॥


पौगंड बाल कैसोर गोपलीला सब गाई ।

अचरज कह यह बात हुतौ पहिले जु सखाई ॥


नयनन नीर प्रवाह रहत रोमांच रैन दिन ।

गदगद गिरा उदार स्याम सोभा भीज्यो तन ॥


सारंग छाप ताकी भई श्रवन सुनत आबेस देत ।

ब्रजबधू रीति कलिजुग बिषे परमानँद भयो प्रेम केत ॥ ७४॥


केसवभट नर मुकुटमनि जिनकी प्रभुता बिस्तरी ॥


कासमीर की छाप पाप तापन जग मंडन ।

दृढ हरिभगति कुठार आन धर्म बिटप बिहंडन ॥


मथुरा मध्य मलेच्छ बाद करि बरबट जीते ।

काजी अजित अनेक देखि परचै भयभीते ॥


बिदित बात संसार सब संत साखि नाहिंन दुरी ।

केसवभट नर मुकुटमनि जिनकी प्रभुता बिस्तरी ॥ ७५॥


श्रीभट्ट सुभट प्रगटे अघट रस रसिकन मनमोद घन ॥


मधुरभाव संबलित ललित लीला सुबलित छबि ।

निरखत हरषत हृदय प्रेम बरषत सुकलित कबि ॥


भव निस्तारन हेतु देत दृढ भक्ति सबनि नित ।

जासु सुजस ससि उदय हरत अति तम भ्रम श्रम चित ॥


आनंदकंद श्रीनंदसुत श्रीवृषभानुसुता भजन ।

श्रीभट्ट सुभट प्रगटे अघट रस रसिकन मनमोद घन ॥ ७६॥


हरिब्यास तेज हरिभजन बल देवी को दीच्छा दई ॥


खेचरि नर की सिष्य निपट अचरज यह आवै ।

बिदित बात संसार संत मुख कीरति गावै ॥


बैरागिन के बृंद रहत सँग स्याम सनेही ।

नव योगेश्वर मध्य मनहुँ सोभित बैदेही ॥


श्रीभट्ट चरन रज परस तें सकल सृष्टि जाको नई ।

हरिब्यास तेज हरिभजन बल देवी को दीच्छा दई ॥ ७७॥


अज्ञानध्वांत अंतःकरन दुतिय दिवाकर अवतर्यो ॥


उपदेसे नृप सिंह रहत नित आज्ञाकारी ।

पक्व बृच्छ ज्यों नाय संत पोषक उपकारी ॥


बानी भोलाराम सुहृद सबहिन पर छाया ।

भक्त चरनरज जाँचि बिसद राघव गुन गाया ॥


करमचंद कश्यप सदन बहुरि आय मनो बपु धर्यो ।

अज्ञानध्वांत अंतःकरन दुतिय दिवाकर अवतर्यो ॥ ७८॥


बिट्ठलनाथ ब्रजराज ज्यों लाड़् लड़ाय कै सुख लियो ॥


राग भोग नित बिबिध रहत परिचर्या तत्पर ।

सय्या भूषन बसन रचित रचना अपने कर ॥


वह गोकुल वह नंदसदन दीच्छित को सोहै ।

प्रगट बिभव जहँ घोष देखि सुरपति मन मोहै ॥


बल्लभसुत बल भजन के कलिजुग में द्वापर कियो ।

बिट्ठलनाथ ब्रजराज ज्यों लाड़् लड़ाय कै सुख लियो ॥ ७९॥


(श्री)बिट्ठलेससुत सुहृद श्रीगोबर्धनधर ध्याइये ॥


श्रीगिरिधरजू सरस सील गोबिंदजु साथहिं ।

बालकृष्ण जस बीर धीर श्रीगोकुलनाथहिं ॥


श्रीरघुनाथजु महाराज श्रीजदुनाथहिं भजि ।

श्रीघनश्यामजु पगे प्रभू अनुरागी सुधि सजि ॥


ए सात प्रगट बिभु भजन जग तारन तस जस गाइये ।

(श्री)बिट्ठलेससुत सुहृद श्रीगोबर्धनधर ध्याइये ॥ ८०॥


गिरिधरन रीझि कृष्णदास को नाम माँझ साझो दियो ॥


श्रीबल्लभ गुरुदत्त भजनसागर गुन आगर ।

कबित नोख निर्दोष नाथसेवा में नागर ॥


बानी बंदित बिदुष सुजस गोपाल अलंकृत ।

ब्रजरज अति आराध्य वहै धारी सर्बसु चित ॥


सान्निध्य सदा हरिदासबर गौरश्याम दृढ ब्रत लियो ।

गिरिधरन रीझि कृष्णदास को नाम माँझ साझो दियो ॥ ८१॥


बर्धमान गंगल गँभीर उभय थंभ हरिभक्ति के ॥


श्रीभागवत बखानि अमृतमय नदी बहाई ।

अमल करी सब अवनि तापहारक सुखदाई ॥


भक्तन सों अनुराग दीन सों परम दयाकर ।

भजन जसोदानंद संत संघट के आगर ॥


भीषम भट अंगज उदार कलियुग दाता सुगति के ।

बर्धमान गंगल गँभीर उभय थंभ हरिभक्ति के ॥ ८२॥


रामदास परताप तें खेम गुसाईं खेमकर ॥


रघुनंदन को दास प्रगट भूमंडल जानै ।

सर्बस सीताराम और कछु उर नहिं आनै ॥


धनुष बान सों प्रीति स्वामि के आयुध प्यारे ।

निकट निरंतर रहत होत कबहूँ नहिं न्यारे ॥


शूरवीर हनुमत सदृस परम उपासक प्रेमभर ।

रामदास परताप तें खेम गुसाईं खेमकर ॥ ८३॥


बिट्ठलदास माथुर मुकुट भये अमानी मानदा ॥


तिलक दाम सों प्रीति गुनहिं गुन अंतर धार्यो ।

भक्तन को उत्कर्ष जनम भरि रसन उचार्यो ॥


सरल हृदय संतोष जहाँ तहँ पर उपकारी ।

उत्सव में सुत दान कियो क्रम दुष्कर भारी ॥


हरि गोबिँद जय जय गुबिँद गिरा सदा आनंददा ।

बिट्ठलदास माथुर मुकुट भये अमानी मानदा ॥ ८४॥


हरिराम हठीले भजन बल राना को उत्तर दियो ॥


उग्र तेज ऊदार सुघर सुथराई सींवाँ ।

प्रेमपुंज रसरासि महा गदगद स्वर ग्रीवाँ ॥


भक्तन को अपराध करै ताको फल गायो ।

हिरनकसिपु प्रह्लाद परम दृष्टांत दिखायो ॥


सस्फुट वक्ता जगत में राजसभा निधरक हियो ।

हरिराम हठीले भजन बल राना को उत्तर दियो ॥ ८५॥


कमलाकर भट जगत में तत्वबाद रोपी धुजा ॥


पंडित कला प्रबीन अधिक आदर दें आरज ।

संप्रदाय सिर छत्र द्वितिय मनों मध्वाचारज ॥


जेतिक हरि अवतार सबै पूरन करि जानै ।

परिपाटी ध्वज बिजै सदृस भागवत बखानै ॥


श्रुति स्मृती संमत पुरान तप्तमुद्राधारी भुजा ।

कमलाकर भट जगत में तत्वबाद रोपी धुजा ॥ ८६॥


ब्रजभूमि उपासक भट्ट सो रचि पचि हरि एकै कियो ॥


गोप्य स्थल मथुरामंडल जिते बाराह बखाने ।

ते किये नारायन प्रगट प्रसिध पृथ्वी में जाने ॥


भक्तिसुधा को सिंधु सदा सत्संग सभाजन

परम रसग्य अनन्य कृष्णलीला को भाजन ॥


ग्यान समारत पच्छ को नाहिन कोउ खण्डन बियो ।

ब्रजभूमि उपासक भट्ट सो रचि पचि हरि एकै कियो ॥ ८७॥


ब्रजबल्लभ बल्लभ परम दुर्लभ सुख नयनन दिये ॥


नृत्य गान गुन निपुन रास में रस बरषावत ।

अब लीला ललितादि बलित दंपतिहि रिझावत ॥


अति उदार निस्तार सुजस ब्रजमंडल राजत ।

महा महोत्सव करत बहुत सबही सुख साजत ॥


श्रीनारायनभट्ट प्रभु परम प्रीति रस बस किये ।

ब्रजबल्लभ बल्लभ परम दुर्लभ सुख नयनन दिये ॥ ८८॥


संसार स्वाद सुख बांत ज्यों दुहुँ रूप सनातन तजि दियो ॥


गौड़्देस बंगाल हुते सबही अधिकारी ।

हय गय भवन भँडार बिभव भूभुज अनुहारी ॥  ।

यह सुख अनित बिचारि बास बृंदावन कीनो ।

यथालाभ संतोष कुंज करवा मन दीनो ॥


ब्रजभूमि रहस्य राधाकृष्ण भक्त तोष उद्धार कियो ।

संसार स्वाद सुख बांत ज्यों दुहुँ रूप सनातन तजि दियो ॥ ८९॥


हरिबंसगुसाईं भजन की रीति सुकृत कोउ जानिहै ॥


राधाचरन प्रधान हृदय अति सुदृढ उपासी ।

कुंज केलि दंपती तहाँ की करत खवासी ॥


सर्बस महाप्रसाद प्रसिध ताके अधिकारी ।

बिधि निषेध नहिं दास अननि उत्कट ब्रतधारी ॥


ब्याससुवन पथ अनुसरे सोई भले पहिचानिहै ।

हरिबंसगुसाईं भजन की रीति सुकृत कोउ जानिहै ॥ ९०॥


आसुधीर उद्योत कर रसिक छाप हरिदासकी ॥


जुगल नाम सों नेम जपत नित कुंजबिहारी ।

अवलोकत रहें केलि सखी सुख के अधिकारी ॥


गान कला गंधर्ब स्याम स्यामा को तोषैं ।

उत्तम भोग लगाय मोर मर्कट तिमि पोषैं ॥


नृपति द्वार ठाढए रहें दरसन आसा जास की ।

आसुधीर उद्योत कर रसिक छाप हरिदास की ॥ ९१॥


उत्कर्ष तिलक अरु दाम को भक्त इष्ट अति ब्यास के ॥


काहू के आराध्य मच्छ कछ सूकर नरहरि ।

बामन फरसाधरन सेतुबंधन जु सैलकरी ॥


एकन के यह रीति नेम नवधा सों लाये ।

सुकुल सुमोखन सुवन अच्युत गोत्री जु लड़ाये ॥


नौगुन तोरि नुपुर गुह्यो महँत सभा मधि रास के ।

उत्कर्ष तिलक अरु दाम को भक्त इष्ट अति ब्यास के ॥ ९२॥


(श्री)रूपसनातन भक्तिजल श्रीजीव गुसाईं सर गँभीर ॥


बेला भजन सुपक्व कषाय न कबहूँ लागी ।

बृंदाबन दृढ बास जुगल चरननि अनुरागी ॥


पोथी लेखन पान अघट अच्छर चित दीनो ।

सद्ग्रन्थन को सार सबै हस्तामल कीनो ॥


संदेह ग्रन्थि छेदन समर्थ रस रास उपासक परम धीर ।

(श्री)रूपसनातन भक्तिजल श्रीजीव गुसाईं सर गँभीर ॥ ९३॥


बृंदावनकी माधुरी इन मिलि आस्वादन कियो ॥


सर्बस राधारमन भट्ट गोपाल उजागर ।

हृषीकेस भगवान बिपुल बिट्ठल रससागर ॥


थानेश्वरी जग(न्नाथ) लोकनाथ महामुनि मधु श्रीरंग ।

कृष्णदास पंडित उभय अधिकारी हरि अंग ॥


घमंडी जुगलकिसोर भृत्य भूगर्भ जीव दृढव्रत लियो ।

बृंदावनकी माधुरी इन मिलि आस्वादन कियो ॥ ९४॥


रसिकमुरारि उदार अति मत्त गजहिं उपदेसु दियौ ॥


तन मन धन परिवार सहित सेवत संतन कहँ ।

दिब्य भोग आरती अधिक हरिहू ते हिय महँ ॥


श्रीबृन्दाबनचंद्र श्याम श्यामा रँग भीनो ।

मग्न प्रेमपीयूष पयधि परचै बहु दीनो ॥


हरिप्रिय श्यामानंदवर भजन भूमि उद्धार कियौ ॥


रसिकमुरारि उदार अति मत्त गजहिं उपदेसु दियौ ॥ ९५॥


भवप्रबाह निसतार हित अवलंबन ये जन भए ॥


सोझा सीवँ अधार धीर हरिनाभ त्रिलोचन ।

आसाधर द्यौराज नीर सधना दुखमोचन ॥


कासीश्वर अवधूत कृष्ण किंकर कटहरिया ।

सोभू उदाराम नामडुंगर व्रत धरिया ॥


पदम पदारथ रामदास बिमलानँद अमृत स्रए ।

भवप्रबाह निस्तार हित अवलंबन ये जन भए ॥ ९६॥


करुना छाया भक्तिफल ए कलिजुग पादप रचे ॥


जती रामरावल श्याम खोजी सँत सीहा ।

दल्हा पदम मनोरथ राका बाँका द्यौगू जप जीहा ॥


जाड़ा चाचा गुरू सवाई चाँदा नापा ।

पुरुषोत्तम सों साँच चतुर कीता मन (को जेहि) मेट्यो आपा ॥


मतिसुंदर धीङ् धाङ् श्रम संसारनाच नाहिन नचे ।

करुना छाया भक्तिफल ए कलिजुग पादप रचे ॥ ९७॥


पर अर्थ परायन भक्त ये कामधेनु कलिजुग्ग के ॥


लक्ष्मन लफरा लडू संत जोधापुर त्यागी ।

सूरज कुंभनदास बिमानी खेम बिरागी ॥


भावन बिरही भरत नफर हरिकेस लटेरा ।

हरिदास अयोध्या चक्रपाणी सरयूतट डेरा ॥


तिलोक पुखरदी बीजुरी उद्धव वनचर बंस के ।

पर अर्थ परायन भक्त ये कामधेनु कलिजुग्ग के ॥ ९८॥


अभिलाष अधिक पूरन करन ये चिंतामणि चतुरदास ॥


सोम भीम सोमनाथ बिको बिसाखा लमध्याना ।

महदा मुकुंद गनेस त्रिबिक्रम रघु जग जाना ॥


बाल्मीक बृधब्यास जगन झाँझू बिट्ठल आचारज ।

हरिभू लाला हरिदास बाहुबल राघव आरज ॥


लाखा छीतर उद्धव कपूर घाटम घूरी कियो प्रकास ।

अभिलाष अधिक पूरन करन ये चिंतामणि चतुरदास ॥ ९९॥


भक्तपाल दिग्गज भगत ए थानाइत शूर धीर ॥


देवानंद नरहरियानंद मुकुंद महीपति संतराम तम्मोरी ।

खेम श्रीरंग नंद विष्णु बीदा बाजू सुत जोरी ॥


छीतम द्वारिकादास माधव मांडन रूपा दामोदर ।

भक्त नरहरि भगवान बाल कान्हर केसव सोहैं घर ॥


दास प्रयाग लोहँग गुपाल नागू सुत गृह भक्त भीर ।

भक्तपाल दिग्गज भगत ए थानाइत शूर धीर ॥ १००॥


बदरीनाथ उड़ीसे द्वारिका सेवक सब हरिभजन पर ॥


केसव पुनि हरिनाथ भीम खेता गोबिँद ब्रह्मचारी ।

बालकृष्ण बड़्भरत अच्युत अपया ब्रतधारी ॥


पंडा गोपीनाथ मुकुँद गजपती महाजस ।

गुननिधि जसगोपाल दियो भक्तन को सरबस ॥


श्रीअंग सदा सानिधि रहैं कृत पुन्यपुंज भल भाग भर ।

बदरीनाथ उड़ीसे द्वारिका सेवक सब हरिभजन पर ॥ १०१॥


हरि सुजस प्रचुर कर जगतमें ये कबिजन अतिसय उदार ॥


बिद्यापति ब्रह्मदास बहोरन चतुर बिहारी ।

गोबिन्द गंगाराम लाल बरसनियाँ मंगलकारी ॥


प्रियदयाल परसराम भक्त भाई खाटीको ।

नंदसुवन की छाप कबित्त केसव को नीको ॥


आसकरन पूरन नृपति भीषम जनदयाल गुन नाहिन पार ।

हरि सुजस प्रचुर कर जगतमें ये कबिजन अतिसय उदार ॥ १०२॥


जे बसे बसत मथुरा मंडल ते दया दृष्टि मोपर करो ॥


रघुनाथ गोपीनाथ रामभद्र दासू स्वामी ।

गुंजामाली चित उत्तम बिट्ठल मरहठ निष्कामी ॥


यदुनंदन रघुनाथ रामानंद गोविंद मुरली सोती ।

हरिदास मिश्र भगवान मुकुन्द केसव दंडौती ॥


चतुर्भुज चरित्र विष्णुदास बेनी पद मो सिर धरो ।

जे बसे बसत मथुरा मंडल ते दया दृष्टि मोपर करो ॥ १०३॥


कलिजुग जुवतीजन भक्तराज महिमा सब जानै जगत ॥


सीता झाली सुमति सोभा प्रभुता उमा भटियानी ।

गंगा गौरी कुँवरि उबीठा गोपाली गनेसुदे रानी ॥


कला लखा कृतगढाउ मानमति सुचि सतभामा ।

यमुना कोली रामा मृगा देवादे भक्तन बिश्रामा ।

जुग जीवा कीकी कमला देवकी हीरा हरिचेरी पोषै भगत ।

कलिजुग जुवतीजन भक्तराज महिमा सब जानै जगत ॥ १०४॥


हरि के संमत जे भगत तिन दासन के दास ॥


नरबाहन बाहन बरीस जापू जैमल बीदावत ।

जयंत धारा रूपा अनुभई उदा रावत ॥


गंभीरे अर्जुन जनार्दन गोबिँद जीता ।

दामोदर साँपिले गदा ईश्वर हेम बिनीता ॥


मयानंद महिमा अनंत गुढईले तुलसीदास ।

हरि के संमत जे भगत तिन दासन के दास ॥ १०५॥


श्रीमुख पूजा संत की आपुन तें अधिकी कही ॥


यहै बचन परमान दास गाँवरी जटियाने भाऊ ।

बूँदी बनियाराम मँडौते मोहनबारी दाऊ ॥


माडौठी जगदीसदास लछिमन चटुथावल भारी ।

सुनपथ में भगवान सबै सलखान गुपाल उधारी ॥


जोबनेर गोपाल के भक्त इष्टता निरबही ।

श्रीमुख पूजा संत की आपुन तें अधिकी कही ॥ १०६॥


परमहंस बंसनि में भयो बिभागी बानरो ॥


मुरधर खंड निवास भूप सब आज्ञाकारी ।

राम नाम बिश्वास भक्तपदरजब्रतधारी ॥


जगन्नाथ के द्वार दंडोतनि प्रभु पै धायो ।

दई दास की दादि हुँडी करि फेरि पठायो ॥


सुरधुनी ओघ संसर्ग तें नाम बदल कुच्छित नरो ।

परमहंस बंसनि में भयो बिभागी बानरो ॥ १०७॥


जगत बिदित नरसी भगत (जिन) गुज्जर धर पावन करी ॥


महा समारत लोग भक्ति लौलेश न जानें ।

माला मुद्रा देखि तासु की निंदा ठानें ॥


ऐसे कुल उत्पन्न भयो भागवत शिरोमनि ।

ऊसर तें सर कियो खंड दोषहि खोयो जिनि ॥


बहुत ठौर परचो दियो रसरीति भगति हिरदै धरी ।

जगत बिदित नरसी भगत (जिन) गुज्जर धर पावन करी ॥ १०८॥


दिवदासबंस यशोधर सदन भई भक्ति अनपायिनी ॥


सुत कलत्र संमत सबै गोबिंद परायन ।

सेवत हरि हरिदास द्रवत मुख राम रसायन ॥


सीतापति को सुजस प्रथम ही गमन बखान्यो ।

द्वै सुत दीजै मोहि कबित्त सब ही जग जान्यो ॥


गिरागदित लीला मधुर संतनि आनँददायिनी ।

दिवदास बंस यशोधर सदन भई भक्ति अनपायिनी ॥ १०९॥


नंददास आनंदनिधि रसिक सु प्रभु हित रँगमगे ॥


लीला पद रस रीति ग्रंथ रचना में नागर ।

सरस उक्ति जुत जुक्ति भक्ति रस गान उजागर ॥


प्रचुर पयोधि लौं सुजस रामपुर ग्राम निवासी ।

सकल सुकुल संबलित भक्तपदरेणु उपासी ॥


चंद्रहास अग्रज सुहृद परम प्रेम पय में पगे ।

नंददास आनंदनिधि रसिक सु प्रभु हित रँगमगे ॥ ११०॥


संसार सकल ब्यापक भई जकरी जनगोपाल की ॥


भक्ति तेज अति भाल संत मंडल को मंडन ।

बुधि प्रवेश भागवत ग्रंथ संसय को खंडन ॥


नरहड़् ग्राम निवास देश बागड़् निस्तार्यो ।

नवधा भजन प्रबोध अननि दासन ब्रत धार्यो ॥


भक्त कृपा बांछी सदा पदरज राधालाल की ।

संसार सकल ब्यापक भई जकरी जनगोपाल की ॥ १११॥


माधव दृढ महि ऊपरै प्रचुर करी लोटा भगति ॥


प्रसिध प्रेम की बात गढआगढ परचै दीयो ।

ऊँचे तें भयो पात श्याम साँचौ पन कीयो ॥


सुत नाती पुनि सदृश चलत ऊही परिपाटी ।

भक्तन सों अति प्रेम नेम नहिं किहुँ अँग घाटी ॥


नृत्य करत नहिं तन सँभार समसर जनकन की सकति ।

माधव दृढ महि ऊपरै प्रचुर करी लोटा भगति ॥ ११२॥


अभिलाष भक्त अंगद को पुरुषोत्तम पूरन कर्यो ॥


नग अमोल इक ताहि सबै भूपति मिलि जाचैं ।

साम दाम बहु करैं दास नाहिंन मत काचैं ॥


एक समै संकट लै वह पानी महिं डार्यो ।

प्रभू तिहारी बस्तु बदन तें बचन उचार्यो ॥


पाँच दोय सत कोस तें हरि हीरा लै उर धर्यो ।

अभिलाष भक्त अंगद को पुरुषोत्तम पूरन कर्यो ॥ ११३॥


चतुर्भुज नृपति की भक्ति को कौन भूप सरवर करैं ॥


भक्त आगमन सुनत सन्मुख जोजन एक जाई ।

सदन आनि सतकार सदृश गोविंद बड़ाई ॥


पाद प्रछालन सुहथ राय रानी मन साँचे ।

धूप दीप नैवेद्य बहुरि तिन आगे नाचे ॥


यह रीति करौलीधीश की तन मन धन आगे धरैं ।

चतुर्भुज नृपति की भक्ति को कौन भूप सरवर करैं ॥ ११४॥


लोकलाज कुलश‍ृंखला तजि मीराँ गिरिधर भजी ॥


सदृश गोपिका प्रेम प्रगट कलिजुगहिं दिखायो ।

निरांकुश अति निडर रसिक जस रसना गायो ॥


दुष्टन दोष विचार मृत्यु को उद्यम कीयो ।

बार न बाँको भयो गरल अमृत ज्यों पीयो ॥


भक्ति निशान बजाय कै काहू ते नाहिन लजी ।

लोकलाज कुलश‍ृंखला तजि मीराँ गिरिधर भजी ॥ ११५॥


आमेर अछत कूरम को द्वारकानाथ दर्शन दियो ॥


कृष्णदास उपदेश परम तत्व परिचै पायो ।

निर्गुण सगुण निरूपि तिमिर अग्यान नशायो ॥


काछ बाच निकलंक मनो गांगेय युधिष्ठिर ।

हरिपूजा प्रह्लाद धर्मध्वजधारी जग पर ॥


पृथीराज परचो प्रगट तन शंख चक्र मंडित कियो ।

आमेर अछत कूरम को द्वारकानाथ दर्शन दियो ॥ ११६॥


भक्तन को आदर अधिक राजबंस में इन कियो ॥


लघु मथुरा मेड़्ता भक्त अति जैमल पोषे ।

टोड़े भजन निधान रामचँद हरिजन तोषै ॥


अभयराम एक रसहिं नेम नीवाँ के भारी ।

करमसील सुरतान बीरम भूपति ब्रतधारी ॥


ईश्वर अखैराज रायमल कन्हर मधुकर नृप सर्वसु दियो ।

भक्तन को आदर अधिक राजबंस में इन कियो ॥ ११७॥


खेमाल रतन राठौर के अटल भक्ति आई सदन ॥


रैना पर गुन राम भजन भागवत उजागर ।

प्रेमी प्रेम किशोर उदर राजा रतनाकर ॥


हरिदासन के दास दसा ऊँची धुजधारी ।

निर्भय अननि उदार रसिक जस रसना भारी ॥


दशधा संपति संत बल सदा रहत प्रफुलित बदन ।

खेमाल रतन राठौर के अटल भक्ति आई सदन ॥ ११८॥


कलिजुग भक्ति कररी कमान रामरैन कैं रिजु करी ॥


अजर धर्म आचर्यो लोकहित मनो नीलकँठ ।

निंदक जग अनिराय कहा (महिमा) जानैगो भूसठ ॥


बिदित गँधर्बी ब्याह कियो दुष्यंत प्रमानै ।

भरत पुत्र भागवत स्वमुख सुकदेव बखानै ॥


और भूप कोउ छ्वै सकै दृष्टि जाय नाहिंन धरी ।

कलिजुग भक्ति कररी कमान रामरैन कैं रिजु करी ॥ ११९॥


हरि गुरु हरिदासन सों रामघरनि साँची रही ॥


आरज को उपदेश सुतो उर नीके धार्यो ।

नवधा दशधा प्रीति आन धर्म सबै बिसार्यो ॥


अच्युत कुल अनुराग प्रगट पुरुषारथ जान्यो ।

सारासार बिबेक बात तीनो मन मान्यो ॥


दासत्व अननि उदारता संतन मुख राजा कही ।

हरि गुरु हरिदासन सों रामघरनि साँची रही ॥ १२०॥


अभिलाष उभै खेमाल का ते किसोर पूरा किया ॥


पाँयनि नूपुर बाँधि नृत्य नगधर हित नाच्यो ।

रामकलस मन रली सीस ताते नहिं बाँच्यो ॥


बानी बिमल उदार भक्ति महिमा बिस्तारी ।

प्रेमपुंज सुठि सील बिनय संतन रुचिकारी ॥


सृष्टि सराहै रामसुवन लघु बैस लछन आरज लिया ।

अभिलाष उभै खेमाल का ते किसोर पूरा किया ॥ १२१॥


खेमाल रतन राठौड़् के सुफल बेलि मीठी फली ॥


हरीदास हरिभक्त भक्ति मंदिर को कलसो ।

भजनभाव परिपक्व हृदय भागीरथि जल सो ॥


त्रिधा भाँति अति अननि राम की रीति निबाही ।

हरि गुरु हरि बल भाँति तिनहिं सेवा दृढ साही ॥


पूरन इंदु प्रमुदित उदधि त्यों दास देखि बाढए रली ।

खेमाल रतन राठौड़् के सुफल बेलि मीठी फली ॥ १२२॥


हरिबंसचरण बल चतुर्भुज गौडदेश तीरथ कियो ॥


गायो भक्ति प्रताप सबहि दासत्व दृढआयो ।

राधावल्लभ भजन अननिता वरग बढआयो ॥


मुरलीधर की छाप कबित अति ही निर्दूषण ।

भक्तन की अँघ्रिरेणु वहै धारी सिरभूषण ॥


सतसंग महा आनन्द में प्रेम रहत भीज्यो हियो ।

हरिबंसचरण बल चतुर्भुज गौडदेश तीरथ कियो ॥ १२३॥


चालक की चरचरी चहूँ दिसि उदधि अंत लों अनुसरी ॥


सक्र कोप सुठि चरित प्रसिध पुनि पंचाध्याई ।

कृष्न रुक्मिनी केलि रुचिर भोजन बिधि गाई ॥


गिरिराजधरन की छाप गिरा जलधर ज्यों गाजै ।

संत सिखंडी खंड हृदय आनँद के काजै ॥


जाड़ा हरन जग जाड़्ता कृष्णदास देही धरी ।

चालक की चरचरी चहूँ दिसि उदधि अंत लों अनुसरी ॥ १२४॥


बिमलानन्द प्रबोध बंस संतदास सीवाँ धरम ॥


गोपीनाथ पदराग भोग छप्पन भुंजाए ।

पृथु पधति अनुसार देव दंपति दुलराए ॥


भगवत भक्त समान ठौर द्वै को बल गायो ।

कबित सूर सों मिलत भेद कछु जात न पायो ॥


जन्म कर्म लीला जुगति रहसि भक्ति भेदी मरम ।

बिमलानन्द प्रबोध बंस संतदास सीवाँ धरम ॥ १२५॥


मदनमोहन सूरदास की नाम सृंखला जुरि अटल ॥


गान काब्य गुन रासि सुहृद सहचरि अवतारी ।

राधाकृष्ण उपास्य रहसि सुख के अधिकारी ॥


नव रस मुख्य सिँगार बिबिध भाँतिन करि गायो ।

बदन उचारत बेर सहस पाँयनि ह्वै धायो ॥


अँगीकार की अवधि यह ज्यों आख्या भ्राता जमल ।

मदनमोहन सूरदास की नाम सृंखला जुरि अटल ॥ १२६॥


कात्यायनि के प्रेम की बात जात कापै कही ॥


मारग जात अकेल गान रसना जु उचारै ।

ताल मृदंगी बृच्छ रीझि अंबर तहँ डारै ॥


गोप नारि अनुसारि गिरा गद्गद आवेसी ।

जग प्रपंच तें दूरि अजा परसे नहिं लेसी ॥


भगवान रीति अनुराग की संतसाखि मेली सही ।

कात्यायनि के प्रेम की बात जात कापै कही ॥ १२७॥


कृष्णबिरह कुंती सरीर त्यों मुरारि तन त्यागियो ॥


बिदित बिलौंदा गाँव देश मुरधर सब जानै ।

महामहोच्छो मध्य संत परिषद परवानै ॥


पगनि घूँघुरू बाँधि राम को चरित दिखायो ।

देसी सारँगपाणि हंस ता संग पठायो ॥


उपमा और न जगत में पृथा विना नाहिंन बियो ।

कृष्णबिरह कुंती सरीर त्यों मुरारि तन त्यागियो ॥ १२८॥


कलि कुटिल जीव निस्तारहित बाल्मीकि तुलसी भये ॥


त्रेता काब्य निबंध कियो सत कोटि रमायन ।

इक अच्छर उद्धरे ब्रह्महत्यादि परायन ॥


अब भक्तन सुख देन बहुरि लीला बिस्तारी ।

रामचरन रसमत्त रहत अहनिसि ब्रतधारी ॥


संसार अपार के पार को सुगम रूप नौका लये ।

कलि कुटिल जीव निस्तारहित बाल्मीकि तुलसी भये ॥ १२९॥


गोप्यकेलि रघुनाथ की मानदास परगट करी ॥


करुणा वीर सिँगार आदि उज्ज्वल रस गायो ।

पर उपकारक धीर कवित कविजन मन भायो ॥


कोशलेश पदकमल अननि दासन ब्रत लीनो ।

जानकिजीवन सुजस रहत निशि दिन रँग भीनो ॥


रामायन नाटक्क की रहसि उक्ति भाषा धरी ।

गोप्यकेलि रघुनाथ की मानदास परगट करी ॥ १३०॥


(श्री)बल्लभजूके बंस में सुरतरु गिरिधर भ्राजमान ॥


अर्थ धर्म काम मोक्ष भक्ति अनपायनि दाता ।

हस्तामल श्रुति ज्ञान सबही शास्त्रन को ज्ञाता ॥


परिचर्या ब्रजराज कुँवर के मन को कर्षे ।

दर्शन परम पुनीत सभा तन अमृतवर्षे ॥


बिट्ठलेशनंदन सुभाव जग कोऊ नहिं ता समान ।

(श्री)बल्लभजूके बंस में सुरतरु गिरिधर भ्राजमान ॥ १३१॥


(श्री)बल्लभ जू के बंस में गुणनिधि गोकुलनाथ अति ॥


उदधि सदा अच्छोभ सहज सुंदर मितभाषी ।

गुरु वर तन गिरिराज भलप्पन सब जग साखी ॥


बिट्ठलेश की भक्ति भयो बेला दृढ ताके ।

भगवत तेज प्रताप नमित नरबर पद जाके ॥


निर्ब्यलीक आशय उदार भजन पुंज गिरिधरन रति ।

(श्री)बल्लभ जू के बंस में गुणनिधि गोकुलनाथ अति ॥ १३२॥


रसिक रँगीलो भजन पुंज सुठि बनवारी स्याम को ॥


बात कबित बड़् चतुर चोख चौकस अति जाने ।

सारासार बिबेक परमहंसनि परवाने ॥


सदाचार संतोष भूत सब को हितकारी ।

आरज गुन तन अमित भक्ति दसधा ब्रतधारी ॥


दर्शन पुनीत आशय उदार आलाप रुचिर सुखधाम को ।

रसिक रँगीलो भजन पुंज सुठि बनवारी स्याम को ॥ १३३॥


भागवत भली बिधि कथन को धनि जननी एकै जन्यो ॥


नाम नरायन मिश्र बंस नवला जु उजागर ।

भक्तन की अति भीर भक्ति दसधा को आगर ॥


आगम निगम पुरान सार सास्त्रन सब देखे ।

सुरगुरु सुक सनकादि ब्यास नारद जु विशेषे ॥


सुधा बोध मुख सुरधुनी जस बितान जग में तन्यो ।

भागवत भली बिधि कथन को धनि जननी एकै जन्यो ॥ १३४॥


कलिकाल कठिन जग जीति यों राघव की पूरी परी ॥


काम क्रोध मद मोह लोभ की लहर न लागी ।

सूरज ज्यों जल ग्रहै बहुरी ताही ज्यों त्यागी ॥


सुंदर सील स्वभाव सदा संतन सेवाब्रत ।

गुरु धर्म निकष निर्बह्यो विश्व में बिदित बड़ो भृत ॥


अल्हराम रावल कृपा आदि अंत धुकती धरी ।

कलिकाल कठिन जग जीति यों राघव की पूरी परी ॥ १३५॥


हरिदास भलप्पन भजन बल बावन ज्यों बढयो बावनो ॥


अच्युतकुल सों दोष सपनेहुँ उर नहिं आनै ।

तिलक दाम अनुराग सबन गुरुजन करि मानै ॥


सदन माँहि बैराग्य बिदेहन की सी भाँती ।

रामचरन मकरंद रहत मनसा मदमाती ॥


जोगानंद उजागर बंस करि निसिदिन हरिगुन गावनो ।

हरिदास भलप्पन भजनबल बावन ज्यों बढयो बावनो ॥ १३६॥


जंगली देश के लोग सब परसुराम किए पारषद ॥


ज्यों चंदन को पवन निंब पुनि चंदन करई ।

बहुत काल तम निबिड़् उदय दीपक जिमि हरई ॥


श्रीभट पुनि हरिब्यास संत मारग अनुसरई ।

कथा कीरतन नेम रसन हरिगुन उच्चरई ॥


गोबिंद भक्ति गद रोग गति तिलक दाम सद्वैद्य हद ।

जंगली देश के लोग सब परसुराम किए पारषद ॥ १३७॥


गुननिकर गदाधर भट्ट अति सबही को लागे सुखद ॥


सज्जन सुहृद सुसील बचन आरज प्रतिपालय ।

निर्मत्सर निहकाम कृपा करुना को आलय ॥


अननि भजन दृढ करन धर्यो बपु भक्तन काजै ।

परम धरम को सेतु बिदित बृंदावन गाजै ॥


भागवत सुधा बरषै बदन काहू को नाहिंन दुखद ।

गुननिकर गदाधर भट्ट अति सबही को लागे सुखद ॥ १३८॥


चरन सरन चारन भगत हरिगायक एता हुआ ॥


चौमुख चौरा चंड जगत ईश्वर गुन जाने ।

कर्मानँद औ कोल्ह अल्ह अच्छर परवाने ॥


माधव मथुरा मध्य साधु जीवानँद सींवा ।

उदा नरायनदास नाम माँडन नत ग्रीवा ॥


चौरासी रूपक चतुर बरनत बानी जूजुवा ।

चरन सरन चारन भगत हरिगायक एता हुआ ॥ १३९॥


नरदेव उभय भाषा निपुन पृथ्वीराज कबिराज हुव ॥


सवैया गीत श्लोक बेलि दोहा गुन नवरस ।

पिंगल काब्य प्रमान बिबिध बिधि गायो हरिजस ॥


परदुख बिदुष शलाघ्य बचन रचना जु बिचारै ।

अर्थ बित्त निर्मोल सबै सारँग उर धारै ॥


रुक्मिनी लता बरनन अनूप बागीश बदन कल्यान सुव ।

नरदेव उभय भाषा निपुन पृथ्वीराज कबिराज हुव ॥ १४०॥


द्वारका देखि पालंटती अचढ सींवै कीधी अटल ॥


असुर अजीज अनीति अगिनि में हरिपुर कीधो ।

साँगन सुत नयसाद राय रनछोरै दीधो ॥


धरा धाम धन काज मरन बीजाहूँ माँड़ै ।

कमधुज कुटको हुवौ चौक चतुरभुजनी चाँड़ै ॥


बाढएल बाढ कीवी कटक चाँद नाम चाँड़ै सबल ।

द्वारका देखि पालंटती अचढ सींवै कीधी अटल ॥ १४१॥


पृथ्वीराज नृप कुलबधू भक्त भूप रतनावती ॥


कथा कीरतन प्रीति भीर भक्तन की भावै ।

महा महोछो मुदित नित्य नँदलाल लडावै ॥


मुकुँदचरन चिंतवन भक्ति महिमा ध्वज धारी ।

पति पर लोभ न कियो टेक अपनी नहिं टारी ॥


भलपन सबै बिशेषही आमेर सदन सुनखा जिती ।

पृथ्वीराज नृप कुलबधू भक्त भूप रतनावती ॥ १४२॥


पारीष प्रसिध कुल काँथड़्या जगन्नाथ सीवाँ धरम ॥


रामानुज की रीति प्रीति पन हिरदै धार्यो ।

संसकार सम तत्व हंस ज्यो बुद्धि विचार्यो ॥


सदाचार मुनि बृत्ति इंदिरा पधति उजागर ।

रामदास सुत संत अननि दसधा को आगर ॥


पुरुषोत्तम परसाद तें उभै अंग पहिर्यो बरम ।

पारीष प्रसिध कुल काँथड़्या जगन्नाथ सीवाँ धरम ॥ १४३॥


कीरतन करत कर सपनेहूँ मथुरादास न मंड्यो ॥


सदाचार संतोष सुहृद सुठि सील सुभासै ।

हस्तक दीपक उदय मेटि तम बस्तु प्रकासै ॥


हरि को हिय बिश्वास नंदनंदन बल भारी ।

कृष्णकलस सों नेम जगत जाने सिर धारी ॥


बर्धमान गुरुबचन रति सो संग्रह नहिं छंड्यो ।

कीरतन करत कर सपनेहूँ मथुरादास न मंड्यो ॥ १४४॥


नृतक नरायनदास को प्रेमपुंज आगे बढयो ॥


पद लीनो परसिद्ध प्रीति जामें दृढ नातो ।

अच्छर तनमय भयो मदनमोहन रँग रातो ॥


नाचत सब कोउ आहि काहि पै यह बनि आवै ।

चित्रलिखित सो रह्यो त्रिभँग देसी जु दिखावै ॥


हँड़िया सराय देखत दुनी हरिपुर पदवीको कढयो ।

नृतक नरायनदास को प्रेमपुंज आगे बढयो ॥ १४५॥


गुनगन बिशद गोपाल के एते जन भए भूरिदा ॥


बोहित रामगुपाल कुँवरबर गोबिँद माँडिल ।

छीतस्वामी जसवंत गदाधर अनँतानँद भल ॥


हरिनाभमिश्र दीनदास बछपाल कन्हर जस गायन ।

गोसू रामदास नारद स्याम पुनि हरिनारायन ॥


कृष्णजीवन भगवानजन स्यामदास बिहारी अमृतदा ।

गुनगन बिशद गोपाल के एते जन भए भूरिदा ॥ १४६॥


निरबर्त्त भए संसार तें ते मेरे जजमान सब ॥


उद्धव रामरेनु परसराम गंगा ध्रूखेतनिवासी ।

अच्युतकुल ब्रह्मदास बिश्राम सेषसाइ के बासी ॥


किंकर कुंडा कृष्णदास खेम सोठा गोपानँद ।

जयदेव राघव बिदुर दयाल दामोदर मोहन परमानँद ॥


उद्धव रघुनाथी चतुरोनगन कुंज ओक जे बसत अब ।

निरबर्त्त भए संसार तें ते मेरे जजमान सब ॥ १४७॥


श्रीस्वामी चतुरोनगन मगन रैनदिन भजन हित ॥


सदा जुक्त अनुरक्त भक्तमंडल को पोषत ।

पुर मथुरा ब्रजभूमि रमत सबही को तोषत ॥


परम धरम दृढ करन देव श्रीगुरु आराध्यो ।

मधुर बैन सुठि ठौर ठौर हरिजन सुख साध्यो ॥


संत महंत अनंत जन जस बिस्तारत जासु नित ।

श्रीस्वामी चतुरोनगन मगन रैनदिन भजनहित ॥ १४८॥


मधुकरी माँगि सेवैं भगत तिनपर हौं बलिहार कियो ॥


गोमा परमानँद प्रधान द्वारिका मथुरा खोरा ।

कालुष साँगानेर भलो भगवान को जोरा ॥


बिट्ठल टोड़े खेम पँडा गूनोरै गाजैं ।

स्याम सेन के बंस चीधर पीपार बिराजैं ॥


जैतारन गोपाल को केवल कूबै मोल लियो ।

मधुकरी माँगि सेवैं भगत तिनपर हौं बलिहार कियो ॥ १४९॥


(श्री)अग्र अनुग्रह तें भए सिष्य सबै धर्म की ध्वजा ॥


जंगी प्रसिध प्रयाग बिनोदि पूरन बनवारी ।

नरसिंह भक्त भगवान दिवाकर दृढ ब्रतधारी ॥


कोमल हृदय किसोर जगत जगनाथ सलूधौ ।

औरौ अनुग उदार खेम खीची धर्मधीर लघु ऊधौ ॥


त्रिबिध तापमोचन सबै सौरभ प्रभु जिन सिर भुजा ।

(श्री)अग्र अनुग्रह तें भए सिष्य सबै धर्म की ध्वजा ॥ १५०॥


भरतखंड भूधर सुमेरु टीला लाहा(की) पद्धति प्रगट ॥


अंगज परमानंददास जोगी जग जागै ।

खरतर खेम उदार ध्यान केसो हरिजन अनुरागै ॥


सस्फुट त्योला शब्द लोहकर बंस उजागर ।

हरीदास कपिप्रेम सबै नवधा के आगर ॥


अच्युत कुल सेवैं सदा दासन तन दसधा अघट ।

भरतखंड भूधर सुमेरु टीला लाहा(की) पद्धति प्रगट ॥ १५१॥


मधुपुरी महोछौ मंगलरूप कान्हर कैसौ को करै ॥


चारि बरन आश्रम रंक राजा अन पावै ।

भक्तन को बहुमान बिमुख कोऊ नहिं जावै ॥


बीरी चंदन बसन कृष्ण कीरंतन बरषै ।

प्रभु के भूषन देय महामन अतिसय हरषै ॥


बिट्ठलसुत बिमल्यो फिरै दास चरनरज सिर धरै ।

मधुपुरी महोछौ मंगलरूप कान्हर कैसौ को करै ॥ १५२॥


भक्तन सों कलिजुग भले निबही नीवा खेतसी ॥


आवहिं दास अनेक ऊठि आदर करि लीजै ।

चरन धोय दंडवत सदन में डेरा दीजै ॥


ठौर ठौर हरिकथा हृदय अति हरिजन भावैं ।

मधुर बचन मुँह लाय बिबिध भाँतिन जु लड़ावैं ॥


सावधान सेवा करै निर्दूषण रति चेतसी ।

भक्तन सों कलिजुग भले निबही नीवा खेतसी ॥ १५३॥


बसन बढयो कुंतीबधू त्यों तूँबर भगवान के ॥


यह अचरज भयो एक खाँड घृत मैदा बरषै ।

रजत रुक्म की रेल सृष्टि सबही मन हरषै ॥


भोजन रास बिलास कृष्ण कीरंतन कीनो ।

भक्तन को बहुमान दान सबही को दीनो ॥


कीरति कीनी भीमसुत सुनि भूप मनोरथ आन के ।

बसन बढयो कुंतीबधू त्यों तूँबर भगवान के ॥ १५४॥


जसवंत भक्त जैमाल की रूड़ा राखी राठवड़् ॥


भक्तन सों अतिभाव निरंतर अंतर नाहीं ।

कर जोरे इक पाँय मुदित मन आज्ञा माहीं ॥


श्रीबृंदाबन बास कुंज क्रीडा रुचि भावै ।

राधाबल्लभ लाल नित्य प्रति ताहि लड़ावै ॥


परम धर्म नवधा प्रधान सदन साँचनिधि प्रेम जड़् ।

जसवंत भक्त जैमाल की रूड़ा राखी राठवड़् ॥ १५५॥


हरीदास भक्तनि हित धनि जननी एकै जन्यो ॥


अमित महागुन गोप्य सारवित सोई जानै ।

देखत को तुलाधार दूर आसै उनमानै ॥


देय दमामौ पैज बिदित बृंदाबन पायो ।

राधाबल्लभ भजन प्रगट परताप दिखायो ॥


परम धर्म साधन सुदृढ कामधेनु कलिजुग(में) गन्यो ।

हरीदास भक्तनि हित धनि जननी एकै जन्यो ॥ १५६॥


भक्ति भाव जूड़ैं जुगल धर्मधुरंधर जग बिदित ॥


बाँबोली गोपाल गुननि गंभीर गुनारट ।

दच्छिन दिसि विष्णुदास गाँव कासीर भजन भट ॥


भक्तनि सों यह भाव भजै गुरु गोबिँद जैसे ।

तिलक दाम आधीन सुबर संतनि प्रति तैसे ॥


अच्युत कुल पन एक रस निबह्यो ज्यौं श्रीमुखगदित ।

भक्ति भाव जूड़ैं जुगल धर्मधुरंधर जग बिदित ॥ १५७॥


कील्ह कृपा कीरति बिसद परम पारषद शिष प्रगट ॥


आसकरन रिषिराज रूप भगवान भक्ति गुर ।

चतुरदास जग अभै छाप छीतर जु चतुर बर ॥


लाखै अद्भुत रायमल खेम मनसा क्रम बाचा ।

रसिक रायमल गौर देवा दामोदर हरि रँग राचा ॥


सबै सुमंगल दास दृढ धर्मधुरंधर भजन भट ।

कील्ह कृपा कीरति बिसद परम पारषद शिष प्रगट ॥ १५८॥


रस रास उपासक भक्तराज नाथ भट्ट निर्मल बयन ॥


आगम निगम पुरान सार सास्त्रन जु बिचार्यो ।

ज्यों पारो दै पुटहिं सबनि को सार उधार्यो ॥


रूप सनातन जीव भट्ट नारायन भाख्यो ।

सो सर्वस उर साँच जतन करि नीके राख्यो ॥


फनी बंस गोपाल सुव रागा अनुगा को अयन ।

रस रास उपासक भक्तराज नाथ भट्ट निर्मल बयन ॥ १५९॥


कठिन काल कलिजुग्ग में करमैती निकलँक रही ॥


नश्वरपति रति त्यागि कृष्णपद सों रति जोरी ।

सबै जगत की फाँसि तरकि तिनुका ज्यों तोरी ॥


निर्मल कुल काँथड़्या धन्य परसा जिहिं जाई ।

बिदित बृँदाबन बास संत मुख करत बड़ाई ॥


संसार स्वाद सुख बांत करि फेर नहीं तिन तन चही ।

कठिन काल कलिजुग्ग में करमैती निकलँक रही ॥ १६०॥


गोबिंदचंद्र गुन ग्रथन को खड्गसेन बानी बिसद ॥


गोपि ग्वाल पितु मातु नाम निरनय किय भारी ।

दान केलि दीपक प्रचुर अति बुद्धि बिचारी ॥


सखा सखी गोपाल काल लीला में बितयो ।

कायथ कुल उद्धार भक्ति दृढ अनत न चितयो ॥


गौतमी तंत्र उर ध्यान धरि तन त्याग्यो मंडल सरद ।

गोबिंदचंद्र गुन ग्रथन को खड्गसेन बानी बिसद ॥ १६१॥


सखा स्याम मन भावतो गंग ग्वाल गंभीरमति ॥


स्यामाजू की सखी नाम आगम बिधि पायो ।

ग्वाल गाय ब्रज गाँव पृथक नीके करि गायो ॥


कृष्णकेलि सुख सिंधु अघट उर अंतर धरई ।

ता रसमें नित मगन असद आलाप न करई ॥


ब्रज बास आस ब्रजनाथ गुरु भक्तचरन अति अननि गति ।

सखा स्याम मन भावतो गंग ग्वाल गंभीरमति ॥ १६२॥


सोति श्लाघ्य संतनि सभा द्वितिय दिवाकर जानियो ॥


परम भक्ति परताप धरमध्वज नेजाधारी ।

सीतापति को सुजस बदन सोभित अति भारी ॥


जानकिजीवन चरन सरन थाती थिर पाई ।

नरहरि गुरु परसाद पूत पोते चलि आई ॥


राम उपासक छाप दृढ और न कछु उर आनियो ।

सोति श्लाघ्य संतनि सभा द्वितिय दिवाकर जानियो ॥ १६३॥


जीवत जस पुनि परमपद लालदास दोनों लही ॥


हृदय हरीगुन खान सदा सतसँग अनुरागी ।

पद्मपत्र ज्यों रह्यो लोभ की लहर न लागी ॥


विष्णुरात सम रीति बघेरे त्यों तन त्याज्यो ।

भक्त बराती बृंद मध्य दूलह ज्यों राज्यो ॥


खरी भक्ति हरिषाँपुरै गुरु प्रताप गाढई रही ।

जीवत जस पुनि परमपद लालदास दोनों लही ॥ १६४॥


भक्तन हित भगवत रची देही माधव ग्वाल की ॥


निसिदिन यहै विचार दास जेहिं बिधि सुख पावैं ।

तिलक दाम सों प्रीति हृदय अति हरिजन भावैं ॥


परमारथ सों काज हिए स्वारथ नहिं जानै ।

दसधा मत्त मराल सदा लीला गुन गानै ॥


आरत हरिगुन सील सम प्रीति रीति प्रतिपाल की ।

भक्तन हित भगवत रची देही माधव ग्वाल की ॥ १६५॥


श्रीअगर सुगुरु परताप तें पूरी परी प्रयाग की ॥


मानस बाचक काय रामचरनन चित दीनो ।

भक्तन सों अति प्रेम भावना करि सिर लीनो ॥


रास मध्य निर्जान देह दुति दसा दिखाई ।

आड़ो बलियो अंक महोछो पूरी पाई ॥


क्यारे कलस औली ध्वजा बिदुषश्लाघा भाग की ।

श्रीअगर सुगुरु परताप तें पूरी परी प्रयाग की ॥ १६६॥


प्रगट अमित गुन प्रेमनिधि धन्य बिप्र जेहिं नाम धर्यो ॥


सुंदर सील स्वभाव मधुर बानी मंगलकरु ।

भक्तन को सुख देन फल्यो बहुधा दसधा तरु ॥


सदन बसत निर्बेद सारभुक जगत असंगी ।

सदाचार ऊदार नेम हरिकथा प्रसंगी ॥


दयादृष्टि बसि आगरे कथा लोक पाबन कर्यो ।

प्रगट अमित गुन प्रेमनिधि धन्य बिप्र जेहिं नाम धर्यो ॥ १६७॥


दूबरो जाहि दुनियाँ कहै सो भक्त भजन मोटो महंत ॥


सदाचार गुरु सिष्य त्यागबिधि प्रगट दिखाई ।

बाहिर भीतर बिसद लगी नहिं कलिजुग काई ॥


राघव रुचिर स्वभाव असद आलाप न भावै ।

कथा कीरतन नेम मिले संतन गुन गावै ॥


ताप तोलि पूरो निकष ज्यों घन अहरनि हीरो सहंत ।

दूबरो जाहि दुनियाँ कहै सो भक्त भजन मोटो महंत ॥ १६८॥


दासन के दासत्व को चौकस चौकी ए मड़ी ॥


हरिनारायन नृपति पदम बेरछै बिराजै ।

गाँव हुसंगाबाद अटल उद्धव भल छाजै ॥


भेलै तुलसीदास ख्यात भट देव कल्यानो ।

बोहिथ बीरा रामदास सुहेलै परम सुजानो ॥


औली परमानंद के सबल धर्म कि ध्वजा गड़ी ।

दासन के दासत्व को चौकस चौकी ए मड़ी ॥ १६९॥


अबला सरीर साधन सबल ए बाई हरिभजनबल ॥


दमा प्रगट सब दुनी रामबाई (बीरा) हीरामनि ।

लाली नीरा लच्छि जुगल पार्बती जगत धनि ॥


खीचनि केसी धना गोमती भक्त उपासिनि ।

बादररानी बिदित गंग जमुना रैदासिनि ॥


जेवा हरिषा जोइसिनि कुवँरिराय कीरति अमल ।

अबला सरीर साधन सबल ए बाई हरिभजनबल ॥ १७०॥


कान्हरदास संतनि कृपा हरि हिरदै लाहो लह्यो ॥


श्रीगुरु सरनै आय भक्ति मारग सत जान्यो ।

संसारी धर्महि छाँड़ि झूँठ अरु साँच पिछान्यो ॥


ज्यों साखाद्रुम चंद्र जगत सों यहि बिधि न्यारो ।

सर्वभूत समदृष्टि गुननि गँभीर अति भारो ॥


भक्त भलाई बदत नित कुबचन कबहूँ नहिं कह्यो ।

कान्हरदास संतनि कृपा हरि हिरदै लाहो लह्यो ॥ १७१॥


लट्यो लटेरा आन बिधि परम धरम अति पीन तन ॥


कहनी रहनी एक एक हरिपद अनुरागी ।

जस बितान जग तन्यो संतसम्मत बड़्भागी ॥


तैसोइ पूत सपूत नूत फल जैसोइ परसा ।

हरि हरिदासनि टहल कवित रचना पुनि सरसा ॥


सुरसुरानँद संप्रदाय दृढ केसव अधिक उदार मन ।

लट्यो लटेरा आन बिधि परम धरम अति पीन तन ॥ १७२॥


केवलराम कलिजुग के पतित जीव पावन किया ॥


भक्ति भागवत बिमुख जगत गुरु नाम न जानैं ।

ऐसे लोग अनेक ऐंचि सन्मारग आने ॥


निर्मल रति निहकाम अजा तें सहज उदासी ।

तत्त्वदरसि तमहरन सील करुना की रासी ॥


तिलक दाम नवधा रतन कृष्ण कृपा करि दृढ दिया ।

केवलराम कलिजुग के पतित जीव पावन किया ॥ १७३॥


मोहन मिश्रित पदकमल आसकरन जस बिस्तर्यो ॥


धर्म सील गुनसींव महाभागवत राजरिषि ।

पृथीराज कुलदीप भीमसुत बिदित कील्ह सिषि ॥


सदाचार अति चतुर बिमल बानी रचनापद ।

सूर धीर उद्दार बिनय भलपन भक्तनि हद ॥


सीतापति राधासुबर भजन नेम कूरम धर्यो ।

मोहन मिश्रित पदकमल आसकरन जस बिस्तर्यो ॥ १७४॥


निष्किंचन भक्तनि भजै हरि प्रतीति हरिबंस के ॥


कथा कीरतन प्रीति संतसेवा अनुरागी ।

खरिया खुरपा रीति ताहि ज्यों सर्बसु त्यागी ॥


संतोषी सुठि सील असद आलाप न भावै ।

काल बृथा नहिं जाय निरंतर गोबिँद गावै ॥


सिष सपूत श्रीरंग को उदित पारषद अंस के ।

निष्किंचन भक्तनि भजै हरि प्रतीति हरिबंस के ॥ १७५॥


हरिभक्ति भलाइ गुन गँभीर बाँटे परी कल्यान के ॥


नवकिसोर दृढ ब्रत अननि मारग इक धारा ।

मधुर बचन मनहरन सुखद जानै संसारा ॥


पर उपकार बिचार सदा करुना की रासी ।

मन बच सर्बस रूप भक्त पदरेनु उपासी ॥


धर्मदाससुत सील सुठि मन मान्यो कृष्ण सुजान के ।

हरिभक्ति भलाइ गुन गँभीर बाँटे परी कल्यान के ॥ १७६॥


बिठलदास हरिभक्ति के दुहूँ हाथ लाडू लिया ॥


आदि अंत निर्बाह भक्तपदरजब्रतधारी ।

रह्यो जगत सों ऐंड़् तुच्छ जाने संसारी ॥


प्रभुता पति की पधति प्रगट कुलदीप प्रकासी ।

महत सभा में मान जगत जानै रैदासी ॥


पद पढत भई परलोक गति गुरु गोबिँद जुग फल दिया ।

बिठलदास हरिभक्ति के दुहूँ हाथ लाडू लिया ॥ १७७॥


भगवंत रचे भारी भगत भक्तनि के सन्मान को ॥


क्वाहब श्रीरँग सुमति सदानँद सर्बस त्यागी ।

स्यामदास लघुलंब अननि लाखै अनुरागी ॥


मारु मुदित कल्यान परस बंसी नारायन ।

चेता ग्वाल गुपाल सँकर लीला पारायन ॥


संत सेय कारज किया तोषत स्याम सुजान को ।

भगवंत रचे भारी भगत भक्तनि के सन्मान को ॥ १७८॥


तिलक दाम परकास को हरीदास हरि निर्मयो ॥


सरनागत को शिबिर दान दधीच टेक बलि ।

परम धर्म प्रह्लाद सीस जगदेव देन कलि ॥


बीकावत बानैत भक्तिपन धर्मधुरंधर ।

तूँवर कुल दीपक्क संतसेवा नित अनुसर ॥


पार्थपीठ अचरज कौन सकल जगत में जस लयो ।

तिलक दाम परकास को हरीदास हरि निर्मयो ॥ १७९॥


नंदकुँवर कृष्णदास को निज पग तें नूपुर दियो ॥


तान मान सुर ताल सुलय सुंदर सुठि सोहै ।

सुधा अंग भ्रूभंग गान उपमा को को है ॥


रत्नाकर संगीत रागमाला रँगरासी ।

रिझये राधालाल भक्तपदरेनु उपासी ॥


स्वर्नकार खरगू सुवन भक्त भजन दृढ ब्रत लियो ।

नंदकुँवर कृष्णदास को निज पग तें नूपुर दियो ॥ १८०॥


परमधर्म प्रतिपोष को संन्यासी ए मुकुटमनि ॥


चित्सुख टीकाकार भक्ति सर्बोपरि राखी ।

श्रीदामोदरतीर्थ राम अर्चन बिधि भाखी ॥


चंद्रोदय हरिभक्ति नरसिंहारन्य कीन्ही ।

माधव मधुसूदन (सरस्वती) परमहँस कीरति लीन्ही ॥


प्रबोधानंद रामभद्र जगदानंद कलिजुग धनि ।

परमधर्म प्रतिपोष को संन्यासी ए मुकुटमनि ॥ १८१॥


अष्टांग जोग तन त्यागियो द्वारिकादास जाने दुनी ॥


सरिता कूकस गाँव सलिल में ध्यान धर्यो मन ।

रामचरन अनुराग सुदृढ जाके साँचो पन ॥


सुत कलत्र धन धाम ताहि सों सदा उदासी ।

कठिन मोह को फंद तरकि तोरी कुल फाँसी ॥


कील्ह कृपा बल भजन के ग्यानखड्ग माया हनी ।

अष्टांग जोग तन त्यागियो द्वारिकादास जाने दुनी ॥ १८२॥


पूरन प्रगट महिमा अनँत करिहै कौन बखान ॥


उदय अस्त परबत्त गहिर मधि सरिता भारी ।

जोग जुगति बिश्वास तहाँ दृढ आसन धारी ॥


ब्याघ्र सिंह गुंजै खरा कछु संक न मानै ।

अर्द्ध न जाते पवन उलटि ऊरध को आनै ॥


साखि सब्द निर्मल कहा कथिया पद निर्बान ।

पूरन प्रगट महिमा अनँत करिहै कौन बखान ॥ १८३॥


(श्री)रामानुज पद्धति प्रताप भट्ट लच्छमन अनुसर्यो ॥


सदाचार मुनिबृत्ति भजन भागवत उजागर ।

भक्तन सों अतिप्रीति भक्ति दसधा को आगर ॥


संतोषी सुठि सील हृदय स्वारथ नहिं लेसी ।

परमधर्म प्रतिपाल संत मारग उपदेसी ॥


श्रीभागवत बखानि कै नीर क्षीर बिबरन कर्यो ।

(श्री)रामानुज पद्धति प्रताप भट्ट लच्छमन अनुसर्यो ॥ १८४॥


दधीचि पाछे दूजी करी कृष्णदास कलि जीति ॥


कृष्णदास कलि जीति न्योति नाहर पल दीयो ।

अतिथिधर्म प्रतिपाल प्रगट जस जग में लीयो ॥


उदासीनता अवधि कनक कामिनि नहिं रातो ।

रामचरनमकरंद रहत निसिदिन मदमातो ।

गलते गलित अमित गुन सदाचार सुठि नीति ।

दधीचि पाछे दूजी करी कृष्णदास कलि जीति ॥ १८५॥


भली भाँति निबही भगति सदा गदाधरदास की ॥


लालबिहारी जपत रहत निसिबासर फूल्यो ।

सेवा सहज सनेह सदा आनँदरस झूल्यो ॥


भक्तन सों अति प्रीति रीति सबही मन भाई ।

आसय अधिक उदार रसन हरि कीरति गाई ॥


हरि बिश्वास हिय आनि कै सपनेहुँ अन्य न आस की ।

भली भाँति निबही भगति सदा गदाधरदास की ॥ १८६॥


हरिभजन सींव स्वामी सरस श्रीनारायनदास अति ॥


भक्ति जोग जुत सुदृढ देह निजबल करि राखी ।

हिये सरूपानंद लाल जस रसना भाखी ॥


परिचै प्रचुर प्रताप जानमनि रहस सहायक ।

श्रीनारायन प्रगट मनो लोगनि सुखदायक ॥


नित सेवत संतनि सहित दाता उत्तरदेस गति ।

हरिभजन सींव स्वामी सरस श्रीनारायनदास अति ॥ १८७॥


भगवानदास श्रीसहित नित सुहृद सील सज्जन सरस ॥


भजनभाव आरूढ गूढ गुन बलित ललित जस ।

श्रोता श्रीभागवत रहसि ग्याता अच्छर रस ॥


मथुरापुरी निवास आस पद संतनि इकचित ।

श्रीजुत खोजी स्याम धाम सुखकर अनुचरहित ॥


अति गंभीर सुधीर मति हुलसत मन जाके दरस ।

भगवानदास श्रीसहित नित सुहृद सील सज्जन सरस ॥ १८८॥


भक्तपच्छ ऊदारता यह निबही कल्यान की ॥


जगन्नाथ को दास निपुन अति प्रभु मन भायो ।

परम पारषद समुझि जानि प्रिय निकट बुलायो ॥


प्रान पयानो करत नेह रघुपति सों जोर्यो ।

सुत दारा धन धाम मोह तिनका ज्यों तोर्यो ॥


कौंधनी ध्यान उर में लस्यो रामनाम मुख जानकी ।

भक्तपच्छ ऊदारता यह निबही कल्यान की ॥ १८९॥


सोदर सोभूराम के सुनौ संत तिनकी कथा ॥


संतदास सदबृत्ति जगत छोई करि डार्यो ।

महिमा महा प्रबीन भक्तिवित धर्म विचार्यो ॥


बहुर्यो माधवदास भजनबल परिचै दीनो ।

करि जोगिनि सों बाद बसन पावक प्रति लीनो ॥


परमधर्म बिस्तार हित प्रगट भए नाहिंन तथा ।

सोदर सोभूराम के सुनौ संत तिनकी कथा ॥ १९०॥


बूड़िये बिदित कान्हर कृपालु आत्माराम आगमदरसी ॥


कृष्णभक्ति को थंभ ब्रह्मकुल परम उजागर ।

छमासील गंभीर सबै लच्छन को आगर ॥


सर्बसु हरिजन जानि हृदय अनुराग प्रकासै ।

असन बसन सन्मान करत अति उज्ज्वल आसै ॥


सोभूराम प्रसाद तें कृपादृष्टि सबपर बसी ।

बूड़िये बिदित कान्हर कृपालु आत्माराम आगमदरसी ॥ १९१॥


भक्तरतनमाला सुधन गोबिँद कंठ बिकास किय ॥


रुचिरसील घननील लील रुचि सुमति सरितपति ।

बिबिध भक्त अनुरक्त ब्यक्त बहु चरित चतुर अति ॥


लघु दीरघ स्वर सुद्ध बचन अबिरुद्ध उचारन ।

बिश्वबास बिश्वास दास परिचय बिस्तारन ॥


जानि जगतहित सब गुननि सुसम नरायनदास दिय ।

भक्तरतनमाला सुधन गोबिँद कंठ बिकास किय ॥ १९२॥


भक्तेस भक्त भव तोषकर संत नृपति बासो कुँवर ॥


श्रीजुत नृपमनि जगतसिंह दृढ भक्ति परायन ।

परमप्रीति किए सुबस सील लक्ष्मीनारायन ॥


जासु सुजस सहजहीं कुटिल कलि कल्प जु घायक ।

आज्ञा अटल सुप्रगट सुभट कटकनि सुखदायक ॥


अति प्रचंड मार्तंड सम तमखंडन दोर्दंड बर ।

भक्तेस भक्त भव तोषकर संत नृपति बासो कुँवर ॥ १९३॥


गिरिधरन ग्वाल गोपाल को सखा साँच लौ संगको ॥


प्रेमी भक्त प्रसिद्ध गान अति गद्गद बानी ।

अंतर प्रभु सों प्रीति प्रगट रह नाहिंन छानी ॥


नित्य करत आमोद बिपिन तन बसन बिसारै ।

हाटक पट हित दान रीझि तत्काल उतारै ॥


मालपुरै मंगलकरन रास रच्यो रस रंगको ।

गिरिधरन ग्वाल गोपाल को सखा साँच लौ संगको ॥ १९४॥


गोपाली जनपोष को जगत जसोदा अवतरी ॥


प्रगट अंग में प्रेम नेम सों मोहन सेवा ।

कलिजुग कलुष न लग्यो दास तें कबहुँ न छेवा ॥


बानी सीतल सुखद सहज गोबिँदधुनि लागी ।

लच्छन कला गँभीर धीर संतनि अनुरागी ॥


अंतर सुद्ध सदा रहै रसिक भक्ति निज उर धरी ।

गोपाली जनपोष को जगत जसोदा अवतरी ॥ १९५॥


श्रीरामदास रस रीति सों भली भाँति सेवत भगत ॥


सीतल परम सुसील बचन कोमल मुख निकसै ।

भक्त उदित रबि देखि हृदय बारिज जिमि बिकसै ॥


अति आनँद मन उमगि संत परिचर्या करई ।

चरन धोइ दंडवत बिबिध भोजन बिस्तरई ॥


बछवन निबास बिश्वास हरि जुगल चरन उर जगमगत ।

श्रीरामदास रस रीति सों भली भाँति सेवत भगत ॥ १९६॥


बिप्र सारसुत घर जनम रामराय हरि रति करी ॥


भक्ति ग्यान बैराग्य जोग अंतर गति पाग्यो ।

काम क्रोध मद लोभ मोह मत्सर सब त्याग्यो ॥


कथा कीरतन मगन सदा आनँद रस झूल्यो ।

संत निरखि मन मुदित उदित रबि पंकज फूल्यो ॥


वैर भाव जिन द्रोह किय तासु पाग खसि भ्वैं परि ।

बिप्र सारसुत घर जनम रामराय हरि रति करी ॥ १९७॥


भगवँत मुदित उदार जस रस रसना आस्वाद किय ॥


कुंजबिहारी केलि सदा अभ्यंतर भासै ।

दंपति सहज सनेह प्रीति परिमिति परकासै ॥


अननि भजन रसरीति पुष्टिमारग करि देखी ।

बिधि निषेध बल त्यागि पागि रति हृदय विशेषी ॥


माधव सुत संमत रसिक तिलक दाम धरि सेव लिय ।

भगवँत मुदित उदार जस रस रसना आस्वाद किय ॥ १९८॥


दुर्लभ मानुषदेह को लालमती लाहो लियो ॥


गौरस्याम सों प्रीति प्रीति जमुनाकुंजन सों ।

बंसीबट सों प्रीति प्रीति ब्रजरजपुंजन सों ॥


गोकुल गुरुजन प्रीति प्रीति घन बारह बन सों ।

पुर मथुरा सों प्रीति प्रीति गिरि गोबर्धन सों ॥


बास अटल बृंदा बिपिन दृढ करि सो नागरि कियो ।

दुर्लभ मानुषदेह को लालमती लाहो लियो ॥ १९९॥


अग्र कहैं त्रैलोक में हरि उर धरैं तेई बड़े ॥


कबिजन करत बिचार बड़ो को ताहि भनिज्जै ।

कोउ कह अवनी बड़ी जगत आधार फनिज्जै ॥


सो धारी सिर शेष ताहि सिव भूषन कीनो ।

सिव आसन कैलास भुजा भरि रावन लीनो ॥


रावन जीत्यो बालि बालि राघव इक सायक दँड़े ।

अग्र कहैं त्रैलोक में हरि उर धरैं तेई बड़े ॥ २००॥


हरि सुजस प्रीति हरिदास कै त्यों भावै हरिदास जस ॥


नेह परसपर अघट निबहि चारों जुग आयो ।

अनुचर को उत्कर्ष स्याम अपने मुख गायो ॥


ओतप्रोत अनुराग प्रीति सबही जग जानै ।

पुर प्रवेस रघुवीर भृत्य कीरति जु बखानै ॥


अग्र अनुग गुन बरन तें सीतापति नित होत बस ।

हरि सुजस प्रीति हरिदास कै त्यों भावै हरिदास जस ॥ २०१॥


उत्कर्ष सुनत संतन को अचरज कोऊ जिन करौ ॥


दुर्वासा प्रति स्याम दासबसता हरि भाखी ।

ध्रुव गज पुनि प्रह्लाद राम सबरी फल साखी ॥


राजसूय जदुनाथ चरन धोय जूँठ उठाई ।

पांडव बिपति निवारि दिए बिष बिषया पाई ॥


कलि बिसेष परचौ प्रगट आस्तिक ह्वै कै चित धरौ ।

उत्कर्ष सुनत संतन को अचरज कोऊ जिन करौ ॥ २०२॥


पादप पेढ़िं सींचते पावै अँग अँग पोष ।

पूरबजा ज्यों बरन तें सुनि मानियो सँतोष ॥ २०३॥


भक्त जिते भूलोक में कथे कौन पै जाय ।

समुँदपान श्रद्धा करै कहँ चिरि पेट समाय ॥ २०४॥


श्रीमूरति सब वैष्णव लघु बड़् गुननि अगाध ।

आगे पीछे बरन तें जिनि मानौ अपराध ॥ २०५॥


फल की शोभा लाभ तरु तरु शोभा फल होय ।

गुरू शिष्य की कीर्ति में अचरज नाहीं कोय ॥ २०६॥


चारि जुगन में भगत जे तिनके पद की धूरि ।

सर्वसु सिर धरि राखिहौं मेरी जीवन मूरि ॥ २०७॥


जग कीरति मंगल उदय तीनों ताप नशाय ।

हरिजन के गुन बरन तें हरि हृदि अटल बसाय ॥ २०८॥


हरिजन के गुन बरनते (जो) करै असूया आय ।

इहाँ उदर बाढाइ बिथा अरु परलोक नसाय ॥ २०९॥


(जो) हरिप्रापति की आस है तो हरिजन गुन गाव ।

नतरु सुकृत भुँजे बीज लौं जनम जनम पछिताव ॥ २१०॥


भक्तदाम संग्रह करैं कथन श्रवन अनुमोद ।

सो प्रभु प्यारो पुत्र ज्यों बैठे हरि की गोद ॥ २११॥


अच्युतकुल जस इक बेरहूँ जिनकी मति अनुरागि ।

तिनकी भगति सुकृत में निश्चै होय बिभागि ॥ २१२॥


भक्तदाम जिन जिन कहे तिनकी जूँठनि पाय ।

मो मति सार अच्छर द्वै कीनौं सिलौ बनाय ॥ २१३॥


काहू के बल जोग जग कुल करनी की आस ।

भक्तनाममाला अगर (उर) बसौ नरायनदास ॥ २१४॥


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