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वेद

 वेद 



भारत में आर्यों के इतिहास की चर्चा से पूर्व उनके साहित्य — वेदों का संक्षेप में उल्लेख करना उचित होगा, क्योंकि आर्यों के सम्बन्ध में हमारी सारी जानकारी का आधार वे ही हैं। इसके सिवा और भी अनेक मुख्य कारण हैं, जिन के कारण वेदों को मुख्य स्थान दिया जाना चाहिए। वेद न केवल भारतीय आर्यों के वरन हिन्द–जर्मन नाम से पुकारे जाने वाले समस्त आर्य–समूह के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं। इस प्रकार समस्त विश्व–साहित्य में उनका अपना विशिष्ट स्थान है। इसके अतिरिक्त ३००० वर्ष से भी अधिक समय से वेदों को लाखों करोड़ों हिन्दू अपौरुषेय अर्थात ईश्वर–वाक्य मानते चले आ रहे हैं। निरन्तर परिवर्तन और विकास होते रहे, पर सदा ही हिन्दू संस्कृति एवं धर्म के आधार वेद ही रहे हैं।


’वेद’ शब्द का अर्थ ’ज्ञान’, ’महत ज्ञान’ अर्थात ’पवित्र और आध्यात्मिक ज्ञान’ है। वह न तो कुरान की तरह किसी एक व्यक्ति की साहित्यिक कृति है और न बाइबिल अथवा त्रिपिटक की तरह किसी एक काल में कुछ निश्चित पुस्तकों से इनका संकलन किया गया है। वह तो ऐसा साहित्य–भंडार है जो अनेक शताब्दियों के बीच विकसित हुआ है और जिसे पीढ़ी दर पीढ़ी लोग कण्टस्थ कर सुरक्षित रखते आए हैं। इसके अन्तर्गत तीन प्रकार की साहितत्यिक रचनाएँ आती हैं। इनके प्रत्येक वर्ग में अनेक स्वतन्त्र पुस्तकें हैं, जिनमें से कुछ का अस्तित्त्व तो अब भी है, परन्तु कुछ लुप्त हो चुकी हैं।ये तीन वर्ग इस प्रकार हैं:


संहिता अथवा मंत्र—जैसा कि नाम से प्रकट होता है, इस साहित्य में मंत्रों, प्राथनाओं, वशीकरणों, प्रार्थना–विधियों और यज्ञ–विधियों का संग्रह है।

ब्राह्मण–ग्रन्थ—वे विशाल गद्य–ग्रन्थ हैं जिनमें मंत्रों के अर्थों पर विचार किया गया है, उनके प्रयोग का विधान बताया गया है, यज्ञ–विधान से सम्बन्धित उनकी उत्त्पत्ति की कहानियाँ कही गयी हैं और यज्ञों का गुप्त रहस्य प्रकट किया गया है। संक्षेप में, इनमें एक प्रकार से ब्राह्मणों का आदिम धर्म और दर्शन सुरक्षित है।

आरण्यक और उपनिषद—इनमें से कुछ तो ब्राह्मणों में ही निहित हैं अथवा उनसे सम्बद्ध और कुछ स्वतन्त्र रचना के रूप में पाए जाते हैं। इनमें आत्मा,परमात्मा,संसार और मनुष्य-सम्बन्धी ऋषि–मुनियों के दार्शनिक विचार आबद्ध हैं।

विभिन्न सम्प्रदायों के पुरोहितों और सूतों में बहुसंख्यक संहिताएँ प्रचलित रही होंगी। किन्तु अधिकांश एक ही संहिता के विभिन्न पाठ हैं। तथापि चार ऐसी संहिताएँ हैं जो एक–दूसरे से भिन्न हैं और जिनमें से प्रत्येक के अनेक पाठ हमें प्राप्त हैं।


ऋग्वेद संहिता: मंत्रों का संग्रह

अथर्ववेद संहिता: जादू और मानसहरणों का संग्रह।

सामवेद संहिता: गेय पदों का संग्रह जिनमें अधिकांश मंत्र ऋग्वेद के ही हैं।

यजुर्वेद संहिता: यज्ञ–विधियों का संग्रह (इस संग्रह के दो स्पष्ट भेद हैं: कृष्ण यजुर्वेद और शुक्ल यजुर्वेद।)

ये चारों संहिताएँ चार भिन्न वेदों के आधार हैं तथा वैदिक साहित्य के दूसरे तथा तीसरे वर्ग की प्रत्येक प्रकार की रचनाओं—अर्थात ब्राह्मण, आरण्यक, और उपनिषदों—में से ही एक का, इनमें से किसी न किसी संहिता के साथ सम्बन्ध है और वह उस विशेष वेद की सम्बद्ध रचना मानी जाती है। इस प्रकार ऋग्वेद की न केवल अपनी संहितायें हैं वरन ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद भी हैं। यही बात अन्य तीन वेदों के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। इस विस्तृत साहित्य की प्रत्येक रचना वेद की श्रेणी में गिनी जाती है और उनके कर्ता ऋषि कहे जाते हैं। कभी–कभी इन ऋषियों के नाम से किसी एक व्यक्ति का तात्पर्य न होकर वर्ग से होता है, यथा विश्वामित्र की कही जाने वाली ऋचाएँ सम्भवतः उस नाम के किसी एक ही व्यक्ति द्वारा न रची जाकर उस परिवार अथवा सम्प्रदाय के विभिन्न व्यक्तियों द्वारा रची गयीं। यहाँ एक बात उल्लेखनीय है कि ऋचाओं के रचयिताओं में स्त्रियाँ और निम्नतम वर्ग के लोगों के भी नाम मिलते हैं।


वैदिक साहित्य के रचयिता: यद्यपि ये ऋचाएँ ऋषि–प्रणीत हैं किन्तु धार्मिक हिन्दू उनकी उत्पत्ति दैवी मानने पर ज़ोर देते हैं। उनका कहना है कि इन ऋचाओं की रचना ऋषियों ने नहीं की; वरन उनके माध्यम से वे प्रकट हुई हैं। इस प्रकार वेद अपौरुषेय और नित्य कहे जाते हैं और जिन ऋषियों के नाम से वे ज्ञात हैं वे मन्त्रद्रष्टा कहे जाते हैं अर्थात जिन्होंने स्वयं परमात्मा से मन्त्रों को देखा। वेदों की पवित्रता–सम्बन्धी ये विचार हिन्दू धर्म के मूलभूत सिद्धान्त रहे हैं। जो धार्मिक सम्प्रदाय इस बात को नहीं मानता उसके लिये हिन्दू धर्म में कोई जायज़ स्थान नहीं है।


वेद नाम से पुकारे जाने वाले उपर्युक्त अपौरुषेय साहित्य के अतिरिक्त वैदिक साहित्य का एक अन्य अंग भी है, जो सूत्र अथवा वेदांग कहलाता है। उसे वेदों की बराबरी इसलिये प्राप्त नहीं है क्योंकि वह मानवरचित है।


वेदांग: वेदांग छ: हैं जिनका तात्पर्य ६ पुस्तकों से न होकर छ: विषयों से है। उनका अध्ययन वेदों के पठन, मनन और यज्ञीय विधान के लिये आवश्यक समझा जाता था। ये छ: विषय हैं—- शिक्षा (उच्चारण), छन्दस (छन्दशास्त्र), व्याकरण (शब्द–रचना), निरुक्त (शब्दों की व्याख्या), ज्योतिष और कल्प (यज्ञीय विधि–विधान)। इनमें से प्रथम दो वेदों के पढ़ने, अगले दो उनको समझने और अन्तिम दो यज्ञ में उनका उपयोग करने के लिये आवश्यक समझे जाते हैं।


इन विषयों की चर्चा आरम्भ में ब्राह्मणों और आरण्यकों में की जाती थी। पीछे इनमें से प्रत्येक विषय पर अलग–अलग पुस्तकें लिखी गयीं। वे पुस्तकें एक विशिष्ट शैली में हैं। उनमें अत्यन्त छोटे–छोटे सूत्र हैं जो अपनी सूक्ष्मता में बीजगणित के सूत्रों से मिलते–जुलते हैं। इसी कारण यह साहित्य सूत्र–साहित्य कहलाता है। इस साहित्य की रचना बहुत पीछे चलकर हुई और उसका उल्लेख आगे के एक अध्याय में किया जाएगा।


उपवेद: जो बात वेदांगों के सम्बन्ध में कही गई है, वही उपवेदों के नाम से पुकारे जाने वालें एक अन्य वर्ग के साहित्य के बारे में भी लागू है। उपवेद में आयुर्वेद, धनुर्वेद, गांधर्ववेद (संगीत), कला, वास्तुकला और अन्य समान विषय आते हैं।


वैदिक साहित्य का विस्तृत विवरण – वैदिक साहित्य का यह सामान्य परिचय देने के पश्चात अब उन महत्त्वपूर्ण स्वतन्त्र रचनाओं का संक्षिप्त परिचय दिया जाएगा जिनकी रचना आलोच्य काल में हुई थी।


ऋग्वेद


संहिताएँ: ऋग्वेद की विभिन्न संहिताओं में केवल शाकल शाखा की संहिता ही आज हमें प्राप्य है। उसमें १०२८ (कुछ लोगों के अनुसार १०१७) सूक्त हैं, जो दस मण्डलों और पुनः ८ अष्टकों में विभाजित हैं। यह संहिता वैदिक साहित्य में सबसे प्राचीन है; किन्तु निश्चय ही उनके भिन्न–भिन्न अंश विभिन्न युगों में रचे गए होंगे और बाद में एकत्र संकलित कर दिये गए होंगे। दूसरे से सातवें मण्डल तक की ऋचाएँ सबसे प्राचीन हैं और वे गृत्समद, विश्वामित्र, वामदेव, अत्रि, भरद्वाज और वसिष्ठ परिवार की रचनाएँ हैं। नवें मण्डल में ऐसी सभी ऋचाओं का संकलन है जो अन्य मण्डलों में सोम को सम्बोधित कर गायी गई हैं। पहले और दसवें मण्डल सबसे पीछे जोड़े गए हैं, किन्तु उनमें कितनी ही ऋचाएँ पुरानी हैं। संहिताओं की ऋचाएँ विभिन्न देवताओं को सम्बोधित हैं। उनके विषय क्या हैं और उनमें काव्य–सौन्दर्य कैसा है इसका नमूना अध्याय ६ के अन्त में दिये गए उदाहरणों में देखा जा सकता है। इसके अतिरिक्त इस संहिता से आर्यों के प्रारम्भिक जीवन पर भी प्रकाश पड़ता है। इसकी चर्चा छठे अध्याय में की जाएगी।

ब्राह्मण–ग्रन्थ: ऋग्वेद के दो ब्राह्मण हैं। प्रथम है ऐतरेय, जिसके बारे में अनुश्रुति है कि वह महिदास ऐतरेय की रचना है। इसमें मुख्यतः बड़े–बड़े सोमस्तवों का वर्णन तथा राज्याभिषेक के विभिन्न यज्ञीय विधानों की चर्चा है। दूसरा है कौषीतकी अथवा शांखायन ब्राह्मण, जिसमें केवल सोमयज्ञ ही नहीं अपितु अन्य अनेक यज्ञों का भी वर्णन है।

आरण्यक और उपनिषद: ऐतरेय ब्राह्मण का ऐतरेय आरण्यक है जिसमें ऐतरेय उपनिषद भी सन्निहित है। कौषीतकी ब्राह्मण में कौषीतकी आरण्यक है जिसका एक भाग कौषीतकी उपनिषद कहलाता है।

   अथर्ववेद


यह संहिता अपनी दो शाखाओं – शौनकीय और पैप्पलाद — के द्वारा हमें ज्ञात है। किन्तु पैप्पलाद अत्यन्त अपूर्ण रूप में ज्ञात है। शौनकीय शाखा की संहिता में ७३१ (कुछ लोगों के अनुसार ७६०) ऋचाएँ हैं जो २० मण्डलों में विभक्त हैं। अन्तिम दो–तीन मण्डल पीछे से जोड़े गये जान पड़ते हैं। इस संहिता में कितनी ही ऋचाएँ हैं जो ऋग्वेद में भी हैं। इसमें अधिकांशत: वशीकरण, जादू–टोना और मानसहरणों के वर्णन हैं जिनसे भूतों और शत्रुओं पर विजय पायी जा सकती है, मित्र–लाभ किया जा सकता है और भौतिक सफलताएँ प्राप्त की जा सकती हैं। इस कारण इस संहिता की गणना बहुत दिनों तक वैदिक साहित्य में नहीं होती थी। इनमें कितने ही पुराने लोकधर्म और अन्धविश्वास सुरक्षित हैं।

अथर्ववेद से सम्बद्ध ब्राह्मण वर्ग का कोई प्राचीन ग्रंथ उप्लब्ध नहीं है। गोपथ ब्राहमण को ब्राह्मण तो अवश्य कहते हैं,पर वास्तव में यह वेदांग और बहुत पीछे का ग्रंथ है।

इसके तीन उपनिषिद हैं : (१) मुण्डकोपनिषद, (२) प्रश्नोपनिषिद, (३) माण्डूक्योपनिषिद। ये तीनों ही अपेक्षाकृत पीछे की रचनाएँ हैं।

सामवेद


पुराणों में सामवेद की हज़ार शाखाओं का उल्लेख है किन्तु इनमें से केवल एक ही आज उपलब्ध है जिसकी तीन वाचनाएँ हैं। वे हैं: गुजरात की कौथुम, कर्नाटक की जैमिनीय और महाराष्ट्र की राणायनीय। इनमें उन ऋचाओं का संग्रह है जिन्हें सोमयज्ञ के समय उद्गाता गाते थे। इन ऋचाओं की संख्या १८१० है और यदि पुनरुक्तियों को छोड़ दें तो १५४९ है। किन्तु ७५ को छोड़कर शेष सभी ऋचाएँ ऋग्वेद की संहिता की हैं। ऋग्वेद में न मिलनेवाली ७५ ऋचाओं में से कुछ तो अन्य संहिताओं में और कुछ विभिन्न ब्राह्मणों अथवा कल्प–साहित्य में पाई जाती हैं। ये पाठ केवल स्वर–माधुर्य के निमित्त होते थे और सामवेद के अनुयायियों के लिये उसका ही महत्त्व था। इस प्रकार जहाँ सामवेद का महत्त्व भारतीय संगीत के इतिहास की दृष्टि से अमिट है और वह यज्ञ–विधानों के विकास पर रोचक प्रकाश डालता है वहीं साहित्य की दृष्टि से उसका मूल्य प्रायः नगण्य है।

ब्राह्मण: (१)तांड्यमहाब्राह्मण, जिसका अपर नाम पंचविंशब्राह्मण (अर्थात २५ अध्यायों वाला) भी है, प्राचीनतम ब्राह्मणों में से है और सबसे महत्त्वपूर्ण है। इसमें बहुत–सी प्राचीन अनुश्रुतियाँ संकलित हैं और उसमें व्रात्यस्तोम विधि का वर्णन है जिसके द्वारा अनार्य भी आर्य–परिवार में सम्मिलित किये जा सकते थे। (२) षड्विंश ब्राह्मण: (२६वाँ ब्राह्मण) यह पंचविंश ब्राह्मण का एक परिशिष्ट मात्र है। इसका अन्तिम भाग अद्भुत ब्राह्मण कहा जाता है और वह वेदांग साहित्य है। उसमें शकुन और अनेक आलौकिक बातों की चर्चा है।जैमिनीय ब्राह्मण: इस ग्रन्थ के सम्बन्ध में अभी बहुत ही कम जानकारी है।

आरण्यक और उपनिषद:(१) छान्दोग्योपनिषद—इसका पहला भाग एक आरण्यक मात्र है, जिसका सम्बन्ध सामवेद के ब्राह्मण — सम्भवतः तांड्य महाब्राह्म — से है।(२) जैमिनीय उपनिषद: (ब्राह्मण) यह सामवेद की जैमिनीय अथवा तलवकार शाखा का आरण्यक है और केनोपनिषद उसका एक अंश है जो तलवकार उपनिषद भी कहा जाता है।

यजुर्वेद


संहितायें: वैयाकरण पतन्जलि ने यजुर्वेद की १०१ शाखाओं का उल्लेख किया है किन्तु इस समय केवल निम्नलिखित ५ शाखाओं का ही पता है,जिनमें से प्रथम चार तो कृष्ण यजुर्वेद की हैं और अन्तिम शुक्ल यजुर्वेद की हैं।


कठ शाखा की काठक संहिता।

कपिष्ठल–कठ संहिता: इसके केवल कुछ ही स्थल उपलब्ध हैं।

मैत्रायणी शाखा की मैत्रायणी संहिता।

तैत्तिरीय शाखा की तैत्तिरीय संहिता।

वाजसनेयि संहिता: काण्व और माध्यन्दिन शाखाओं के दो भाग हैं।

शुक्ल और कृष्ण यजुर्वेद में मुख्य भेद यह है कि शुक्ल्यजुर्वेद की वाजसनेयि संहिता में केवल ऋचाएँ, सूक्त और यज्ञीय सूत्र हैं तथा कृष्णयजुर्वेद की संहिताओं में इनके अतिरिक्त गद्यभाष्य भी हैं जिसकी गणना वस्तुत: ब्राह्मणों में होनी चाहिए। ऐसा जान पड़ता है कि कृष्णयजुर्वेद पहले का है जब कि संहिता और ब्राह्मण मिले–जुले थे और बाद में चल कर ही उनको अलग–अलग करने की आवश्यकता समझी गई, जैसा कि अन्य वेदों के सम्बन्ध में सम्भवत: पहले ही किया जा चुका था।


वाजसनेयिसंहिता में ४० अध्याय हैं और लगभग २००० ऋचाएँ हैं जिनमें कितनी ही पुनरावॄत्तियाँ हैं। इनमें ऋग्वेद और अथर्ववेद की अनेक ऋचाएँ तथा गद्य में लिखे यज्ञ–विधान हैं। जिस प्रकार सामवेद संहिता में उद्गाताओं द्वारा गायी जाने ही वाली ही ऋचाएँ हैं उसी प्रकार यजुर्वेद संहिता में केवल वे पाठ हैं जिन्हें अध्वर्यु महत्त्व्पूर्ण यज्ञों के समय पढ़ते थे।


ब्राह्मण: (१) तैत्तिरीय ब्राह्मण कृष्ण यजुर्वेद का है। पहले ही कहा जा चुका है कि कृष्ण यजुर्वेद में संहिता और ब्राह्मण दोनों ही सम्मिलित हैं। अत: तैत्तिरीय ब्राह्मण में केवल वे ही अंश हैं जो पीछे से तैत्तिरीय संहिता में जोड़े गए।(२) शतपथ ब्राह्मण शुक्ल यजुर्वेद का है। वह सबसे बड़ा ही नहीं, ब्राह्मणों में सबसे महत्त्व का भी है। यह वाजसनेयि संहिता की टीका है और उसी की तरह इसकी भी काण्व और माध्यन्दिन शाखाएँ हैं। शतपथ ब्राह्मण न केवल प्राचीन भारत के यज्ञ–विधानों की जानकारी का एक महत्त्वपूर्ण साधन है वरन हमें उसमें तत्कालीन धर्म और दर्शन, विचारधारा, रहन–सहन और रीति–रिवाज़ों का भी पता चलता है।

आरण्यक और उपनिषद। (१) तैत्तिरीय आरण्यक तैत्तिरीय ब्राह्मण का ही विस्तार सा है। उसके अंतिम भाग हैं तैत्तिरीय उपनिषद और महानारायण उपनिषद। महानारायण उपनिषद तुलनात्मक दृष्टि से बहुत पीछे की रचना है।(२) शतपथ ब्राह्मण के १४वें काण्ड का पहला अध्याय वस्तुत: एक आरण्यक है और उसका अंतिम अंश सुप्रसिद्ध बृहदारण्यक उपनिषद है। (३) काठक उपनिषद कृष्ण यजुर्वेद का है। (४) ईशोपनिषद वाजसनेयि संहिता का अंतिम भाग है। (५) श्वेताश्वतरोपनिषद कृष्ण यजुर्वेद का है। (६) मैत्रायणी उपनिषद का भी सम्बन्ध कृष्ण यजुर्वेद से है किन्तु वह पीछे की रचना है।

ऋग्वेद की प्राचीनता: उपर्युक्त सभी ग्रन्थों में ऋग्वेद संहिता सबसे प्राचीन है। उसका वर्तमान रूप अन्य वैदिक संहिताओं के उन अंशों से पहले संकलित किया गया रहा होगा, जो ऋग्वेद से भिन्न हैं। इसी प्रकार साम, यजु: और अथर्ववेद की संहिताओं की रचना गद्यमय ब्राह्मण–साहित्य से पूर्व हुई होगी। किन्तु सम्भव है कि यजु: और अथर्ववेद की संहिताओं को अंतिम रूप उस समय मिला जब ब्राह्मण–ग्रन्थों का निर्माण प्रारंभ हो चुका था। इस प्रकार इन संहिताओं के सबसे बाद के भाग भी कभी–कभी ब्राह्मणों के प्राचीनतम भाग के समकालिक हो सकते हैं।


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