वैराग्य शतकं - कालमहिमानुवर्णनम् - 11
न ध्यातं पदमीश्वरस्य विधिवत्संसारविच्छित्तये
स्वर्गद्वारकपाटपाटनपटुर्धर्मोऽपि नोपार्जितः ।
नारीपीनपयोधरोरुयुगलं स्वप्नेऽपि नालिङ्गितं
मातुः केवलमेव यौवनवनच्छेदे कुठारा वयम् ।। ११ ।।
अर्थ:
हमने लोक-परलोक साधन के लिए, जन्म मरण का फंदा काटने के लिए अथवा परमपद की प्राप्ति के लिए, शास्त्रों में लिखी विधि से परमात्मा के कमल चरणों का ध्यान नहीं किया; उसकी पूजा उपासना नहीं की; सारी उम्र पेट की चिंता में बिता दी । हमने पूर्वजन्म या वर्तमान जन्म के पापों के समूल नाश करने के लिए प्रायश्चित्त नहीं किये, न जीवों को अभय किया, न दानपुण्य किया; फिर हमारे लिए स्वर्ग का द्वार कैसे खुल सकता है ? क्योंकि धर्म का सञ्चय करने से ही स्वर्ग का द्वार खुलता है । न हमने परमात्मा के पद-पंकजों का ध्यान किया, न धर्म सञ्चय किया और न स्त्री के पीनपयोधरों का स्वप्न में भी आलिङ्गन किया । मतलब यह है, न हमने संसार के मिथ्या विषय-सुख ही भोगे और न हमने मोक्ष या स्वर्ग प्राप्ति के उपाय ही किये । "दुविधा में दोनों गए, माया मिली न राम" अथवा "इधर के रहे न उधर के रहे, खुदा मिला न विसाले सनम" । हमने यों ही संसार में जन्म लेकर अपनी माता की जवानी और नाश की ! अगर हम जैसे निकम्मे न पैदा होते तो बेचारी की जवानी की रेढ़ तो न होती ।
भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्तास्तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः ।
कालो न यातो वयमेव यातास्तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ।। १२ ।।
विषयों को हमने नहीं भोगा, किन्तु विषयों ने
हमारा ही भुगतान कर दिया; हमने तप को नहीं तपा किन्तु तप ने
हमें ही तपा डाला; काल का खात्मा न हुआ, किन्तु हमारा ही खात्मा हो चला । तृष्णा का बुढ़ापा न आया, किन्तु हमारा ही बुढ़ापा आ गया ।
ऐसी ही बात उस्ताद ज़ौक़ ने कही है -
दुनिया से ज़ौक़ ! रिश्तए उल्फत को तोड़ दे ।
जिस सर का है यह बाल, उसी सर में जोड़ दे।।
पर ज़ौक़ न छोड़ेगा इस पीरा जाल को।
यह पीरा जाल, गर तुझे चाहे तो छोड़ दे।।
वैराग्य शतकं - तृष्णादूषणं - 13
क्षान्तम् न क्षमया ग्रहोचितसुखं त्यक्तं न सन्तोषतः
सोढा दुःसहशीतवाततपनक्लेशा न तप्तम् तपः।
ध्यातं वित्तमहर्निशं नियमितप्राणैर्न शम्भोः पदम्
तत्तत्कर्म कृतम्य यदेव मुनिभिस्तैस्तैः फलैर्वचितम् ।। १३ ।।
अर्थ:
आपके घर में कंगाली और मुहताजी का राज है । आप स्त्री
और बच्चों का पालन नहीं कर सकते । इसलिए स्त्री आपको नफरत की नजर से देखती है । यह
सब देखकर आपके दिल में वैराग्य पैदा हुआ है । यह नीचे दर्जे का वैराग्य है ।
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वैराग्य शतकं - तृष्णादूषणं - 14
वलीभिर्मुखमाक्रान्तं पलितैरङ्कितं शिरः।
गात्राणि शिथिलायन्ते तृष्णैका तरुणायते।। १४ ।।
अर्थ:
आज सारा संसार तृष्णा के फेरे में पड़ा हुआ है । अमीर और गरीब, सभी इसके बन्धन में बन्धे हैं । गरीब की अपेक्षा धनियों को तृष्णा बहुत है । धनी हमेशा निन्यानवे के फेरे में लगे रहते हैं । ९९ होने पर १०० करने की फ़िक्र लगी रहती है । १००० होने पर १०,००० की, १० हज़ार होने पर लाख की, लाख होने पर करोड़ की और करोड़ होने पर अरब-ख़रब की तृष्णा लगी रहती है । इसी फेर में मनुष्य रोगी और बूढा हो जाता है पर तृष्णा न रोगिणी होती है और न बूढी ।
शंकराचार्य कृत प्रश्नोत्तरमाला में लिखा है -
बद्धो हि को यो विषयानुरागी ।
का वा विमुक्तिर्विषयेनुरक्तिः ।।
को वास्ति घोरो नरकस्स्वदेहस्तृष्णाक्षयस्स्वर्गपदं किमस्ति ?
बन्धन में कौन है? विषयानुरागी।
विमुक्ति क्या है? विषयों का त्याग।
घोर नरक क्या है? अपना शरीर।
स्वर्ग क्या है? तृष्णा का नाश।
कामानां हृदये वासः संसार इति कीर्तितः ।
तेषां सर्वात्मना नाशो मोक्ष उक्तो मनीषिभिः ।।
चर्पटपञ्जरिका स्तोत्रं से -
अङ्गम् गलितं पलितं मुण्डम दशनविहीनं जातं तुण्डं ।
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुञ्चत्याशापिण्डम ।।
अंग शिथिल हो रहे हैं, सर गंजा हो गया है, मुँह से दांत गिर चुके हैं, चलने के लिए लाठी का सहारा लेना पड़ता है, फिर भी आशाएं पीछा नहीं छोड़ रहीं ।
दोहा
सेत चिकुर तन दशन बिन, बदन भयो ज्यों कूप ।
गात सबै शिथिलित भये, तृष्णा तरुण स्वरुप ।।
येनैवाम्बरखण्डेन संवीतो निशि चन्द्रमाः।
तेनैव च दिवा भानु्रहो दौर्गत्यमेतयो:।। १५ ।।
अर्थ:
आकाश के जिस टुकड़े को ओढ़कर चन्द्रमा रात बिताता है, उसी को ओढ़कर सूर्य
दिन बिताता है । इन दोनों की कैसी दुर्गति होती है !
आकाश के जिस हिस्से को, रात के समय चन्द्रमा तय करता है, उसी को दिन में सूर्य तय करता है । सूरज और चाँद, ज्योतिष में सबसे बड़े हैं । जब ऐसे ऐसों की ऐसी दुर्गति होती है, कि बेचारों को रात दिन इधर से उधर और उधर से इधर चक्कर लगाने पड़ते हैं और परिणाम में कोई फल भी नहीं मिलता; तब हमारी आपकी कौन गिनती है ? जब ये पराधीनता की बेड़ियों में जकड़े हुए हैं, इन्हें ज़रा सी भी आज़ादी नहीं है, एक दिन क्या - एक क्षण भी ये अपनी इच्छानुसार आराम नहीं कर सकते, तब इतर छोटे प्राणियों की क्या बात हैं ?
शिक्षा: बड़ों की दुर्दशा देखकर छोटो को अपनी विपत्ति पर रोना-कलपना नहीं, बल्कि सन्तोष करना चाहिए । संसार में कोई भी सुखी नहीं है ।
दोहा:
इक अम्बर के टूक कों, निशि में ओढ़त चन्द।
दिन में ओढ़त ताहि रवि, तू कत करात छछन्द।।
अवश्यं यातारश्चिरतरमुषित्वाऽपि विषया
वियोगे को भेदस्त्यजति न जनो यत्स्वयममून् ।
व्रजन्तः स्वातन्त्र्यादतुलपरितापाय मनसः
स्वयं त्यक्त्वा ह्येते शमसुखमनन्तं विदधति ।। १६ ।।
अर्थ:
विषयों को हम चाहें कितने दिन तक क्यों न भोगें, एक दिन वे निश्चय
ही हम से अलग हो जायेंगे; तब मनुष्य उन्हें स्वयं अपनी इच्छा
से ही क्यों न छोड़ दे? इस जुदाई में क्या फर्क है ? अगर वह न छोड़ेगा तो, वे छोड़ देंगे । जब वे स्वयं
मनुष्य को छोड़ेंगे, तब उसे बड़ा दुःख और मनःक्लेश होगा । अगर
मनुष्य उन्हें स्वयं छोड़ देगा, तो उसे अनन्त सुख और शान्ति
प्राप्त होगी ।
जो लोग विषयों को पहले ही त्याग देते हैं, उन्हें उनके न होने पर दुःख नहीं होता; किन्तु जो उन्हें नहीं छोड़ते, उन्हें उनके न होने पर महाकष्ट होता है । जो बुद्धिमान पहले से ही धन दौलत स्त्री-पुरुष आदि से मोह हटा लेते हैं, उन्हें मरते समय कष्ट नहीं होता । जो उनमें अपना मन लगाए रहते हैं, वे मरते समय रोते हैं, पर ज़बान बंद हो जाने से अपने मन की बात बता नहीं सकते । इसलिए जो सुख से मरना चाहें, उन्हें पहले से ही विषयों से मुख मोड़ लेना चाहिए । इसी तरह, जो आज नाना प्रकार के सुख भोग रहा है, यदि कल उसे वे सुख न मिलें, तो वह बड़ा दुखी होता है; किन्तु जो विषयों को भोगते तो हैं, किन्तु उनमें आसक्ति नहीं रखते, उन्हें विषय सुखों के न मिलने या उनसे बिछुड़ने पर ज़रा भी कष्ट नहीं होता ।
विवेकव्याकोशे विदधति शमे शाम्यति तृषा-
परिष्वङ्गे तुङ्गे प्रसरतितरां सा परिणतिः।
जराजीर्णैश्वर्यग्रसनगहनाक्षेपकृपणस्तृषापात्रं
यस्यां भवति मरुतामप्यधिपतिः ।। १७ ।।
अर्थ:
तृष्णा-मूल नसाय होये जब ज्ञान उदय मन।
भये विषय में लीं बढे दिन-पर-दिन चौगुन।
जैसे मुग्धा-नार कठिन कुच हाथ लगावत।
बढ़त काममद अधिक अधिक तब में सरसावत।
जराजीर्ण ऐश्वर्य को त्यागत लागत दुःख अति।
तोहि तजिबे को असमर्थ यह वासव जो है वायुपति।।
कृशः काणः खञ्जः श्रवणरहितः पुच्छविकलो
ब्रणी पूयल्किन्नः कृमिकुलशतैरावृततनुः ।
क्षुधाक्षामो जीर्णः पिठरजककपालार्पितगलः
शुनीमन्वेति श्वा हतमपि च हन्त्येव मदनः।। १८ ।।
अर्थ:
जिस कुत्ते की ऐसी बुरी हालत है, वह कुत्ता भी मैथुन करने के लिए कुतिया के पीछे पीछे दौड़ता है; तब मोटे-ताजे, मावा-मलाई और मिष्टान्न खाने वाले अपनी कामवासना को कैसे रोक सकते हैं ? इसी से बचने के लिए, ज्ञानी लोग अपनी देह को एकदम गला देते हैं, तरह तरह के व्रत और उपवास करते हैं, धूनी तपते हैं और शीत लहर सहते हैं । कामदेव बड़ा बलवान है । जो उसके काबू में नहीं आते, वे सबसे बलवान और सच्चे योद्धा हैं । वे भीष्म और अर्जुन हैं ।
भिक्षासनं तदपि नीरसमेकवारं
शय्या च भूः परिजनो निजदेहमात्रं।
वस्त्रं च जीर्णशतखण्डसलीनकन्था
हा हा तथाऽपि विषया न परित्यजन्ति।। १९ ।।
अर्थ:
विश्वामित्रपराशरप्रभृतयो वाताम्बुपर्णाशना-
स्तेऽपि स्त्रीमुखपड़्कजं सुललितं दृष्ट्वैव मोहंगताः?
शाल्यन्नं सघृतं पयोदधियुतं ये भुञ्जते मानवा-
स्तेषामिन्द्रियनिग्रहो यदि भवेद्विन्ध्यस्तरेत्सागरे।।
"आत्मपुराण" में लिखा है :
कामेन विजितो ब्रह्मा, कामेन विजितो हरिः ।
कामेन विजितः शम्भुः, शक्रः कामेन निर्जितः।।
कामदेव ने ब्रह्मा, विष्णु, शिव और इन्द्र को जीत लिया ।
एक बूढा तपस्वी किसी मन्दिर में अकेला रहता था । वह
पूरा जितेन्द्रिय था । दैवात एक युवती उस मन्दिर के सामने से निकली । तपस्वी मुग्ध
हो गया और उसके पीछे हो लिया । जब वह अपने घर पहुंची, तब ऋषि भी द्वार पर
जाकर उससे प्रार्थना करने लगा । उसने द्वार बन्द करना चाहा और ऋषि ने सिर अड़ा कर
घुसना चाहा । उसने ज़ोर से द्वार बन्द करने की चेष्टा की । इससे ऋषि का सिर कट गया
और वह वहीँ मर गया । ऐसे ऐसे बूढ़े और अभ्यासी जितेन्द्रिय पुरुष जब स्त्रियों को
देखते ही पागल हो जाते हैं, तब औरों का क्या कहना ?
यद्यपि कामदेव को काबू में करना महाकठिन है ;
तथापि कामदेव को वश में करो;
शिक्षा: विषय विष हैं। इनका त्याग ही सुख की जड़ है । जो विषयी हैं उन्हें कहीं सुख नहीं । अतः काम को जीतो । जिसने काम को जीत लिया, उसने सबको जीत लिया ।
स्तनौ मांसग्रन्थि कनकलशावित्युपमितौ
मुखं श्लेष्मागारं तदपि च शशाङ्केन तुलितम ।।
स्रबन्मूत्रक्लिन्नम् करिवरकरस्पर्द्धि जघन-
महो निन्द्यम रूपं कविजन विशेषैर्गुरु कृतं ।। २० ।।
अर्थ:
स्त्रियों के स्तन, मांस के लौंदे हैं, पर कवियों ने उन्हें सोने के कलशों की उपमा दी है । स्त्रियों का मुंह कफ का घर है, पर कवी उसे चन्द्रमा के समान बताते हैं और उनकी जांघो को, जिनमे पेशाब प्रभृति बहते रहते हैं, श्रेष्ठ हाथी की सूंड के समान कहते हैं । स्त्रियों का रूप घृणा योग्य है, पर कवियों ने उसकी कैसी तारीफ की है ।
राग सोरठ
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अनाड़ी मन ! नारी नरक का मूल ।
धिक् धिक् धिक् ! तेरे या मुख पै, मिष्टा में रह्यो तू भूल।।
कैसा भारी धोका खाया, तन पर कामिन के ललचाया।
कहें कबीर आँख से देखा, यह तो माटी का स्थूल।।
स्त्री आफतों की जड़ है
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स्त्री अनेक आपदाओं का मूल है । अनेक रूपवती स्त्रियों के कारण उनके पतियों के प्राण नष्ट हुए हैं । नूरजहां के कारण शेर अफ़ग़ान के जान मारी गयी । स्त्री के पीछे सुन्द-उपसुन्द आपस में लड़कर मर गए । स्त्री के पीछे राजा नहुष को स्वर्ग से गिरना पड़ा । स्त्री के कारण बाली मारा गया और रावण का सर्वनाश हुआ एवं शिशुपाल का सर काटा गया । स्त्री के पीछे ही भारत को ग़ारत करने वाला महाभारत हुआ । स्त्री सांप से भी भयंकर है । सांप के तो काटने से मनुष्य मरता है, स्त्री विष के सम्बन्ध से मनुष्य को बार बार जन्म लेना और मरना पड़ता है; क्योंकि मरते समय पुरुष का मन अपनी स्त्री में जरूर जाता है । मरण समय जिसकी वासना जिसमें रहती है, वह उसे अवश्य मिलता है ।
कहा है:
वासना यत्र यस्य स्यात्सतं स्वप्नशु पश्यति ।
स्वप्नवन्मरणे ज्ञेयं वासनातो वपुर्नृणां ।।
नारी कहूं कि नाहरी(सिंहनी), नख-सिख सों यह
खाये।
जल बूड़ा तो ऊबरे, भग बूड़ा बहि जाये।।
एक कनक अरु कामिनी, तजिये भगिए दूर।
हरि विच पारें अन्तरा, यम देसी मुख धूर।।
जहाँ काम तहाँ राम नहीं, राम तहाँ नहीं काम।
दोउ कबहुँ न रहें, काम राम इक ठाम।।
अविनाशी विच धार तिन, कुल कंचन अरु नार।
जो कोई इन ते बचे, सोइ उतरे पार।।
स्त्री त्यागी ही पण्डित है
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कहा है:
अधीत्य वेदशास्त्राणि, संसारे रागिणश्च ये।
तेभ्यः परो न मूर्खोऽस्ति सधर्मा श्वाश्वसूकरैः।।
जो पुरुष वेद-शास्त्रों को पढ़कर भी संसार से या स्त्री-पुरुष आदि से प्रीति रखते हैं, उनसे बढ़कर मूर्ख कौन है? क्योंकि स्त्री-पुरुष प्रभृति में तो कुत्ते, घोड़े और सूअर भी प्रेम रखते हैं ।
शुकदेव जी ने भागवत में कहा है :
मानुष्यं दुर्लभं प्राप्य, वेदशास्त्राणय
धीत्य च ।
वध्यते यदि संसारे, को विमुच्येत मानवः ?
दुर्लभ मनुष्य चोला पाकर और वेद-शास्त्र पढ़कर भी यदि मनुष्य संसार में फंसा रहे, तो फिर संसार बन्धन से छूटेगा कौन ?
कबीरदास जी कहते हैं:
काम क्रोध मद लोभ की, जब लग घट में खानि।
कहा मूर्ख कहा पण्डिता, दोनों एक समानि।।
जब तक मन में, काम, क्रोध, मद और लोभ है, तब तक पण्डित और मूर्ख दोनों समान हैं । जिसमें ये सब नहीं, वही पण्डित है और जिसमें ये सब हैं, वह मूर्ख और अज्ञानी है।
शंकराचार्य कृत "प्रश्नोत्तरमाला" में लिखा है :
शूरान्महाशूर तमोऽस्ति को वा?
मनोजवाणैर्व्यथितो न यस्तु।
प्राज्ञोऽति धीरश्च शमोऽस्ति को वा?
प्राप्तो न मोहं ललनाकाटाक्षैः।
संसार में सबसे बड़ा शूरवीर कौन है? जो काम-बाणो से पीड़ित नहीं है। प्राज्ञ, धीर और समदर्शी कौन है? जिसे स्त्री के कटाक्षों से मोह नहीं होता।
क्रमशः
महात्मा तुलसीदास जी को स्त्री से विरक्ति
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एक बार महात्मा तुलसीदास जी की स्त्री अपने पीहर चली
गयी; महात्मा
जी को आधी रात के समय स्त्री-प्रसंग की इच्छा हुई । आपकी ससुराल और आपके गाँव के
बीच में नदी पड़ती थी । आप फ़ौरन ही घर छोड़ ससुराल को चल दिए । भयंकर रात में प्रबल
वेग से बहती हुई नदी को पार कर आप ससुराल पहुँच गए । लेकिन जब घर के द्वार पर
पहुंचे तो पौली का द्वार बन्द था । अब आप मकान में चढ़ने की तरकीब सोचने लगे । इतने
में आपको एक रस्सी सी नज़र आयी, आप उसे पकड़ कर चढ़ गए और अणि
स्त्री के कमरे में जा पहुंचे । स्त्री आपको देखते ही चौकन्नी सी हो गयी । आपने
कहा - "प्यारी ! मैं तेरे लिए इस समय महाकष्ट भोग कर आया हूँ । मेरी अभिलाषा
पूर्ण कर।"
स्त्री आपको देखते ही पलंग से नीचे बैठ गयी और बोली - "हे मेरे पतिदेव ! रात कैसी भयावनी हो रही है । बादलों की गड़गड़ाहट और बिजली की कड़क से मनुष्य का ह्रदय काँप उठता है । उधर नदी चढ़ रही है । आपने अपने शरीर की परवा न कर मुझे दर्शन दिए; इसलिए मैं आपकी अनुग्रहीत हूँ । परन्तु स्वामिन ! यह तो बताइये, आप मकान में आये कैसे, क्योंकि द्वार बन्द है?" आपने कहा - "एक रस्सी लटक रही थी, उसी के सहारे मैं चढ़ आया।" स्त्री ने जाकर देखा, तो वह रस्सी नहीं, वरन एक लम्बा चौड़ा काल सर्प था । देखते ही स्त्री के सिर में चक्कर आ गया उसके मुंह से इतना ही निकला - "स्वामिन ! जितना प्रेम आपका मुझमें है, यदि इतना ही हरि में होता, तो आपका निश्चय ही बड़ा उपकार होता ।
जितना प्रेम हराम से, उतना हरि से होय।
चला जाय बैकुंठ को, पला न पकडे कोय।
कहते हैं, तुलसीदास तत्क्षण उसे गुरु कहकर वन को चले
गए ।
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