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वैराग्य शतकम् भ्रतृहरि विरचित भाग 1-2

 


वैराग्य शतकं - कालमहिमानुवर्णनम् - 11

 

न ध्यातं पदमीश्वरस्य विधिवत्संसारविच्छित्तये

स्वर्गद्वारकपाटपाटनपटुर्धर्मोऽपि नोपार्जितः ।

नारीपीनपयोधरोरुयुगलं स्वप्नेऽपि नालिङ्गितं

मातुः केवलमेव यौवनवनच्छेदे कुठारा वयम् ।। ११ ।।

अर्थ:

       हमने संसार बन्धन के काटने के लिए, यथाविधि, ईश्वर के चरणों का ध्यान नहीं किया; हमने स्वर्ग के दरवाजे खुलवाने वाले धर्म का सञ्चय भी नहीं किया और हमने स्वप्न में भी कठोर कूचों का आलिङ्गन नहीं किया । हम तो अपनी माँ के यौवन रुपी वन के काटने के लिए कुल्हाड़े ही हुए ।

     हमने लोक-परलोक साधन के लिए, जन्म मरण का फंदा काटने के लिए अथवा परमपद की प्राप्ति के लिए, शास्त्रों में लिखी विधि से परमात्मा के कमल चरणों का ध्यान नहीं किया; उसकी पूजा उपासना नहीं की; सारी उम्र पेट की चिंता में बिता दी । हमने पूर्वजन्म या वर्तमान जन्म के पापों के समूल नाश करने के लिए प्रायश्चित्त नहीं किये, न जीवों को अभय किया, न दानपुण्य किया; फिर हमारे लिए स्वर्ग का द्वार कैसे खुल सकता है ? क्योंकि धर्म का सञ्चय करने से ही स्वर्ग का द्वार खुलता है । न हमने परमात्मा के पद-पंकजों का ध्यान किया, न धर्म सञ्चय किया और न स्त्री के पीनपयोधरों का स्वप्न में भी आलिङ्गन किया । मतलब यह है, न हमने संसार के मिथ्या विषय-सुख ही भोगे और न हमने मोक्ष या स्वर्ग प्राप्ति के उपाय ही किये । "दुविधा में दोनों गए, माया मिली न राम" अथवा "इधर के रहे न उधर के रहे, खुदा मिला न विसाले सनम" । हमने यों ही संसार में जन्म लेकर अपनी माता की जवानी और नाश की ! अगर हम जैसे निकम्मे न पैदा होते तो बेचारी की जवानी की रेढ़ तो न होती ।

 वैराग्य शतकं - तृष्णादूषणं - 12

 

भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्तास्तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः ।

कालो न यातो वयमेव यातास्तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ।। १२ ।।

 अर्थ:

 

     विषयों को हमने नहीं भोगा, किन्तु विषयों ने हमारा ही भुगतान कर दिया; हमने तप को नहीं तपा किन्तु तप ने हमें ही तपा डाला; काल का खात्मा न हुआ, किन्तु हमारा ही खात्मा हो चला । तृष्णा का बुढ़ापा न आया, किन्तु हमारा ही बुढ़ापा आ गया ।

     हमने बहुत कुछ भोग भोगे, पर भोगों का अन्त न आया, हाँ हमारा अन्त आ गया । काल या समय का अन्त न आया किन्तु हमारा अन्त आ गया - हमारी उम्र पूरी हो चली । हमें जो धर्म-कार्य करने थे, वह हम न कर सके । हमने तप तो नहीं तपा, किन्तु संसारी तापों ने हमारे तई तपा डाला - संसार के जालों में फंसकर हम ही शोक-तापों से तप गए । हमारा अन्त आ पहुंचा, हम निर्बल और वृद्ध हो गए; पर तृष्णा बूढी और कमज़ोर न हुई - हमें संसार से विरक्ति न हुई ।

 

ऐसी ही बात उस्ताद ज़ौक़ ने कही है -

दुनिया से ज़ौक़ ! रिश्तए उल्फत को तोड़ दे ।

जिस सर का है यह बाल, उसी सर में जोड़ दे।।

पर ज़ौक़ न छोड़ेगा इस पीरा जाल को।

यह पीरा जाल, गर तुझे चाहे तो छोड़ दे।।

     मतलब या कि लोग दुनिया को नहीं छोड़ते, दुनिया ही उन्हें निकम्मा करके छोड़ देती है ।

 

 वैराग्य शतकं - तृष्णादूषणं - 13

क्षान्तम् न क्षमया ग्रहोचितसुखं त्यक्तं न सन्तोषतः

सोढा दुःसहशीतवाततपनक्लेशा न तप्तम् तपः।

ध्यातं वित्तमहर्निशं  नियमितप्राणैर्न  शम्भोः पदम्

तत्तत्कर्म कृतम्य यदेव मुनिभिस्तैस्तैः फलैर्वचितम् ।। १३ ।।

अर्थ:

      क्षमा तो हमने की, परन्तु धर्म के ख्याल से नहीं की । हमने घर के सुख चैन तो छोड़े पर सन्तोष से नहीं छोड़े । हमने सर्दी-गर्मी और हवा के न सह सकने योग्य दुःख तो सही; किन्तु ये सब दुःख हमने तप की गरज से नहीं, किन्तु दरिद्रता के कारन सही । हम दिन रात ध्यान में लगे तो रहे, पर धन के ध्यान में लगे रहे - हमने प्राणायाम क्रिया द्वारा शम्भू के चरणों का ध्यान नहीं किया । हमने काम तो सब मुनियों के से किये, परन्तु उनकी तरह फल हमें नहीं मिले ।

      हमनें क्षमा तो की परन्तु दया-धर्मवश नहीं की, हमारी क्षमा असमर्थता के कारण हुई; हममे सामर्थ्य नहीं थी इसलिए शांत हो गए । हमने अच्छा खाना पीना ऐश-आराम छोड़े, मजबूरी से छोड़े; अपनी भीतरी इच्छा से नहीं छोड़े । हमने उन्हें रोग प्रभृति के कारण त्यागा, पर सन्तोष से नहीं त्यागा । हमने गर्म-सर्द हवा के झोंके सही; हमने सर्दी-गर्मी सही जरूर, पर तप की गरज से नहीं, किन्तु घर में पैसा न होने की वजह से । हम सोते जागते आठ पहर, चौंसठ घडी ध्यान तो करते रहे, पर पैसे या स्त्री-पुत्रों का अथवा संसार के और झगड़ों का । हमने भोलानाथ के कमल चरणों का ध्यान नहीं किया । सारांश यह ! हमने मुनियों की तरह विषय-सुख त्यागे, उनकी तरह सर्दी-गर्मी के दुस्सह कष्ट भी उठाये, उनकी तरह हम ध्यान मग्न भी रहे - पर वे जिस तरह सामर्थ्य होते भी शांत होते हैं - सन्तोष के साथ विषय-सुखों से मुंह मोड़ लेते हैं - शिव का ही ध्यान करते हैं, उस तरह हमने नहीं किया; इसी से हम उन फलों से वञ्चित रहे, जिनको वे लोग प्राप्त करते हैं ।

 दरिद्रावस्था में वैराग्य

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    आपके घर में कंगाली और मुहताजी का राज है । आप स्त्री और बच्चों का पालन नहीं कर सकते । इसलिए स्त्री आपको नफरत की नजर से देखती है । यह सब देखकर आपके दिल में वैराग्य पैदा हुआ है । यह नीचे दर्जे का वैराग्य है ।

    सुखैश्वर्य में वैराग्य

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    आपका अन्तः करण शुद्ध हो गया है; अतः आप धनैश्वर्य और पुत्रकलत्रादि को त्यागकर वन को जा रहे हैं । आप कहते हैं, "अब मुझे विषय सुख अच्छे नहीं लगते । मैं वन जाकर जगदीश का भजन करूँगा ।" यही वैराग्य उत्तम वैराग्य है और ऐसे नररत्न प्रशंसा के पात्र हैं ।

 

वैराग्य शतकं - तृष्णादूषणं - 14

वलीभिर्मुखमाक्रान्तं पलितैरङ्कितं शिरः।

गात्राणि शिथिलायन्ते तृष्णैका तरुणायते।। १४ ।।

अर्थ:

       चेहरे पर झुर्रियां पड़ गयी, सर के बाल पककर सफ़ेद हो गए, सारे अंग ढीले हो गए - पर तृष्णा तो तरुण होती जाती है ।

      महात्मा सुन्दरदास जी कहते हैं -

 नैननकी पलही में पल के, क्षण आधि घरी घरी घटिका जो गई है ।

 जाम गयो जुग जाम गयो, पुनि सांझ गयी तब रात भई है ।

 आज गयी अरु काल गई, परसों तरसों कुछ और ठई है ।

 सुन्दर ऐसे ही आयु गई, तृष्णा दिन ही दिन होत नई है ।

 

   आज सारा संसार तृष्णा के फेरे में पड़ा हुआ है । अमीर और गरीब, सभी इसके बन्धन में बन्धे हैं । गरीब की अपेक्षा धनियों को तृष्णा बहुत है । धनी हमेशा निन्यानवे के फेरे में लगे रहते हैं । ९९ होने पर १०० करने की फ़िक्र लगी रहती है । १००० होने पर १०,००० की, १० हज़ार होने पर लाख की, लाख होने पर करोड़ की और करोड़ होने पर अरब-ख़रब की तृष्णा लगी रहती है । इसी फेर में मनुष्य रोगी और बूढा हो जाता है पर तृष्णा न रोगिणी होती है और न बूढी ।

    सुभाषितावली में लिखा है -

 यौवनं जरया ग्रस्तमारोग्यं व्याधिभिर्हतं।

 जीवितं मृत्युरभ्येति तृष्णैका निरुपद्रवा।।

    जवानी बुढ़ापे से, आरोग्यता व्याधियों से और जीवन मृत्यु से ग्रसित है; पर तृष्णा को किसी उपद्रव का डर नहीं ।

 

शंकराचार्य कृत प्रश्नोत्तरमाला में लिखा है -

 

बद्धो हि को यो विषयानुरागी ।

का वा विमुक्तिर्विषयेनुरक्तिः ।।

को वास्ति घोरो नरकस्स्वदेहस्तृष्णाक्षयस्स्वर्गपदं किमस्ति ?

 

बन्धन में कौन है? विषयानुरागी।

विमुक्ति क्या है? विषयों का त्याग।

घोर नरक क्या है? अपना शरीर।

स्वर्ग क्या है? तृष्णा का नाश।

 और भी किसी ने कहा है -

कामानां हृदये वासः संसार इति कीर्तितः ।

तेषां सर्वात्मना नाशो मोक्ष उक्तो मनीषिभिः ।।

     हृदय में कामनाओं का निवास है, उसी को 'संसार' कहते हैं और उनके सब तरह से नाश हो जाने को 'मोक्ष' कहते हैं ।

 

चर्पटपञ्जरिका स्तोत्रं से -

 

अङ्गम् गलितं पलितं मुण्डम दशनविहीनं जातं तुण्डं ।

वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुञ्चत्याशापिण्डम ।।

   अंग शिथिल हो रहे हैं, सर गंजा  हो गया है, मुँह से दांत गिर चुके हैं, चलने के लिए लाठी का सहारा लेना पड़ता है, फिर भी आशाएं पीछा नहीं छोड़ रहीं ।

दोहा

 

सेत चिकुर तन दशन बिन, बदन भयो ज्यों कूप ।

गात सबै शिथिलित भये, तृष्णा तरुण स्वरुप ।।


येनैवाम्बरखण्डेन संवीतो निशि चन्द्रमाः।

तेनैव च दिवा भानु्रहो दौर्गत्यमेतयो:।। १५ ।।

अर्थ:

 

     आकाश के जिस टुकड़े को ओढ़कर चन्द्रमा रात बिताता है, उसी को ओढ़कर सूर्य दिन बिताता है । इन दोनों की कैसी दुर्गति होती है !

 

     आकाश के जिस हिस्से को, रात के समय चन्द्रमा तय करता है, उसी को दिन में सूर्य तय करता है । सूरज और चाँद, ज्योतिष में सबसे बड़े हैं । जब ऐसे ऐसों की ऐसी दुर्गति होती है, कि बेचारों को रात दिन इधर से उधर और उधर से इधर चक्कर लगाने पड़ते हैं और परिणाम में कोई फल भी नहीं मिलता; तब हमारी आपकी कौन गिनती है ? जब ये पराधीनता की बेड़ियों में जकड़े हुए हैं, इन्हें ज़रा सी भी आज़ादी नहीं है, एक दिन क्या - एक क्षण भी ये अपनी इच्छानुसार आराम नहीं कर सकते, तब इतर छोटे प्राणियों की क्या बात हैं ?

 

शिक्षा: बड़ों की दुर्दशा देखकर छोटो को अपनी विपत्ति पर रोना-कलपना नहीं, बल्कि सन्तोष करना चाहिए । संसार में कोई भी सुखी नहीं है ।

 

दोहा:

 

इक अम्बर के टूक कों, निशि में ओढ़त चन्द।

दिन में ओढ़त ताहि रवि, तू कत करात छछन्द।।

 

अवश्यं यातारश्चिरतरमुषित्वाऽपि विषया

वियोगे को भेदस्त्यजति न जनो यत्स्वयममून् ।

व्रजन्तः स्वातन्त्र्यादतुलपरितापाय मनसः

स्वयं त्यक्त्वा ह्येते शमसुखमनन्तं विदधति ।। १६ ।।

अर्थ:

 

    विषयों को हम चाहें कितने दिन तक क्यों न भोगें, एक दिन वे निश्चय ही हम से अलग हो जायेंगे; तब मनुष्य उन्हें स्वयं अपनी इच्छा से ही क्यों न छोड़ दे? इस जुदाई में क्या फर्क है ? अगर वह न छोड़ेगा तो, वे छोड़ देंगे । जब वे स्वयं मनुष्य को छोड़ेंगे, तब उसे बड़ा दुःख और मनःक्लेश होगा । अगर मनुष्य उन्हें स्वयं छोड़ देगा, तो उसे अनन्त सुख और शान्ति प्राप्त होगी ।

 

    जो लोग विषयों को पहले ही त्याग देते हैं, उन्हें उनके न होने पर दुःख नहीं होता; किन्तु जो उन्हें नहीं छोड़ते, उन्हें उनके न होने पर महाकष्ट होता है । जो बुद्धिमान पहले से ही धन दौलत स्त्री-पुरुष आदि से मोह हटा लेते हैं, उन्हें मरते समय कष्ट नहीं होता । जो उनमें अपना मन लगाए रहते हैं, वे मरते समय रोते हैं, पर ज़बान बंद हो जाने से अपने मन की बात बता नहीं सकते । इसलिए जो सुख से मरना चाहें, उन्हें पहले से ही विषयों से मुख मोड़ लेना चाहिए । इसी तरह, जो आज नाना प्रकार के सुख भोग रहा है, यदि कल उसे वे सुख न मिलें, तो वह बड़ा दुखी होता है; किन्तु जो विषयों को भोगते तो हैं, किन्तु उनमें आसक्ति नहीं रखते, उन्हें विषय सुखों के न मिलने या उनसे बिछुड़ने पर ज़रा भी कष्ट नहीं होता ।

 

विवेकव्याकोशे विदधति शमे शाम्यति तृषा-

परिष्वङ्गे तुङ्गे प्रसरतितरां सा परिणतिः।

जराजीर्णैश्वर्यग्रसनगहनाक्षेपकृपणस्तृषापात्रं

यस्यां भवति मरुतामप्यधिपतिः ।। १७ ।।

अर्थ:

      जब ज्ञान का उदय होता है, तब शान्ति की प्राप्ति होती है । शान्ति की प्राप्ति से तृष्णा शान्त होती जाती है, किन्तु वही तृष्णा विषयों के संसर्ग से बेहद बढ़ जाती है । मतलब यह है, कि विषयों से तृष्णा कभी शान्त नहीं हो सकती । सुन्दरी के कठोर कूचों पर हाथ लगाने से काम-मद बढ़ता है, घटता नहीं । जराजीर्ण ऐश्वर्य को देवराज इन्द्र भी नहीं त्याग सकते ।

    ज्ञान से ही तृष्णा का नाश और शान्ति की प्राप्ति होती है । विषयों के भोगने से तृष्णा घटती नहीं, उलटी बढ़ती है । जो तृष्णा को त्यागते हैं, तृष्णा से नफरत करते हैं, उसे पास नहीं आने देते, उनसे तृष्णा भी दूर भागती है । देखिये, यद्यपि स्वर्ग के राज को भोगते लाखों-करोडो वर्ष बीत गए, तो भी इन्द्र स्वर्ग-राज्य को छोड़ नहीं सकता । जब इन्द्र की भी तृष्णा लाखों-करोड़ों वर्ष राज्य भोगने से शान्त नहीं होती, तब मनुष्य बेचारे किस खेत की मूली हैं ? तृष्णा पुराणी होने से बढ़ती है, घटती नहीं । हम ज्यों ज्यों विषय भोगते हैं, त्यों त्यों वे पुराने होते हैं और हमारी तृष्णा बढ़ती है । पुराने होने पर, उन्हें छोड़ने में हमें बड़ा कष्ट होता है ।

    शिक्षा: तृष्णा को शीघ्र छोड़ो । पुराणी होने से वह पापीयसी और भी बलवती हो जाएगी; फिर उसे त्यागना आपकी शक्ति से बाहर हो जायेगा । उसके नाश के लिए 'ज्ञान' का पैदा होना जरुरी है; क्योंकि उसका सच्चा मार 'ज्ञान' ही है ।

 

तृष्णा-मूल नसाय होये जब ज्ञान उदय मन।

भये विषय में लीं बढे दिन-पर-दिन चौगुन।

जैसे मुग्धा-नार कठिन कुच हाथ लगावत।

बढ़त काममद अधिक अधिक तब में सरसावत।

जराजीर्ण ऐश्वर्य को त्यागत लागत दुःख अति।

तोहि तजिबे को असमर्थ यह वासव जो है वायुपति।।

 

कृशः काणः खञ्जः श्रवणरहितः पुच्छविकलो

ब्रणी पूयल्किन्नः कृमिकुलशतैरावृततनुः ।

क्षुधाक्षामो जीर्णः पिठरजककपालार्पितगलः

शुनीमन्वेति श्वा हतमपि च हन्त्येव मदनः।। १८ ।।

अर्थ:

    दुबला काना और लंगड़ा कुत्ता, जिसके कान और पूँछ नहीं हैं, जिसके जख्मों में राध बह रही है, जिसके शरीर मेंकीड़े बिलबिला रहे हैं, जो भूखा और बूढा है, जिसके गले में हांडी का घेरा पड़ा है - कुतिया के पीछे पीछे दौड़ता है । कामदेव मरे हुए को भी मारता है ।

 

     जिस कुत्ते की ऐसी बुरी हालत है, वह कुत्ता भी मैथुन करने के लिए कुतिया के पीछे पीछे दौड़ता है; तब मोटे-ताजे, मावा-मलाई और मिष्टान्न खाने वाले अपनी कामवासना को कैसे रोक सकते हैं ? इसी से बचने के लिए, ज्ञानी लोग अपनी देह को एकदम गला देते हैं, तरह तरह के व्रत और उपवास करते हैं, धूनी तपते हैं और शीत लहर सहते हैं । कामदेव बड़ा बलवान है । जो उसके काबू में नहीं आते, वे सबसे बलवान और सच्चे योद्धा हैं । वे भीष्म और अर्जुन हैं ।

 

भिक्षासनं तदपि नीरसमेकवारं

शय्या च भूः परिजनो निजदेहमात्रं।

वस्त्रं च जीर्णशतखण्डसलीनकन्था

हा हा तथाऽपि विषया न परित्यजन्ति।। १९ ।।

अर्थ:

    वह मनुष्य जो भीख मांगकर दिन में एक समय ही नीरस अलौना अन्न खाता है, धरती पर सो रहता है, जिसका शरीर ही उसका कुटुम्बी है जो सौ थेगलियों(चीथड़ों) की गुदड़ी ओढ़ता है, आश्चर्य है कि, ऐसे मनुष्य को विषय नहीं छोड़ते !

    जो दिन भर में एक अलौना - फीका अन्न खाते हैं और वह भी मांग-मांग कर; जिनके पास सोने के लिए पलंग और गद्दे-तकिये नहीं, बेचारे पेड़ों के नीचे या खुले मैदान में घास-पात पर सो रहते हैं; जिनके नाते-रिश्तेदार कोई नहीं, उनका अपना शरीर ही उनका नातेदार है; जिनके पास पहनने को कपडे नहीं; बेचारे ऐसी गुदड़ी ओढ़ते हैं, जिसमें सैकड़ों चीथड़े लटकते हैं - ऐसे लोगों का भी विषय पीछा नहीं छोड़ते, तब धनियों का पीछा तो वे कैसे छोड़ने लगे, जहाँ उन्हें सब तरह के ऐशो-आराम मिलते हैं ? कहा है :-

 

विश्वामित्रपराशरप्रभृतयो वाताम्बुपर्णाशना-

स्तेऽपि स्त्रीमुखपड़्कजं सुललितं दृष्ट्वैव मोहंगताः?

शाल्यन्नं सघृतं पयोदधियुतं ये भुञ्जते मानवा-

स्तेषामिन्द्रियनिग्रहो यदि भवेद्विन्ध्यस्तरेत्सागरे।।

    विश्वामित्र और पराशर प्रभृति ऋषि भी - जो हवा, जल और पत्ते खाते थे - स्त्री का कमल मुख देखकर मोहित हो गए; फिर शालिचांवल, दही और घी मिला भोजन जो खाते हैं, उनकी इन्द्रियां यदि उनके वश में हो जाएँ, तो विंध्याचल पर्वत भी समुद्र में तैरने लगे । मतलब यह है कि पत्तों और जल पर गुज़र करने वाले ऋषि भी जब स्त्रियों पर मोहित हो गए, तब घी दूध खानेवालों की क्या बात है ? कामदेव का वश करना बड़ा कठिन है । पराशर ने दिन की रात कर दी और नदी को रेत में परिणत कर दिया, पर वे भी काम को वश में न कर सके। इतना ही नहीं; बड़े बड़े देवता भी काम को वश में न कर सके । स्वयं ब्रह्मा, विष्णु और महेश तक को काम ने जीत लिया ।

 

"आत्मपुराण" में लिखा है :

 

कामेन विजितो ब्रह्मा, कामेन विजितो हरिः ।

कामेन विजितः शम्भुः, शक्रः कामेन निर्जितः।।

 

कामदेव ने ब्रह्मा, विष्णु, शिव और इन्द्र को जीत लिया ।

    "पद्मपुराण" में लिखा है - शान्तनु नामक ऋषि की स्त्री का नाम अमोघ था । वह परमा सुन्दरी और पतिव्रता थी । एक दिन ब्रह्मा जी ऋषि से मिलने गए । ऋषि उस समय कहीं बाहर गए हुए थे । उस पतिव्रता ने ब्रह्मा जी को आसन बिछा कर बिठाया । ब्रह्मा जी उसका रूप देखकर मुग्ध हो गए । उनका वीर्य निकल गया; अतः वे लज्जित हो गए। इतने में ऋषि आ गए । उन्होंने वीर्य पड़ा देख स्त्री से पूछा - "यह क्या !" स्त्री ने कहा - "स्वामिन ! ब्रह्मा जी आये थे ।"  सुनकर ऋषि ने कहा - "स्त्री का दर्शन ऐसा ही है कि जिससे देवता भी धैर्य त्याग देते हैं ।"

     एक बार महादेव जी समाधिस्थ थे । वहीँ वन में मनुष्यों की सुन्दरी और युवती स्त्रियां क्रीड़ा कर रही थीं । शिवजी का मन चल गया । उन्होंने अपने तपोबल से उन्हें आकाश में ले जाकर उनसे भोग किया । अन्त में पारवती जी ने स्त्रियों को नीचे गिरा दिया और शिवजी को समाधी में लगाया ।

     विष्णु भगवान् ने जलन्धर नामक राक्षस की वृन्दा नामक पतिव्रता स्त्री से छलकर भोग किया । उसने उन्हें श्राप दिया ।

     इन्द्र ने गौतम ऋषि की स्त्री अहिल्या से छल से भोग किया और इतने में ऋषि आ गए । उन्होंने इन्द्र को देखते ही श्राप दिया । ऋषि के श्राप से इन्द्र के शरीर में भग ही भग हो गयी ।

 

एक बूढा तपस्वी किसी मन्दिर में अकेला रहता था । वह पूरा जितेन्द्रिय था । दैवात एक युवती उस मन्दिर के सामने से निकली । तपस्वी मुग्ध हो गया और उसके पीछे हो लिया । जब वह अपने घर पहुंची, तब ऋषि भी द्वार पर जाकर उससे प्रार्थना करने लगा । उसने द्वार बन्द करना चाहा और ऋषि ने सिर अड़ा कर घुसना चाहा । उसने ज़ोर से द्वार बन्द करने की चेष्टा की । इससे ऋषि का सिर कट गया और वह वहीँ मर गया । ऐसे ऐसे बूढ़े और अभ्यासी जितेन्द्रिय पुरुष जब स्त्रियों को देखते ही पागल हो जाते हैं, तब औरों का क्या कहना ?

 

यद्यपि कामदेव को काबू में करना महाकठिन है ;

तथापि कामदेव को वश में करो;

    क्योंकि स्त्री संसार बन्धन की मूल और जन्म-मरण की कारण है । स्त्री भक्ति-मुक्ति और सुख-शान्ति की नाशक है । जिनके स्त्री है, वे परमेश्वर की भक्ति नहीं कर सकते, क्योंकि उन्हें जञ्जालों से फुर्सत ही नहीं मिल सकती । यों तो सभी विषय विष के समान घातक हैं, पर स्त्री सबसे ऊपर है । जहाँ स्त्री है, वहां सभी विषय हैं । विषय दुःख और ताप के कारण हैं, अतः बुद्धिमान व्यक्ति को विषयों से बचना चाहिए । मोक्ष चाहने वालों को तो स्त्री के दर्शन भी न करने चाहिए ।

    शिक्षा: विषय विष हैं। इनका त्याग ही सुख की जड़ है । जो विषयी हैं उन्हें कहीं सुख नहीं । अतः काम को जीतो । जिसने काम को जीत लिया, उसने सबको जीत लिया ।

 

स्तनौ मांसग्रन्थि कनकलशावित्युपमितौ

मुखं श्लेष्मागारं तदपि च शशाङ्केन तुलितम ।।

स्रबन्मूत्रक्लिन्नम् करिवरकरस्पर्द्धि जघन-

महो निन्द्यम रूपं कविजन विशेषैर्गुरु कृतं ।। २० ।।

 

अर्थ:

स्त्रियों के स्तन, मांस के लौंदे हैं, पर कवियों ने उन्हें सोने के कलशों की उपमा दी है । स्त्रियों का मुंह कफ का घर है, पर कवी उसे चन्द्रमा के समान बताते हैं और उनकी जांघो को, जिनमे पेशाब प्रभृति बहते रहते हैं, श्रेष्ठ हाथी की सूंड के समान कहते हैं । स्त्रियों का रूप घृणा योग्य है, पर कवियों ने उसकी कैसी तारीफ की है ।

राग सोरठ

 

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अनाड़ी मन ! नारी नरक का मूल ।

 रंग रूप पर भय लुभाना, क्यों भूल गया हरि नाम दिवाना?

 इस धन यौवन का नाहिं ठिकाना, दो दिन में हो जाये धूल ।।

 कंचन भरे दो कलश बतावे, ताहि पकड़ आनंद मनावे।

 यह तो चमड़े की थैली है मूरख, जिन पै रह्यो तू भूल।।

 जा मुख को तू चन्दा कर माने, थूक राल वामे लिपटाने।

धिक् धिक् धिक् ! तेरे या मुख पै, मिष्टा में रह्यो तू भूल।।

कैसा भारी धोका खाया, तन पर कामिन के ललचाया।

कहें कबीर आँख से देखा, यह तो माटी का स्थूल।।

स्त्री आफतों की जड़ है

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स्त्री अनेक आपदाओं का मूल है । अनेक रूपवती स्त्रियों के कारण उनके पतियों के प्राण नष्ट हुए हैं । नूरजहां के कारण शेर अफ़ग़ान के जान मारी गयी । स्त्री के पीछे सुन्द-उपसुन्द आपस में लड़कर मर गए । स्त्री के पीछे राजा नहुष को स्वर्ग से गिरना पड़ा । स्त्री के कारण बाली मारा गया और रावण का सर्वनाश हुआ एवं शिशुपाल का सर काटा गया । स्त्री के पीछे ही भारत को ग़ारत करने वाला महाभारत हुआ । स्त्री सांप से भी भयंकर है । सांप के तो काटने से मनुष्य मरता है, स्त्री विष के सम्बन्ध से मनुष्य को बार बार जन्म लेना और मरना पड़ता है; क्योंकि मरते समय पुरुष का मन अपनी स्त्री में जरूर जाता है । मरण समय जिसकी वासना जिसमें रहती है, वह उसे अवश्य मिलता है ।

कहा है:

 

वासना यत्र यस्य स्यात्सतं स्वप्नशु पश्यति ।

स्वप्नवन्मरणे ज्ञेयं वासनातो वपुर्नृणां ।।

   जिस मनुष्यकी जहाँ वासना होती है, उसी वासनाके अनुरूप वह स्वप्न देखता है । स्वप्नके समान ही मरण होता है अर्थात्‌ वासनाके अनुरूप ही अन्तसमयमें चिन्तन होता है और उस चिन्तनके अनुसार ही मनुष्यकी गति होती है ।

   दोहा

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नारी कहूं कि नाहरी(सिंहनी), नख-सिख सों यह खाये।

जल बूड़ा तो ऊबरे, भग बूड़ा बहि जाये।।

 

एक कनक अरु कामिनी, तजिये भगिए दूर।

हरि विच पारें अन्तरा, यम देसी मुख धूर।।

जहाँ काम तहाँ राम नहीं, राम तहाँ नहीं काम।

दोउ कबहुँ न रहें, काम राम इक ठाम।।

अविनाशी विच धार तिन, कुल कंचन अरु नार।

जो कोई इन ते बचे, सोइ उतरे पार।।

 

स्त्री त्यागी ही पण्डित है

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   मनुष्यों और पशुओं में क्या भेद है ? मनुष्य खाते, सोते, डरते और स्त्री भोग करते हैं और पशु भी यही चारों काम करते हैं । पर इन दोनों में अंतर यही है कि मनुष्य को धम्मज्ञान है, पशु को नहीं । यदि मनुष्य पशुओं की तरह अज्ञानी हो, तो वह भी पशु ही है ।

 

कहा है:

 

अधीत्य वेदशास्त्राणि, संसारे रागिणश्च ये।

तेभ्यः परो न मूर्खोऽस्ति सधर्मा श्वाश्वसूकरैः।।

  जो पुरुष वेद-शास्त्रों को पढ़कर भी संसार से या स्त्री-पुरुष आदि से प्रीति रखते हैं, उनसे बढ़कर मूर्ख कौन है? क्योंकि स्त्री-पुरुष प्रभृति में तो कुत्ते, घोड़े और सूअर भी प्रेम रखते हैं ।

 

शुकदेव जी ने भागवत में कहा है :

 

मानुष्यं दुर्लभं प्राप्य, वेदशास्त्राणय धीत्य च ।

वध्यते यदि संसारे, को विमुच्येत मानवः ?

दुर्लभ मनुष्य चोला पाकर और वेद-शास्त्र पढ़कर भी यदि मनुष्य संसार में फंसा रहे, तो फिर संसार बन्धन से छूटेगा कौन ?

कबीरदास जी कहते हैं:

 

काम क्रोध मद लोभ की, जब लग घट में खानि।

कहा मूर्ख कहा पण्डिता, दोनों एक समानि।।

जब तक मन में, काम, क्रोध, मद और लोभ है, तब तक पण्डित और मूर्ख दोनों समान हैं । जिसमें ये सब नहीं, वही पण्डित है और जिसमें ये सब हैं, वह मूर्ख और अज्ञानी है।

शंकराचार्य कृत "प्रश्नोत्तरमाला" में लिखा है :

 

शूरान्महाशूर तमोऽस्ति को वा?

मनोजवाणैर्व्यथितो न यस्तु।

प्राज्ञोऽति धीरश्च शमोऽस्ति को वा?

प्राप्तो न मोहं ललनाकाटाक्षैः।

संसार में सबसे बड़ा शूरवीर कौन है? जो काम-बाणो से पीड़ित नहीं है। प्राज्ञ, धीर और समदर्शी कौन है? जिसे स्त्री के कटाक्षों से मोह नहीं होता।

क्रमशः

 

 

 

महात्मा तुलसीदास जी को स्त्री से विरक्ति

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एक बार महात्मा तुलसीदास जी की स्त्री अपने पीहर चली गयी; महात्मा जी को आधी रात के समय स्त्री-प्रसंग की इच्छा हुई । आपकी ससुराल और आपके गाँव के बीच में नदी पड़ती थी । आप फ़ौरन ही घर छोड़ ससुराल को चल दिए । भयंकर रात में प्रबल वेग से बहती हुई नदी को पार कर आप ससुराल पहुँच गए । लेकिन जब घर के द्वार पर पहुंचे तो पौली का द्वार बन्द था । अब आप मकान में चढ़ने की तरकीब सोचने लगे । इतने में आपको एक रस्सी सी नज़र आयी, आप उसे पकड़ कर चढ़ गए और अणि स्त्री के कमरे में जा पहुंचे । स्त्री आपको देखते ही चौकन्नी सी हो गयी । आपने कहा - "प्यारी ! मैं तेरे लिए इस समय महाकष्ट भोग कर आया हूँ । मेरी अभिलाषा पूर्ण कर।"

 

स्त्री आपको देखते ही पलंग से नीचे बैठ गयी और बोली - "हे मेरे पतिदेव ! रात कैसी भयावनी हो रही है । बादलों की गड़गड़ाहट और बिजली की कड़क से मनुष्य का ह्रदय काँप उठता है । उधर नदी चढ़ रही है । आपने अपने शरीर की परवा न कर मुझे दर्शन दिए; इसलिए मैं आपकी अनुग्रहीत हूँ । परन्तु स्वामिन ! यह तो बताइये, आप मकान में आये कैसे, क्योंकि द्वार बन्द है?" आपने कहा - "एक रस्सी लटक रही थी, उसी के सहारे मैं चढ़ आया।" स्त्री ने जाकर देखा, तो वह रस्सी नहीं, वरन एक लम्बा चौड़ा काल सर्प था । देखते ही स्त्री के सिर में चक्कर आ गया उसके मुंह से इतना ही निकला - "स्वामिन ! जितना प्रेम आपका मुझमें है, यदि इतना ही हरि में होता, तो आपका निश्चय ही बड़ा उपकार होता ।

 

जितना प्रेम हराम से, उतना हरि से होय।

चला जाय बैकुंठ को, पला न पकडे कोय। 

कहते हैं, तुलसीदास तत्क्षण उसे गुरु कहकर वन को चले गए ।


वैराग्य शतकम् भर्तृहरिविरचितम् -1.1

वैराग्य शतकम् भ्रतृहरि विरचित भाग-1.3

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